Wednesday 31 March 2021

एक अपाहिज की डायरी( आत्मकथा ) तीसरा भाग

 एक अपाहिज की डायरी दो साल से अधिक हुए तब शेयर करना शुरू किया था, दो ही एपिसोड लिखें होंगे फिर छूट गया, अब पुनः लिख रहा हूँ, पिछले दो अंक आप मेरे ब्लॉग पर पढ़ सकते हैं, अब आगे .... 

                तीसरा भाग  



अभी हाथ का प्लास्टर खुला नहीं थामाँ डॉ. सुबोध से मेरा इलाज करवाकर आ रही थी, पैसे बचाने के चलते उसने रिक्शा नहीं किया, वो मुझे गोद में ले वापिस आ रही थी रास्ते में रेलवे के फाटक पड़ते थे, ट्रेन आने का समय था, फाटक बन्द ऐसी स्थिति में अक्सर लोग फाटक के नीचे से निकलकर आते-जाते, माँ ने समय बचाने के लिए फाटक के नीचे से निकलने का प्रयास किया एक फाटक पार करके दूसरा फाटक पार ही किया था कि पैर एक पत्थर से टकराया माँ का संतुलन बिगड़ा तो उसने अपनी कोहनी नीचे टिका दी ताकि मेरे हाथ का प्लास्टर नीचे न लगे, माँ जैसे-तैसे संभली दो कदम ही चली थी कि पैर के नीचे केले के छिलके के आ जाने से माँ का संतुलन फिर बिगड़ गया, माँ ने फिर से कोहनी नीचे टिका दीमाँ की कोहनी लहुलुहान हो गयी, मेरी आँखों में आँसू थे मैं किसी से कुछ कहने कि स्थिति में नहीं था लेकिन इन सब बातों से सीख रहा था। मेरा मानसिक विकास और सामाजिक विकास इन घटनाओं पर निर्भर था

माँ के हाथों की चोट मुझे मानसिक रूप से परेशान कर रही थी दो दिन बाद फिर डाक्टर की विजिट थीमाँ जा नहीं सकती थीपिताजी ने जाने का फैसला किया स्कूल से छुट्टी ली और बुढाना डॉ. सुबोध के पास चले गएडॉ. ने हाथ और पैर का प्लास्टर काट दिया और पैरों पर पट्टियाँ बाँध दी पिताजी वहाँ से चलने के लिए बस स्टैंड पर आ गएअभी बस नहीं आई थी, स्टैंड के पास एक बुजुर्ग और एक लड़की बैठे थे, पिताजी ने मुझे  उनके पास बैठा दिया ये वो समय था जब इन्सान को देखकर इन्सान खुश होता था और बातचीत बहुत जल्दी परिचय में बदल जाया करती थीबुजुर्ग और पिताजी आपस में बाते करने लगेबातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो घर-परिवार की बातें होने लगी, परिचय हुआ इस बीच बस आ गयी बस लगभग भरी हुई थी, पिताजी और बुजुर्ग दो वाली एक सीट पर बैठ गए, मुझे उस लड़की की गोद में बैठा दियाउसका नाम सुधा था- एकदम सीधी-सादी लड़की। उम्र यही कोई चौदह-पन्द्रह साल। सुधा ने मेरे पैरों पर पट्टियाँ लिपटी देखी और गले में पट्टी डालकर हाथ उसने डाले हुए, वो थोड़ी मायूस सी हुई उसने पूछा-"तेरे पैर में ये पट्टी क्यों बंधी हैं"

मैं चुप बैठा रहा सुधा ने फिर उत्सुकता दिखाईपैर को हाथ लगाकर कहा- "दुखता है?"
मैंने रूखेपन में जबाब दिया-"नहीं"

आगे हमारे बीच कोई बातचीत नहीं हुई पिताजी और बुजुर्ब बात करते रहेशहर आने पर वो लोग उतरे पिताजी ने बस से उतरकर मुझे पास की दुकान पर खड़ी साईकिल पर बिठाया और गॉव आ गए

शाम को पिताजी ने माँ को बताया-"आज बस में एक बुजुर्ग मिले, उनकी पोती उनके साथ थी उनका रिश्ता हमारे अखिल से तय हुआ था।“

“अखिल’ हमारे अखिल, यानि जेठ जी के बड़े बेटे से?”

