Wednesday, 13 May 2015

चंचल मना हो तुम देवी 
आज मैं कह सकता हूँ
दुर्दिन में जो छोड़ो साथ
कैसे सह सकता हूँ
बिन तुम सखी कैसे 
रह सकता हूँ जीवन सपाट
हो सके तो खोल लेना
बंद पड़े कुटिल कपाट
हिंसा का आदी नही हूँ
जो दूँ जीवन कष्ट तुम्हे
हो जो गति कल्पनातीत
और कांप उठें तमाम रूहें
कष्टों को सहने की कला
आदत में है मेरी सुमार
दुःख हरने में पारंगता
समझ ले है ये सुकुमार
वल्लिका बढे सुखमय
जीवन की, यही चाह रखता हूँ
ओ कष्टों की देवी , मैं
कठोर दंड भी सह सकता हूँ.

No comments:

Post a Comment

लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?

  “लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?”-- संदीप तोमर (हिंदी दिवस स्पेशल ) हिंदी दिवस आते ही बधाइयाँ रेवड़ियों की तरह बंटने लगती हैं। सोशल ...