Friday, 7 November 2025

लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?

 “लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?”-- संदीप तोमर

(हिंदी दिवस स्पेशल )
हिंदी दिवस आते ही बधाइयाँ रेवड़ियों की तरह बंटने लगती हैं। सोशल मीडिया पर लेखक पोस्ट करता है—“मेरा नया उपन्यास प्रकाशित हुआ है, कृपया पढ़ें।” देखते ही देखते सौ-दो सौ लाइक्स आ जाते हैं। दिल, गुलाब और तालियों की इमोजियों की बौछार हो जाती है। लेकिन उन सौ-दो सौ में से दस पाठक तो छोड़िए, दो भी असली खरीदार नहीं निकलते। लाइक देने वाले अंगूठे जितनी तेजी से उठते हैं, किताब खरीदने के समय उतनी ही फुर्ती से जेब दबा ली जाती है।
कल ही एक प्रकाशक मिले। बड़े दुखी स्वर में बोले—“लेखक लोग चर्चा के लिए पांच-दस किताबें मंगा लेते हैं, चर्चा भी हो जाती है। मगर उसके बाद… एक भी ऑर्डर नहीं आता।” वही किताब अगर किसी साहित्यिक गोष्ठी में पीछे की मेज पर मुफ्त रख दी जाए तो लोग एक नहीं, दो-दो, तीन-तीन उठा ले जाते हैं। पढ़ेंगे या नहीं, ये अलग बहस है, लेकिन ‘फ्री’ का माल कौन छोड़ता है!
अब प्रकाशकों की असली सेवा सुनिए। मेरा उपन्यास एक प्रकाशक ने छापा। चार साल तक जितनी प्रतियाँ बिकीं, सब मेरे द्वारा किये प्रचार की वजह से, या मेरे नाम के प्रभाव से। प्रकाशक महाशय तो आराम से बैठकर गिनती करते रहे। आखिर मैंने तंग आकर कहा—“अगर आप बेच नहीं पा रहे तो शेष प्रतियाँ मुझे भिजवा दीजिए।” वे भी बड़े सज्जन निकले, दो किस्तों में 32 किताबें भेज दीं। मैंने सोचा, ठीक है, सौ रुपए प्रति किताब देकर हिसाब चुकता कर दूँ। पर वे तो 40% डिस्काउंट की गणना लेकर बैठ गए।
अरे भइया! मैं तो आपकी गोदाम की रद्दी बचा रहा था। फिर भी संतोष नहीं। उल्टा सलाह देने लगे—“लेखक जी, किताबों पर 20% मुनाफ़ा रखकर बेचिए।” यानी प्रकाशक तो प्रकाशक, अब लेखक को भी ठेला लगाकर किताबें बेचनी हैं।
भला लेखक किताब बेचेगा या लिखेगा? अगर व्यापार ही करना होता तो सीधे प्रिंटर को पाण्डुलिपि देकर खुद छपवाता, खुद बेचता। प्रकाशक महाशय यूँ तो हर काम का पैसा दे देंगे —डिजाइन का, प्रूफरीडिंग का, छपाई का, बाइंडिंग का—बस पाण्डुलिपि ही मुफ्त चाहिए। और ऊपर से कहते हैं—“लेखकीय प्रतियाँ हम तोहफे में दे रहे हैं।”
वाह! क्या उदारता है! जैसे वे अपनी मेहनत की कमाई से किताब बाँट रहे हों। रॉयल्टी देने की तो जैसे कृपा ही कर रहे हैं। ऐसे उदारमना प्रकाशकों की मैं हृदय से वंदना करता हूँ। आखिर हिंदी दिवस पर बधाइयाँ ही क्यों, ऐसे प्रकाशकों को तो आजीवन सम्मान मिलना चाहिए—“लेखक की जेब पर पलने का सर्वोच्च सम्मान।”
लेखक–प्रकाशक संवाद

लेखक: किताबें क्यों नहीं बिक रही हैं?
प्रकाशक: पाठक अब पीडीएफ पढ़ते हैं, किताब कौन खरीदे?
लेखक: तो फिर आपने छापी क्यों?
प्रकाशक: आप ही तो आए थे, बोले थे कि ‘मेरी पांडुलिपि जीवन बदल देगी।’ हमने सोचा—पहले हमारा ही जीवन बदल दे!
लेखक: कम-से-कम मेरी किताब का प्रचार तो कीजिए।
प्रकाशक: अरे हम क्यों करें? प्रचार तो आपका कर्तव्य है। आपने लिखा है, बेचिए भी आप।
लेखक: बेचूँ? मैं तो लेखक हूँ।
प्रकाशक: जी हाँ, मगर आजकल लेखक वही सफल है जो अपनी किताब खुद बेच सके। चाहें तो ऑनलाइन “बाय नाउ” का बटन छाती पर चिपका लें।
लेखक: तो आप क्या करेंगे?
प्रकाशक: हम? हम तो आपकी रॉयल्टी की गणना करेंगे।
लेखक: लेकिन किताब बिकी ही नहीं तो रॉयल्टी कहाँ से?
प्रकाशक (गंभीर होकर): यही तो हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है—रॉयल्टी की समस्या ही खत्म कर देते हैं।
इतना सुनकर लेखक को अचानक समझ आया—प्रकाशक असल में संत हैं। वे लेखक को ‘वैराग्य’ सिखाते हैं—“लिखो, छपवाओ, मगर उम्मीद मत रखो।”
प्रकाशक का विज्ञापन (काल्पनिक)
“हमारे यहाँ पाण्डुलिपि छपवाइए।
छपाई, बाइंडिंग, डिज़ाइन, प्रूफरीडिंग सबका पैसा दीजिए।
पांडुलिपि मुफ्त दीजिए।
प्रचार खुद कीजिए।
किताब खुद बेचिए।
रॉयल्टी के नाम पर शांति का अनुभव कीजिए।
हम सिर्फ एक सेवा मुफ्त देंगे—
आपकी उम्मीदों का अंतिम संस्कार।”
यही है हिंदी प्रकाशन का असली गणित: लेखक लिखे, प्रचार करे, बेचने की कोशिश करे; पाठक फोटो खींचकर फेसबुक पर डाले; और प्रकाशक तपस्या करे—“कैसे बिना बेचे भी सम्मान पाए।”

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लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?

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