Tuesday, 11 October 2011

my thoughts: रिश्तों के बोझ से कब दबती है जिन्दगी मुठ्ठी के र...

my thoughts: रिश्तों के बोझ से कब दबती है जिन्दगी
मुठ्ठी के र...
: रिश्तों के बोझ से कब दबती है जिन्दगी मुठ्ठी के रेत सी निकलती है जिन्दगी ख्वाबों की आरज़ू में भटका हूँ दर- बदर किस ख्वाहिश में यूँ ...

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  “लेखक बेचारा—किताब लिखे या ठेला लगाए?”-- संदीप तोमर (हिंदी दिवस स्पेशल ) हिंदी दिवस आते ही बधाइयाँ रेवड़ियों की तरह बंटने लगती हैं। सोशल ...