Tuesday 2 June 2015

प्रभु लीला

प्रभु  लीला 

भक्त ने कहा----कुबेर का खजाना पहले सेवक ने ख़त्म किया हुआ था..अब खजाना खाली तो सेवक क्या करे..खजाना ऋणात्मक था.. फिर सेवक ने एकसाल में खजाना भरा..हमने पूछा--कही डैकेती डाले क्या...बोले नहीं--- वो तो पुष्पक विमान के इंधन से आया.. हमने पूछा -वो कैसे तो भक्त ने बताया-- भैया सेवक ने इंधन का दामकमनहीं किया. जनता देती रही खजाना भरता रहा.... हमने कहा -भक्त भाईआपनेहमारे चक्षु खोल दिए..और दो चार चीजो का दाम बढ़ा दीजिये ताकि... फिर ठहरे जड़बुद्धि फिर एक सवाल पूछ बैठे-- ये तो बताइए कि समस्त लोग की यात्रा का व्यय प्रभु कहाँ से लाते है...? तो भक्त नजरे हमें भस्म करने की मुद्रा में थी बोले-- ये जो कोष भरा है उसी से खर्च होता है.. हमने पूछा और आज कल नारद मुनि नहीं दीखते.. बोले अब परभू ही सारे विभाग देखते हैं.. पहले सब लोगो में भ्रस्ताचार था.. अब सब ठीक है...हमें फिर सवाल किया..-और उर्वशी कहाँहै? सुना है कि बड़ी कटीली नचनियां थी.. स्वर्ग में उसे बड़े अदब से देखा जाता था..भक्त हौले से मुस्काए..बोले--- हम आज कल प्रभु ने अपने सभासदो में प्रमुख स्थान दिया है...सम्पूर्ण लोको में अब ज्ञान का विस्तार होगा.. आपके भी...

Wednesday 13 May 2015

कुछ नहीं बदला- संदीप तोमर

......
सुदीप के साथ काम करने वाली सजातीय कमला ने उसे नेहा से मिलवाया ...... नेहा के परिवास में ६ लाद्द्किया थी और पिता निहायत ही गरीब..... सुदीप को लगा कि मेरे लिए मिशाल कायम करने और अपने मनमुताबिक शादी करने का इससे अच्छा रिश्ता नहीं मिल सकता...... उसने नेहा के पिता को शादी के लिए हाँ कर दी.... और अपनी मंशा से उन्हें अवगत करा दिया...... नेहा के पिता ने जब सुना कि बटेऊ बिना बारात और बिना दहेज़ के शादी करना चाहते हैं तो उन्हें लगा कि बिन मांगे मन्नत पूरी हो गयी......
सुदीप के घर वालों ने अनमने मन से उसका विवाह कर दिया ...... सुदीप ने वैवाहिक जीवन में भी अपनी पढाई को जरी रखा और वो अधिक अच्छे ओहदे के लिए प्रयास करता रहा..... उसकी पत्नी नेहा उसे पढने को मना करती और पूर्णरूप से घर परिवार ने रच बस जाने का दबाव डालती...... साथ ही रोज़ डिस्को ,,,रेस्तरो जाने की जिद्द करती...... सुदीप के मन में जैसे एक फ़ांस सी गड गयी......अब छोटी छोटी बातों पर विवाद होने लगे......उस इदं तो हद ही हो गयी..... सुदीप की तबियत खराब थी..... और नेहा ने खाना नहीं बनाया था..... सुदीप के कहने पर जबाब मिला आपकी तो रोज़ ही तबियत ख़राब रहती है...... मैं क्या सारा दिन चूल्हे में खटने के लिए हूँ.... ढाबे से खाना माँगा लो...मेरा आज खाना बनाने का बिलकुल मन नहीं है...... विवाद बढ़ गया तो नेहा ने अपना बैग सम्भाला और मायके चली गयी.....
हफ्ते बाद भी नेहा नहीं आई...... आया तो कोर्ट का नोटिस..... सुदीप ने नोटिस पढ़ा जिसमे उसके ऊपर दहेज़ उत्पीडन के चार्जेस लगे थे.... उसे याद आने लगा कि कैसे उसकी सादगीपूर्ण शादी को मिडिया में भी कवरेज मिला था...... आँखे आसुंओ से तर बतर थी और पिता का चेहरा आंसू की बूंदों में तैर रहा था.......

