Friday, 7 November 2025

लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?

 “लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?”-- संदीप तोमर

(हिंदी दिवस स्पेशल )
हिंदी दिवस आते ही बधाइयाँ रेवड़ियों की तरह बंटने लगती हैं। सोशल मीडिया पर लेखक पोस्ट करता है—“मेरा नया उपन्यास प्रकाशित हुआ है, कृपया पढ़ें।” देखते ही देखते सौ-दो सौ लाइक्स आ जाते हैं। दिल, गुलाब और तालियों की इमोजियों की बौछार हो जाती है। लेकिन उन सौ-दो सौ में से दस पाठक तो छोड़िए, दो भी असली खरीदार नहीं निकलते। लाइक देने वाले अंगूठे जितनी तेजी से उठते हैं, किताब खरीदने के समय उतनी ही फुर्ती से जेब दबा ली जाती है।
कल ही एक प्रकाशक मिले। बड़े दुखी स्वर में बोले—“लेखक लोग चर्चा के लिए पांच-दस किताबें मंगा लेते हैं, चर्चा भी हो जाती है। मगर उसके बाद… एक भी ऑर्डर नहीं आता।” वही किताब अगर किसी साहित्यिक गोष्ठी में पीछे की मेज पर मुफ्त रख दी जाए तो लोग एक नहीं, दो-दो, तीन-तीन उठा ले जाते हैं। पढ़ेंगे या नहीं, ये अलग बहस है, लेकिन ‘फ्री’ का माल कौन छोड़ता है!
अब प्रकाशकों की असली सेवा सुनिए। मेरा उपन्यास एक प्रकाशक ने छापा। चार साल तक जितनी प्रतियाँ बिकीं, सब मेरे द्वारा किये प्रचार की वजह से, या मेरे नाम के प्रभाव से। प्रकाशक महाशय तो आराम से बैठकर गिनती करते रहे। आखिर मैंने तंग आकर कहा—“अगर आप बेच नहीं पा रहे तो शेष प्रतियाँ मुझे भिजवा दीजिए।” वे भी बड़े सज्जन निकले, दो किस्तों में 32 किताबें भेज दीं। मैंने सोचा, ठीक है, सौ रुपए प्रति किताब देकर हिसाब चुकता कर दूँ। पर वे तो 40% डिस्काउंट की गणना लेकर बैठ गए।
अरे भइया! मैं तो आपकी गोदाम की रद्दी बचा रहा था। फिर भी संतोष नहीं। उल्टा सलाह देने लगे—“लेखक जी, किताबों पर 20% मुनाफ़ा रखकर बेचिए।” यानी प्रकाशक तो प्रकाशक, अब लेखक को भी ठेला लगाकर किताबें बेचनी हैं।
भला लेखक किताब बेचेगा या लिखेगा? अगर व्यापार ही करना होता तो सीधे प्रिंटर को पाण्डुलिपि देकर खुद छपवाता, खुद बेचता। प्रकाशक महाशय यूँ तो हर काम का पैसा दे देंगे —डिजाइन का, प्रूफरीडिंग का, छपाई का, बाइंडिंग का—बस पाण्डुलिपि ही मुफ्त चाहिए। और ऊपर से कहते हैं—“लेखकीय प्रतियाँ हम तोहफे में दे रहे हैं।”
वाह! क्या उदारता है! जैसे वे अपनी मेहनत की कमाई से किताब बाँट रहे हों। रॉयल्टी देने की तो जैसे कृपा ही कर रहे हैं। ऐसे उदारमना प्रकाशकों की मैं हृदय से वंदना करता हूँ। आखिर हिंदी दिवस पर बधाइयाँ ही क्यों, ऐसे प्रकाशकों को तो आजीवन सम्मान मिलना चाहिए—“लेखक की जेब पर पलने का सर्वोच्च सम्मान।”
लेखक–प्रकाशक संवाद