“हाँ मालती, लेकिन भैया-भाभी ने रिश्ता तोड़ दिया, बुजुर्ग ने अपनी पोती से मेरे पैर छुवाए, मैंने उन्हें रिश्ते की हामी भर दी, कल भाई से बात करता हूँ"

“आपने क्यों हामी भरी? जीजी क्या मान जाएँगी?”

“देखना पड़ेगा, लेकिन मुझे अपने भाई पर पूरा विश्वास है, भाई मेरी बात को नहीं टालेंगे, फिर मैं जुबान दे आया हूँ।“

अगले दिन पिताजी बड़े ताऊ के पास गए और रिश्ते के बारे में पूछा, सुक्खनसिंह ने कहा –“हरीप्रसाद! तेरी भाभी मना कर रही है।“

पिताजी ने कहा- "भाई मैंने जुबान दी है, अब शादी तो वहीँ से होगी"

बड़े भाई ने छोटे भाई की जुबान का सम्मान करते हुए रिश्ता पक्का कर लिया अखिल  की शादी सुधा से हो गयीसुधा का परिवार गरीब था वो बारात का स्वागत बहुत अच्छे से नहीं कर पाए, परिवार पिताजी से नाराज हुआ

सुधा परिवार की बड़ी बहु थीगरीब परिवार की लड़कीकम दहेज़ ला पाईउम्र भी कम। ऊँचा परिवार, इलाके में रुतबा। ताऊजी को लगता हरि की बात मान गलती तो नहीं की, जैसा परिवार का नाम है- न वैसा स्वागत हुआ, न ही लेन-देन। सास को भी बहु पसन्द नहीं आई अखिल का भी व्यवहार रुखा था एक लड़की अनजान घर में अपना घर-बार सब छोड़कर जाती है और एक पति ही अगर सही से व्यवहार करे तो उसके सब गिले-शिकवे ख़त्म हो जाते हैं। लेकिन यहाँ तो अलग ही बात थी। पतिदेव भी मासाअल्लाह। सुधा खुद को प्रताड़ित महसूस करतीलेकिन उसके अन्दर विरोध का स्वर न थाकुछ ही दिनों में रिश्ता टूटने के कगार पर आ गया

सुधा का भाई आया, परिवार ने बहु को रखने में अपनी असमर्थता जताईपिताजी को बुलाने के लिए ताऊजी ने छोटे बेटे प्रदीप को गॉव भेजा माँ मुझे डाक्टर के पास ले जाने के लिए तैयार कर रही थीउन्होंने प्रदीप को कहा---“तुम सुदीप को लेकर जाओ, तेरे चाचा और मैं आते हैं” मुझे प्रदीप की साइकिल पर बैठा दिया गयाअभी शहर से ३०० मीटर की दूरी बची होगी कि मेरा पैर साइकिल के पहिये में आ गयावाल्वबॉडी पैर में घुसी तो साईकिल चलना मुश्किलमैं रोने लगा था प्रदीप ने साइकिल रोकी, लहुलुहान पैर देखा तो वो घबरा गया जैसे-तैसे डॉ. सुरेश के क्लिनिक पहुँचे, डॉ. सुरेश ने पट्टी बाँधी लेकिन खून नहीं रुका, तब तक पिताजी और माँ भी आ चुके थे, शिवमूर्ति के पास डॉ. राजेंद्र के पास ले जाया गयावहाँ पैर में ४ टाँके लगे मुझे लेकर माँ घर आ गयी। उस दिन हम बुढ़ाना डॉ के पास भी नहीं जा पाए। पिताजी अपने भाई के घर पहुँचे अखिल को समझाने के प्रयास होने लगे अखिल टस से मस होने को तैयार नहीं हुआ पिताजी असमंजस में पड़ गएजब उन्हें कुछ रास्ता न सुझा तो उन्होंने कहा- “जब तक कुछ तय नहीं हो जाता सुधा गॉव में रहेगी” बहुत हा-हुल्ला के बाद सुधा गॉव आ गयी

मेरी सम्वेदना इस तरह की घटनाओ से प्रभावित हो रही थीबिना स्कूल जाये ही सामाजिक पाठशाला शुरू हो गयी थीये पहला अवसर था जब मेरे दिल में स्त्री-सम्वेदना का जन्म हुआ मेरा हृदय रोने लगा, मैं माँ का समर्पण देख रहा था, बहन सुप्रिया का स्नेह देख रहा था, मैंने स्त्री को दादी के रूप में देखा था, सब अपने थे, स्त्री से एक नया रिश्ता देखा- भाभी का रिश्ता माँ ने बताया- भाभी भी माँ होती है भाभी माँसुधा भाभी से ये मेरी दूसरी मुलाकात थी, उस दिन खाना सुधा भाभी ने ही बनाया

मैंने गुरु के रूप मे माँ को देखा, माँ मुझे पढ़ाती थी, दुनियादारी सिखाती थी, मैं माँ के प्रति और भाभी माँ का प्रति श्रद्धामय था 

अगले दिन माँ खेत में चली गयी, भाभी माँ ने घर का काम कियाफुर्सत मिली तो मुझसे बोली-"सुदीप खाना खाओगे..?"