स्टेला का पत्र

प्रिय सुदीप   


नमस्कार ...
आपका आभार किन शब्दों में अदा करूँ....समझ नहीं आ रहा ..... ये भी समझ नहीं आ रहा कि कहा से शुरू करू......
कितना गलत सोचती थी मैं आपके बारे में.... आपका साथ काम करना ....काम करने का ढंग ,,,, आपका बातों का तरीका .... सबको देखती तो आपमें एक एटटयूड देखती थी..... .हर बार लगता ये क्या इंसान है किस गरूर में जीता है....... उस दिन जब आप पकोड़े बनाकर लाये तो देखा कि आपके अन्दर एक कुक भी है....फिर आपके बारे में आपके पुराने साथियों से जानना शुरू किया...... आपकी अच्छाईयाँ पता करने लगी तो खुद पर शर्मिंदा होती..... एक दूरी रही आपके और मेरे दरमयान ..... ना आप कभी बात करते ना मैंने करने की कोशिश की..... और हम नजदीक ही नहीं आ पाए..... उस दिन जब आप बैठे कॉफ़ी पी रहे थे तब आपने मुझे भी काफी ऑफर दिया.... कॉफ़ी की गर्मी से ज्यादा गर्माहट आपके साथ बात करने में थी.....
मैंने आपको कहा कि आप पुराने ख्यालात के हैं तो आपको बुरा नहीं लगा आप आक्रोशित नहीं हुए..... मुझे घोर आश्चर्य हुआ ...कैसे एक इंसान रियेक्ट नहीं करता..... मि. अखिल के छींटाकशी करने पर भी देखा आप रियेक्ट नहीं करते..... आपकी इस अदा ने मुझे आपका कायल बना दिया......
मैं अपनी निजी समस्या से उलझी हुई थी.... मुझे आपमें आशा की किरण दिखाई दी.... जब मैंने आपको दकियानूसी कहा तो आपने बड़ी सहजता से कहा था कि मैं राशि से जैमिनी हूँ..... और जैमिनी बड़े ही रोमांटिक होते है...मैंने उत्सुकता में कहा था कि हमें भी सुनाइए अपने रोमांटिसिज्म के किस्से तो आपने आपने अपने सात साल चले प्रेम प्रसंग को बिना झिझक के शेयर किया ..... तब मैंने आपसे अपने प्रेमी और उसके साथ विवाह की अड़चन का किस्सा शेयर किया , आपने बड़ी तल्लीनता से मुझे सुना.... और आपने जो मदद की उसकी बदोलत आज मैं मोहित की अर्धांगिनी हूँ... आप न होते तो जाति की दीवारे लांघने की हिम्मत ना मुझमें थी न ही मोहित में......
कभी कभी मन करता है आपके चरण की पूजा करूँ.....
आपका वो वाक्य मैं कभी नहीं भूल सकती..... आपने कहा था..... कि मेरा प्रेम सफल नहीं हुआ ...मैं चाहता हूँ जो भी प्रेम करें उसका प्रेम परिणति तक पहुंचे......
सुदीप जी आप महान हैं......जहाँ कही प्रेमी युगल को देखती हूँ आपकी याद आ जाती है...... वही कॉफ़ी का कप और आपसे साथ बातों की गर्माहट..... और मैं इस गर्माहट को ख़त्म नहीं करना चाहती......
आप ऐसे ही बने रहिये फिर कोई वंदना आपको देखने समझने में वक्त लगाये और फिर आप किसी की जिन्दगी में मशीहा बन जाएँ.....
आपकी सखी.....
स्टेला 
चंचल मना हो तुम देवी 
आज मैं कह सकता हूँ
दुर्दिन में जो छोड़ो साथ
कैसे सह सकता हूँ
बिन तुम सखी कैसे 
रह सकता हूँ जीवन सपाट
हो सके तो खोल लेना
बंद पड़े कुटिल कपाट
हिंसा का आदी नही हूँ
जो दूँ जीवन कष्ट तुम्हे
हो जो गति कल्पनातीत
और कांप उठें तमाम रूहें
कष्टों को सहने की कला
आदत में है मेरी सुमार
दुःख हरने में पारंगता
समझ ले है ये सुकुमार
वल्लिका बढे सुखमय
जीवन की, यही चाह रखता हूँ
ओ कष्टों की देवी , मैं
कठोर दंड भी सह सकता हूँ.

पत्र अपने प्रेमी के नाम

पत्र अपने प्रेमी के नाम....


सुदीप !

