Saturday 13 January 2018

एक अपाहिज की डायरी (आत्मकथा) दूसरा भाग रचनाकार -- संदीप तोमर

आत्मकथा 

गतांक से आगे............
दूसरा भाग

दादा अपने भाइयों में सबसे बड़े थे..उनसे छोटे ७ भाई और तीन बहने थी एक बड़े भाई की मृत्यु जवानी में ही हो गयी थीउनकी दो बेटियां ही थीखुद की पांच संतान, तीन बेटे और २ बेटियां दादा ने ७ बच्चों की परवरिश की, ४ बेटियों की शादी भी की दो बेटे बड़े थे और पिताजी सबसे छोटे गॉव-गमांड में परिवार को उसके नाम से जाना जाता।लोग गॉव में मेरे परिवार को मुकद्दम कहते। ये एक पदवी थी, इलाके का प्रतिष्ठित परिवार, दादा बेहद ही सीधे इंसान, इनके सीधे होने के चलते बड़े बेटे ने घर की सब सम्पति पर अपना अधिपत्य किया हुआ था मझले बेटे ने शुगर-मिल में कामदार की जॉब पकड़ ली और खेती-बाड़ी का काम छोटे बेटे के जिम्मे आ गया उनकी पढाई-लिखाई पर किसी ने ध्यान नहीं दिया सब अपने-अपने चक्कर में लगे रहते, पिताजी जब तीसरी क्लास में पढ़ते थे तब से ही उन्हें खेती में लगा दिया गयाकिसी तरह पढ़ते रहे.. दसवी क्लास में थे तो मालती देवी यानि मेरी माँ से शादी हो गयी.. फिर यहाँ-वहां नौकरी करते हुए घर का गुजारा करने लगे, जैसे-तैसे नौकरी के साथ प्राइवेट पढ़ते हुए १२वी की तो भविष्य की चिंता होने लगी। माँ खेती का काम देखती। अब बड़े दोनों भाई फसल बटवाने लगे माँ खेती में पूरा हाथ बटाती, उसे दुःख होता कि मेहनत हम करें और अनाज सबका प्रिगनेंट रहती तो भी खेती का काम देखती
माँ का सहयोग न होता तो शायद पिताजी पढ़ भी न पातेनीलू के जन्म के समय तक वे टीचर ट्रेनिंग कर चुके थेमेरे जन्म से कुछ दिन पहले ही अध्यापक बने थेमकान भी बिना किसी के सहयोग के बनाया था
दादी के बड़े ताऊ के यहाँ जाने के फैसले से पिताजी आहत जरुर हुए थे लेकिन हिम्मत नहीं हारी थी
माँ मुझे लेकर डाक्टर के पास जाती पिताजी स्कूल से आते तो बच्चे भी आ चुके होते वो स्टोव पर खाना बनाते, सुप्रिया पिताजी को रोटी बनाते देखती तो अन्दर तक दुखी हो जाती, उसने कहा-"पिताजी मैं रोटी बनाउंगी "
“हाँ बेटी तू बड़ी हो जा, फिर तुझे ही तो ये सब करना है"-पिताजी आहत मन से कहते
एक बच्ची उम्र से पहले बड़ी हो रही थी तीसरी क्लास में आई तो नन्ही अँगुलियों से तवे पर रोटियां सेकने लगीकच्ची-पक्की रोटियां बनाती, पिताजी बड़े चाव से खातेबच्ची का हौसला बढताछोटी होते हुए भी सुप्रिया पर काम की जिम्मेवारी बढ़ने लगी साफ-सफाई, खाना-बर्तन सब करती माँ के आने से पहले तक एक भी काम न छोडतीमाँ को भी फक्र होता कि मेरे बच्चे कितने नेक हैंसुकेश जरुर सुप्रिया को तंग करता लेकिन फिर भी सब भाई बहनों में बड़ा प्यार पिता के अध्यापक होने का दबाव सबके मन पर था कोई भी गलत काम करने से पहले मन में आ जाए कि एक टीचर के बच्चे हैं लोग क्या कहेंगे? ऐसे ही माहौल में परवरिश हो रही थी
 मैं अब ५ साल का हो गया लेकिन पेट के बल ही सरकता हाँ बस इतना सुधार आया कि अब घुटनों के सहारे घिसड़कर जमीन पर चल लेता मोहल्ले के कुछ बच्चे मेरे दोस्त बन गए महेश और राजेंद्र मेरे हमउम्र थे तो पहले उनसे ही दोस्ती हुईछोटे-मोटे खेल खेलते, मेरा दिमाग तीव्र गति से चलता ये बात पिताजी को समझ आने लगी थी उनका मन कहता कि बच्चा थोडा भी खड़ा होने लगे तो इसे स्कूल भेजा जाये