लेखक: किताबें क्यों नहीं बिक रही हैं?
प्रकाशक: पाठक अब पीडीएफ पढ़ते हैं, किताब कौन खरीदे?
लेखक: तो फिर आपने छापी क्यों?
प्रकाशक: आप ही तो आए थे, बोले थे कि ‘मेरी पांडुलिपि जीवन बदल देगी।’ हमने सोचा—पहले हमारा ही जीवन बदल दे!
लेखक: कम-से-कम मेरी किताब का प्रचार तो कीजिए।
प्रकाशक: अरे हम क्यों करें? प्रचार तो आपका कर्तव्य है। आपने लिखा है, बेचिए भी आप।
लेखक: बेचूँ? मैं तो लेखक हूँ।
प्रकाशक: जी हाँ, मगर आजकल लेखक वही सफल है जो अपनी किताब खुद बेच सके। चाहें तो ऑनलाइन “बाय नाउ” का बटन छाती पर चिपका लें।
लेखक: तो आप क्या करेंगे?
प्रकाशक: हम? हम तो आपकी रॉयल्टी की गणना करेंगे।
लेखक: लेकिन किताब बिकी ही नहीं तो रॉयल्टी कहाँ से?
प्रकाशक (गंभीर होकर): यही तो हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है—रॉयल्टी की समस्या ही खत्म कर देते हैं।
इतना सुनकर लेखक को अचानक समझ आया—प्रकाशक असल में संत हैं। वे लेखक को ‘वैराग्य’ सिखाते हैं—“लिखो, छपवाओ, मगर उम्मीद मत रखो।”
प्रकाशक का विज्ञापन (काल्पनिक)
“हमारे यहाँ पाण्डुलिपि छपवाइए।
छपाई, बाइंडिंग, डिज़ाइन, प्रूफरीडिंग सबका पैसा दीजिए।
पांडुलिपि मुफ्त दीजिए।
प्रचार खुद कीजिए।
किताब खुद बेचिए।
रॉयल्टी के नाम पर शांति का अनुभव कीजिए।
हम सिर्फ एक सेवा मुफ्त देंगे—
आपकी उम्मीदों का अंतिम संस्कार।”
यही है हिंदी प्रकाशन का असली गणित: लेखक लिखे, प्रचार करे, बेचने की कोशिश करे; पाठक फोटो खींचकर फेसबुक पर डाले; और प्रकाशक तपस्या करे—“कैसे बिना बेचे भी सम्मान पाए।”

Thursday, 6 November 2025

लघुकथा विकास और हम रचनाकार

 


संदीप तोमर


हिंदी साहित्य में लघुकथा का इतिहास अपेक्षाकृत छोटा हैलेकिन इसकी यात्रा अत्यंत रोचक और सार्थक रही है। एक समय था जब सारिका और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं ने इसे मंच दिया। सारिका ने तो लघुकथा का विशेषांक भी प्रकाशित किया। उस दौर में लघुकथाकारों की एक नई पीढ़ी सामने आई और विधा ने अपने शैशव काल से किशोरावस्था में प्रवेश किया। यह पीढ़ी समाज में व्याप्त नैतिकतासंस्कारनारी-उत्थान और नारी-शोषण जैसे विषयों पर लिख रही थी। उस समय समाज की यही मांग थी और साहित्य उसका प्रतिबिंब प्रस्तुत करता था।

समय के साथ समाज बदलता गयातकनीक बदल गई और पाठक भी बदल गया। जिन मनीषियों ने स्वयं को समय के साथ अपडेट नहीं कियावे पीछे छूट गए। यह एक गंभीर सच्चाई है कि साहित्यकार अगर अपने समय से संवाद न करे तो वह अप्रासंगिक हो जाता है। वरिष्ठ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर कहते हैं कि रचनाकारों को समय की माँग के अनुसार स्वयं को अपडेट करना चाहिए। उनका मानना है कि बहुत से लेखक अस्सी के दशक की सोच से आगे नहीं बढ़ पाए। उनके लेखन में नवीनता का अभाव है। वहीं नई पीढ़ी के रचनाकारों ने तकनीकीराजनीतिक और सामाजिक सरोकारों को अपनी रचनाओं में शामिल कियाजिससे उनकी लघुकथाएँ सामयिक और प्रभावशाली बन सकीं।