कैसे हो? मुझे पता है आप ठीक नहीं होंगे ..ठीक हो भी कैसे सकते हो... कमजोर इंसान.. प्यार ने तुम्हे कुछ ज्यादा ही कमजोर बना दिया...मैं नहीं चाहती थी कभी तुम्हारी कमजोरी बनू... इसलिए कोशिश करती हूँ कि तुमसे कम मिलूं... तुमने मुझे कुछ सवालों की फेहरिस्त दी थी... तुमने इतने सवाल किये ..एक सवाल मेरा भी है... क्या तुम्हारा प्यार आकर्षण से परे है?क्या तुम मुझे मेरी सुन्दरता से इतर प्रेम करते हो?तुम मुझे हमेशा झूठी कहते हो... तुम्हे मैं झोठी क्यों लगती हूँ....क्या मैं सच में इतनी बुरी हूँ? क्या मैं ट्रस्ट वर्थी नहीं लगती ? तुम मुझे एक इंसान के नाते कहाँ पाते हो?
सुदीप कहना नहीं चाहती थी लेकिन तुम्हे धोखे में भी नहीं रखना चाहती.... अब वो दिन पास आता जा रहा है जब हम दोनों के बीच कोई तीसरा आने वाला होगा..मुझे नहीं मालूम आगे क्या होगा? मैं तुम्हारी भावनाओं के साथ सरवाईव करने की कोशिश करुँगी.....कोई वजह नहीं कि हम ऐसे इंसान के साथ अपनी जिन्दगी जी रहे होंगे जिसे हम जानते तक नहीं.... तुमने अपनी लिखी कहानियां मुझे नहीं देनी चाहिए थी.... पह्ले पेज ने ही मुझे रुला दिया.... अगर आपने मुझे परखने के लिए ऐसा किया है तो मैं तुम्हे कभी माफ़ नहीं करुँगी...देखों तुम एक अच्छे इंसान हो.... मैं चाहकर भी तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकती... तुम एक दिन बड़े लेखक बनोगे.....तब मैं देखूंगी कि इस वन्दे की हाईट इतनी ऊँची है कि देखने के लिए गर्दन को ऊँचा करना पड़े....तब शायद मुझे भी दुःख हो पछतावा हो कि मैंने इसे छोड़कर गलती तो नहीं की....मैं सिर्फ इतना कह सकती हूँ कि होने वाले साथी में तुम्हारे सवालों के उत्तर खोजूंगी .... आपको मेरी बाते शायद बहकी बहकी लगें.... लेकिन देखते हैं कि किश्मत में क्या लिखा है? समय की धारा का रुख देखते हैं.... मुझे तुम पर ट्रस्ट है लेकिन अपनी किश्मत पर नहीं.... किश्मत क्या करेगी ये ही तो देखना है ... लेकिन हाँ सुदीप तुम ऐसा कुछ भी नहीं करोगे.... जिससे मैं खुद को कभी माफ़ ना कर पाऊँ....
पता चला था कि तुम्हारी तबियत ख़राब है अब कैसे हो? तुम्हारी तबियत ख़राब होती है तो मेरा सिर दर्द हो जाता है और तुम्हारा भी.... जल्दी ठीक हो जाओ... फिर खूब बाते करेंगे और घूमेंगे .... तुमसे बहुत सी बाते करनी हैं.... तुम्हारा स्नेह मुझे बहुत कुछ करने की प्रेरणा देता है... मुझे जीने की प्रेरणा देता है.... तुम्हारे पास मन की सुन्दरता है ...मैं तुम्हे क्या समझती हूँ ये शब्दों में नहीं कहा जा सकता.... इसे बस भावनाओं से महसूस किया जा सकता है.... और ये तुम भी जानते हो....तुम कहते हो जिन्दगी की आखिरी साँस तक इंतजार किया जा सकता है... मुझे मालूम है जो सोचोगे,, कर दोगे...
सुदीप तुम्हे वैसे तो वेट करना अच्छा नहीं लगता फिर जिन्दगी भर कैसे कर पाओगे... हमें एक दुसरे को भूलना ही होगा....
चलो एक काम करते हैं... भूलने की ट्राई करते हैं.... फिर देखते है... और हाँ फ्यूचर् का ज्यादा मत सोचो....
शेष फिर कभी....
आपकी
परम
दुष्यंत कुमार की जमीन से एक रचना....
लग रहा है बेफिक्र वो बेहद सावधान है
छोटा सा कमरा नहीं वो तो पूरा मकान है
लोग तो चलते हैं रेग रेंग कर सड़क पर
चेहरे पर है झुर्री वो अभी पूरा जवान है
एक अदद मकान की ख्वाहिश ही नहीं
उसकी झोली में तो पूरा ही आसमान है
वो जी रहा है सुखी ख्वाहिशों की खातिर
उसकी मुट्ठी में सारा इश्क-ओ-जहान है
समेटने को हर चाहत इश्क की गलियों से
वाह जी वाह ये भी कोई अहसान है
देखने है और कितने दौर कोई इल्म नहीं
आखिरी मंजिल तो सबकी शमसान है
उसमे मुझे एक खास आदमियत नजर आई
लोग कहते है कि वो पक्का बदजुबान है

२००७ में लिखी एक रचना......

२००७ में लिखी एक रचना......

जिनके दर पे मेरे लव्जों ने आगाज किया है 
लव्जों से मेरे उसने हर पल एतराज़ किया है
बिन छुए जाम छाया है नशा मुहब्बत का 
पर कब मुझ पर किसने ऐतबार किया है
सपने में हमने कह दिया उसे खुदा एक रोज़
उसने हर फ़साना हमारा दरकिनार किया है
नवाजा उसे हर गीत-गज़ल और रुबाई में
हर बात को फिर क्यूँ यूँ बदनाम किया है
वो बार बार आजमाइश का सामान खोजते है
जज्बातों का जख्मों से क्या इनाम दिया है
उनकी होशियारी का हुनर तो देखो यारों
जज्ब कर रिश्तों को क्या अंजाम दिया है
खबर है कि अब बिकने लगे हैं अल्फाज भी
देखते है कि मेरी नज्मों का क्या दाम दिया है
"उमंग" संदीप