सुप्रिया भाई का ख्याल रखती, जिस दिन उसकी छुट्टी होती और माँ को डाक्टर के पास नहीं जाना होता तो सुप्रिया ही मुझे नहलाती और कपडे बदलती
कोई भी इलाज मुझ पर कारगर नहीं हो रहा था माँ पिताजी सब परेशानकिसी ने बताया कि बुढाना कस्बे में बस स्टैंड के पास एक देशी वैद है जो इसी तरह के मरीजों का इलाज करता है इलाज के लिए वहां ले जाने का फैसला किया गया
एक सुबह पिताजी और माँ मुझे लेकर बुढाना डॉ सुबोध के क्लिनिक पहुंचे मैं अब बातों को समझने लगा था, बातों का बारीकी से निरीक्षण करता कहते हैं कि जब किसी का अंग-भंग होता है तो उनकी संवेदना का स्तर बढ़ जाता है और उसकी उस अंग विशेष की ताक़त भी मस्तिष्क में चली जाती हैचुनांचे मेरा मस्तिष्क भी शीघ्रता से  परिपक्व हो रहा थापिताजी ने मुझे गोद से उतार एक बैंच पर बैठा दियाडॉ सुबोध ने बताया कि ये लड़का तीन साल में सड़क पर दौड़ेगा और आप यही इसी बेंच पर बैठे हुए देखोगेउन्होंने कुछ मरीजों से बात करायीउनके माँ-बाप से बात करायीजिन्होंने बताया कि हमारा बच्चा भी पेट के बल सरकता था, इसे आज डॉ साहब ने इतना कर दिया कि अब धीरे-धीरे चलने लगा हैमैं ये सब बाते सुन रहा था तो मैंने कल्पना की कि एक दिन मैं भी और सब बच्चो की तरह चल पाउँगा
इलाज शुरू हो गया था हर तीसरे दिन डाक्टर बुलाता कुछ अजीब से तेल की मालिश करता और फिर पट्टियों को लपेट देता पट्टियों के नीचे लकड़ी की खरपच्चिया होती जो मुझे चुभती और परेशान करती मेरा मन बाहर दोस्तों के साथ खेलने का करताअब मैं दीवार पकड़ कर थोडा चलने का प्रयास करता डॉ ने बताया कि इसे एक गडुलना लाकर दो ये उसे पकडकर चलेगापिताजी बढई से एक गडुलना बनवाकर ले आये मैं अब गडुलने की सहायता से चलने का प्रयास करता हर पंद्रह दिन बाद डॉ सुबोध दोनों पैरों पर प्लास्टर कर देता और फिर दो-तीन दिन उसका चलना फिरना बंद हो जाताइस इलाज से एक फायदा ये हो रहा था कि अब मैं घर से बाहर कुछ कदम रखता, मुझे अनुभव होता कि दुनिया इस चारदीवारी से भी आगे है माँ ने पिताजी को कहकर एक हिंदी का कायदा मंगवा दिया और एक स्लेट अब मेरा स्कूल घर पर ही लगने लगा मध्यमा पास माँ मुझे क ख ग पढ़ाती, स्लेट पर लिखाती, मेरा कई बार मन नहीं होता तो माँ सख्ती दिखाती मेरा पढाई में मन नहीं लगता माँ घर के काम-काज करती तो साथ में पीढ़े पर मुझे बैठा लेती और पढने को कहती प्लास्टर और पट्टियों के बीच जूझता बालक कैसे पढाई में मन लगाये क्लास में तो मास्टर का ध्यान ज्यादा बच्चो पर रहता है लेकिन यहाँ तो एक अध्यापक और एक ही छात्र, वो निगाह भी बचाए तो कैसे? माँ सख्ती करने लगी, हिंदी के कायदे का काला पन्ना जो किसी के भी होश उड़ा दे माँ चाहती कि मुझे वो काला पन्ना कंठस्थ होकाले पन्ने के लिए मार भी लगतीतब मुझे स्कूल गयी बहन सुप्रिया की याद आती, दीदी घर पर होती तो पिटाई से बचा लेती, मैं दीदी के स्कूल से आने की प्रतिक्षा करता, सुप्रिया स्कूल से आती तो ही मैं खाना खाता
उम्र बढ़ने से शरीर का वजन भी बढ़ रहा था माँ डॉक्टर के पास जाती तो रिक्शा न लेकर पैदल ही जातीसात साल की उम्र के बच्चे को गोद में लेकर चलाना ऊपर से पट्टी और प्लास्टर का भी वजन माँ मुश्किलों से ढाई-तीन किलोमीटर दूर बस अड्डे तक ले जाती और वहां से बस से बुढाना जातीअब ये सब जिन्दगी का एक हिस्सा बन गया था
