संदीप तोमर
हिंदी साहित्य में लघुकथा का इतिहास
अपेक्षाकृत छोटा है, लेकिन इसकी यात्रा अत्यंत रोचक और सार्थक रही है। एक समय था जब सारिका और कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं ने इसे मंच दिया। सारिका ने तो
लघुकथा का विशेषांक भी प्रकाशित किया। उस दौर में लघुकथाकारों की एक नई पीढ़ी
सामने आई और विधा ने अपने शैशव काल से किशोरावस्था में प्रवेश किया। यह पीढ़ी समाज
में व्याप्त नैतिकता, संस्कार, नारी-उत्थान और नारी-शोषण जैसे विषयों पर लिख रही थी। उस समय समाज की यही मांग
थी और साहित्य उसका प्रतिबिंब प्रस्तुत करता था।
समय के साथ समाज बदलता गया, तकनीक बदल गई और पाठक भी बदल गया। जिन मनीषियों ने स्वयं को समय के साथ अपडेट
नहीं किया, वे पीछे छूट गए। यह एक गंभीर सच्चाई है कि साहित्यकार अगर अपने समय से संवाद न
करे तो वह अप्रासंगिक हो जाता है। वरिष्ठ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर कहते हैं कि
रचनाकारों को समय की माँग के अनुसार स्वयं को अपडेट करना चाहिए। उनका मानना है कि
बहुत से लेखक अस्सी के दशक की सोच से आगे नहीं बढ़ पाए। उनके लेखन में नवीनता का
अभाव है। वहीं नई पीढ़ी के रचनाकारों ने तकनीकी, राजनीतिक
और सामाजिक सरोकारों को अपनी रचनाओं में शामिल किया, जिससे
उनकी लघुकथाएँ सामयिक और प्रभावशाली बन सकीं।
सुरेंद्र कुमार अरोरा भी मानते हैं कि
लघुकथा के विकास के लिए रचनाकार का सामयिक होना अनिवार्य है। समाज में अपराध, हिंसा, स्त्री-विरोधी दृष्टिकोण और तकनीकी विसंगतियों जैसे मुद्दों को साहित्य से
बाहर नहीं रखा जा सकता। यदि लेखक पुरानी सोच पर अड़े रहेंगे तो पाठक उन्हें
स्वीकार नहीं करेगा। उदाहरण के तौर पर, जब बलवाई अब महिलाओं को “ईज़ी
टारगेट” बनाने लगे हैं, तो रचनाकार को भी इन यथार्थों को साहित्य का हिस्सा बनाना ही होगा।
स्पष्ट है कि जो स्वयं को अपडेट नहीं करेगा, वह लंबा नहीं टिकेगा। हाँ, पुराने विषयों पर आज भी लिखा जा सकता है, लेकिन अब चुनौती शिल्प और ट्रीटमेंट की है। कथा-विन्यास में नवीनता के बिना
रचनाकार पाठक को न दिल से छू पाएगा, न ही उसके मस्तिष्क में कोलाहल
पैदा कर पाएगा। पुराने विषयों को भी यदि नए अंदाज़ और संवेदना के साथ लिखा जाए तो
वे पाठक के लिए सार्थक रहेंगे।
आज का पाठक पहले से कहीं अधिक जागरूक और
विकल्पों से भरपूर है। मनोरंजन के असंख्य साधनों के बीच उसे आकर्षित करने के लिए
लेखक को केवल कहानी नहीं, बल्कि प्रभावी शिल्प भी देना होगा। यदि लेखक पुरानी शैली में ही अटका रहेगा तो
पाठक उसे छोड़ देगा। डिजिटल मीडिया के युग में रचनाकार को उन साधनों का उपयोग करना
होगा, जो साहित्य में आधुनिकता का बोध कराएँ। उदाहरण स्वरूप “साहित्यानमा विद संदीप तोमर” यूट्यूब चैनल को देखा जा सकता
है, जो साहित्य को डिजिटल रूप देता है। पाठक अब श्रोता भी है, और साहित्य ऑडियो-वीडियो के रूप में उसकी व्यस्त दिनचर्या में शामिल हो रहा
है।
इसी संदर्भ में एक संस्मरण उल्लेखनीय है।
नेत्रविहीन साहित्यकार श्री गोपाल सिसोदिया ने बताया कि राजस्थान यात्रा के दौरान
बस में एक महिला “अफ़साने साहित्य के (साहित्यानमा विद संदीप तोमर)” चैनल
पर लघुकथा सुन रही थीं। आवाज पहचानकर उन्होंने कहा— “ये तो संदीप तोमर की
चिर-परिचित आवाज है।” यह प्रसंग प्रमाण है कि डिजिटल युग में साहित्य के
प्रचार-प्रसार का यह रूप समय की माँग है। इस चैनल के माध्यम से हम उन रचनाकारों को
स्वर देते हैं जो लिखने में सक्षम हैं पर वाचन नहीं कर पाते। साहित्य अब केवल