सुरेंद्र कुमार अरोरा भी मानते हैं कि लघुकथा के विकास के लिए रचनाकार का सामयिक होना अनिवार्य है। समाज में अपराधहिंसास्त्री-विरोधी दृष्टिकोण और तकनीकी विसंगतियों जैसे मुद्दों को साहित्य से बाहर नहीं रखा जा सकता। यदि लेखक पुरानी सोच पर अड़े रहेंगे तो पाठक उन्हें स्वीकार नहीं करेगा। उदाहरण के तौर परजब बलवाई अब महिलाओं को “ईज़ी टारगेट” बनाने लगे हैंतो रचनाकार को भी इन यथार्थों को साहित्य का हिस्सा बनाना ही होगा।

स्पष्ट है कि जो स्वयं को अपडेट नहीं करेगावह लंबा नहीं टिकेगा। हाँपुराने विषयों पर आज भी लिखा जा सकता हैलेकिन अब चुनौती शिल्प और ट्रीटमेंट की है। कथा-विन्यास में नवीनता के बिना रचनाकार पाठक को न दिल से छू पाएगान ही उसके मस्तिष्क में कोलाहल पैदा कर पाएगा। पुराने विषयों को भी यदि नए अंदाज़ और संवेदना के साथ लिखा जाए तो वे पाठक के लिए सार्थक रहेंगे।

आज का पाठक पहले से कहीं अधिक जागरूक और विकल्पों से भरपूर है। मनोरंजन के असंख्य साधनों के बीच उसे आकर्षित करने के लिए लेखक को केवल कहानी नहींबल्कि प्रभावी शिल्प भी देना होगा। यदि लेखक पुरानी शैली में ही अटका रहेगा तो पाठक उसे छोड़ देगा। डिजिटल मीडिया के युग में रचनाकार को उन साधनों का उपयोग करना होगाजो साहित्य में आधुनिकता का बोध कराएँ। उदाहरण स्वरूप साहित्यानमा विद संदीप तोमर” यूट्यूब चैनल को देखा जा सकता हैजो साहित्य को डिजिटल रूप देता है। पाठक अब श्रोता भी हैऔर साहित्य ऑडियो-वीडियो के रूप में उसकी व्यस्त दिनचर्या में शामिल हो रहा है।

इसी संदर्भ में एक संस्मरण उल्लेखनीय है। नेत्रविहीन साहित्यकार श्री गोपाल सिसोदिया ने बताया कि राजस्थान यात्रा के दौरान बस में एक महिला अफ़साने साहित्य के (साहित्यानमा विद संदीप तोमर)” चैनल पर लघुकथा सुन रही थीं। आवाज पहचानकर उन्होंने कहा— “ये तो संदीप तोमर की चिर-परिचित आवाज है।” यह प्रसंग प्रमाण है कि डिजिटल युग में साहित्य के प्रचार-प्रसार का यह रूप समय की माँग है। इस चैनल के माध्यम से हम उन रचनाकारों को स्वर देते हैं जो लिखने में सक्षम हैं पर वाचन नहीं कर पाते। साहित्य अब केवल पुस्तकों तक सीमित नहींबल्कि बसमेट्रो और सफ़र की थकान में भी साथी बन रहा है।

कुछ लोग यह मानते हैं कि लेखक को अपनी रचनाओं का वाचन भी करना चाहिए। लेकिन मेरा स्पष्ट मानना है कि लेखक का काम लिखना मात्र है। जैसे फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने वाला लेखक डायलॉग बोलने या अभिनय करने नहीं उतरतावैसे ही लेखक को लेखक रहने देना चाहिए। गीतकार अगर गायक बन जाए तो गायक का स्थान कहाँ होगायही तर्क यहाँ भी लागू होता है। लेखक अपनी रचना देकर दायित्व निभा चुका हैअब वाचन का काम रेडियो या मंच के कलाकारों का है। हाँअगर लेखक स्वयं भी अच्छा वाचक है तो यह अतिरिक्त उपलब्धि हैलेकिन यह अनिवार्यता नहीं हो सकती।