परिवार से ही एक थे वीरेंदर चाचा जो स्कूल में पढ़ते थे यशवीर चाचा फ़ौज में थे लेह में पोस्टिंग हुईवो फ़ौज से छुट्टी आये तो बादाम और अखरोट लाये मैं बहुत खुश हुआ, मैने बादाम खाए, अखरोट मुझे पसंद नहीं आयेचाचा जितने दिन छुट्टी आते तो रोज़ मुझसे मिलने आतेमैं बहुत खुश होता, यूँ तो चाचाजी सबको प्यार करते लेकिन मुझे कुछ ज्यादा
चाचाजी की शादी हुई लेकिन मुझे पट्टियाँ बंधी होने के कारण कोई उसे बारात में नहीं ले गया उस दिन बेहद दुखी हुआ, रोता रहा, यशवीर चाचा से बहुत लगाव था, मैं भी बारात में जाना चाहता था, उस शाम खाना भी नहीं खाया सोचता रहा कि मैं यूँ इस हाल में ना होता तो मैं भी सुकेश भैया और नीलू की तरह नए कपडे पहनता, बारात का खाना खाता, रोते-रोते कब नींद आई होगी पता ही नहीं चला
एक दिन माँ डाक्टर के पास से मुझे लेकर आ रही थी रास्ते में वीरेंदर चाचा मिले.. बोले- “भाभी सुदीप को मेरी साईकिल पर बैठा दो, मैं घर ही जा रहा हूँ
माँ ने मुझे साईकिल पर बैठा दियाचाचा साइकिल लेकर चल दिए, अभी गॉव में घुसे ही थे कि देखा कुछ बच्चे शोर मचा रहे थे साईकिल रोक वो उन्हें देखने लगेबच्चे एक टिड्डे को पकड़ने के लिए शोर मचा रहे थे चाचा भी उस मण्डली में शामिल हो गएटिड्डा मेरी कमर पर आकर बैठामैंने जैसे ही उससे डरकर कमर को हिलाया साईकिल ने अपना बैलेंस खोया और साईकिल और मैं दोनों धडाम नीचे बाए हाथ की कोहनी की हड्डी टूट गयी चाचा घबराकर भाग गए, सुदीप रोये जा रहा था माँ आई तो बहुत तमाशा हुआ चाचा जाकर खेत में छुप गए थेअब खचेडू चूढ़े को बुलाया गया उसने सोचा कि कोहनी उतरी है हिला-डुला कर कुछ किया और लुडपुड़ी बनवाकर बांध दीदर्द के मारे मैं कराहता रहाअलगे दिन सुबह होते ही पिताजी सुरेश डाक्टर के यहाँ ले गएहाथ पर भी प्लास्टर बंध गया था
मैं हाथ और पैर दोनों पर प्लास्टर देख रोता रहता
माँ चाहती कि मैं पढू अब हिंदी के साथ-साथ गिनती का भी जोर होने लगागिनती मुझे फट से याद हो जाती। देखते ही देखते २० तक के पहाड़े  भी रट गएछोटे-मोटे गुना भाग जोड़-घटा भी सीख गया इन सबमें सुप्रिया का मुझे भरपूर साथ मिलताहाथ का प्लास्टर कट गया थालेकिन अब कोहनी का मुड़ना बंद, रोज़ गर्म पानी की सिकाई कभी-कभी सुप्रिया भी झल्ला जाती कि सारा काम मेरे जिम्मे दिन में चार-चार बार सिकाई छोटी बच्ची ऊपर से काम का इतना बोझ? लेकिन फिर सोचती मेरा भाई है जल्दी ठीक हो जायेगा
डॉ.सुबोध प्लास्टर के बाद पंद्रह दिन पैर खुले छोड़ देता ताकि जोड़ जाम न हो जाये पंद्रह दिन फिर पैरों की सिकाई होती और पैर को खोलने के लिए व्यायाम करना पड़ता मैं एक ही काम रोज़-रोज़ करने से उकता जातालेकिन माँ की सख्त हिदायत थी कि ठीक होना है दूसरे बच्चों की तरह चलना है तो ये सब करो
माँ खेत का काम करती पशुओं का काम करतीमैं घर पर अकेला बोर हो जाता, बसंती दादी अपने दालान में बुला लेतीबसंती दादी और हमारा एक ही दालान था बस बीच में एक दरवाजा लगा था, जो सिर्फ रात में ही बंद होता दोनों परिवारों का एक ही नल था जिस पर दोनों परिवारों का काम होता था, नहाना-धोना, बर्तन सब बिजली भी सिर्फ हमारे यहाँ ही थी, रात में दोनों परिवारों के बच्चे वहीँ पढ़ते थे
इस बीच दादी की तबियत ख़राब चल रही थी.. माँ पिताजी ताउजी के यहाँ जाते.. उनकी सेवा करते माँ दादी के बाल धोती, कंधी करती उसके कपडे बदलती, कभी सुकेश भैया दादी से मिलने जाते तो दादी उसे ताऊ के बच्चो के कंचे दे देती और कहती मेरे छोटे पोते को दे देना