प्रेम क्षण जी लेने दो

प्रेम क्षण जी लेने दो- कविता 


ऐ सुब्रे बन शीतल 
प्रेम क्षण जी लेने दो 
प्रगति के एक दौर का 
मधु गरल पी लेने दो
इतर यथार्थ के जाकर
कौन सुख पा सकता
भ्रमित रजनी अगर हो
पलपल धोखा खा सकता
वजह यही है आ जाता हूँ
हर पल तेरे अंचल में
छा जाती है खुमारी
तन मन रुपी जंगल में
द्रुमदल सी फैली कामना
अंग अंग लरकता है
सर्पिल बना समय अब
कामुक हुआ सरकता है
सुब्रे बोली तुरंत उमंग से
मत मन अपना तुम भरमाओ
कामुकता के मर्मर भँवरे
कुछ तो लज्जा खाओ
प्रेम सरोवर में गोता खाकर
क्या तुम कहलाओगे
खुद की पीड़ा तो हर लोगे
पर परपीड़क बन जाओगे
समय पुकार रहा तुम्हे
पथ प्रदर्शक बनने को
जन्म लिया है तुमने
पर-पीड़ा हरने को
फिर आमोद छोड़ तुम
नव रूप क्यों नहीं धरते हो
मानवता के बन पालक
समाज नूतन क्यों नहीं रचते हो..
"उमंग" संदीप

तुम्हारी अन्तः चेतना -कविता


तुम्हारी अन्तः चेतना

कितना झेला तनाव
भटकते तुम्हारे भाव
मलिन होता स्वभाव
प्रिये
मैं जानना चाहता हूँ
तुम्हारी दृष्टि का वेग
तुम्हारा उद्वेग
डूबता तेज़
भावनाओं से परहेज
हाँ प्रिये
मैं चाहता हूँ
तुम रखों खुद पर संयम
ना हो प्रेम का दंभ
ना ही हो फर्ज कम
यही होगा तुम्हारे मेरे बीच
पनपे हर रिश्ते का संबल
रखना सिद्धांतों का ध्यानपल-प्रतिपल
ना होने देना मन में हलचल
प्रिये
मैं देखना चाहता हूँ
तुम्हारे जीवन का उत्कर्ष
चेहरे पर हर्ष
पर नहीं चाहता
तुम्हारे जीवन में
स्व भावना को कोई स्पर्श
इसीलिए
प्रिये
मैं जानना चाहता हूँ
तुम्हारे हृदय उदगार
और देहना चाहता हूँ
शांत होते हुए
प्रेम का हर ज्वार
नहीं बनूँगा बाधक
तुम्हारे जीवन में
और तुम भी
न होने देना
मेरी भावनाओं को बदनाम
क्या कर सकोगी तुम
मुझ गरीब पर
सिर्फ ये अहसान
बताओ क्या तुम
पूरा कर पाओगी
मेरा ये अरमान !!!!


"उमंग"संदीप

माँ - कविता


माँ 
**************************************************
तुमको मैं खोना नहीं चाहता 
खोकर रोना नहीं चाहता 
माँ-बाप न हो तो बच्चें
कहलाते हैं अनाथ
तुम बिन मैं रहूँ कैसे
असमय अनाथ होना नहीं चाहता
तुम्हारी याद कितना सताएगी
पल पल आँखे भर आएँगी
सजा काटेंगी हर पल
और फिर थक जाएँगी
जब मैं सो जाऊंगा बिलखता हुआ
तो कौन तब लोरी सुनाएगी
बिन लोरी मैं सोना नहीं चाहता
भावनाओं को मैं डुबोना नहीं चाहता
तुमको मैं खोना नहीं चाहता
*****************************************************
"उमंग" संदीप
१४.०४.२००७

बंटवारा - लघुकथा

बंटवारा

माँ की अंत्येष्टि पर तीनो भाइयों ने तमाम संपत्ति का बंटवारा करने के फैसला किया ताकि किसी ग़लतफ़हमी या फसाद की गुंजाईश न रहे...तीनो ही बेटों की माँ के प्रति "अटूट श्रध्दा" उमड़ पड़ी...
बड़े बेटे ने दिवंगत माँ को संबोधित किया,"माँ तू मुझे हमेशा खर्च के लिए पिताजी से चुप छुपा कर रूपये दिया करती थी..तू तो जानती है मुझे रुपयों से कितना प्यार है और फिर मेरे खर्च भी तो...... तेरे बैंक के रुपयों पर मेरा ही तो अधिकार है ना...
मझले बेटे ने तर्क किया."माँ, तू तो जानती है मुझे सोने से कितना प्यार है ..तू सबसे छिप छिपा कर मेरे लिए अंगूठी,चेन बनवा दिया करती थी तेरे गहनों पर तो मेरा ही अधिकार हुआ न ...
अब बारी सबसे छोटे बेटे की थी...उसने देखा--- उसकी आँखों के सामने माँ की अस्थियों का कलश रखा था ...उसने कलश को उठाया और बुदबुदाते हुए अपने कमरे की ओर बढ़ गया..दोनों बड़े भाइयों के कानों में छोटे के शब्द पड़े--" माँ, तेरी अस्थियाँ मेरे लिए तेरे सिद्धांतों का संबल है ... ये कलश मुझे पल पल मजबूती देता रहे... ऐसा आशीर्वाद दीजियेगा....
आभार :
लघुकथा संग्रह "कामरेड संजय
रचनाकार :संदीप तोमर
प्रकाशक :निहाल पब्लिकेशन एन्ड बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स
दिल्ली