दूसरी ओरसाहित्यिक दुनिया में खेमेबाजी का संकट बढ़ रहा है। औसत रचनाएँ केवल इस कारण चर्चित हो जाती हैं कि वे किसी बड़े लेखक या समीक्षक के संरक्षण में हैं। यह प्रवृत्ति न केवल साहित्य का स्तर गिराती हैबल्कि लेखक को आत्ममुग्ध बनाकर उसके विकास की राह रोक देती है। आलोचना का उद्देश्य मार्गदर्शन होना चाहिएन कि चाटुकारिता।

नई पीढ़ी के रचनाकारों ने इस बदलती वास्तविकता के अनुरूप स्वयं को ढाला है। उदाहरण स्वरूपसन्दीप तोमर ने अपनी लघुकथाओं में शहरी तनाव और अकेलेपन की मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के साथसामाजिक-पारिवारिक द्वंद्व को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। भावना शुक्ल की लघुकथाएँ स्त्री विमर्श और डिजिटल जीवन के संघर्षों को उजागर करती हैं। अनिल शूर “आजाद” और बलराम अग्रवाल पारंपरिक कथा-शिल्प में नवीन प्रयोग करते हुए सामाजिक विसंगतियों पर तीखी टिप्पणी करते हैं।

इसी क्रम में पूजा अग्निहोत्री की विषकंठ” स्त्री की जीवन-यात्रा के संवेदनशील पहलुओं को उभारती है। यह कथा पाठक को भीतर तक झकझोर देती है और स्त्री स्वतंत्रता बनाम परंपरागत नैतिकता पर सोचने को मजबूर करती है। चंदेश छतलानी की सन्नाटे में आवाज़” मौन और अकेलेपन की तीव्र अनुभूति को संक्षिप्त वाक्यों और विरामों के ज़रिए पाठक के भीतर उतार देती है। वहीं सुभाष नीरव की रचनाएँ संवेदनाओं के टकराव को सूक्ष्मता से प्रस्तुत करती है। इन तीनों रचनाकारों की रचनाएँ सिद्ध करती हैं कि लघुकथा में नवीनतासामयिकता और शैलीगत विविधता एक साथ संभव हैं।

एक समय दिल्ली में लघुकथा का बड़ा कार्यक्रम हुआलेकिन आश्चर्य कि दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले कुछ नामचीन लघुकथा-सेवक उसमें अनुपस्थित रहे। यह इत्तेफ़ाक था या अनदेखी— यह सवाल भी विचारणीय है। साहित्यिक आयोजनों का लाभ यही है कि लेखक-पाठक व साथी मिलते हैंपरन्तु खेमेबाजी और मठवाद अक्सर साहित्य-सरोकारों को पीछे धकेल देते हैं। जब औसत रचनाएँ केवल इस कारण पुरस्कृत होती हैं कि आयोजक और निर्णायक एक-दूसरे के निकट हैंतो साहित्य का अहित ही होता है। जज या समीक्षक का दायित्व होना चाहिए कि वह रचनाकार को विधागत व विषयगत त्रुटियों की ओर इंगित करेताकि लेखक सुधरे और विधा का विकास हो। इस क्रम में याद आता है- इसी कार्यक्रम में एक लेखिका की रचना पर मधुदीप अग्रवाल की टिप्पणी थी- यह बेहतरीन रचना है- इसे मैं अपने संपादन में लेता हूँ, मधुदीप से मेरा सवाल था- किसी औसत से भी कमतर रचना की तारीफ़ को एक सम्पादकीय दृष्टि की बजाय उपकार की श्रेणी में रखा जाना ज्यादा उचित होगा। सवाल यह है कि बात रचनाओं पर हो या रचनाकर के ओहदे, कद, या सौन्दर्य पर?

26 नवम्बर 2017 को इसी उद्देश्य से एक गोष्ठी का आयोजन हुआजिसमें दृष्टि के सम्पादक अशोक जैन ने अनिल शूर “आजाद” और संदीप तोमर के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा कि ऐसे भागीरथ प्रयत्न लघुकथा के इतिहास में मील का पत्थर सिद्ध होंगे। इस अवसर पर समय पर दस्तक” नामक संकलन की भी घोषणा हुईजो नवलेखन का प्रतिनिधित्व करेगा। वरिष्ठ लघुकथाकार अशोक यादव ने कहा कि पुरानी पीढ़ी का दायित्व है कि वे नवलेखन का मार्गदर्शन करें। सुरेंद्र कुमार अरोरा ने चिंता जताई कि प्रतिदिन सैकड़ों लघुकथाएँ लिखी जा रही हैंपरंतु उनमें गुणवत्ता का अभाव है। उनके अनुसार अधिक से अधिक कार्यशालाएँ और विमर्श-गोष्ठियाँ आवश्यक हैंताकि रचनाकार शिल्प और विधान पर मेहनत कर सकें।

