Friday 23 April 2021

एक अपाहिज की डायरी - आत्मकथा भाग-12


 बारहवाँ भाग 

सुबह को नींद से जागा जरुर था लेकिन नींद मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी। मैंने बिस्तर न छोड़ने का फैसला किया। सिरहाने तकिये के नीचे रखी घडी को हाथ में लेकर अर्ध खुली आँखों से देखा, नौ बज चुके थे। चाय की तलब लगी, मुश्किल ये थी कि चाय कौन बनाये? खुद ही खड़ा होना था, खड़ा हुआ, टॉयलेट का रुख किया। फारिग होकर ब्रुश किया। ब्रुश करते हुए याद आया, जब छोटा था तो माँ ब्रुश करने के नाम पर कितना डांटती थी, कितनी ही बार मुझे मार पड़ती थी, माँ बोलती थी, सारे दांत पीले पड़ जायेंगे, रोज ब्रुश किया कर। मैं हँस दिया, जाने क्या-क्या याद हो आता है, एक बार सिलसिला बना तो जाने क्या-क्या याद आने लगा। मैंने फिर से घडी को देखा, अभी उठे हुए आधा घंटा ही हुआ था। चाय के लिए गैस के स्टोव पर भगोना चढ़ा दिया, चाय बना फिर से बिस्तर पर पड़ गया, आधा लेटे हुए चाय की चुस्कियाँ लेता रहा।

मुझे याद आया बचपन, कैसे पेट के बल सरक-सरक कर चलता था, बुढाना का इलाज, मुझे लगा उस रोज डॉ. के साथ बदतमीजी न की होती तो आज मैं सबकी तरह चल फिर सकता था, मैं कर भी क्या सकता था, बच्चा ही तो था, क्या सही है क्या गलत है इसका अहसास तक नहीं था, फिर समाज के ताने, माँ के ऊपर चार-चार बच्चो का बोझ, घर की माली हालत, छोटी सी नौकरी, पिताजी भी क्या-क्या करते, सबकी पढाई का खर्ज चलाते या फिर सब कुछ मेरे इलाज पर ही खर्च कर डालते। मुझे याद आया, आधा मकान मेरे जन्म से पहले ही पक्का बन गया था लेकिन आधा मकान कच्चा था जिसे तोड़कर पक्का बनवाया जा रहा था, सब जगह उबड़-खाबड़ हो रहा था, मेरी जिज्ञासा हुई कि देखूँ- मिस्त्री लोग काम ठीक से कर रहे हैं या नहीं, अभी दो-चार कदम ही आगे रखें होंगे कि पैर फिसल गया था, आँख के एकदम करीब ईंट का किनोर लगा और खून की धारा बह निकली, मैं बहुत जोर से रोया, रोने की आवाज सुनकर माँ आई, माँ ने देखा कि आँख से खून आ रहा है, माँ गुस्से में थी, दो-चार चांटे लगा दिए, और चिल्लाने लगी थी-“जब तेरे बस की कुछ नहीं है, तो तू वहाँ गया ही क्यों था।“

मिस्त्री ने कहा- आप इसे डांट रही हैं इसकी आँख के बराबर से खून बहा रहा है पहले उसमें हल्दी भरिये।“

माँ का गुस्सा एक बार फूटा तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था-“जब इसे मना किया हुआ है कि जो काम तेरे बस में नहीं उन्हें करने में दिलचस्पी लेता ही क्यों है?”

माँ खुद भी रोये जा रही थी, और बद्बदाये जा रही थी-“ये लड़का मेरी सारी मेहनत पर पानी फेर देगा, कहाँ–कहाँ नहीं इसे उठाकर फिरी, कहाँ-कहाँ कहाँ नहीं दिखाया इसे। आज कुछ चलने फिरने लगा है, गिर-गिर कर अपना ही नाश कर रहा है, लेकिन मजाल जो ये लड़का किसी की सुन ले।“

सुप्रिया दीदी ने माँ को हल्दी लाकर दी थी तो माँ ने बहते खून को साफ़ कर हल्दी भर दी थी ।

अनायास ही मेरी अँगुलियाँ आँख की भोह के उस हिस्से पर चली गयी जहाँ आज भी चोट का निशान था, मैं हल्के से मुस्कुरा दिया।

यादों का सिलसिला कुछ लम्बा ही चल निकला- चौक के बराबर में एक कोठा था जिसमें भूसा और घर का टूटा-फूटा सामान भरा होता था, उसे दुबारी कहते थे, अब दुबारी नाम का अर्थ क्या था, ये नाम क्यों पड़ा, ये तो मुझे कभी समझ ही नहीं आया, जब से मेरी याददास्त थी, मैंने उसमे कभी दरवाजा नहीं देखा था, एक किवाड़ उल्टा डालकर, स्थायी रूप से रखा हुआ था, उसमें आगे के हिस्से में मेरा टॉयलेट बॉक्स बना हुआ था, चोखट पर बैठकर ही हाजत से निपटता था, कई दोस्त मजाक बनाते, इतना बड़ा हो गया घर में फारिग होता है, लेकिन मुझे मालूम था मैं बाहर नहीं जा सकता था, जब फारिग होता, माँ चूल्हे की राख डाल जाती और फिर तसले में कूडे में भर कूड़ी पर डाल आती। दोस्तों की मजाक का मेरे पास कोई हल नहीं था, इस मज़बूरी का हल भी नहीं निकाल सकता था, ज्यादा दिक्कत तो तब होती जब घर पर कोई नहीं होता और कभी हाजत लग जाती, ऐसे में धुलवाने का काम कौन करे? मुझे लगने लगता कि कितना नारकीय जीवन वह जी रहा हूँ।

पक्का मकान जब बन गया तो पिताजी ने घर पर गड्ढे वाली फ्लस बनवा दी, फ्लस में सबको जाने की इजाजत नहीं थी, बस मैं ही जा सकता था, अब मुझे कुछ सुकून मिला था। घर के बाकी लोग सिर्फ बरसात या दस्त की स्थिति में ही इस फ्लस का उपयोग कर सकते थे। मकान तो पक्का बन गया था लेकिन अभी उस हिस्से की जमीन कच्ची ही थी, हर हफ्ते सुप्रिया दीदी को पीली मिटटी में गोबर मिलाकर लिपाई करनी पड़ती थी। इस काम में मैं दीदी की कोई मदद नहीं कर सकता था। कितनी ही बार तो ऐसा होता कि आज सुप्रिया ने गोबरी फेरी और अगले दिन ही बारिश में सब धुल गया। बरसात में कच्ची जमीन पर काही जम जाती और फिसलन हो जाती, कितनी ही बार मैं उस पर फिसलता और मुझे चोट लगती। फिर कितने ही दिन घुटनों में दर्द और स्कूल जाना बन्द।

मुझे याद आया- माँ खेत के कामो में ज्यादा ही बिजी होती तो घर के काम का बोझ सुप्रिया दीदी पर आ पड़ता, सुप्रिया से ही मैंने घर के काम-काज सीख लिए थे, मैं सब्जी काटता, दीदी बनाती, रोटी बनाते हुए वह भाई को अपने पास रसोई में बैठा लेती, मैं देखता रहता, कैसे रोटी बनती है, कैसे आटा गूंथा जाता है लोई बनाने से लेकर रोटी सेंकने तक को धयान से देखता, हाँ दीदी को रोटी चुपड़ना अच्छा नहीं लगता, वह कहती- सुदीप मैं रोटी सेकती हूँ- तू इन पर घी चुपड़ दे। कई रोटी इकट्ठी होती तो भाप की वजह से रोटी चुपड़ते हुए हाथ जलते और लाल हो जाते, कितनी ही बार मैं मना कर देता तो सुप्रिया नाराज भी हो जाती। कभी-कभी दीदी मुझसे कहती-‘सुदीप चल तू झाड़ू लगा तो मैं पोंछा लगा दूँगी।‘ बस मुझे एक काम सबसे बुरा लगता था जो सुप्रिया मुझसे अक्सर करवाती, कपडे धोते या बगड़ (दालान) धोते हुए नल से बाल्टी या टब भरवाना। इतना पानी भरने के लिए हाथ से नल चलाते हुए हाथ दर्द करते तो मुझे लगता दीदी कोई दुष्ट है जो मुझे नल चलवाकर मार ही डालेगी। कई बार ये सब काम करना अच्छा लगता लेकिन कभी-कभी मन नहीं होता, मुझे लगता ये सब काम लड़कियों के हैं, मैं क्यों करूँ? लेकिन सुप्रिया पर काम का बोझ इतना होता कि वह दिन में पढ़ भी न पाती तब मैं उसकी मदद कर देता था।

कितनी ही बातें याद करते हुए मैं कभी उदास हो जाता कभी चेहरे पर हँसी आ जाती। अभी विचारो की इस श्रृंखला से बाहर नहीं आना चाहता था।

याद आया- मैं आठवी कक्षा में पढता था, मेरे गॉव के एक और लड़के का नाम सुदीप था, स्कूल में इनफार्मेशन आई कि सुदीप की माँ को उसके ही मामा ने गोली मार दी, मुझे विश्वास ही नहीं हो सकता था, सुबह ही तो माँ को सही सलामत छोड़कर आया था और मामा भी नहीं आये हुए थे, लेकिन माँ नाम ही ऐसा था कि रुलाई फूट गयी। लेकिन जल्दी ही पता चला कि ये घटना दूसरे सुदीप की माँ के साथ हुई, उसके मामा ने अपनी सगी बहन को गॉव के पास ही गोली मार दी। ये एक दुखद घटना थी, मेरा मन अपने मित्र के लिए भी व्यथित था।

मैंने फिर से घडी पर निगाह डाली, ग्यारह बजने वाले थे। मन बनाया कि आज कॉलेज नहीं जाऊँगा। चादर में खुद को ढका और एक अंगडाई लेकर सोने की कोशिश करने लगा, अचानक दरवाजे की कुण्डी बजी, बाहर जाकर देखा, बचपन का दोस्त शेखर था। बड़ा घबराया हुआ। मैंने पूछा था-“क्या हुआ शेखर, आज तू यहाँ मेरे कमरे पर? और ये तेरी साँसे क्यों उखड रही हैं?