कंगले की माँ - लघुकथा

कंगले की माँ 

रमेशर की माँ की अर्थी शमसान में उतारकर चिता पर लिटाने की तैयारी हो रही थी.. लोगो ने अर्थी पर से ऊपर डाले गए कपडे उतारकर अलग रख दिए ..अब पार्थिव शरीर को चिता पर चिता पर लिटा दिया गया था...
रमेशर ने अपनी माँ की चिता को दाग दिया..पूरा क्रियाक्रम विधिपूर्वक पूरा किया गया था..जग्गू डॉम ने पूरी क्रिया में भरपूर साथ दिया...
आग की लपटें ऊपर उठ चुकी थी..जग्गू की पत्नी और जग्गू अर्थी पर से उतारे गए कपडे इत्यादि इकट्ठे करने लगे ...
"क्यों जी , किसका अंतिम संस्कार हो रहा है "-जग्गू की पत्नी ने पूछा...
"रमेशर की माँ का "-जग्गू ने जबाब दिया ...
"कौन रमेशर? कहीं ये तुलवा चमार का बेटा तो नहीं.?"- उसकी बीवी ने पूछा...
"हाँ वही है "-जग्गू ने अनमने मन से कहा ...
"हे ईश्वर, तुझे भी इस कंगले की माँ ही मिली थी मारने के लिए ,,उसके तो रिश्ते-नाते वाले भी लगता है उसके जैसे ही कंगाल हैं."-जग्गू की बीवी गुस्से में बोल रही थी...
हाँ भागवान्, साले रमेशर की माँ मर गयी ...हमें क्या फायदा हुआ ?अर्थी से गिनी हुई चार भी नहीं मिली ..."-जग्गू कह रहा था...
जग्गू ने कपड़ो की पोटली बाँध कर लाद ली...और घर की ओर चल दिया...
आग की लपटें अब भी उठ रही थी..
लघुकथा संग्रह "कामरेड संजय
रचनाकार :संदीप तोमर
प्रकाशक :निहाल पब्लिकेशन एन्ड बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स
दिल्ली

"सिस्टम " लघुकथा - संदीप तोमर

"सिस्टम "


लघुकथा 
( यह लघुकथा खूब चर्चित और प्रसारित हुई )

महानगर का प्रत्येक चौराहा व्यस्त, लाईटों से नियंत्रित ट्रेफिक ... जैसे ही रेड लाईट होती एक साइड की गाड़ियों में ब्रेक लग जाते.. तकनीकी ने मनुष्य को यांत्रिक बना दिया जिसे लोग सिस्टम कहते हैं.महानगर तो जैसे चलते ही सिस्टम से हैं...एक सिस्टम ये भी है कि चौराहे पर गाड़ियाँ रुकते ही अख़बार,खिलोने,इत्यादि बेचने वाले गाड़ियों की ओर दौड़ पड़ते हैं ...कभी छोटे बच्चे अपनी कमीज निकाल कर हाथ में ले शीशे साफ़ करने लगते हैं और एक रूपये के सिक्के के लिए हाथ फैलाने लगते हैं...किसी को दया आ जाये तो शीशा उतार कर उन्हें सिक्का पकड़ा दे वर्ना गाड़ी तो साफ़ हो ही गयी...
अभी रेड लाईट हुई तो १४-१५ साल की साधारण नैन-नक्श की एक छरहरी लड़की एक कार की तरफ दौड़ी...वह इस कदर गरीब थी कि शरीर को ढकने के लिए पूर्ण कपडे भी नहीं थे. बदन अधिकांश उघडा हुआ था.., दुपट्टे की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती थी...उसकी स्थिति उसकी गरीबी को बयाँ करने के लिए काफी थी...
सलेटी रंग की हौंडा सिटी के शीशे पर उसने दस्तक दी..कला शीशा नीचे सरका...लड़की ने कार में बैठे युवास से याचना भरी दृष्टि से कहा--"साहब एक गुलाब कह्रीद लीजिये ना ,आज तो एक भी नहीं बिका.."
युवक ने कला चश्मा नीचे सरका कर उसके बदन को ऊपर से नीचे तक भरपूर निहारा...थोड़ी गर्दन शीशे से बाहर निकाली ,बोला-" ऐसी बात है , चलो हम सारे फूल खरीद लेते हैं ...एक काम करो... फूल गाड़ी में पीछे रख दो..."
"जी बाबु जी "
"कितने पैसे हुए?"
बाबूजी ३०० सौ रूपये..."
"अरे मेरा पर्स पास ही मेरे शो -रूम पर है..तुम गाड़ी में बैठो...मैं तुम्हे वहां से पैसे दे देता हूँ"
लड़की खुश थी कि उसके सरे फूल बिक गए उसने खिड़की खोली और गाड़ी में बैठ गयी.... उसे लगा आज सारे दिन धुप में नहीं भटकना पड़ेगा ...वह सोचने लगी -"बाबूजी कितने अच्छे हैं ..उन्होंने उसे गाड़ी में भी बैठाया है.. आज तक तो लोग उसे गाड़ी छूने भी नहीं देते थे..."-लाईट के ग्रीन होते ही हौंडा -सिटी ने रफ़्तार पकड़ ली थी...
वह बेचारी बेबस लड़की फिर कभी उस चौराहे पर दिखाई नहीं दी...रेड लाइट पर गाड़ियों के रुकने और ग्रीन होने पर स्पीड पकड़ने का सिस्टम जारी है..
लघुकथा संग्रह "कामरेड संजय
रचनाकार :संदीप तोमर
प्रकाशक :निहाल पब्लिकेशन एन्ड बुक डिस्ट्रीब्यूटर्स
दिल्ली.