सितम्बर 2017 में विकासपुरी में अनिल शूर “आजाद” के प्रयास से भी ऐसा आयोजन हुआ था। इसमें लघुकथा-शोधपीठपोस्टर-लघुकथाफेसबुक-लेखनमंचन और लघुकथा-विकास के विविध पहलुओं पर विस्तृत चर्चा हुई। वरिष्ठ लघुकथाकार सुभाष नीरव ने यहाँ शैली के महत्व पर कहा कि उन्होंने कहानी की शैली को लघुकथा में ढालने का प्रयोग किया और सफलता पाई। उनका मानना था कि वरिष्ठों को नयी पीढ़ी को प्रोत्साहित और मार्गदर्शन करना चाहिए।

अध्यक्षीय संबोधन में अशोक वर्मा ने सम्प्रेषण को कथ्य से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया और लघुकथा के मंचन पर बल दिया। लेकिन सबसे आवश्यक यह है कि नई पीढ़ी लगातार लेखन करेप्रायोगिक बने और मठवाद व छपास-लालसा से बचे। हाल ही में दो हज़ार रुपये लेकर संकलन में दो पन्ने देने जैसी व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ सामने आई हैं। ऐसे प्रकाशक न केवल लेखकों का शोषण कर रहे हैंबल्कि साहित्य का भी नुकसान कर रहे हैं। लेखक को समझना होगा कि संकलनों की तुलना में पत्रिकाओं की पहुँच और प्रभाव कहीं अधिक है।

पिछले दो दशकों में लघुकथाएं बहु संख्या में लिखी गयी, लघुकथा संग्रहों, साझा संकलनों की बाढ़ आई, विकलांग विमर्श, किन्नर विमर्श इत्यादि विषयों पर खूब संकलन आये। पत्रिकाओं ने लघुकथा विशेषांक निकले, लेकिन अधिकतर पुराने ढर्रे पर होने के चलते अधिक चर्चित नहीं हुए, इसकी दो वजहें हो सकती हैं- संपादकों का आसान रास्ता अख्तियार करना- यानि जो भी रचनाएँ आई- उन्हें छाप देना दूसरा आलोचकों तक उक्त कार्य का न पहुंच/ पहुंचा पाना। अभिनव इमरोज के संपादक श्री देवेन्द्र बहल के आग्रह पर मैंने नवम्बर 2024 के अंक का लघुकथा विशेषांक निकलने की जिम्मेदारी ली, जिसके लिए रचनाएँ जुटाने/ लिखवाने में मुझे चार माह से अधिक का समय लगा, लेकिन इसमें विवधता का पूरा ख्याल रखा गया, मेरी समझ से यह पहला ऐसा विशेषांक था, जिसमें  लघुकथा पर संस्मरण, यात्रा-वृतान्त, दोहे, साक्षात्कार, विमर्श पर लेखा के साथ-साथ चुपचाप लेखन कर रहे मनु स्वामी पर विस्तृत आलेख के साथ सम्पादकीय को भी लघुकथा लेख प्रक्तिया के लेख के रूप में लिखा गया। उक्त विशेषक की साल भर चर्चा इसकी सफलता का द्योतक रही।