“सुदीप तुझे अभी मेरे साथ बसंती नर्सिंग होम चलना होगा।“

“पर क्यों?”

“अक्षरा, वहाँ एडमिट है।“

“शेखर, अगर अक्षरा एडमिट है तो वहाँ उसके घर वालो को होना चाहिए वहाँ मेरा क्या काम? और ये खबर देने तू ही क्यों आया?”

“पूरी बात सुनेगा या अपनी ही कहता रहेगा?”

“हाँ बता बात क्या है, क्यों एडमिट है?”

“उसने मेंड़ेक्स की दस गोलियाँ रम की बोतल से खा ली, उसके पापा-मम्मी दोनों खेत में गए हुए थे, उसकी हालत बिगड़ रही थी। मैं उसे अपने ट्रेक्टर में डाल लाया हूँ, पता नहीं भी बच पायेगी या नहीं?”

“अबे यार, मेंड़ेक्स ही खाई हैं न, नींद की गोली है दस बाढ़ घण्टें असर रहेगा, ठीक हो जाएगी तू ज्यादा चिंता मत कर।“

“कमाल है यार तेरा भी, वो तेरी बचपन की दोस्त है, और तू उसे देखने भी नहीं जायेगा?”

“तू ये कहना चाहता है-मैं उसे देखने नर्सिंग होम जाऊँ, ताकि जो मेरे और उसके बारे में नहीं जानते उन्हें भी पता चले कि पुराने आशिक पता लेने आये हैं और साथ में ये भी बात उछले कि सुदीप की वजह से ही अक्षरा का ये हश्र हुआ है।“

“तू क्या समझता है कि लोगो में ये चर्चा नहीं है, आधे लोगो में ये चर्चा है कि सुदीप की वजह से उसने खुदकुशी की कोशिश की, कुछ ही जानते हैं कि ये पंकज फौजी की वजह से हुआ है। देख मैं उसे नर्सिंग होम छोड़कर आ गया हूँ मेरा ट्रेक्टर तेरी गली के बाहर ही खड़ा है, अब तो उसके घर वाले भी आ गए होंगे। तू कहे तो दोनों चले।“

“न भाई, तू ही जा, मुझे अपना जनाज़ा निकलवाने का इतना भी शौक नहीं।“

शेखर कुछ देर बातचीत करके चला गया था, लेकिन शेखर के जाते ही मेरी बेचैनी बढ़ने लगी। कैसे अक्षरा ऐसा कर सकती है, कितना समझाया था उसे कि ये जीवन यूँ ही बर्बाद करने के लिए नहीं मिला, आज दूसरी बार था जब मेरा भगवान से विश्वास खिसका था। ये घटना भी मेरे नास्तिक बनने की कड़ी में जुड़ गयी थी, बहराल मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था, मैंने तय किया कि अक्षरा से मिलने नर्सिंग होम जाऊँ, दूसरे पल ख्याल आया-“सुदीप पागल मत बन, फोटो वाली घटना से पहले ही वह काफी बदनाम है और अब तो मामला ख़ुदकुशी करने का है, उसके घर वाले भी आ चुके होंगे, क्यों आफत मोल ली जाए और फिर जब से उसने पंकज से दोस्ती की है, तब से उनके बीच रह ही क्या गया? किस रिश्ते से किस विश्वास से वह उससे मिलने जाए?”

वैसे ही आज कॉलेज जाने का मन नहीं था। इस घटना ने अन्दर तक हिला दिया था, कुछ बुरे विचार भी मन में आने लगे थी, पूरा पत्ता मेंड़ेक्स और वो भी रम के साथ? एक ही गोली पल्स पर इफेक्ट डालती है और ये तो पूरा पत्ता, आखिर उसे इतनी गोलियाँ मिली कहाँ से? बिना डॉ के प्रेसक्रिपशन लिखे तो कोई केमिस्ट भी नहीं देगा। मैं भी क्या-क्या सोचने लगा। कॉलेज नहीं गया, बस सोचता रहा जाने क्या होगा?

शाम तक खबर मिली कि अक्षरा की हालात खतरे से बाहर है लेकिन ठीक होने में अभी समय लगेगा। दो दिन बाद अक्षरा को छुट्टी मिल गयी थी।

बी.एस.सी. सेकिंड इयर भी पूरा होने को था, एग्जाम शुरू होने वाले थे। एक क्लासमेट के साथ बबलू गॉव आया था, भरी जुलाई की गरमी थी, यूँ तो बबलू भी क्लासमेट था लेकिन वह कॉलेज कम ही आता था इसलिए उससे बातचीत भी कम ही थी। दोनों मिले तो ऐसा लगा जैसे कोई अपरिचित मिल रहे हैं। बातो-बातो में पता चला कि वह हरिद्वार का रहने वाला है और दूर की वजह से एग्जाम की बडी परेशानी है, दूर से एग्जाम देने आना मुनासिब नहीं होगा। यूँ तो मैं खुद भी निर्णय ले सकता था, लेकिन मैंने पिताजी से पूछना मुनासिब समझा। सहृदय पिताजी कैसे मना कर सकते थे? पिताजी ने परिचय किया तो पता चला कि पिताजी के फूफाजी और बबलू के मामा एक ही व्यक्ति थे। अब मामला रिश्तेदारी का भी था। पिताजी ने कहा-“दोनों साथ रहकर पढाई करो और आराम से एग्जाम दो, किसी बात की कोई परेशानी हो तो मुझे बताओ। दोनों का दोनों टाइम का खाना पहुँच जाया करेगा।“

बबलू ने खाने के लिए आनाकानी करते हुए कहा- “खाने की कोई परेशानी नहीं, बाहर भी खाया जा सकता है, बस रहने के प्रबन्ध की ही चिंता थी।“

“अरे, ऐसे कैसे हो सकता है, सुदीप का खाना तो जाता ही है फिर क्या फर्क पड़ता है अगर एक और बच्चे का खाना चला जायेगा तो, और तुम तो रिश्तेदार भी हो।“

फैसला हुआ कि अब साथ रहकर एग्जाम देने हैं, बबलू के साथ रहते हुए अच्छा टाइम पास होता था, वह पढने में भी अच्छा था, शांत स्वाभाव, गौर वर्ण, छरहरे बदन का लड़का बबलू पूजा पाठ में ज्यादा विश्वास करता था, जबकि वहीँ मैं पूजा-पाठ सब छोड़ चुका था। धर्मनिष्ठ माँ के होते हुए भी अब मुझ पर पिता का ज्यादा प्रभाव पड़ रहा था। मैंने देखा पिताजी कभी मन्दिर नहीं जाते थे, किसी व्रत में विश्वास नहीं करते थे, हाँ इतना अवश्य था कि हर त्यौहार वो विधिवत मनाते थे, इस तरह मैं अर्ध-नास्तिक बन गया था, यानि मेरी धर्म और ईश्वर की अपनी ही धारणा बनने लगी थी, जिस पर मैं अब किसी से भी तर्क तक करने लगता था।        

इस सब के पीछे कितनी ही घटनाएँ थी, चूँकि मेरी धर्म के प्रति धारणाएँ बदल रही थी और लगता था कि कबीर जैसे महापुरुष सही कह गए हैं कि ईश्वर किसी मन्दिर की मूर्ति या किसी मस्जिद में तो हरगिज विराजमान नहीं हो सकताजब 12वी और बाद में बी.एस.सी कर रहा था तो पास की मस्जिद की अजान से भी परेशानी होती थी और मन्दिर के भोंपू से भी। मेरा तब ये ही तर्क होता कि इस भोंपू से पहले भी गॉंव में नमाज भी पढ़ी जाती थी और मंदिर में पूजा भी होती थी अब कौन सा आपका खुदा या भगवान ज्यादा खुश होने लगा?

असल में गॉव में एक हफिजी आये और बड़े ताव में एक भोंपू लगाया उससे पहले कहीं कोई भोंपू नहीं बजता था और पहले भी लोग मस्जिद में नवाज पढ़ते थे। गॉव में ये चर्चा का विषय बना,  हालाकि गॉव में कभी मजहवी दंगे नहीं हुए।

उसी के साथ एक घटना और घटी, गॉव में हमारे पुरखों का खुदवाया हुआ एक पक्का कुआ था जिसका पानी कभी पूरे गॉव में इस्तेमाल होता था, पैसे के ज्यादा प्रवाह के कारण सबके घर में नल हो गए तो कुए से पानी निकलना बन्द हो गया था, अब कुआ सिर्फ शादी या बच्चे के जन्म के समय के संस्कारों के लिए ही इस्तेमाल होता था। हुआ ये कि इस कुए की मुंडेर पर कुछ आवारा लड़के बैठते तो निर्णय हुआ कि कुए को छाप कर इस पर मन्दिरर बना दिया जाए, पैसे इकट्ठे हुए और मन्दिर बना दिया गया। जब गॉव के बाहर भव्य शिव मन्दिर था। मन्दिर के लिए धन इकठ्ठा किया जा रहा था, जिसमे गॉव की पश्चिम पट्टी को शामिल नहीं किया गया था। मैंने कहा भी कि जब गॉव में शिव मन्दिर है तो उसका जिवनोद्दार किया जाना चाहिए, वैसे भी इबादत के स्थान गॉव के अन्दर न होकर बाहर ही सही है, लेकिन मैं ठहरा बालक तब मेरी कौन सुनता? सो मन्दिर का निर्माण हो गया। अब मन्दिर में भी भोंपू लग गया, और फ़िल्मी स्टाइल के गानों से भगवान की उपासना होने लगी, भोले और भांग के गानों का शोर होने लगा।