पुस्तकों तक सीमित नहीं, बल्कि बस, मेट्रो और सफ़र की थकान में भी साथी बन रहा है।
कुछ लोग यह मानते हैं कि लेखक को अपनी
रचनाओं का वाचन भी करना चाहिए। लेकिन मेरा स्पष्ट मानना है कि लेखक का काम लिखना मात्र
है। जैसे फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने वाला लेखक डायलॉग बोलने या अभिनय करने नहीं
उतरता, वैसे ही लेखक को लेखक रहने देना चाहिए। गीतकार अगर गायक बन जाए तो गायक का
स्थान कहाँ होगा? यही तर्क यहाँ भी लागू होता है। लेखक अपनी रचना देकर दायित्व निभा चुका है, अब वाचन का काम रेडियो या मंच के कलाकारों का है। हाँ, अगर लेखक स्वयं भी अच्छा वाचक है तो यह अतिरिक्त उपलब्धि है, लेकिन यह अनिवार्यता नहीं हो सकती।
दूसरी ओर, साहित्यिक
दुनिया में खेमेबाजी का संकट बढ़ रहा है। औसत रचनाएँ केवल इस कारण चर्चित हो जाती
हैं कि वे किसी बड़े लेखक या समीक्षक के संरक्षण में हैं। यह प्रवृत्ति न केवल
साहित्य का स्तर गिराती है, बल्कि लेखक को आत्ममुग्ध बनाकर उसके विकास की राह रोक देती है। आलोचना का
उद्देश्य मार्गदर्शन होना चाहिए, न कि चाटुकारिता।
नई पीढ़ी के रचनाकारों ने इस बदलती
वास्तविकता के अनुरूप स्वयं को ढाला है। उदाहरण स्वरूप, सन्दीप तोमर ने अपनी लघुकथाओं में शहरी तनाव और अकेलेपन की मनोवैज्ञानिक
जटिलताओं के साथ, सामाजिक-पारिवारिक
द्वंद्व को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। भावना शुक्ल की लघुकथाएँ स्त्री
विमर्श और डिजिटल जीवन के संघर्षों को उजागर करती हैं। अनिल शूर “आजाद” और बलराम
अग्रवाल पारंपरिक कथा-शिल्प में नवीन प्रयोग करते हुए सामाजिक विसंगतियों पर तीखी
टिप्पणी करते हैं।
इसी क्रम में पूजा अग्निहोत्री की “विषकंठ” स्त्री की जीवन-यात्रा के संवेदनशील पहलुओं को उभारती है। यह कथा पाठक को भीतर
तक झकझोर देती है और स्त्री स्वतंत्रता बनाम परंपरागत नैतिकता पर सोचने को मजबूर
करती है। चंदेश छतलानी की “सन्नाटे में आवाज़” मौन और अकेलेपन की तीव्र अनुभूति को
संक्षिप्त वाक्यों और विरामों के ज़रिए पाठक के भीतर उतार देती है। वहीं सुभाष
नीरव की रचनाएँ संवेदनाओं के टकराव को सूक्ष्मता से प्रस्तुत करती है। इन तीनों रचनाकारों की
रचनाएँ सिद्ध करती हैं कि लघुकथा में नवीनता, सामयिकता और शैलीगत विविधता एक
साथ संभव हैं।
एक समय दिल्ली में लघुकथा का बड़ा कार्यक्रम
हुआ, लेकिन आश्चर्य कि दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले कुछ नामचीन लघुकथा-सेवक उसमें
अनुपस्थित रहे। यह इत्तेफ़ाक था या अनदेखी— यह सवाल भी विचारणीय है। साहित्यिक
आयोजनों का लाभ यही है कि लेखक-पाठक व साथी मिलते हैं, परन्तु खेमेबाजी और मठवाद अक्सर साहित्य-सरोकारों को पीछे धकेल देते हैं। जब
औसत रचनाएँ केवल इस कारण पुरस्कृत होती हैं कि आयोजक और निर्णायक एक-दूसरे के निकट
हैं, तो साहित्य का अहित ही होता है। जज या समीक्षक का दायित्व होना चाहिए कि वह
रचनाकार को विधागत व विषयगत त्रुटियों की ओर इंगित करे, ताकि लेखक सुधरे और विधा का विकास हो। इस क्रम में याद आता है- इसी कार्यक्रम
में एक लेखिका की रचना पर मधुदीप अग्रवाल की टिप्पणी थी- यह बेहतरीन रचना है- इसे
मैं अपने संपादन में लेता हूँ, मधुदीप से मेरा सवाल था-
किसी औसत से भी कमतर रचना की तारीफ़ को एक सम्पादकीय दृष्टि की बजाय उपकार की
श्रेणी में रखा जाना ज्यादा उचित होगा। सवाल यह है कि बात रचनाओं पर हो या रचनाकर
के ओहदे, कद, या सौन्दर्य पर?