एक समय था जब लघुकथा की समीक्षाएं मुख्य धरा की पत्रिकाओं में नहीं छपती थी, लघुकथाओं को भी फ़िलर की तरह इस्तेमाल किया जाता था, ऐसी चिंताएं अनेकों गोष्ठियों में ममता कालिया, चित्र मुद्गल सरीखी लेखिकाओंने भी व्यक्त की। मुझे इसके पीछे जो कारन समझ आया- वह ये कि रचनाकारों ने लाखुक्था अको कम समय में लिखी जाने वाली आसान विधा मान लघुकथा छोड़ चुटकुला, बोधकथा सब कुछ लिखा, और टैग लघुकथा का दिया, साथ ही लघुकथा में आलोचकों का अभाव, चार- छः लघुकथा लिखने और एक-दो संकलनों को पढने के बाद हर रचनाकार स्वयं को आलोचक मान बैठा, जिससे मित्र लेखकों की सरहना तो खूब लिखी गयी लेकिन आलोचना विधा कहीं गहरे में दब गयी। इसी बीच सुभाष नीरव का लघुकथा संग्रह “बारिश और एनी लघुकथाएं प्रकाशित हुआ, जिसमें मुझे इतना प्रभावित किया कि उसकी समीक्षा लिखने में मैंने एक माह का समय लिया, उक्त समीक्षा का प्रकाशन पाखी पत्रिका में हुआ, चर्चा ये हुई कि अब लघुकथा की समीक्षा के लिए मुख्य धारा की पत्रिकाओं के दरवाजे भी खुल गये। एक समय था जब पाखी पत्रिका के संपादक प्रेम भारद्वाज थे, उनके संपादक रहते पाखी में लघुकथाओं का प्रकाशन बंद रहा। मार्टिन जॉन ने सोशल मिडिया पर लिखा- स्नादीप तोमर के प्रयासों से पाखी जैसी पत्रिकाओं में लघुकथा समीक्षा और लघुकथा प्रकाशन का मढ़ प्रशस्त हुआ है, पाखी के अगले अंक में मार्टिन जॉन के लघुकथा संग्रह “सब खैरियत है” की मेरे द्वारा लिखी समीक्षा प्रकाशित हुई। कहा जा सकता है कि आलोचक की आस्था किसी विधा/ पुस्तक की दशा और दिशा तय करती है।

भविष्य निस्संदेह लघुकथा का है। इसकी संक्षिप्तता और तीक्ष्णता आज की व्यस्त जीवन-शैली के अनुकूल है। लेकिन इस भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए रचनाकार को प्रयोगधर्मी होना होगा। नए विषयोंनई शैलियों और नए माध्यमों को अपनाना ही पड़ेगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता और ऑडियोबुक्स जैसे साधन साहित्य की पहुँच को और व्यापक कर रहे हैं। यदि हम इस संभावना का रचनात्मक उपयोग करें तो लघुकथा को वैश्विक पाठक वर्ग तक पहुँचाया जा सकता है।

आने वाला समय वास्तव में लघुकथा का है। बशर्ते हम समय के साथ बदलेंखेमेबाजी से बचें और आलोचना को ईमानदारी से स्वीकारें। साहित्य में स्थायित्व वही रचनाएँ पा सकती हैं जो पाठक को सोचने पर विवश करें। अतः रचनाकार का मूल्यांकन उसकी रचना से होना चाहिएन कि उसके नाम से। यदि हम इस दिशा में ईमानदार बने रहेंतो लघुकथा निश्चित ही साहित्य की सबसे प्रभावशाली विधा बनकर उभरेगी।

 

Friday, 31 October 2025

कहानी लिखना – जीने और कहने के बीच की यात्रा”

 

जब मुझसे कोई पूछता है आप कहानी कैसे लिखते हैं?”

तो मैं अकसर मुस्कुरा देता हूँ। क्योंकि कहानी लिखना मेरे लिए किसी एक विधा का अभ्यास नहीं, बल्कि एक जीवन-प्रक्रिया है। असल में कहानी तब नहीं जन्म लेती जब मैं लिखने बैठता हूँ, बल्कि तब जन्म लेती है जब कोई बात, कोई चेहरा, कोई सिसकारी मेरे भीतर उतर जाती है और वहाँ से कभी जाती नहीं।

कहानी दरअसल सामने नहीं आती। जो सामने आती है, वह कहानी नहीं होती वह तो उसका रंग-रोगन किया हुआ रूप होता है। असली कहानी तो वे मुड़े-तुड़े पन्नों में छिपी रहती है जिन्हें मैं बार-बार रिजेक्ट करता हूँ। वही सच्ची कहानी होती है जहाँ मैंने ठोकर खाई, गिरा, फिर उठा, खुद से झगड़ा किया, और फिर किसी वाक्य में थोड़ी-सी रोशनी पा ली।