इन दोनों इबादत स्थलों से गॉव के सब स्टूडेंट्स की पढाई पर बड़ा फर्क पड़ रहा था, लेकिन ये बदस्तूर चलते रहे। पिताजी ने भी विरोध किया, कितनी ही बार मन्दिर जाकर भोंपू  बन्द कराया लेकिन दो-चार दिन बाद वही स्थिति हो जाती थी।

मुझे ये सब भी नागवार गुजरता, जब कभी भी किताबे लेकर गॉव पहुँचता, मन्दिर और मस्जिद दोनों के ही लाउडस्पीकर से परेशानी होती  एक बात और नोट की- गॉंव भर के वही गुंडा तत्व जो कुए की मुंडेर पर बैठे होते थे वो ही अब मन्दिर में बैठते, भोंपू बजाते और भांग पीते,  इव-टीजिंग की भी शिकायत मिलती। पढने वाला हर बच्चा परेशान था।

मैं तो गॉव लगभग छोड़ ही चुका था लेकिन बाकी लोगो के लिए ये भी एक तंगी का सबब था ऐसा मैं महसूस कर रहा था

कोई कुछ भी कहे मुझे धर्म के इस रूप से आपत्ति होने लगी थी, मेरा मानना था कि आप पूजा करें लेकिन दूसरों को परेशान करने का अधिकार आपको किसी ने नहीं दिया।

एक घटना और प्रमुख हुई, हालाकि पूरा गॉव अमन-चैन-परस्त था लेकिन एक व्यक्ति बड़ा ही कट्टर था, उसके बारे में ये बात प्रचलित थी कि कहीं भी कोमी दंगे हों, उसके यहाँ असला-बारूद-तेज़ाब आदि आना शुरू हो जाता था। वह कुछ अन्य लोगो को भी बरगलाकर धार्मिक रूप से भड़काता था, गॉव के दूसरे धर्म के लडको की निगाह उस पर थी। १९९२ के अयोध्या दंगो का प्रभाव देश के लगभग हर शहर पर पड़ा था। अब पहले जैसा आपसी शौहार्द नहीं रहा गया था। उसी घटना का प्रभाव ये हुआ कि सक्षम मुस्लिम परिवार गॉव छोड़कर शहर या दिल्ली का रुख करने लगे। गॉव में वही परिवार टिके रहे जो खेती या मजदूरी पर केन्द्रित थे।

१९९२ की घटना का ही प्रभाव था कि उस व्यक्ति विशेष को रात के समय घात लगाकर मार दिया गया था। किसने मारा क्यों मारा ये बात कोई नहीं जान पाया, हाँ इतना जरुर गॉव भर में सुना गया कि हमलावर उसके मरने की अवस्था में छोड़कर चले आये थे, लेकिन सूचना मिली कि किसी ने उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया है तो उसकी मौत का पूरा-पूरा इंतजाम करने हेतु बहुत ही गोपनीय तरीके से पैसे का इंतजाम करके मौत की इबारत लिखवा दी गयी थी।

मेरे मन में इस घटना ने धर्म के इस घिनोने रूप के प्रति घृणा भरने में आग में घी का काम किया था। जब मैं बबलू को या अन्य किसी को पूजा करते देखता तो मुझे ये सब मात्र दिखावा लगता, मुझे लगता ये धर्म का रूप नहीं, लेकिन असल रूप क्या है इस लेवल पर नहीं पहुँच पाता था, मैंने बुद्ध के बारे में थोडा बहुत इधर-उधर से पढ़ा जरुर था लेकिन कोई पुख्ता ज्ञान अभी नहीं था, लेकिन बुद्ध की बाते अन्य धर्मो से अलग लगती, फिर मैं सोचता कि लोगो ने तो बुद्ध जैसे अच्छे खासे इन्सान को भी अवतार घोषित कर रखा है। तब और अधिक कन्फ्यूज हो जाता।

क्रमशः 

Wednesday 21 April 2021

तुमने तो कहा था - कहानी ( संदीप तोमर )

 

मेरे नाम में क्या गुनाह है

मैं कोई दावा नहीं करता कि मैं कोई कहानीकार हूँ, कहानी लिखना और कहना एक कला है, ठीक वैसी ही कला जैसे कोई चित्रकार कूची से रंग भरता है और पेंटिंग को जीवंत कर देता है। कुछ घटनाएँ मस्तिष्क को इतना उद्वेलित कर देती हैं कि खुद ब खुद कहानी की शक्ल अख़्तियार कर लेती हैं। अब मेरे पात्र सुकुमार को ही देख लीजिये, सुकुमार ने बीस साल पहले प्रेम किया था, टूटकर चाहते थे आकृति को, आकृति भी तो उन्हें दिलोजान से चाहती थी, प्रेम क्या था- भावी जीवन के सपने थे जो सुकुमार को आकृति ने ही दिखाये थे। कितने ही पार्क, रेस्तरा, फुटपाथ, केफीटेरिया उनकी मोहब्बत के गवाह थे और गवाह थे इस बात के कि हाँ उन्होने मोहब्बत की थी, चाहा था एक-दूसरे को। सुकुमार की कहानी को लिखने से पहले मुझे यानि कहानीकार को खुद को सुकुमार की काया में प्रवेश कराना होगा। और मानना होगा कि आकृति मेरी माशूका है, जिसके साथ मैंने ज़िंदगी के वो लम्हे गुजारे हैं, जिन्हें याद करके आज भी मन रोमांचित हुआ जाता है।

7 साल मोहब्बत की पींगे बढ़ाने के बाद मैं यानि सुकुमार अपनी प्रेयसी आकृति से कैंटीन लॉन में मिला था, हाथों में 300 ml की कोक की बोतल लिए उसने एक शिप कोक पीकर रखी और मुझसे कहा-“सुकुमार, सुनो अब इस प्रेम कहानी को यहीं खत्म करने का वक़्त आ गया है, अब हमें मिलना-जुलना एकदम बन्द कर देना होगा।“

“लेकिन ऐसी कौन सी मुसीबत आन पड़ी है जो यकायक ऐसा निर्णय लिया जाये?”

“बस यूँ समझ लो कि अब मेरे लिए आगे मिलना मुनासिब न होगा, पिताजी को ये रिश्ता मंजूर न होगा, हमारे रीति-रिवाज, जाति, वर्ग सभी कुछ तो अलग हैं, देखो न- मेरे पास ये मटीज़ गाड़ी है और तुम रिक्शा की तलाश में घण्टों समय गंवा देते हो, एक-एक दो-दो रुपए के मोल भाव में तुम्हारे साथ कैसे ज़िंदगी गुजरी जा सकती है?”

“लेकिन तुमने ही तो अपनी सहेली मोनिका को कहा था कि सुकुमार मेरा एटीएम है, मेरा बैंकर, जब जहाँ चाहूँ उसे इस्तेमाल कर लूँ। कभी कुछ भी दिलाने से इंकार नहीं करता।“

“हाँ, ये सब मैंने ही कहा था, जानते हो छोटी-मोटी ख्वाहिशें पूरी करना और पूरा जीवन किसी दरिद्र के साथ गुजरना दोनों बातें अलहदा हैं, सुकुमार तुम समझते क्यों नहीं, प्रेम का अर्थ शादी नहीं है।“

“फिर मुझे क्या करना चाहिए?”

“भूल जाइए इस प्यार को, यही हम दोनों के लिए सही होगा, और जितनी जल्दी भूलकर हम अपने-अपने जीवन के निर्णय लेंगे, दोनों के भविष्य के लिए सही होगा।“

“आकृति! हमेशा तुम्हारी बात मानता आया हूँ, आज भी मान लूँगा लेकिन एक बात कहना चाहता हूँ…..।“

“कहो....।“

“हर एक तरफा प्यार का क्या यही हस्र होता है?”

“क्या तुम ऐसा सोचते हो कि तुम मुझसे एक तरफा प्यार करते हो? क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करती?”

आज बीस साल बाद भी मैं यही बात सोच रहा हूँ, जब आज मेरा मन आकृति के पैरेंट्स से मिलने का हुआ, क्या मैं उसे एक तरफा प्यार नहीं करता रहा? क्या मुझे उसके इस सवाल का जवाब देना चाहिए था - क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करती?