कहानी संग्रह यंगर्स लव {लेखक : संदीप तोमर } की भूमिका


कहानी संग्रह यंगर्स लव
{लेखक : संदीप तोमर } 


भूमिका

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किसी शायर का एक शेर है ----
वो शख्स प्यार के काबिल है क्या किया जाये
मगर वही मेरा कातिल है क्या किया जाये.
अगर हम आस पास के मानवीय संबंधों को देखें तो शेर की पंक्तियों की प्रासंगिकता समझ आती है...तब ये पंक्तिया न होकर जीवन दर्शन बन जाती हैं..जब कभी मैं बचपन , किशोरावस्था ,युवावस्था,के तमाम सुन्दर-असुंदर रूप देखता हूँ. तो वो तमाम शख्स मेरे सामने उपस्थित हो जाते हैं..जिनके साथ जीवन यात्रा के पडावो पर अनुभव -दर-अनुभव मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा बनते गए...
जब ये अनुभव डायरी में दर्ज होने लगे तो मुझे महसूस हुआ कि मुझमे अक्षरों की एक नयी दुनिया विस्तार ले रही थी जिसमे एक अजीब सा आकर्षण था...यह आकर्षण मुझे अपने आगोश में लिए दीख पड़ता था...मैं उस उजली दुनिया में अपने आप को बहुत ही प्रकाशित और उर्जायुक्त महसूस कर रहा था,...
मुझे अक्षरों की इस दुनिया के साथ क्रीडा-कौतुक करने (होने) में आनंद हो आता था..मैं अक्षरों की एक सामूहिक बौछार की हर फुहार ,हर बूंद, को अपने चेहरे को नम करते देखा...यह एक ऐसी दुनिया थी जिसका रस मैं किसी के साथ नहीं बनता सकता था...
शायद अक्षरों से चलने वाला सफ़र शब्दों के रूप में तब्दील होता हुआ वाक्यों की ओर उन्मुख होता गया,...मैंने तमाम उन नायक -नायिकाओं को इस दुनिया में खींचने की कोशिश की जो मेरी जिन्दगी में अपना स्थान सुनिश्चित कर चुके थे..उनमे से कुछ इस क्रीडा का आनंद उठाने में अक्षम थे...तो कुछ अपना क्रम निर्धारित करने में व्यस्त हो गए...कुछ एक शख्स अपने कदम आगे बढाने को तैयार ना थे..समाज में अमरत्व उन्हें कलंक प्रतीत हुआ...या फिर यूँ कहूँ की वे लेखक की सह-यात्रा में कलंकित होने के भय से ग्रसित थे..मैं अपना दामन फैलाये ,अपनी पलके उनकी राहों में बिछाये खड़ा रहा....
उन तमाम नायिकाओं की छवि मुझे कृष्णा अष्टमी के चाँद की सी महसूस हुई...बादलों की कालिमा ने उन्हें अपने आगोश में छुपा लिया था हर एक पल...हर एक क्षण कृष्ण पक्ष था चन्द्र आभा के लिए मन को दमित करने पर उतारू रहता था...अब मैं अपने सफ़र का अकेला राही था.....मानो हर एक हमसफ़र ...पीछे छूटता जा रहा था...और हर पात्र का चेहरा धुंधला सा होने लगा था.......महसूस होने लगा था कि अब ये तमाम शख्स अमरत्व को प्राप्त न हो पाएंगे.. उदासी मेरे ह्रदय में गहरी पैठ बनाने को उतारू थी...सपने प्राणहीन होने लगे थे...
तभी एक ऐसे शख्स से मुलाकात हुई तो सपने दिखाने के जादू में अभ्यस्त ,कविवर पाश से भी ज्यादा सिद्धस्त ,,,उसने कहा ---
"जब अपने दिल में कोई सपना सजा लो तो इसे जाने मत देना... क्योंकि मेरे दोस्त सपने ही वो छोटे-छोटे से बीज हैं जिनसे बेहतर भविष्य के अंकुर फूटेंगे और एक बेहतर कल तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक देगा....
और अगर सपना सच न भी हुआ तो क्या गम किया जाये ? उत्तेजित होने से भी क्या होगा ? ये संसार बहुत फैलाव लिए है, इसके पास देने के लिए बहुत कुछ है ...असफलता का स्वाद चखा है ,,,जरुरत है एक और सपना पालने की , और और भविष्य की आस बेहतर संसार का निर्माण करेगी ..यही जिन्दगी का फलसफा है..
और मजेदार बात तो देखिये यही शख्स यही साथी अनायास ही अनेक पात्रों के रूप में कहानियों में पसरता चला गया...कभी नायिका के रूप में कभी सह-नायिका के रूप में ,कभी नरेटर के रूप में ..... भले ही इस शख्स का कोई भौतिक वजूद न रहा हो..लेकिन मानसिक और भावनात्मक रूप में यह शख्स इस कदर जुडा की कल्पना में इससे संवाद कुछ यूँ हुआ----