26 नवम्बर 2017 को इसी उद्देश्य से एक गोष्ठी का आयोजन हुआ, जिसमें दृष्टि के सम्पादक अशोक जैन ने अनिल शूर “आजाद” और संदीप तोमर के प्रयासों की सराहना
करते हुए कहा कि ऐसे भागीरथ प्रयत्न लघुकथा के इतिहास में मील का पत्थर सिद्ध
होंगे। इस अवसर पर “समय पर दस्तक” नामक संकलन की भी घोषणा हुई, जो नवलेखन का प्रतिनिधित्व करेगा। वरिष्ठ
लघुकथाकार अशोक यादव ने कहा कि पुरानी पीढ़ी का दायित्व है कि वे नवलेखन का
मार्गदर्शन करें। सुरेंद्र कुमार अरोरा ने चिंता जताई कि प्रतिदिन सैकड़ों
लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं, परंतु उनमें गुणवत्ता का अभाव है। उनके अनुसार अधिक से अधिक कार्यशालाएँ और
विमर्श-गोष्ठियाँ आवश्यक हैं, ताकि रचनाकार शिल्प और विधान पर मेहनत कर
सकें।
सितम्बर 2017 में
विकासपुरी में अनिल शूर “आजाद” के प्रयास से भी ऐसा आयोजन हुआ था। इसमें
लघुकथा-शोधपीठ, पोस्टर-लघुकथा, फेसबुक-लेखन, मंचन और लघुकथा-विकास के विविध पहलुओं पर विस्तृत चर्चा हुई। वरिष्ठ लघुकथाकार
सुभाष नीरव ने यहाँ शैली के महत्व पर कहा कि उन्होंने कहानी की शैली को लघुकथा में
ढालने का प्रयोग किया और सफलता पाई। उनका मानना था कि वरिष्ठों को नयी पीढ़ी को
प्रोत्साहित और मार्गदर्शन करना चाहिए।
अध्यक्षीय संबोधन में अशोक वर्मा ने
सम्प्रेषण को कथ्य से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया और लघुकथा के मंचन पर बल दिया।
लेकिन सबसे आवश्यक यह है कि नई पीढ़ी लगातार लेखन करे, प्रायोगिक बने और मठवाद व छपास-लालसा से बचे। हाल ही में दो हज़ार रुपये लेकर
संकलन में दो पन्ने देने जैसी व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ सामने आई हैं। ऐसे प्रकाशक
न केवल लेखकों का शोषण कर रहे हैं, बल्कि साहित्य का भी नुकसान कर
रहे हैं। लेखक को समझना होगा कि संकलनों की तुलना में पत्रिकाओं की पहुँच और
प्रभाव कहीं अधिक है।
पिछले दो दशकों में लघुकथाएं बहु संख्या में
लिखी गयी, लघुकथा संग्रहों, साझा संकलनों की बाढ़ आई,
विकलांग विमर्श, किन्नर विमर्श इत्यादि विषयों पर खूब संकलन
आये। पत्रिकाओं ने लघुकथा विशेषांक निकले, लेकिन अधिकतर
पुराने ढर्रे पर होने के चलते अधिक चर्चित नहीं हुए, इसकी दो
वजहें हो सकती हैं- संपादकों का आसान रास्ता अख्तियार करना- यानि जो भी रचनाएँ आई-
उन्हें छाप देना दूसरा आलोचकों तक उक्त कार्य का न पहुंच/ पहुंचा पाना। अभिनव
इमरोज के संपादक श्री देवेन्द्र बहल के आग्रह पर मैंने नवम्बर 2024 के अंक का
लघुकथा विशेषांक निकलने की जिम्मेदारी ली, जिसके लिए रचनाएँ
जुटाने/ लिखवाने में मुझे चार माह से अधिक का समय लगा, लेकिन इसमें विवधता का पूरा
ख्याल रखा गया, मेरी समझ से यह पहला ऐसा विशेषांक था, जिसमें लघुकथा पर संस्मरण, यात्रा-वृतान्त, दोहे, साक्षात्कार, विमर्श पर लेखा