मुझे लगता है कुछ सवालो के जवाब उनकी तरह ही अनुत्तरित रह जाने चाहिए। आज सुबह ही एक लेखक मित्र से प्रकाशन विभाग खोलने की बाबत कुछ बिज़नेस डील के सिलसिले में घर से निकलना था, मन में अचानक आकृति के माता-पिता की खबर लेने का विचार आया। हाल-फिलहाल में प्रकाशित किताबों का एक बण्डल बना उन्हें बैग में रख मैं गाड़ी निकाल इंडिया गेट के लिए चल पड़ता हूँ, जब कभी अकेला गाड़ी में होता हूँ तो बराबर वाली खाली सीट देख मुझे बरबस ही आकृति की यादें बेचैन करने लगती हैं। ड्राइविंग सीट पर बैठ यादों में खोना भी उतना ही खतरनाक है जितना खतरनाक एक तरफा मोहब्बत करना।

उस मुलाक़ात को इस मायने में आखिरी कहा जा सकता है कि शादी से पहले की वह आखिरी मुलाक़ात थी, उसके बाद मैं आकृति के लिए कुछ अछूत जैसा था, अछूत इस मायने में कि उसकी ही सलाह पर मैंने अपने पैरेंट्स की मर्जी से अरेंज मैरिज कर ली थी, कितने ही दिनों तक वह अवसाद में रही।

संयोग था या फिर मेरे भाग्य का दोष, मेरी पारिवारिक ज़िंदगी बहुत अच्छी तो क्या सामान्य भी नहीं कही जा सकती थी, पारिवारिक कलह से मैं बेहद टूट चुका था। उस दिन मैं बदहवास सा कनाट प्लेस घूम रहा था, आकृति अचानक टकरा गयी, दुनिया भी कितनी छोटी है न, शायद गोल होने के चलते, पुराने साथी किन्हीं रास्तों पर टकरा ही जाते हैं, आकृति का टकराना मेरे लिए किसी दवा से कम न था। मेरी बदहवासी को देख शायद उसने मुझे पास के केफीटेरिया में चलने का कहा।

“सुकुमार, इस तरह बेचैन परेशान क्यूँ हो, देखो हम कभी अच्छे दोस्त रहे हैं, मुझसे अपना दु:ख बांटोगे तो मन हल्का होगा।“ मैंने उस वक़्त उसे अपने अवसाद का हर वाकया कह सुनाया था, वह तो जाने कब से इसी इंतजार में थी, अवसाद में तो वह भी थी, अकेलापन उसे सालता था, उसने मुझे कोर्ट जाने की सलाह दी, और साथ ही कहा- “सुकुमार, तुम्हारे बिना जीना कितना मुश्किल है, ये तुमसे दूर जाने के बाद जाना, तुम कोर्ट में तलाक की अर्जी दाखिल करो, जैसे ही तुम्हें तलाक मिल जाए, हम शादी कर लेंगे।

मैंने उसकी बात पर ठीक उसी तरह यकीन कर लिया जैसे मैं उसके साथ प्रेम के दिनों में कर लिया करता था। कुछ दिनों तक कोर्ट में तारीख पर भी गया लेकिन अचानक एक दिन मैंने आकृति की शादी की खबर सुनी तो मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गयी। उस दिन बेशक मैंने विवाह को नियति और प्रेम को बेवफाई का पर्याय मान लिया लेकिन आकृति को मैं अपने दिल से चाहकर भी नहीं निकाल पाया।

मीटिंग से फारिग हो मैंने गाड़ी को आकृति के मायके के रास्ते पर मोड लिया, बातचीत क्या करनी है, क्या-क्या बोलना है, शुरुआत कहाँ से की जाये आदि-आदि सवाल दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे थे। मैं जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी पहुँच जाना चाहता था। गाड़ी का एक्सीलेटर बढ़ता गया, मानो गाड़ी कभी भी नियंत्रण खो सकती थी, हल्की-हल्की भूख भी लगी थी, गाड़ी का ए.सी. काम कर रहा था फिर भी मेरा गला सूखा जा रहा था। मैंने गाड़ी में पानी पीने की जहमत फिर भी नहीं उठाई।

आकृति के घर के बराबर वाले पार्क की बाउंड्री के साथ गाड़ी पार्क करके मैंने बैग को गले में टांग लिया, व्यू-मिरर में चेहरा देख बाल ठीक किये। चेहरे पर क्रत्रिम मुस्कान लाने का असफल सा प्रयास किया। अब मैं गेट के सामने था, डोर बैल बजाई लेकिन कुछ समय तक कोई गेट पर नहीं आया। मैंने बारी-बारी से गेट के बाहर लगे बोर्ड के तीनो स्विच दबाना शुरू किया। अचानक गेट के ठीक ऊपर की बालकनी में एक पाँच-सात साल के बच्चे को खेलते देखा तो दिल की धड़कने बढ़नी शुरू हुई। मुझे नहीं मालूम किस आशंका से ये धड़कने बढ़ी। बच्चा अंदर जाता प्रतीत हुआ, शायद वह अपनी माँ को सूचना देने गया हो।

कुछ मिनटों के इंतज़ार के बाद सीढ़ियो से किसी के उतरने के पदचाप से मुझे सांत्वना मिली, लोहे का मुख्यद्वार खुला तो सामने खड़ी युवती को देख पलकें झपकना ही भूल गयी। हाँ, ये आकृति ही थी, अलसाई की नाइट गाउन में लिपटी-सिमटी। वक्षाकृति पहले से कहीं सुडोल, आँखों के सामने बीस साल पहली आकृति और आज की आकृति तुलना के साथ विराजमान थी, गोल चेहरे पर बिखरे बाल, पहले से कहीं ज्यादा अच्छे लुक्स के साथ कटे हुए। मैं अक्सर उसे कहता था-“आकृति, तुम बे-इंतहा खूबसूरत हो लेकिन तुम्हारी ये बेतरतीब ज़ुल्फें तुम्हारी सुंदरता को कम करती हैं।“ वह अक्सर मेरी इस बात से झेंप जाती।

मैं शुरू से बालो का शौकीन रहा हूँ, मेरे सभी दोस्त अक्सर मुझसे कहते- तुम फिल्मी कलाकारो की तरह बाल सेट करवाते हो, और शायद डाई भी करते हो। तब मैं उनकी बातों पर हँस दिया करता था, मेरे बालो का स्टाइल हमेशा ही आकर्षक रहा है, और मुझे आकर्षक स्टाइल के बालों वाली लड़कियाँ अधिक आकर्षित करती रही हैं, आकृति के बालों का आकर्षण मुझे कुछ देर अपने में बांधे रहा। मैं एकटक उसके सौंदर्य को निहार रहा हूँ, दोनों की आँखें मिली, उसने कुछ कहने के लिए, होंठ खोले जरूर लेकिन आवाज बाहर नहीं आई। मैंने ही हैलो कहा। जवाब में अब उसके होंठ खुले थे। बाहर खड़े हुए ही मैंने पूछा-कैसी हो?”

मुरछाई सी आवाज में उसने कहा- “हाँ, अच्छी हूँ।“ पहले भी कई बार वह इसी तरह जवाब दिया करती थी, जब मेरे मिलने की जिद्द पर नाखुश हो मिलने आती। आज फिर वही नाखुशी उसके चेहरे पर मैं देख, पढ़ रहा हूँ।

“क्या हुआ, मेरे आने से खुश नहीं हो क्या?”

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।“-उसने नपातुला सा जवाब दिया।

“देखो, कब से दरवाजे पर खड़ा हूँ, अंदर आने तक को नहीं कहा?”-मैं शिकायती लहजे में कहता हूँ।

“ऐसी कोई बात नहीं है, आइये अंदर आइये।“- उसने औपचारिकता निभानी चाही।

“नहीं, तुम्हारा मन नहीं है तो मैं वापिस चला जाता हूँ।“

“दरअसल मुझे अभी पाँच मिनट में गुरुद्वारे निकलना है।“-उसने कहा।

“तुम कब से दुरुद्वारे जाने लगी?”-मैं हँसा था।

“पिछले दो-तीन साल से तो जा ही रही हूँ, हर शनिवार को जाती हूँ।“-मुझे याद भी नहीं था कि आज शनिवार है, वैसे भी शनिवार क्या कोई भी दिन मुझे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं लगता।

“आप फिर कभी मिलने का बनाइये न, आज जरा जल्दी में हूँ।“ -उसने टालना चाहा।

मैंने वापिस चलने के लिए दो कदम पीछे हटता हूँ, वह भी दरवाजा बन्द करने के लिए आगे बढ़ती है, अचानक मैं बोल पड़ता हूँ, -“रुकिए, कुछ किताबें लाया था, पढना चाहो तो दे जाता हूँ।“-कहकर मैं जवाब का इंतजार करता हूँ।

कुछ देर सोच वह कहती है-“दे दीजिये, फुर्सत मिलने पर पढ़ूँगी। सोशल मीडिया पर देखकर पता चलता रहता है कि खूब छपते रहते हो, काफी नाम हो गया है तुम्हारा।“

“हाँ, छपता तो रहता ही हूँ लेकिन सुनो, इसका क्रेडिट भी तुम्हें ही जाता है।“ -मैं बैग से किताबें निकाल उसे पकड़ा देता हूँ। वह किताबें हाथ में पकड़ फिर जाने लगती है, मैं पीछे से पुनः आवाज लगाता हूँ,-“कुछ लेखकीय नोट लिख दूँ किताब पर, अगर तुम चाहो तो...?”

नहीं, इसकी क्या जरूरत है, इतना कुछ तो किताब में लिखा ही है न?” -मुझे अहसास होता रहा कि वह मुझे टालना चाहती है। मैं विदा लेकर चलने लगता हूँ, मैं फिर से आवाज देता हूँ- “सुनो, मुझे तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है, अपना फोन नंबर दो।“

वह फिर से टालने की गरज से कहती है, “सोशल साइट पर मैसेंजर में दे दूँगी, अभी गुरुद्वारे जाने के लिए देर हो रही है।“

मैंने जेब से पेन और कागज निकाल गेट के बीच से पकड़ाते हुए कहता हूँ- लिख दो, वह अनमने हो कागज पर मोबाइल नंबर लिखती है, उसने मुझे कागज का टुकड़ा दे दिया है, पेन अभी भी उसके हाथ में ही है। मैं कागज को जेब में रख गाड़ी की ओर बढ़ता हूँ, पेन मैं जानबूझ कर उससे नहीं मांगता।

गाड़ी में बैठ मुझे अहसास हुआ कि कब से प्यास से मेरा गला सूखा जा रहा है, मैं बोतल निकाल गटगट पानी पीता हूँ, भूख भी परेशान किए है। गाड़ी स्टार्ट कर मैं वहाँ से निकलता हूँ, पास ही सड़क पर एक साउथ इंडियन रेस्टोरेन्ट हैं “चेन्नई एक्सप्रेस”। मैं गाड़ी साइड में पार्क कर रेस्टरों के अंदर जाता हूँ, मैंने डोसा ऑर्डर कर दिया। डोसा आने में अभी वक़्त है, मैंने मोबाइल और नंबर लिखा कागज निकाला, मैसेज टाइप किया-“ चेन्नई एक्सप्रेस में बैठा हूँ, आओ तो कुछ देर बैठकर बात करें।“ इस रेस्तरा की दूरी उसके घर से इतनी है कि पैदल आने में मात्र दो से तीन मिनट लगें लेकिन आकृति नहीं आई। ऑर्डर आने पर मैंने डोसा खाया। बिल चुकता कर पुनः गाड़ी में आकार बैठ गया हूँ। मुझे आकृति के व्यवहार पर दु:ख अवश्य हुआ, लेकिन मैं गुस्से में बिलकुल नहीं हूँ।

अगले दिन मैंने आकृति को कॉल लगाया। शुक्र है- उसने कॉल को उठा लिया। साहित्य, पुस्तक और मेरे लेखन पर उसने सवाल किए, समझ नहीं पाया- मेरी प्रसिद्धि पर वह खुश है या फिर दुखी, हाँ! उसने इतना अवश्य कहा- “आप आज एक बड़ा नाम हैं, मेरा तो लेखन ही छूट गया।“

बातचीत में मैंने उससे कल के व्यवहार पर सवाल किया- “आकृति, एक बात बताओ, बीस साल बाद मैं तुमसे मिला, तुम्हें खुशी नहीं हुई?”