"नए दोस्तों के साथ बैठकर जिए चाँद लम्हात यादों की गुफ्तगू का एक बहाना होते हैं , जिसमे अपनी तमाम जिन्दगी से फिर से रूबरू होने का मौका मिल जाता है यह अमे अक्सर अहसास दिलाता है कि हम फिर से उस जन्म में पहुँच गए और यह अवसर सशरीर साथ रहने ज्यादा सकून भरा अहसास करवाता है...क्योंकि उस पल साथ जिए जीवन को हम एक ही पल में जी लेते हैं..वो सब बातें एक कलाम सा लगती है जिसे हम हृदय के हर कोने ने गता प्रतीत होते हैं...लगता है उस पल जुबान पर आया हर लफ्ज़ मुहब्बत की चासनी में डूबा है..उस वक़्त प्रेम और छल जो भी हमारे जीवन में है सब हृदय से छन-छन कर बाहर आता है, और विडंबना तो देखिये वहा किसी से कोई शिकायत नहीं करता ...वह भूल जाता है कि उस दुनिया को छोड़े ,उस पल को जिए कितना अरसा हो गया ...
जो बीत गया उसे मृत प्राय मान लिया जाता है ...लेकिन यहाँ विचार भूत काल में गोता लगाते हैं.तो ये मृत नही होते बल्कि जीवंत हो उठते हैं..हर मन में स्मृतियाँ होती हैं जो हमारे अन्दर कहीं गहरे में पैठी होती हिन् ..ये स्मृतियाँ जहन में सुरक्षित होती हैं.जिन्हें जब चाहे आईने की तरह साफ साफ देखा जा सकता है.... जब कभी पुनः ऐसा माहौल बनता है तो फिर से दृश्य आँखों के सामने घुमने लगते हैं बाहर आने के लिए करवट ले रहे हों.यादों के अन्दर भी यादें गुंथी होती हैं ,ये यादें आनंद की हैं जीने का अंदाज अलग है तो यादें अलग हैं.हर जिन्दगी में खट्टे मीठे अनुभव होते हैं.लेकिन सबका स्वाद अलग है न्यारा है...
हर इंसान बेहतर जीवन जीने के लिए सपना पालता है.बेहतरी के लिए रस्ते तलाशता है और उसी से मंजर भी जुदा हो जाते हैं...जिन्दगी में बदलाव का सूत्र पुरानी यादों से ही जुडा है..जो बीत गया वाही भविष्य के रास्ते भी तय करता है...इससे जरुर फर्क पड़ता है कि पिछला जिया जीवन कितन बेहतर था...
इस संवाद ने मुझे एक नयी दृष्टि दी... एक नयी सोच विकसित हुई... वो तमाम वाक्यात जो मेरी जिन्दगी में घटे मेरी आँखों के सामने जो मंजर आये वो सब मेरी डायरी का हिस्सा बनने लगे...और कहानी की शक्ल लेने लगे...टुकड़ों में घटी कहानियां परिपक्व होने लगी.और इस तरह संकलन में बदलने लगी...इसी राह में आस पास के मानवीय संबंधों , घटनाओं ,परिस्थितयों इत्यादि को देखने का नजरिया बदल गया...और ऐसे पत्रों की रचना होने लगी जो मेरे होकर भी आप सबके हैं...समाज के हैं इन पात्रों के साथ एक पूरी दुनिया का सृजन होने लगा...एक समूची दुनिया अपना आकार लेने लगी..इससे एक बड़ी घटना यह हुई कि स्वयं का व्यक्तित्व इन पात्रों के साथ आत्मीय होने लगा...इन पात्रों के साथ दुःख सुख बांटते हुए स्वयं इनकी रों में बहने लगा..दरिया में उनके साथ डूबता ...यहाँ वहां विचरण करने लगा....
इन कहानियों को पढ़ते हुए आपको लगेगा की ये पात्र हमारे आस-पास की दुनियां के हैं... इन पात्रों में समय और समाज के संस्कार विद्यमान हैं.... और ये संस्कार मुझे भी संस्कारमय बना एक दिव्यलोक का भ्रमण कराते हैं.. कभी कभी आपको भी लगेगा कि लेखक हमारी जुबान में संवाद लिख रहा है..किसी कहानी की नायिका आपकी अपनी नायिका प्रतीत हो सकती है...आपको अनुभव होगा कि कहानी के पात्रों का वजूद आपके सामने मौजूद है... वो आज भी जिन्दा हैं ,,साँस लेते हुए हांफते हुए ,,अपने समाज, काल और व्यक्तित्व से जूझते हुए ,,, राहत पाने की तलाश में प्रतीक्षारत......
मेरे पाठक मेरे प्रति अपनी उदारता का परिचय देते हुए मेरे पत्रों के साथ आत्मिक रूप से जुडाव महसूस करेंगे ,,उनके साथ मित्रता का हाथ बढ़ाएंगे और खूब आनंदित होंगे...इसी विश्वास के साथ ...
आपका
संदीप तोमर