एक दिन खबर आई कि दादी मर गयी उस दिन सब लोग ताऊजी के यहाँ गए मुझे खाना बसंती दादी ने खिलाया दादी के अंतिम दर्शन भी नहीं हुए। मैं सोचता रहा कि दादी कहाँ चली गयी, क्या अब दादी फिर उससे मिलने नहीं आएगी।
क्रमशः  

Friday 12 January 2018

चंद असरार

जब से उनको हमने ख़्वाबों में देखा है ।

बेशूमार प्यार हमने लुटाते हुए देखा है ।।

सर झुका के उन्होंने जब भी सलाम भेजा है ।

झुकी हुअी नजरो में हमने इंतज़ार देखा है।।

मस्त निगाहों से वो शरारत करते हैं अक्सर।

होश वालों से उन्हें तकरार करते  देखा है ।।

गिला- शिकवा भी क्या करना अब उम्र भर।

अमीरों को भी  दौलतें अक्सर माँगते देखा है ।।

अदना सा है अपना इश्क देख लो "उमंग"।

जीतकर जमाना हमने आशिक हारते देखा है।।

संदीप तोमर

Thursday 11 January 2018

मैं संपादक बन गया-2 / लघुकथा

संदीप तोमर/"मैं संपादक बन गया-2 /लघुकथा

वह नौकरी से रिटायर हुआ था, रिटायरमेंट के पैसा मिल चुका था। उसे प्रकाशन और सम्पादन का भूत सवार हुआ। लिखता तो वह पहले से ही था। 

देवेश ने उसे सुझाव दिया था कि साझा संकलन निकाले। नवोदित छपने की एवज में अपनी एक- एक प्रति तो खरीद ही लेंगे।
उसने अपने मित्र देवेश की बात मानते हुए धड़ाधड़ कई संकलन निकाल दिए। अपने नाम से प्रकाशन विभाग भी रजिस्टर्ड करा लिया था।
पुस्तक मेले में कर्ज लेकर एक स्टॉल भी बुक कर लिया। बिक्री के लिए दो लड़के भी पगार पर रख लिए। आज पुस्तक मेले का आखिरी दिन है और उसे दूर-दूर तक ग्राहक नहीं दिख रहे हैं। खुद उसका दोस्त देवेश भी अपनी मंडली के साथ किताबें खरीदने नहीं आया। पंद्रह-बीस लेखक तो हुज्जतबाजी करके लेखकीय प्रति तक उससे झटक कर ले गए।
वह आँखों के सामने पड़ी किताबो की खेप की देख रहा था। कर्ज़ के बढ़ते सूद का खयाल उसे उद्वेलित करने लगा। 

मैं संपादक बन गया"-१ /लघुकथा

संदीप तोमर/"मैं संपादक बन गया"/लघुकथा

अखिल और देवेश पक्के दोस्त थे।दोनो ही लिखने के शौकीन।लेकिन एक बात थी लिखने से उन्हें कुछ खास मिल नहीं रहा था जिससे घर- बार चल सकता।देवेश तो जैसे- तैसे दाल रोटी का जुगाड़ कर लेता, अखिल के यहां हर दिन चौमास का दिन था।
आज दोनो दोस्त भविष्य की योजना बनाने के लिए बैठें हैं। देवेश ने कहा-" मेरे पास एक योजना है।वारे के न्यारे हो जाएंगे। समझ ले तेरा काम बन गया।"
" ठीक है बता क्या स्कीम है तेरे पास?"
"हम अलग-अलग विधाओं पर साझा संकलन निकालते हैं। अब हर कोई छपना चाहता है।"
"छपना तो चाहता है लेकिन हजार- पांच सौ रुपये कोई देना नहीं चाहता। फिर पैसा कहां से लगेगा?"
"उसका भी इलाज है, मेरा एक दोस्त प्रकाशक है, अठारह हज़ार रुपये में तीन सौ प्रतियां छाप देगा। हम लेखक से कुछ नहीं लेंगे। सौ लोगो की एक-एक पन्ने की रचना लेंगे। तीन सौ रुपये मूल्य भी रखा तो लेखक को तीस प्रतिशत की छूट पर हमने दो सौ दस में लेखक को बेच देनी है।अब जो छपा है वो अपनी रचना की प्रति अपने पास तो रखेगा ही न।लेखकों से ही इक्कीस हजार आ गया। बाकी बची 200 प्रतियों से सौ का मुनाफा हमारा, बाकी सौ का प्रकाशक का।"
"अरे वाह इसे कहते हैं- हल्दी लगे न फिटकरी रंग भी चौखा होए।"
अखिल की आंखों में चमक आ गया थी।

Wednesday 10 January 2018

संदीप तोमर/ “अब सांस नहीं ली जाती”/ एक लघु सी कथा


“अब सांस नहीं ली जाती”