“खुशी से ज्यादा आश्चर्य जरूर हुआ।“-वह बोली।

“और इसी आश्चर्य में तुम्हें ये भी सुध न रही कि बाहर से आने वाले को अंदर भी बुलाया जाता है, उसे चाय-पानी को भी पूछा जाता है, क्या पता कोई कब से प्यासा हो?”- मन में सोचता हूँ – तुम्हें देखने की प्यास तो बरसो से थी।

“हाँ, दरअसल मैं नींद में थी, तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया। बाद में मुझे खुद अहसास हुआ और ग्लानि भी।“- वह अब फॉर्मल हो गयी, ऐसा मुझे लगा।

“नींद में तो तुम पिछले बीस सालों से हो।“-मैं मन में सोचता हूँ।

“वैसे कल तुम किसलिए आए, वो भी इतने वर्षो बाद, मुझे मालूम है मात्र किताबें देने तो नहीं ही आए थे, और आपको ये कैसे लगा कि मैं यहाँ मायके में मिलूँगी?”

“हाँ, सच तो ये है कि मैं तुमसे मिलने नहीं आया था, सोचकर चला था कि तुम्हारे मम्मी-पापा से मिलकर वो सब बातें शेयर करूंगा जब हम प्रेम में थे, पूछूंगा क्यों आकृति ने मुझसे विवाह नहीं किया? लेकिन तुम वहाँ थी तो ये सब बातें नहीं कर पाया।“

“कर भी नहीं पाते, मम्मी को इस दुनिया से गए पूरे सात साल हो गए और पापा बेड-रिडेन हैं।“

मैं कुछ जवाब नहीं देता हूँ। कुछ देर कॉल पर दोनों चुप रहते हैं, मैं पुनः उससे मिलने का आग्रह करता हूँ, वह फिर वही टालने वाला जवाब देती है- देखती हूँ प्लान करके बता दूँगी। मैं आज तक उसके कॉल का इंतज़ार कर रहा हूँ। प्रेमिकाओं के प्रेमी के साथ के रूखे व्यवहार पर मैं अक्सर सोचने लगता हूँ कि शादी के बाद लड़कियाँ क्यूँ प्रेमी को धड़कन फिल्म का सुनील सेट्ठी समझने लगती हैं जबकि असल में वह प्रेम-रोग फिल्म का ऋषि कपूर होता है।


बड़ा दुःख दीना तेरे निज़ाम ने

 निज़ाम की बेवफाई सही न जाये 

बीमार और बीमारी के प्रति मैं असंवेदनशील बिल्कुल नहीं हूँ। मेरे अंदर असीम संवेदना है। कुछ लोग नसीहत भी दे सकते हैं कि किस घड़ी में क्या लिखना चाहिए या ये कि अभी इन बातों का समय नहीं है लेकिन मुझे लगता है कि ये माकूल समय है। अभी दो दिन पहले ही मैंने लिखा था कि अवसाद में हो तो मुझसे बात करें। मुझे लगता है बात करने से, संवाद से हमारा ध्यान बार बार की मानसिक पीड़ा, शारीरिक पीड़ा से हटता है। 

लेकिन अभी इस महामारी के दौर मे मैं देख रहा हूँ, मेडिकल सुविधाओं का अभाव है। समुचित व्यवस्था नही हो पा रही। कल ही दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के ट्वीट देखे जिनमे उन्होने केंद्र से मदद की गुहार लगाई कि अस्पतालों में 8 घण्टे जितनी ही ऑक्सीजन बची है। इनसे पूछा जाये भाई साल भर से क्या कर रहे थे जो  ऑक्सीजन तक के प्लांट नहीं लगवा सके.
मैं हैरान इस बात को लेकर हूँ कि पिछले साल इन्हीं दिनों में हाहाकार मचा था, लोगो का शहरों, महानगरों से पलायन शुरू हो गया था। पलायन करने वाला तबका, मजदूर या रोज की रोटी कमाकर खाने वाला था। उसके बाद से एक साल तक हमने कितनी व्यवस्था की? कल ही दिल्ली के मुख्यमंत्री ने अपील की कि लोग दिल्ली छोड़कर न जाएं। आपके पास अस्पतालों में व्यवस्था नहीं है, लोगों को खिलाने को भोजन की समुचित व्यवस्था नहीं है, आपकीं राशनिंग प्रणाली दुरुस्त नहीं है।फिर आपने पिछले साल से क्या सबक लिया।
कल रात को देश के निजाम ने फिर से एक तरफा वार्तालाप किया। शायद चुनावी रैलियों की थकान उतारने का ये भी एक माध्यम हो, वैसे मुझे नहीं मालूम उन्होंने क्या बोला, मेरी उन्हें सुनने में कोई दिलचस्पी भी नहीं है। वैसे अब मन की बात होती भी कहाँ हैं, और फिर चुनावी mode पर रहने वाले निज़ाम में बचता भी क्या है जिसे सुना जाए?
मेरी हैरानी का सबसे बड़ा कारण ये है कि पिछले 70 साल बनाम 7 साल का लेखा जोखा सब आपके सामने है। वैसे तो 700 साल बनाम 7 साल का आकंड़ा भी भ्रामक है कुल 77 साल तो आज़ादी के हुए भी नहीं। बहराल इन 7 सालों में जो नोटबन्दी, नाजायज जीएसटी, सर्जिकल स्ट्राइक, अनुच्छेद 370( कुपढो की भाषा की धारा 370) राम मंदिर का महिमामण्डन कर रहे थे। और खूब हिन्दू-मुस्लिम खेल रहे थे,  आज वे सब अपने करीबी के बीमार होने पर अस्पताल में बेड के न मिलने पर , ऑक्सीजन के सिलेंडर की अनुपलब्धता पर गुहार लगा रहे हैं। मानवता कल भी अपना काम कर रही थी। इधर देख रहा हूँ क्या हिन्दू क्या मुस्लिम सब एक दूसरे की मदद कर रहे हैं,  सिवाय सरकारों के। सब ब्लेम गेम की राजनीति चल रही है। 
एक लड़का प्लाज्मा डोनेट करने के लिए रोज़ा तोड़ देता है तो दूसरा नवरात्रि का व्रत तोड़ देता है लेकिन मानवता को नहीं टूटने देता है। मैं हमेशा इसी मानवता का पक्षधर रहा हूँ और यही संविधान में वर्णित पन्थ निरपेक्षता का असल अर्थ भी है। सवाल संविधान में जोड़ी गयी पंथ निरपेक्षता पर आपको करने का अधिकार है, आप कीजिये लेकिन सरकार से आप सवाल भी करिए कि आज उसी संस्कृति से मानवता शर्मशार होने से बच रही है। आपको ये भी पूछना चाहिए कि जो हम सबने सरकार पर विश्वास करके पीएम केयर फण्ड में पैसा दिया था उससे अस्पताल में एक्सट्रा बेड की व्यवस्था क्यों नहीं हुई, ऑक्सीजन के प्लांट क्यों नहीं लगे। आप सवाल करेंगे कि समय कहाँ मिला, मैं कहूंगा कि समस्या खत्म नहीं हुई थी, तो सरकार क्यों सोई रही। चुनाव स्थागित करके मूलभूत आवश्यकता पर ध्यान दिया जाना चाहिये था। लेकिन सरकार की मंशा हर राज्य में। खुद की सरकार की अधिक दिखाई देती है।
हाँ तो मैं कह रहा था कि 1 साल में मेडिकल क्षेत्र मे हमारी उपलब्धि क्या है, एक मित्र एम्स की अपने इलाके मे घोषणा होने मात्र से फुटो उछल रहे थे। आप कहेंगे 1 साल कितना कम समय होता है, में फिदेल कास्त्रो के क्यूबा का उदाहरण दूँगा,  याद कीजिये लातिन अमेरिका के ऊपर यूएसए की ज्यादतियों के किस्से। क्यूबा की सरकार ने जो फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में थी, उसने अमेरिका के सामने घुटने नहीं टेके, अमेरिका ने क्यूबा को  गैस देने से मना कर दिया था, फिदेल ने जनता का आव्हान किया और कहा कि घर के फर्नीचर जलाकर खाना बनाओ मुझे समय दो, हम अपने गैस प्लांट लगाएँगे, ये अलग तरह का राष्ट्रवाद था जो जर्मनी, फ्रांस और इजराइल के राष्ट्रवाद से अलहदा था। उसने एक साल से कम की अवधि में गैस प्लांट लगाकर घर घर गैस पहुंचाई। आप कहँगे कि रूस की सहायता के बिना ये सम्भव न था मैं कहूंगा आपके पास भी एक महाशक्ति का मित्र देश है। आप कीजिये। फिर आपको तू केयर फंड में जनता ने पैसा दिया है। 
दरसअल ये सब मामले मंशा से तय होते है। जब शिक्षा और स्वास्थ्य तक को निजी हाथों में सौंपने का मन निज़ाम ने बना लिया है तो फिर ऊए सब सवाल भी बेमानी नज़र आएंगे लेकिन सवाल मेरा अधिकार है। और मैं मेरे अधिकार का प्रयोग करूँगा। आपको दिक्कत हो तो कश्मीर की प्लाटिंग पर आप ध्यान केंद्रित कीजिये।