देखते हैं.... कविता

देखते हैं-संदीप तोमर 


तुम पर क्या जोर चलता बहलने के लिए 
दिल का एक कोना चाहिए टहलने के लिए 
कायनात का क्या करें सनम 
हाथ दो ही काफी है कस कर पकड़ने के लिए
क्यों रोज़ रोज़ डराते हो रूठ कर
धमाका एक ही काफी है जमीन दहलने के लिए......
यूँ भी तो होती है इज्जत तार तार
दो गज कपडा ही दे दो पहनने के लिए
तुम्हे अक्सर रुठने की अदा निराली
कैसे हुनर पैदा करें तुझे रोज़ मनाने के लिए
कितने रोज़ उधार मांग कर लाये
जितने भी लाये गुजार दिए ज़माने के लिए
जब ख्वाहिस हो चले आइये मेरे हूजुर में
सजा रखा है तख़्त-ओ-ताज जनाज़े के लिए
हम मोहब्बत के बाग़ सजाये दिल में "उमंग"
देखते है कौन आता है इसे उजाड़ने के लिए
(चलते - चलते ))
रेप की जो लगी तोहमत 
हम बल्लियों कूद पड़े...
किसी ने पूछा -जनाब सच में (?)
हम हौले से मुस्काए 
और हामी में होठ फरकाए ..
इनकार भी कैसे करते...
इल्जाम था मरदाना
याद आया पत्नी का
नामर्दगी का ताना
जोश से भरपूर
वो वैद का पुर्जा
जैसे असंतुष्ट प्रेमिका का
लिखा हुआ परवाना
और बराबर में...
कविवर अविश्वास
जाना-पहचाना..
अगला कदम
देशी हकीम की दूकान
ताकत-मरदाना
मशहूर दवाखाना ....

औरतें क्यों नहीं (लघुकथा)


औरतें क्यों नहीं 

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"कहाँ व्यस्त हो ?"
"घर के काम काज में बिजी हूँ"
"मसलन"
"अरे बाबा ! खाना पका रही थी" 
"क्या बनाया ?"
"गोस्त,बैगन का भरता ,रोटी चावल"
"खाना बनाया ही है या खाया भी है ?"
"जी अभी बनाया है ,खाया नहीं है "
"क्यों नहीं खाया ?दोपहर हो रही है फिर कब खाओगी?" 
"अभी 1 बजे की अजान होगी , फिर मैं नमाज पढूंगी तब खाना खाऊँगी,समझे सुदीप जी "
"ओह , रोज़ ऐसे ही करती हो?"
"जी, रोज ऐसे ही करती हूँ..पहले नमाज फिर खाना "-नजमा ने जबाब दिया...
"नमाज घर में ही पढ़ती हो या मस्जिद में ?"-सुदीप ने उत्सुकतावश पूछा.
"अरे बाबा! घर में ही पढ़ती हूँ."
"क्यों? घर में क्यों मस्जिद में क्यों नहीं ?"-सुदीप ने जानने के लहजे से पूछा .
"अरे बुद्धू ! लड़कियां घर में ही नमाज पढ़ती हैं..."
"घर में क्यों ? मस्जिद में क्यों नहीं ?"
"अरे जनाब मस्जिद मर्दों के लिए होती है. औरतों के लिए नहीं."-नजमा ने झल्लाकर जबाब दिया...
सुदीप ने मोबाइल काट दिया और विचारमग्न हो गया. मस्जिद अल्लाह का इबादतघर है और अल्लाह सबके लिए है,सबका है तो फिर मर्द ही मस्जिद ने नमाज अदा क्यों करें औरतें क्यों नहीं?

बलम संग कलकत्ता न जाइयों, चाहे जान चली जाये

  पुस्तक समीक्षा  “बलम संग कलकत्ता न जाइयों , चाहे जान चली जाये”- संदीप तोमर पुस्तक का नाम: बलम कलकत्ता लेखक: गीताश्री प्रकाशन वर्ष: ...