पलाश अब हमेशा खुश रहने का प्रयास करता, वह पहले की तरह पत्नी के प्रति रुखा व्यवहार नहीं करता था। न ही गुस्सा ही करता। जहाँ पहले वह आफिस के काम के बोझ के चलते झल्ला पड़ता था अब वह एकदम फ्री  माइन्ड रहने की कोशिश करता।
पत्नी उसके इस व्यवहार से हैरान थी साथ ही संसयित भी। पत्नी रोज की गतिविधि पर नजर रख रही थी। वह रोज किस-किस से कब फोन पर बात करता है, कितना समय मोबाइल और लैपटॉप पर देता है आदि आदि।
आज सुबह जैसे ही वह नहाने के लिए बाथरूम में घुसा था, पत्नी ने उसके पूरे मोबाइल को कंघाल दिया था। हर आशंका से बेखबर वह पहले ऑफिस गया फिर उसे ध्यान आया- रात का सीने का भयानक दर्द, वह सीट से उठा और अस्पताल की ओर चल दिया
अस्पताल के परिसर में घुसा ही था कि कंचन से मुलाकात हो गयी।
"
पलाश तुम यहां कैसै?"
"
कल रात सीने में कुछ प्रोब्लम थी तो चेकअप कराने आया था।"-उसने नपातुला जवाब दिया।
"तुम आजकल मुझसे दूरी क्यों बनाये हो? क्या मैं तुम्हें जबर्दस्ती बांधती हूँ?"- कंचन ने कहा।
“नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है।“-पलाश बोला।
“ अच्छा सुनो, आज तुम्हारे घर में कुछ बात हुई क्या?”
“नहीं, कुछ भी तो नहीं।“
"आज तुम्हारी पत्नी का मेरे मोबाइल पर कॉल आया था, उसने मुझको गाली देकर जलील किया, मैं चुपचाप सुनती रही, बोली- तुम्हारे पति के सामने तुमको एक्सपोज करुँगी।"
“ओह उसने ये सब किया, मुझे अफ़सोस है।“
"हाँ पलाश, इस प्रेम को कोई समझ नहीं सकता, जो मुझे धमकी दे सकती है वह कल तुम्हें भी सबके सामने बेज्जत कर सकती है?”
“हाँ, कंचन, मैं तो अब घर में शांत ही रहता हूँ, मैंने जीने के तरीके ढूंढ लिए हैं।“
“मैं समझ सकती हूँ तुम कितना सहन रहे हो, इसलिए शायद मुझे तुमसे दूर हो जाना चाहिए।"
"
मै तो रोज ही उसके तीखे बाणों को झेलता हूँ। तुम भी दूर हो जाओगी तो कैसे जी पाऊंगा?"
कंचन की ऑंखें डबडबा रही हैं.... वह वार्ड की ओर बढ़ चली, पीछे-पीछे पलाश चल रहा है। वह वार्ड के अन्दर जाकर एक कमरे की ओर बढ़ी, जिसमें दो बेड लगे हुए हैं। वह पहले बेड के पास जाकर रुक गयी। पलाश कुछ भी समझ पाने की स्थिति में नहीं है। बेड पर लेटा युवक ऑंखें बंद किये है, कई मशीने उसके शरीर पर लगी हैं, आक्सीजन मास्क भी लगा है। ह्रदय गति के ग्राफ बहुत डगमगाया है।
तभी पलाश ने पूछा-“ ये कौन हैं? आप तु यहाँ कैसे?”
“पलाश ये मेरे पति हैं, कैंसर की लास्ट स्टेज में हैं। शायद ही..... ।“
“लेकिन तुमने तो मुझसे हमेशा कहा कि तुमने शादी नहीं की।“
वह कुछ जवाब देती इससे पहले एक कर्कश आवाज उसके कानों में गूंजी-“ पलाश तुम तो ऑफिस गए थे फिर यहाँ?”
पलाश ने पीछे मुड़कर देखा, यह उसकी पत्नी की आवाज थी, वह मन ही मन बुदबुदाया-“ कंचन का पति... आक्सीजन नली से सांसे ले रहा है और मेरी नली पर तुम पैर जमाये खड़ी हो, जब चाहो पैर हटा दो, जब चाहो दबाव बढ़ा दो।“


एक अपाहिज की डायरी (आत्मकथा)- संदीप तोमर

एक अपाहिज की डायरी (आत्मकथा)