सन्दीप तोमर

Tuesday 20 April 2021

जाने क्या बात है इस शख्स में (संस्मरण) - अखिलेश द्विवेदी अकेला

 

तुम्हीं से मोहब्बततुम्हीं से लड़ाई 

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              तीसरा कौन???
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यह संस्मरण लिखते समय दो समस्याएं आयीं। पहली शीषर्क की और दूसरी यह कि कॉमरेड संदीप तोमर से मेरी पहली मुलाकात कब हुई थी। दरअसल हमारे सम्बंध करीब 18 वर्ष पुराने हैं। हमें जोड़ने के दो केंद्र थे। एक हिंदी अकादमी, दिल्ली और दूसरे भ्राता श्री किशोर श्रीवास्तव जी।

वह समय 2002-03 का था जब किशोर जी 'हम-सब साथ,साथ' पत्रिका निकालते थे। उस पत्रिका में नवोदितों के लिए बहुत सामग्री होती थी। किशोर जी नवोदितों को छापते भी थे और प्रोत्साहित भी करते थे।

वहीं दूसरी तरफ हिंदी अकादमी ,दिल्ली के सचिव श्री रामशरण गौड़ जी और उपाध्यक्ष श्री जनार्दन द्विवेदी जी नवोदित लेखकों के लिए बहुत सी प्रतियोगिताएं व कार्यशालाऐं आयोजित किया करते थे। उस समय ही मेरा परिचय नए लेखकों में अग्रणी श्री संदीप तोमर जो कि आलोचना व कहानी विधा में लिखते थे, उनसे हु। शायद मेरे पहले कहानी संग्रह 'टूटता तारा' की समीक्षा के विषय में बात हुई थी जो किशोर जी की पत्रिका में छपनी थी।

तब संदीप जी पश्चिम विहार के सैय्यद गाँव में एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे। मेरे घर के समीप ही स्कूल था। हम स्कूल जाते तो घण्टों उनसे साहित्य पर चर्चा होती। सैय्यद गाँव चौक पर ही ओमप्रकाश जलेबी वाला गर्मागर्म जलेबी बनाता था। गर्मागर्म चर्चा और गर्मागर्म जलेबी।

चर्चा गर्मागर्म इसलिए और हो जाती थी कि उस समय हम दोनों अविवाहित थे। मेरे और संदीप के जीवन में कुछ प्रेम प्रसंग भी चल रहे थे। यहाँ मैं उनकी चर्चा नहीं करना चाहता लेकिन घूम-फिरकर हमारी चर्चा इसी पर आ जाती-"तू मुझे सुना, मैं तुझे सुनाऊँ, अपनी प्रेम कहानी"।

संदीप को बचपन में पोलियो हो गया था। उसकी वजह से उनका एक पैर पोलियोग्रस्त है। उनकी प्रेमिका तो उन्हें चाहती थीं किंतु माता-पिता पोलियोंग्रस्त लड़के को दामाद के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे थे। उस लड़की से मैं मिल चुका था। मेरी भी दिली इच्छा थी उसी से संदीप का विवाह हो। यह प्रेम-कहानी हम सभी साथियों में चर्चा का विषय रहती।

कुछ ऐसी ही कहानी अपनी भी चल रही थी। मैं अकेले दिल्ली में रहता था। कई जगह शादी की बात चली और प्रेम-प्रसंग भी खूब चले किंतु बात शादी तक जाते-जाते अटक जाती।

खैर, हमारी बातों का कोई अंत न होता। हम दोनों ठहरे किस्सा-गो। घण्टों बीत जाते पर जाते समय लगता कि बात अधूरी है। एक दिन योजना बनाई कि रात में संदीप मेरे घर रुकेंगे। मेरा घर लक्ष्मी पार्क में था जो उनके स्कूल से महज दो किलोमीटर दूर था।

शाम को मेरे घर संदीप आये तो हमने उनका स्वागत किया। मैं घर में अकेले ही था ।जलपान के बाद पूछा-

"क्या खाओगे?"

"पंडित तुम बनाओगे या होटल से लाओगे?"संदीप मुझे पंडित ही कहते थे।

"जो कहो?"

"ऐसा करो, घर में बनाओ और वह चीज बनाओ जो जल्दी बन जाये।"

"तहरी बनाऊं?"

"हाँ, यह ठीक रहेगा।"

मैं कपड़े उतारकर तहरी बनाने में जुट गया। संदीप से अकेले न बैठा गया। वह भी किचन के गेट पर कुर्सी डालकर बैठ गए। मुझे मालूम था कि उन्होंने मुझे होटल क्यों नहीं भेजा और जल्दी बनने वाली चीज क्यों बनाने की बात कही। वह समय ज्यादा चाहते थे ताकि हम दोनों आज जी भरकर बतिया सकें।

आलू, गोभी, मटर, प्याज काटकर पहले मैंने लहसुन, अदरक, हरीमिर्च और जीरे का तड़का लगाया तो संदीप बोले-

"यार पंडित, तुम तो ऐसे खाना बना रहे कि होटल में क्या बनेगा?"

"बनने के बाद देशी घी डालकर खाओगे तो स्वाद देखना।"मैंने भूख बढ़ा दी थी।

"तुम्हारी भाभी भी.....।"

फिर क्या था ? हम तय करके आये थे कि मिलकर एक पत्रिका निकलेंगे, उस पर विस्तृत चर्चा होगी किन्तु भाभी पर चर्चा शुरू हो गयी। भाभी के बाद अनुज वधु की चर्चा शुरू हो गयी। देशी घी की तहरी का स्वाद अपनी-अपनी संभावित घरवालियों की चर्चा करते हुए मानों बढ़ गया था। आये थे हरि भजन को, औटन लगे कपास।

यहीं मन न भरा। आधी रात बीत गयी। संदीप को सीढ़िया चढ़ने में समस्या थी ,फिर भी हम दोनों छत पर जा पहुँचे। गर्मी के दिन थे। दोनों गाँव की पृष्ठभूमि से थे। उन्मुक्त हवा, टिमटिमाते सितारे, पूरा खिला हुआ चांद और उसकी खूब छिटककर बिखरी हुई चाँदनी। वह चंद्रमा में परम ज्योति को देख रहे थे और मैं अपनी भावी पत्नी की कल्पना करके कल्पनाओं में खोया था। खुले हुए आकाश के नीचे बैठे हम दो विरही एक-दूसरे की वेदना को समझते हुए हमने अपने-अपने चांद को उस चांद में देखकर न जाने कितनी कल्पनाएं की होंगी और नई-नई उपमाएं दी होंगी। किंतु हमारी परिस्थितियां और विसंगतियां राहु बनकर खुशियों में ग्रहण लगाने को आतुर थीं। रात तो बीत गयीं पर बातें खत्म न हुईं। आज तक भी बहुत सी बातें अधूरी रह गयीं।

उस समय हम लोगों ने मेरे संपादन में  "प्रारंभ" नामक संयुक्त काव्य संकलन निकालने की योजना बनायी। इससे पहले हम लोग "मुक्ति" नामक काव्य संग्रह श्री मनोज 'कैन' जी के सम्पादन में निकाल चुके थे। नवोदित लेखकों में भाई शिवनाथ 'शीलबोधि', संजीव कुमार, महेश कौशिक, सौरभ भारद्वाज, ललित झा, मनोज कुमार 'मैथिलललित झा, अशोक कुमार 'ज्योति' (वह उस समय प्रभात प्रकाशन में थे) रमेश वर्णवाल, इरफान अहमद 'राही' ,लेखिकाओं में लक्ष्मी चौधरी, कल्पना वाजपेयी, सोनाली शुक्ला, संगीता अधिकारी, रामेश्वरी 'नादान' आदि मिलकर विभिन्न प्रतियोगिताओं व गोष्ठियों में भाग लेते थे। एक "युवाकृति" नामक पत्रिका निकाली गई। जिसका प्रधान संपादक मुझे बनाया गया और कार्यकारी संपादक शिवनाथ 'शीलबोधि' बने। कनॉट प्लेस में मीटिंग हुई। मुझे प्रधान संपादक बनने के लिए संदीप जी ने प्रस्ताव रखा और शीलबोधि ने अनुमोदन किया।

उन दिनों शीलबोधि दलित लेखक संघ में सक्रिय थे। वह प्रसंग जब शीलबोधि पर संस्मरण लिखूंगा तो विस्तार से लिखूँगा। मजे की बात यह की संदीप तोमर जी उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे और मैं समाजवादी/प्रगतिशील विचारधारा का समर्थक था। किंतु हम सबमें विचारधारा का कोई टकराव न था। सिर्फ कभी-कभी मजाक हो जाया करता था। ललित झा संघ के दायित्वान कार्यकर्ता थे। राष्ट्र किंकर के संपादक व राष्ट्रवादी लेखक श्री विनोद बब्बर जी व संघ अधिकारी श्री अमरीष जी के कार्यक्रमों में मुझे ले जाते। मुझसे और ललित से संघ को लेकर बड़ी काट-छांट होती। धीरे से संदीप ललित का पक्ष लेते किंतु हम सब विचारधारा को मित्रता पर हावी न होने देते।

