Tuesday, 11 October 2011

दुनिया के रंजोगम तक बदल गए फकत- संदीप तोमर

संदीप तोमर 

 दुनिया के रंजोगम तक बदल गए फकत उस चेहरे से अब भी उदासी नहीं जाती. जज्बा -नवाजी का हुनर बदस्तूर जारी है फाँकों में भी खाली ...

धरती की तो बात क्या- संदीप तोमर

धरती की तो बात क्या फलक तक चिकते हैं यारो
कल गम हो जायेंगे बस्ती में आज दीखते है यारों

कुचलोगे कब तलक यूँ फूलों को पैरों टेल अपने
सियासतों का दौर है अरमान भी बिकते है यारों

तारे तोड़ यूँ जमीं पर लाने की बात करने वाले
घुटने जोड़ कंधो के बल ओंधे ही गिरते है यारों

क्या ग़ालिब क्या मीर का गुणगान करते हो यूँ
भिखमंगे भी अब सुना है शायरी करते है यारों

पानी पर इस कदर दौड़ने का दौर अब नहीं फकत
छलक पड़ेंगे एक दिन जज्बात,आज सिमटे है यारो

भौतिक दौर में सँवार लो तमाम सपने "उमंग"
सुना है मुरझाये फूल भी यहाँ खिलते है यारों

दुनिया के रंजोगम तक बदल गए फकत - संदीप तोमर


 
दुनिया के रंजोगम तक बदल गए फकत 
उस चेहरे से अब भी उदासी नहीं जाती. 

 जज्बा -नवाजी का हुनर बदस्तूर जारी है 
फाँकों में भी खाली कोई दिवाली नहीं जाती
 
मासूमों को तमाम ख्वाब सताते हैं मगर 
बकरों की सरे आम हलाली नहीं जाती 

 कर्ज में दबा किस कदर जवाँ बेटी का बाप 
बिन दहेज़ मजबूर की डोली नहीं जाती 

 खाना बदोसी में जी रहें है पल-पल मगर 
मुर्ग-मुसल्लम के बिना बोतल खोली नहीं जाती 

 इज्जत की खातिर जीने का बाकी है भरम अब 
जुबाँ किसी तराजू में तोली नहीं जाती 

 मै कितनी ही दफा खोजने निकला उसूल 
औकात अपनी ही यहाँ संभाली नहीं जाती 

 अपने ही पाव से कोई कैसे चले पहरों सहर 
कोमल सी एडियाँ है पर बिन्वाई नहीं जाती 

 किस बात से दुनिया खफां थी "उमंग" 
जान कर भी कुछ बात बताई नहीं जाती.

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my thoughts: रिश्तों के बोझ से कब दबती है जिन्दगी मुठ्ठी के र...

my thoughts: रिश्तों के बोझ से कब दबती है जिन्दगी
मुठ्ठी के र...
: रिश्तों के बोझ से कब दबती है जिन्दगी मुठ्ठी के रेत सी निकलती है जिन्दगी ख्वाबों की आरज़ू में भटका हूँ दर- बदर किस ख्वाहिश में यूँ ...

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my thoughts: चंचल मना हो तुम देवी आज मैं कह सकता हूँ दुर्दि...

my thoughts: चंचल मना हो तुम देवी
आज मैं कह सकता हूँ
दुर्दि...
: चंचल मना हो तुम देवी आज मैं कह सकता हूँ दुर्दिन में जो छोड़ो साथ कैसे सह सकता हूँ बिन तुम सखी कैसे रह सकता हूँ जीवन सपाट हो सके तो...
आम इंसान

उसके लिए नहीं लिखा जाता ग्रन्थ
नहीं बनता वह खबर का हिस्सा ही
न ही पुरे होता उसके सपने(?)
ना ही मिलने आते उससे उसके अपने
उसके लिए नहीं निकलती शोभा यात्रा
ना ही उसकी मूर्ति को आभुषनो से लाद
निकलती झांकिया सरे राह...............
उसके लिए नहीं टिमटिमाती
स्ट्रीट लाईटें
उसके घायल होने पर
नहीं किया जाता अस्पताल
पहुँचाने का/ इंतजाम
कोई न्यूज चैनल अपने
२४ घंटे के तय शुदा कार्यक्रम (?)में
नहीं देता उसके मृत -मुख को
पनाह ही
बस उसके हिस्से आता है
एक अफ़सोस जनक मौन
वह जो आम इंसान(?) होता है
"उमंग" संदीप
चंचल मना हो तुम देवी
आज मैं कह सकता हूँ
दुर्दिन में जो छोड़ो साथ
कैसे सह सकता हूँ
बिन तुम सखी कैसे
रह सकता हूँ जीवन सपाट
हो सके तो खोल लेना
बंद पड़े कुटिल कपाट
हिंसा का आदी नही हूँ
जो दूँ जीवन कष्ट तुम्हे
हो जो गति कल्पनातीत
और कांप उठें तमाम रूहें
कष्टों को सहने की कला
आदत में है मेरी सुमार
दुःख हरने में पारंगता
समझ ले है ये सुकुमार
वल्लिका बढे सुखमय
जीवन की, यही चाह रखता हूँ
ओ कष्टों की देवी , मैं
कठोर दंड भी सह सकता हूँ.
क्रीम बेचने वाली कंपनी क्या कहती है २१ दिनों में गोरा बने मतलब काले इंसान नहीं और हम इनके जाल में फंसते जाते है.यही सोच हमें बदलनी होगी, क्यों सोंदर्य प्रतियोगिता की जाती है, उसमे हिस्सा लेने वाले भी महा पागल. जो जिस्म की नुमायिसकरके भी हार कर बहार हो जाते हैं. शरीर को जहा सुन्दरता का पैमाना बना लिया जाये वहां स्वश्थ माहौल कैसे हो सकता है. ? यही प्रतियोगिता का दांग फाशन की सामग्री खरीदने को विवास करता है और इसी तरह ये मार्केट चलता हुआ हर घर में घर कर जाता है. इससे ही तो हमें बचना है. प्रतियोगिता को शरीर से निकर कर मन और मष्तिस्क तक लाना है.

लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?

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