के साथ-साथ चुपचाप लेखन कर रहे मनु स्वामी पर विस्तृत आलेख के साथ सम्पादकीय को भी
लघुकथा लेख प्रक्तिया के लेख के रूप में लिखा गया। उक्त विशेषक की साल भर चर्चा
इसकी सफलता का द्योतक रही।
एक समय था जब लघुकथा की समीक्षाएं मुख्य धरा
की पत्रिकाओं में नहीं छपती थी, लघुकथाओं को भी फ़िलर की तरह
इस्तेमाल किया जाता था, ऐसी चिंताएं अनेकों गोष्ठियों में
ममता कालिया, चित्र मुद्गल सरीखी लेखिकाओंने भी व्यक्त की।
मुझे इसके पीछे जो कारन समझ आया- वह ये कि रचनाकारों ने लाखुक्था अको कम समय में
लिखी जाने वाली आसान विधा मान लघुकथा छोड़ चुटकुला, बोधकथा सब
कुछ लिखा, और टैग लघुकथा का दिया, साथ
ही लघुकथा में आलोचकों का अभाव, चार- छः लघुकथा लिखने और
एक-दो संकलनों को पढने के बाद हर रचनाकार स्वयं को आलोचक मान बैठा, जिससे मित्र लेखकों की सरहना तो खूब लिखी गयी लेकिन आलोचना विधा कहीं
गहरे में दब गयी। इसी बीच सुभाष नीरव का लघुकथा संग्रह “बारिश और एनी लघुकथाएं
प्रकाशित हुआ, जिसमें मुझे इतना प्रभावित किया कि उसकी
समीक्षा लिखने में मैंने एक माह का समय लिया, उक्त समीक्षा
का प्रकाशन पाखी पत्रिका में हुआ, चर्चा ये हुई कि अब लघुकथा
की समीक्षा के लिए मुख्य धारा की पत्रिकाओं के दरवाजे भी खुल गये। एक समय था जब
पाखी पत्रिका के संपादक प्रेम भारद्वाज थे, उनके संपादक रहते
पाखी में लघुकथाओं का प्रकाशन बंद रहा। मार्टिन जॉन ने सोशल मिडिया पर लिखा-
स्नादीप तोमर के प्रयासों से पाखी जैसी पत्रिकाओं में लघुकथा समीक्षा और लघुकथा
प्रकाशन का मढ़ प्रशस्त हुआ है, पाखी के अगले अंक में मार्टिन
जॉन के लघुकथा संग्रह “सब खैरियत है” की मेरे द्वारा लिखी समीक्षा प्रकाशित हुई।
कहा जा सकता है कि आलोचक की आस्था किसी विधा/ पुस्तक की दशा और दिशा तय करती है।
भविष्य निस्संदेह लघुकथा का है। इसकी
संक्षिप्तता और तीक्ष्णता आज की व्यस्त जीवन-शैली के अनुकूल है। लेकिन इस भविष्य
को उज्ज्वल बनाने के लिए रचनाकार को प्रयोगधर्मी होना होगा।
नए विषयों, नई शैलियों और नए माध्यमों को अपनाना ही पड़ेगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता और
ऑडियोबुक्स जैसे साधन साहित्य की पहुँच को और व्यापक कर रहे हैं। यदि हम इस
संभावना का रचनात्मक उपयोग करें तो लघुकथा को वैश्विक पाठक वर्ग तक पहुँचाया जा
सकता है।
आने वाला समय वास्तव में लघुकथा का है।
बशर्ते हम समय के साथ बदलें, खेमेबाजी से बचें और आलोचना को ईमानदारी से
स्वीकारें। साहित्य में स्थायित्व वही रचनाएँ पा सकती हैं जो पाठक को सोचने पर
विवश करें। अतः रचनाकार का मूल्यांकन उसकी रचना से होना चाहिए, न कि उसके नाम से। यदि हम इस दिशा में ईमानदार बने रहें, तो लघुकथा निश्चित ही साहित्य की सबसे प्रभावशाली विधा बनकर उभरेगी।

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