उस समय हम सबमें कोई ऐब न था। बाद में कई न्यूनताएँ आ गयीं थीं। समय बीता और हममें से कई मित्र विवाह के बंधन में बंध गए और कई लोगों की प्रेम कहानियां अधूरी रह गयीं। उनकी चर्चा फिर कभी। आज सिर्फ संदीप की बात करूंगा

संदीप और विवादों का चोली दामन का साथ रहा है। एक भयंकर विवाद मेरे घर पर हुए एक लोकार्पण समारोह में संदीप और किशोर जी के बीच हो गया। रंज की जब गुफ्तगू होने लगी, आप से तुम, और तुम से तू होने लगी। इस झगड़े के पीछे जो मूल वजह थी वह कोई और थी ! और वह वजह थी बलरामपुर, उत्तर प्रदेश से दिल्ली आये युवा कथाकार श्री दिलीप सिंह जो किशोर जी बुलावे पर आये थे। वह "हम सब साथ-साथ" पत्रिका का कार्य देखने के लिए आये थे। तब किशोर जी कराला में रहते थे। वह दिल्ली का आउटर इलाका था। कुछ दिन सब ठीक-ठाक था। लेकिन किशोर जी और दिलीप जी की ज्यादा दिन पट नहीं पायी। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। यह दोनों महानुभावों पर लागू होता है। मैं उस विवाद के केंद्र बिंदु पर नहीं जाना चाहता क्योंकि आज का विषय संदीप हैं। तो संदीप और मैं इस विवाद से ऐसे जुड़े कि किशोर जी के घर आते-जाते हमारी व संदीप की मित्रता दिलीप सिंह से भी हो गयी थी। किशोर जी व दिलीप जी दोनों की बात को सुनकर व विवाद मिटाने के उद्देश्य से मैं दिलीप को अपने घर ले आया।

उसी समय "प्रारंभ" काव्य संकलन छपकर आ गया था। मेरे घर पर ही उसका लोकार्पण था। शायद पन्द्रह अगस्त का दिन था।"काव्य गंगा"के संपादक स्वामी श्यामानंद सरस्वती, डॉ. जय सिंह आर्य 'जय', किशोर श्रीवास्तव जी, नेताजी एम.बी.तिवारी जी, डॉ. एस. जे. तिवारी व शीलबोधि आदि आये थे। लोकार्पण के बाद किशोर जी व संदीप जी में पहले कहासुनी फिर झगड़ा होने लगा। झगड़े की वजह एक कवियित्री थीं जिनसे मेरे विवाह की बात चल रही थी लेकिन उनके माता-पिता ने मुझे यह कहकर रिजेक्ट कर दिया था कि वाजपेयी   द्विवेदी से ऊँचे होते हैं सो निचले आशपति में लड़की नहीं ब्याहेंगे। किंतु बहस का विषय यह नहीं था। शुरू में बात उन कवयित्री महोदया की ही उठी थी किंतु संदीप में दिलीप सिंह की कसर भरी हुई थी। उन्हें लगता था कि बलरामपुर से पहले दिलीप को दिल्ली बुलाकर फिर उससे किनारा करके किशोर जी ने उचित व्यवहार नहीं किया।

मेरे लिए बड़ा धर्मसंकट खड़ा हो गया। दोनों मेरे अतिथि थे। सभी लोग परेशान हो उठे। अंततः दोनों लोगों को किसी तरह समझा बुझाकर वापस भेजा। किंतु संदीप जी ने किशोर जी के लघुकथा संग्रह "कटाक्ष" की समीक्षा लिखकर उसकी बखिया उधेड़ दी। इतना ही नहीं, उन पर कई लघुकथाएं भी लिख डालीं। यह शीत युद्ध दिलीप सिंह के दिल्ली जाने के बाद भी बहुत दिनों तक चलता रहा। मेरे लिए संदीप जी और किशोर जी दोनों में किसी एक को चुनना बड़ा मुश्किल था। हालाकि बाद मेन संदीप ने ही पहला करके किशोर जी से संबंध पुनः सामान्य कर लिए थे।

इस बीच एक संदीप जी की और कुछ मेरी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। संदीप ने मेरे उपन्यास 'वफ़ा' की भूमिका भी लिखी। लगभग मेरी सभी पांडुलिपियों को पहले संदीप ही पढ़ते थे। मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि संदीप में आलोचक के जन्मजात गुण हैं।

हम लोग उन दिनों वरिष्ठ लेखक-लेखिकाओं के साक्षात्कार लेते थे। मैं भावपक्ष और संदीप कलापक्ष पर चर्चा करते। कभी-कभी हम ऐसे नितांत व्यक्तिगत और अटपटे प्रश्न पूछ लिया करते थे कि सामने वाला असहज हो जाता था। ऐसा ही मुझे एक प्रसंग याद आता है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय की निदेशक व लेखिका श्रीमती पुष्पलता तनेजा का साक्षात्कार लेने की योजना बनी।

मैंने अपनी बाइक पर संदीप को बिठा लिया। मैंने हेलमेट लगा रखा था किंतु संदीप ने नहीं लगा रखा था। मोतीबाग के पास एक ट्रैफिक के सिपाही ने मेरी बाइक रोक ली और चाबी निकालने लगा। संदीप उस सिपाही से भिड़ गये-

"शर्म नहीं आती तुम्हें, इस शरीफ आदमी ने एक विकलांग को लिफ्ट दे दी तो तुम उसका चालान काटोगे। इस देश में शिक्षकों का कोई सम्मान नहीं। अपने अफ़सर से मेरी बात करवाओ।"

ठाकुर का पारा गर्म हो गया। एक तो राजनीतिक रसूख वाला व्यक्ति, ऊपर से क्षत्रिय  खून। मैं संदीप के तेवर देखता रह गया। सिपाही घबरा गया। मैंने बहुत समझाया बुझाया तो देवता शांत हुए।

कई बार पुस्तक मेले में या गोष्ठियों में मैं संदीप के साथ उनके ही स्कूटर पर चल पड़ता था। उनके स्कूटर में उसे बैलेंस करने के लिए पीछे दो पहिये अतिरिक्त लगे  थे। जैसे छोटे बच्चों की साइकिल में लगे होते हैं। अगर उस स्कूटर में पीछे न होकर बगल में सीट लगी होती तो हम शोले फिल्म के जय और वीरू से कम नहीं थे।

तो हम जा पहुँचे हिंदी निदेशालय के हेड आफिस। श्रीमती पुष्पलता तनेजा से पूछने वाले प्रश्नों को हम पहले से ही लिखकर ले गये थे। लेकिन संदीप ने उनसे अचानक ऐसा प्रश्न पूछ लिया कि श्रीमती तनेजा ही नहीं मैं भी चौंककर संदीप का मुँह ताकने लगे।

प्रश्न यह था कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी अपने ब्रम्हचर्य की परीक्षा हेतु महिलाओं के साथ नग्न सोते थे। एक महिला और लेखिका होने के नाते आप उन महिलाओं की सहज यौन इच्छा के विषय में क्या कहेंगी जो गाँधी जी के साथ नग्न सोती थीं। क्या यह गाँधी जी द्वारा उन महिलाओं की यौन-इच्छा का हनन नहीं था?

श्रीमती पुष्पलता तनेजा पहले तो अटपटाई फिर उन्होंने सहज होते हुए उत्तर दिया कि इसमें इच्छाओं के हनन और दमन-शोषण जैसी कोई बात नजर नहीं आती क्योंकि वह पहले से अपना मन बनाकर अपनी मर्जी से गाँधी जी के साथ लेटती थीं।

यह साक्षात्कार जब किसी पत्रिका में छपने भेजा तो सम्पादक ने ऐसे प्रश्न हटा दिए थे। जिस बात पीआर संदीप को तिलमिलाहट भी हुई थी।

मेरा आंचलिक उपन्यास "आँवें की आग" छपा तो संदीप ने उसकी समीक्षा लिखी थी।

इस बीच हम दोनों के जीवन में बड़ा बदलाव आया। हम दोनों की प्रेमिकाओं ने घरवालों के दबाव में   किसी अन्य से विवाह कर लिया।

परम ज्योति और संदीप की मित्रता मैंने बड़े करीब से देखी थी। मित्रता के उन सात सालों में हुई मुलाकातों में कौन सा ऐसा दिन था जब संदीप ने बातों में परम ही चर्चा न हुई हो। मेरी कल्पना से विवाह की बात समाप्त हो चुकी थी। उस समय बिंदु से शादी की चर्चा चल रही थी लेकिन वह भी किसी तीसरे के कारण टूट गयी। हम दोनों कुछ दिन बहुत उदास और निराश रहे। विरह की कविताएं लिखते रहे। मैंने इस प्रेम कहानी के टूटने पर "बिंदु" उपन्यास लिखा। संदीप को भी बहुत ठेस लगी। उन्हें लगता था कि उनकी विकलांगता के कारण उनकी प्रतिभा और सामर्थ्य को नकार दिया गया। मुझे भी लगता था कि मैं अकेला हूँ। अगर मेरे माता-पिता या भरा-पूरा परिवार होता, आर्थिक सक्षमता होती तो मेरी प्रतिभा और संघर्ष को सम्मान मिलता।

खैर, हमने इस निराशा को जीवन पर हावी नहीं होने दिया। हमने तय किया कि हम गरीब घर की कन्याओं से बिना दहेज लिए विवाह करके समाज में उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। संदीप ने भी ऐसा ही किया और मैंने भी ऐसा किया। इन दोनों विवाहों की चर्चा साहित्य जगत के साथ समाज में भी हुई। शायद किसी पत्रिका ने छापा भी था। शादी के बाद कुछ दिनों के लिए हम अपनी-अपनी गृहस्थी में ऐसे रम गये कि साहित्य पीछे छूटने लगा। हमारी मुलाकातें भी कम हो गयीं।उसी दौरान संदीप का कहानी संग्रह ”टुकड़ा-टुकड़ा परछाई” अवश्य प्रकाशित हुआ।