प्रथम भाग 
1

मैं चार भाई बहन में सबसे छोटा थाजन्म से पहले कच्चे मकान में रहता था परिवार मेरे आने की सूचना मात्र के समय से नया पक्का मकान बनने लगा आलम देखिये कि इधर पक्का मकान बनकर तैयार हुआ और उधर मुझ शिशु का आगमन हुआ साढ़े पांच किलो वजन का हस्ट-पुष्ट बालक, मोहल्ले में शोर मच गया कि बड़ा मोटा-ताज़ा बेटा हुआ है नए मकान में नयी खुशियां, पिताजी को लगा कि लड़का भाग्यवान हैजिसके आने की खबर मात्र से मेरा नया मकान बन गया सारे परिवार का ध्यान जैसे उस एक नवजात बालक पर केन्द्रित हो गयासुप्रिया भाई के पास आती और उसे छूकर चली जाती, माँ को देखती तो मायूस हो जाती, उसे लगता माँ अब मेरे लिए खाना भी नहीं बनाती, ऐसा क्या हुआ माँ को? और ये बच्चा जिसे सब मेरा छोटा भाई कह रहे हैं ये क्यों आया? अब माँ किसी को नहलाती भी नहीं दादी कहती है- बेटा अभी ४० दिन तक माँ जच्चा-घर में रहेगीसुप्रिया हर बात पर गौर करती जैसे उसे सब पारिवारिक दायित्व अभी से सीख लेने हैं सुप्रिया बमुश्किल साढ़े तीन-चार साल की होगी, ६ दिन बाद घर में त्यौहार जैसा माहौल था
सुप्रिया ने दादी से पूछा -"दादी आज क्या हो रहा है?'
"मेरी बच्ची आज तेरे भाई की छटी है"
"ये छटी क्या होती है दादी?"
"जब कोई बच्चा होता है तो छ: दिन बाद जच्चा बाहर निकलती है, उसे छटी कहते हैं"
"आज क्या होगा?"
"आज सब घर परिवार वालो का खाना हमारे घर में होगा, दाल-चावल और रोटियां बनेगीं, तेरी सारी दादियाँ और ताइयाँ खाना बनायेंगी..."
"दादी मैं भी खाना बनाउंगी"
"मेरी बच्ची अभी तू छोटी है, जब बड़ी हो जाएगी तो सारा काम सीख लेना, लड़कियों के भाग्य में तो सारे काम लिखें हैं"
“दादी मेरा भाई भी खाना खायेगा?"
"पगली! वो अभी ६ महीने माँ का दूध पिएगा, फिर उसे ऊपर का कुछ खिलाना शुरू करेंगेअभी तो तू अपने बड़े भाई सुकेश और छोटे भाई नीलू के साथ खाना खाना"
दादी सुकेश भैया मुझे मारते हैं, मैं उनके साथ नहीं खाने वाली और नीलू की तो नाक बहती रहती है"
"चल पगली वो तेरे भाई हैं, ऐसे नहीं बोलते एक तेरा बड़ा भाई है और दूसरा छोटा..."
"दादी मेरा भाई तो छोटू है, मेरा छोटू, हम उसका नाम छोटू रख दें?"
"चल पगली, छोटू कोई नाम थोड़े ना होता है"
"एक बात बता दादी ये तू मुझे चल पगली--चल पगली क्यों बोलती है, मैं दादा से तुझे पिटवाउंगी"
"
अच्छा तेरा दादा मुझे पीटेगा? उसे रोटी नहीं खानी?"
और इस तरह मुझे छोटू नाम मिल गयाजैसे-जैसे मैं थोडा बड़ा होता गया, सुप्रिया का दुलारा बनता गया.. माँ ने चालीस दिन बाद घर के काम देखने शुरू किये तो सुप्रिया मुझे गोद में लेकर बैठने लगी स्कूल तो अभी सुकेश के अलावा कोई जाता नहीं थामैंने अपनी उम्र से पहले ही बैठना और घुटनों के बल चलना शुरू कर दियानौ महीने का हुआ तो खड़ा होकर चलने लगा पास-पड़ोस की औरतें आती तो कहती- “अरे देखो सुदीप कैसे पैर उठाता है? अमूमन बच्चे 1 साल के होते हैं तो पहला कदम रखते हैं जब सुप्रिया किसी को मेरे बारे में कुछ कहते सुनती.. तो कहती- "चाची मेरे भाई को नजर मत लगाओ"
चाचियाँ उसकी बात पर हँस देती अभी मैं ११ महीने का हुआ तो उसे बुखार हुआसारा शरीर आग सा तप रहा था, माँ ने मुझे डाक्टर के पास ले जाने का उपाय सोचा, पिताजी ऑफिस गए हुए थे दादी ने बीच में अडंगा लगा दिया.. -"तू घर की बहु है अकेले लड़के को लेकर जाएगी.. जयें का पानी उबाल कर पिला दे.. ठीक हो जायेगा..बड़ी आई डाक्टर के पास जाने वाली"
माँ दादी के सामने बोलती नहीं थीदादी ने डाक्टर के पास नहीं जाने दिया शरीर का ताप बढ़ता ही जा रहा था.. माँ ठन्डे पानी की पट्टी मेरे सर पर रखती, बदलती शाम हुई तो पिताजी घर आये, मेरे माथे पर हाथ लगाया, मेरा बदन अभी भी तप रहा था.. माँ को साईकिल पर बैठा शहर के डाक्टर के पास ले गए पैर लटके हुए थे कोई हलचल नहीं हो रही थी, डाक्टर ने चेक-अप करके बताया--"मास्टर साहब इसे पोलियो हुआ है"