"हाँ भाभी, बहुत भूख लगी है"-ये मेरा सुधा से भाभी बनने के बाद पहला संवाद था
सुधा खाना लगा लायी, मैं खाना खाने लगा

सुधा बोली-"सुदीप तुम इतना कम क्यों बोलते हो?"

"भाभी क्या बोलू, मैंने कुछ देखा ही नहीं, घर से बाहर जाता ही नहीं, तो कुछ सीखा ही नहीं, माँ कहती है कि जब बात को जानो तब ही बोलो, वर्ना नहीं बोलो"

"देवर जी, तुम बहुत अच्छे हो"

"पता नहीं, मुझे तो सुप्रिया दीदी ही अच्छी लगती है"

"क्यों भाभी अच्छी नहीं है?"

"भाभी तो माँ होती है?"

"ये तुमसे किसने कहा?"

"माँ कहती है"

"अच्छा, चाची ऐसा बोली थी"

“हाँ भाभी, माँ ही मुझे पढ़ाती है, वो ही सिखाती है सब कुछ"

मैं सबसे ज्यादा बातें सुप्रिया दीदी से ही करता था पहली बार किसी और से इतनी बात की

“देवर जी आप बहुत सीधे-बहुत भोले हो”–सुधा भाभी ने कहा था

“पता नहीं भाभी, मैं घर में ही रहता हूँ न, कहीं जाता नहीं ना, मुझे पता नहीं कैसे बात करते हैं? भाभी मैंने कुछ गलत तो नहीं बोला?”

“नहीं देवर जी, आप ने कुछ भी तो गलत नहीं बोला

“कुछ गलत बोलूँ तो मुझे आप ही देना, माँ को मत बताना, वर्ना तो डांट ज्यादा पड़ेगी, माँ बोलेगी-तूने भाभी तो तंग किया

“अरे, आप ऐसे क्यों बोल रहे हो? मैं चाची को तब बोलूँगी न जब आप मुझे तंग करोगे

“मुझे माँ की डाट से बहुत डर लगता है, जानती हो माँ को लगता है- घर में मैं ही सबसे ज्यादा शरारती हूँ, नीलू को तो माँ सीधा समझती है, और नीलू तो सब शरारत करता है और फिर माँ के सामने सीधा बन जाता है, हम सबको उसकी वजह से डाट पड़ती है

“अच्छा नीलू इतने शरारती हैं, लगते तो बहुत सीधे हैं

“हाँ भाभी, सब ऐसे ही सोचते हैं लेकिन वो ही मुझे डांट पड़वाता है, प्रिया दीदी ऐसा नहीं करती, दीदी मुझे बहुत प्यार करती है

“ये तो अच्छी बात है, प्रिया आपको प्यार करती है, करें क्यों न, आप हो ही इतने प्यारे

भाभी ने आगे कहा-“देवर जी आप बड़ा होकर क्या बनना चाहते हो?”

“चलूँगा तो बनूँगा ना”-कहकर मेरी आँखों में आँसू आ गए

“दिल छोटा न करो, आप ठीक हो जाओगे, मेरा मन कहता है

“पता नहीं, माँ भी कहती है कि मैं अपने बेटे के लिए इतनी हितया (कष्ट) भर रही हूँ, एक दिन उसे अपने पैरों पर चलते देखना चाहती हूँ

“देखना देवर जी, एक दिन चाची के मन की जरुर पूरी होगी

उस दिन मेरी आँखों में आंसू थेसुधा ने उन आँसुओं को पोंछने के लिए हाथ बढाया लेकिन कुछ सोचकर हाथ रोक दिए

 क्रमश:

बलम संग कलकत्ता न जाइयों, चाहे जान चली जाये

  पुस्तक समीक्षा  “बलम संग कलकत्ता न जाइयों , चाहे जान चली जाये”- संदीप तोमर पुस्तक का नाम: बलम कलकत्ता लेखक: गीताश्री प्रकाशन वर्ष: ...