लेखन मेरे लिए एक अनवरत गिरने और संभलने की प्रक्रिया है। लेखक जब लिखता है तो वह सिर्फ शब्द नहीं गढ़ता, वह अपने भीतर बार-बार मरता है, और हर बार जी उठता है।
पाठक जो पढ़ता है, वह उस पुनर्जन्म की झलक मात्र है; पर लेखक जानता है कि एक पंक्ति लिखने के पीछे कितनी बार उसने अपने भीतर की चुप्पियों को तोड़ा होगा।

कई बार लगता है क्या लेखक का दर्द, उसकी टीस, उसकी व्यथा से परे कोई संसार होता भी है? शायद नहीं। क्योंकि हर पात्र, हर दृश्य में कहीं--कहीं लेखक अपनी ही छाया खोज रहा होता है।
लेकिन फिर भी कहानी आत्मकथा नहीं होती। वह सिर्फ एक चेहरा नहीं, बल्कि असंख्य चेहरों का समुच्चय होती है। कोई पात्र एक व्यक्ति नहीं होता वह समय का, समाज का, और लेखक की कल्पना का मिला-जुला रूप होता है। कभी हम पात्र को उस रूप में नहीं दिखाते जैसे वह जीवन में था हम उसे वैसा बनाते हैं जैसा उसे होना चाहिए था कभी जीवन में क्रूर पात्र कहानी में नर्म हो जाते हैं, कभी साधारण पात्रों में हम असाधारण करुणा खोज लेते हैं। यह बदलाव, यह चयन ही लेखक की सर्जना है।

कहानीकार का काम सिर्फ विवरण देना नहीं होता ब्योरे तो सिर्फ कहानी में गति लाने का माध्यम हैं। असल काम है बुननाजैसे एक बुनकर अपने करघे पर धागों को जोड़ता है, वैसे ही लेखक स्मृतियों, संवेदनाओं और विरोधाभासों के धागे जोड़ता है। एक सफल लेखक कहानी कहता नहीं है, वह उसे बुनता है नए-नए डिज़ाइन के साथ। इसी को मैं शिल्प कहता हूँ।

अच्छा शिल्पी किसी का रोजनामचा नहीं लिखता; वह साधारण पात्रों को कहानी के भीतर अमरत्व तक ले जाता है।

मेरी कहानियों में जो कुछ भी है वह मेरे अपने जीवन से आया है, पर वह मेरे बारे में नहीं है।
वह उन लोगों के बारे में है, जिन्हें मैंने देखा, सुना, महसूस किया। कभी वह मेरे मोहल्ले की कोई स्त्री रही, जो रोज़ाना खामोशी में दुनिया झेलती थी। कभी कोई शिक्षक, कोई मजदूर, कोई छोटा-सा संवाद।
वे सब मेरे भीतर धीरे-धीरे एक संसार बनाते हैं, और जब वह संसार पूरा हो जाता है मैं लिखने बैठता हूँ।
लिखना तब सहज नहीं होता यह अपने भीतर से बाहर आने की, और बाहर से भीतर लौट जाने की यात्रा होती है।

मैं कहता हूँ कहानी लिखना, जीने और कहने के बीच की एक सतत यात्रा है।

कहानी का जो रूप पाठक तक पहुँचता है, वह दरअसल चहारदीवारी के भीतर किए गए प्लास्टर और रंगीन पेंट के बाद का रूप है।

उससे पहले की जो इमारत थी जो अधूरी थी, टूटी हुई थी वही असली कहानी थी।
कभी-कभी मुझे लगता है जो कहानी मैंने नहीं लिखी, वही मेरी सबसे सच्ची कहानी थी।

और शायद यही लेखन का सौंदर्य है कि वह हमें अपूर्णता में भी पूर्णता खोजने की कला सिखाता है।


सन्दीप तोमर 

लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?

  “लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?”-- संदीप तोमर (हिंदी दिवस स्पेशल ) हिंदी दिवस आते ही बधाइयाँ रेवड़ियों की तरह बंटने लगती हैं। सोशल ...