पिताजी अध्यापक थे तो पोलियो का नाम सुन रखा था लेकिन माँ इस नाम से अनजान थी, पूछ बैठी -"डाक्टर साहब ये पोलियो क्या होता है?"
बहन जी जिसे लोग आम बोलचाल में फालिस कहते हैं, अब ये लड़का चल फिर नहीं पायेगा, मैं बुखार की दवा दे देता हूँ" यहाँ इसका अभी कोई इलाज नहीं, हाँ जिले में एक डाक्टर सलूजा हैं वो कुछ कर दें तो आपका भाग्य, ये बीमारी बड़ी ख़राब है इससे नसें मर जाती है खून का दोर बंद हो जाता है"
माँ तो रोने ही लगी, रोते-रोते बुरा हाल था शाम घिर आई थी, पिताजी, माँ और मुझको लेकर घर आयेघर आकर दादी ने पूछा क्या हुआ? पिताजी ने बताया –“माँ तेरे पोते को फालिश मारा है"
दादी ने सुना तो रोना शुरू.. सुप्रिया सब देख रही थी, बोली किसी से नहीं उसे समझ नहीं आया कि उसके छोटू को क्या हुआ? बस समझ रही थी कि कुछ गलत हुआ है उसका छोटू रोये जा रहा था, माँ से पूछा-“माँ मेरे छोटू भाई को क्या हुआ, ये रोता चुप क्यों नहीं होता?"
माँ ने बेटी को गले लगा लिया-"कुछ नहीं मेरी बच्ची, बुखार है ठीक हो जायेगा"
"माँ ये तो आज रोज़ की तरह पैर भी नहीं चला रहा माँ, भाई ठीक तो हो जायेगा ना?"
माँ ने बेटी से सुना तो उसकी रुलाई फूट गयी, सुप्रिया को समझ ही नही आया कि माँ क्यों रो रही है?
डॉ. भार्गव के सुझाव को मान पिताजी मुझे लेकर जिले के नामी गिरामी डॉ. सलूजा के पास गएडॉ सलूजा के क्लिनिक में पोलियो के मरीजों की भीड़ थी, पर्ची कटवा कर माँ और पिताजी हमारी बारी का इंतज़ार करने लगे माँ बेहद परेशान, पिताजी चिंताकुल अपनी बारी आने पर मुझे ले डॉ. के केबिन में गए डॉ. ने चेक-अप किया और बड़े अनोखे अंजाद में बोला-" भाई साहब पोलियो बेहद खतरनाक बीमारी है और इस बच्चे को इसका असर दायें पैर में ज्यादा है, असर बाएं पैर में भी है, इसका इलाज लम्बा चलेगा.."
डॉ साहब ये रोग कैसे होता है? क्या ये बुखार में हवा लगने वाला रोग है?"
"नहीं ऐसा कुछ नहीं है दरअसल लोग इस रोग के लक्षण और वजह दोनों ही नहीं जानते इसलिए गलतफहमी पाल लेते हैपोलियो एक संक्रामक रोग है जो पोलियो-विषाणु से मुख्यतः छोटे बच्चों में होता है। यह बीमारी बच्चें के किसी भी अंग को जिन्दगी भर के लिये कमजोर कर देती है।"
"लेकिन ये होता कैसे है-"पिताजी अध्यापक थे तो उन्हें ये सब जानने की उत्सुकता थी
"मल पदार्थ से पोलिया का वायरस जाता है। ज्यादातर वायरस युक्त भोजन के सेवन करने से यह रोग होता है। यह वायरस श्वास-तंत्र से भी शरीर में प्रवेश कर रोग फैलाता है।"
“डॉ. साहब ये तो आप एकदम नयी बात बता रहे हैं"
“जी भाईसाहब दरससल लोगो को इस बारे में अल्प ज्ञान है इसलिए भ्रांतियां पाल लेते हैं"
"लेकिन डॉ साहब ये तो नसों को मारता है और हड्डियां भी कमजोर करता है"
"नहीं,, पोलियो मॉंसपेशियों व हड्डी की बीमारी नहीं है बल्कि स्पायइनल कॉर्ड व मैडुला की बीमारी है। स्पाइनल कॉर्ड मनुष्य का वह हिस्सा है जो रीड की हड्डी में होता है।"
“इसका मतलब तो ये हुआ कि स्पाइनल कॉर्ड की बीमारी होने के कारण मरीज ठीक नहीं हो सकता"
"ऐसा भी नहीं है, वैसे तो लोगो का मानना है कि ये रोग लाईलाज है लेकिन मैं एक डॉ. हूँ मेरा फर्ज है कोशिश करना"
"लेकिन क्या आप इसके इलाज की गारंटी लेंगे?"
"देखिये! डॉ. कोई भगवान नहीं होता, उसका फर्ज होता है कोशिश करना"
"अच्छा डॉ. साहब ये लकवा जैसा तो नहीं है?"
"लोगो में ये भी भ्रान्ति है कि ये लकवा है, पोलियो वासरस ग्रसित बच्चों में से एक प्रतिशत से भी कम बच्चों में लकवा होता है।"
"पोलियों ज्यादातर बच्चो को ही क्यों होता है?"
"ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बच्चों में पोलियों विषाणु के विरूद्ध किसी प्रकार की प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती है इसी कारण इसका वायरस बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले लेता है"
"डॉ साहब आप मेरे बच्चे को ठीक कर दीजिये"
"कोशिश करना मेरा फर्ज है, आप बाहर काउंटर पर फीस जमा करा दीजिये, मैंने दवाई लिख दी हैमेरा कम्पौंडर दवाई बना देगा"
“जी डॉ साहब"-कहकर पिताजी बाहर आयेकम्पौंडर ने दवाई का पूडा हाथ में थमा दिया और १०० रूपये फीस मांगी पिताजी की तन्खवाह बमुश्किल १५० रूपये माहवार और डॉ की एक विजिट की फीस १०० रूपयेसुनकर पिताजी कुछ चौंकें, पूछा-"ये फीस पूरे महीने की है?"
"नही भाई साहब, ये एक बार की फीस है, अभी पंद्रह दिन की दवाई दी है अगली विजिट पर डॉ साहब देखेंगे कि दवा असर कर रही है या नहीं, असर करेगी तो ये ही दवा दी जाएगी नहीं तो फिर दवा बदल देंगे" 
फीस जमा करके पिताजी बाहर आयेबस पकड़ कर घर वापिस पहुंचेदिमाग घूमता रहा... १०० रूपये फीस ...और महीने में कमाई १५० रूपये.. और तीन बच्चे .... साथ में माँ और पिताजी भी.....बड़े भाइयों का कोई सहारा नहीं.. कैसे होगा? कहाँ से पैसा आएगा? कैसे इलाज होगा? लगातार दो साल तक डॉ. सलूजा का इलाज चलता रहा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआपिताजी ने अपना और बच्चो का पेट काटकर इलाज में पैसा लगाया लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला, तब कहीं और इलाज कराने का सोचा
किसी ने बताया कि दिल्ली के नारायणा विहार में एक डाक्टर हैं जो पोलियों का इलाज करते हैं माँ-पिताजी दोनों मुझे लेकर नारायण विहार आ गए, डाक्टर से बात हुई फिर वही जबाब मिला- डॉक्टर भगवान नहीं होता, कोशिश ही कर सकता है, आपको बच्चे को लेकर हफ्ते में दो बार आना होगा 
"आप इलाज कैसे करते हो?"-- पिताजी ने जिज्ञासा प्रकट की
"हम बिजली की मशीनों से शरीर में झटके देकर खून का दौर पुनः चालू करने की तकनीक से इलाज करते हैं इससे नसों में जमा खून फिर से शरीर में प्रवाहित होना शुरू हो जाता है"--डॉ मुद्गल ने बताया
पिताजी को अजीब लगा लेकिन क्या कर सकते थे? औलाद का दुःख ही माँ-बाप के लिए सबसे बड़ा दुःख होता है एक आस की किरण की तलाश में पिताजी जगह-जगह की खाक छान रहे थेबस बेटे को कहीं से आराम लग जाए, ये ही उम्मीद लेकर उन्होंने इलाज करने का फैसला कर लिया
अब समस्या थी कि प्राइवेट स्कूल की नौकरी से छुट्टी लेकर कैसे इलाज कराया जाये? बड़े ही मुश्किल हालात थे, माँ ने ये जिम्मा लेने की ठानी, लेकिन चार-चार बच्चो का पालन-पोषण करना जिनमें से तीन अब स्कूल जाने लगे थे और फिर १३० किलोमीटर दूर आना-जाना एक ही दिन में करना, बड़ा ही दूभर काम थासास-ससुर का खाना बनाना, पशुओं के चारे का प्रबंध करना, कैसे होता होगा ये सबदादी को लगा कि बहु अपने बेटे के चक्कर में मुझ पर काम का बोझ न बढ़ा दें इसलिए उसने अपने बड़े बेटे के पास जाने का फैसला कर लिया माँ बेटे को लेकर आई तो सास ने फरमान सुना दिया अपने बच्चो का खुद इंतजाम करना, मैं किसी की कोई आया या नाइन नहीं हूँ.. जो इन टाब्बरों को सारे दिन हांकती रहूँउस दिन सास-बहु में झगडा हुआ माँ को लगता कि सास डाक्टर के पास जाने देती, समय पर बुखार का इलाज हो जाता तो आज मेरे सुदीप को ये सब न होता 
रात को पिताजी ने पत्नी को समझाया कि इस रोग में बुखार बाद में होता है ये बुखार से होने वाला रोग नहीं है तुम क्यों माँ से लड़ रही हो और अगर उसे भाई के पास ही रहना है तो रहने दो हमें अपने बच्चो की परवरिश खुद करनी हैं

अगले दिन दादी अपने बड़े बेटे के यहाँ चली गयी लेकिन दादा ने अपने छोटे बेटे के साथ रहने का फैसला किया

क्रमशः 

बलम संग कलकत्ता न जाइयों, चाहे जान चली जाये

  पुस्तक समीक्षा  “बलम संग कलकत्ता न जाइयों , चाहे जान चली जाये”- संदीप तोमर पुस्तक का नाम: बलम कलकत्ता लेखक: गीताश्री प्रकाशन वर्ष: ...