बहुत दिनों बाद संदीप का फोन आया-"अरे पंडित,आज मैंने तुम्हारी एक कविता पढ़ी। कविता का शीर्षक है  -या तुम मेरी कविता हो? क्या कल्पना की है यार ! हम लोग साहित्य से दूर होते जा रहे हैं। तुम जल्दी मुझसे मिलो। हम अगर अभी सचेत न हुए तो वह बहुत सा साहित्य बाहर नहीं आ पायेगा जो हम देश-समाज को दे सकते हैं। हम लोग एक नई योजना बनाते हैं।"

संदीप जल्दी से किसी के साहित्य की प्रसंसा नहीं करते। उनके मन का आलोचक हमेशा दोनों हाथों में तलवार लिये तैयार रहता है। संदीप की इस प्रशंसा से मेरे अंदर नई ऊर्जा का संचार हुआ। मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि विवाह के बाद हमने जो साहित्यिक पारी शुरू की वह संदीप से मिली प्रेरणा के कारण ही शुरू की। हमने दोबारा लिखना तो शुरू कर दिया लेकिन मुलाकात न हुई।

यह शायद वर्ष 2010 के बाद का समय रहा होगा। मेरे परम् मित्रों में ललित झा की भी शादी हो गयी थी। उनका रुझान साहित्य को लेकर लगभग खत्म हो गया था। हाँ, मनोज कुमार मैथिल सक्रिय थे और लगातार कविताएं लिख रहे थे। संदीप ने एक मंच बनाया "लेखकों का अड्डा" और मैथिल ने “साहित्य नभ" मैंने सुझाव दिया कि "साहित्य नभ" के माध्यम से हम लोग युवा लेखकों को ज्यादा से ज्यादा जोड़ें। मैं, संदीप, ललित मिश्र व मैथिल की द्वारिका में मीटिंग हुई। संदीप और मैथिल कुछ वैचारिक मतभेद उभरे। यह मतभेद सोशल मीडिया में के माध्यम से भी यदा-कदा दिखाई देते ।कुछ दिन धक्का मारकर गाड़ी चली किंतु ज्यादा आगे तक न जा सकी। संदीप की आदतों में एक चीज और पकड़ में आयी कि वह सामने वाले को नकार देंगे तो नकार देंगे। फिर वह अपनी पर उतर आते हैं। अपनी पर उतरते ही वह व्यक्तिगत हो जाते हैं।

खैर, उस मीटिंग के बाद मैं संदीप के घर जनकपुरी गया। मुझे यह देखकर आश्चर्य और प्रसन्नता हुई कि उन्होंने अपने कोचिंग कक्ष को बड़ी लाइब्रेरी के रूप बदल दिया था। छात्रों के लिए प्रचुर मात्रा में सामग्री थी। किन्तु मेरी नज़र तो अपने काम की पुस्तकें ढूंढ रही थी। ऐंजल चाय की ट्रे रख गयी थी। संदीप ने चाय पीने का आग्रह भी किया किंतु मैं पुस्तकों की खोजबीन में खोया रहा। नए-पुराने लेखकों की पुस्तकें, विभिन्न राजनीतिक विचारों के संग्रह, पौराणिक व अंग्रेजी साहित्य भी देखने को मिला किंतु मैं चौंका कार्लमार्क्स की सम्पूर्ण वाङ्गमय के सेट को देखकर। संदीप ने वामपंथी साहित्य का रैक अलग से बना रखा था जो अन्य से बड़ा था।

"वामपंथ में ज्यादा रुचि ले रहे हो भ्राता श्री !" मैं वापस चाय की ट्रे को देखते हुए बोला।

मेरी तिरछी निगाहें संदीप के चेहरे पर जम गयीं।

"हाँ, आजकल वाम साहित्य पढ़ रहा हूँ। एक वैज्ञानिक सोच वाला साहित्य आप तभी लिख सकते हैं जब आप आधुनिक सोच रखते हों।" संदीप ने स्पष्ट कहा।

"पहले तो आप राष्ट्रवाद पर जोर देते थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी जुड़े थे?" मैंने पूछा।

"हाँ पंडित, लेकिन मुझे वहाँ निराशा हाथ लगी। लगा कि राष्ट्रवाद खोखला है। हमें सिर्फ जाति-धर्म के विषय में सोचना सिखाया जाता है। साहित्यकार एक पक्षीय नहीं हो सकता।"

"क्या वामपंथ एक पक्षीय नहीं है?" मैंने प्रतिवाद किया।

संदीप अपने घर में कोई बहस नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा- "चाय पियो यार...,पंथ-वन्थ कुछ नहीं। दोस्ती बड़ी चीज है। दारू-वारू पियो तो मंगवाऊं?"

मैं हंस पड़ा।

"पूरे वामपंथी बन रहे हो। अब नास्तिक भी हो जाओगे?"

संदीप चुप ही रहे। उस दिन मैंने संदीप से यह नहीं बताया कि मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ रहा हूँ। मैंने भारतीय राष्ट्रवाद की कुछ पुस्तकें व उपन्यास संदीप की लाइब्रेरी से निकाले।

"पंडित मैं जानता हूँ कि तुम्हें पुस्तकें पढ़ने का बड़ा चाव है। लेकिन तुम्हारी आर्थिक स्थिति तुम्हें नई पुस्तकें खरीदने की इजाजत नहीं देती। मैं तुम्हें एक ऑफर देता हूँ कि तुम्हें जो भी पुस्तक पढ़नी हो उसे खरीद लिया करो। पढ़कर मेरी लाइब्रेरी में जमा कर दिया करो और पुस्तक का मूल्य मुझसे ले लिया करो। इससे मेरी लाइब्रेरी में अच्छी पुस्तक भी आ जायेगी और तुम पढ़ भी लोगे। सच कहता हूँ तुममें बहुत संभावनाएं हैं। तुम्हारे लेखन की गति देखकर मैं भी भयभीत रहता हूँ। इसी तरह लिखते रहे तो अपने समकक्षों को बहुत पीछे छोड़ दोगे।" इतना कहकर वह विचित्र सा मुँह बनाकर शरारत से मुस्करा देते हैं।

हम दोनों जोरदार ठहाका लगाकर हंसते हैं।

"मुझे भी तुम्हारे तर्कपूर्ण ज्ञान से बड़ी ईर्ष्या होने लगती है। तर्क वही दे सकता है जो ज्यादा पढ़ता हो !" मैंने कहा।

संदीप ने मुस्कराकर बात टाली।

हम दोनों ने एक काव्य संकलन संपादित करने की योजना बनाई।

उस दिन हमने "तिकड़ी" बनाने पर चर्चा की। आपको तिकड़ी सुनकर आश्चर्य हुआ होगा। उसका रहस्य यह है कि किसी जमाने में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश की तिकड़ी हुआ करती थी। संदीप स्वयं को राजेन्द्र यादव के रूप में देख रहे थे। मुझे कभी कमलेश्वर तो कभी मोहन राकेश बना देते। मोहन राकेश बनने पर मैं भड़क उठता। भाई मुझे पहले नहीं जाना। मैं कथाकार हूँ, कमलेश्वर ही बना दो। अब मोहन राकेश कभी मनोज मैथिल, कभी ललित मिश्र तो कभी दिलीप सिंह बनते। कोई स्थायी तीसरा न बन सका। अभी तीसरे की खोज जारी है।

काव्य संकलन छपा। नाम रखा गया "महक अभी बाकी है"। उसमें मेहनत ज्यादा संदीप ने ही की थी। वह संपादक बने और मैं सहसंपादक बना। पुस्तक का लोकार्पण मुंडका में राजीव तनेजा जी के यहाँ हुआ। उन्होंने अपनी दुकान के फस्ट फ्लोर पर एक गोष्ठी हॉल बनवा रखा था। उसमें कुर्सियां और माइक डेस्क बनवा रखा था। साहित्य के प्रति उनका समर्पण देखकर हम सब बहुत प्रसन्न हुए। उस कार्यक्रम में कई नए कवियों व कवयित्रियों से हमारा परिचय हुआ।

इसके बाद मैथिल और आमोद राय जी की संस्था के माध्यम से नांगलोई चौक वाले कार्यालय में गोष्ठियां हुईं। वह समय हमारे साहित्य-उत्थान के लिए स्वर्णिम था। हमारी गोष्ठियों की चर्चा बड़ी दूर-दूर तक हुई।

उस बीच संदीप का रुझान लघुकथाओं की ओर हुआ। छूट-पुट लघुकथाएं तो मैं भी लिखता था, छपी भी थीं लेकिन संदीप ने लघुकथा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया। उन्होंने लघुकथाओं का इतिहास और आलोचना के क्षेत्र में काम किया और अपने घर में कई गोष्ठियां भी करवायीं जिनमें मैं भी शामिल हुआ था। वहीं मेरी भेंट अनिल शूर, सुरेंदर अरोड़ा जी, हरनाम शर्मा जी, अशोक यादव आदि से हुई। योजना बनी कि एक लघुकथाओं का संकलन निकाला जाये। मेरी रुचि कम थी किंतु संदीप ने पीछे पड़कर मुझसे करीब तीस-चालीस लघुकथाएं लिखवा लीं। महेंद्रगढ़ ,हरियाणा के अशोक यादव जी संपादन करेंगे ऐसा सुनने में आया। संदीप और मैं अशोक जी के स्कूल महेंद्रगढ़ एक साहित्यिक समारोह जो हरियाणा अकादमी के सौजन्य से हुआ था, में शामिल होने के लिए दिल्ली से गये थे। उसमें मेरे बड़े सुपुत्र अभय ने एक बड़ी ही क्रांतिकारी कविता पढ़ी जिसकी खबर अख़बार में भी छपी। संदीप और अशोक जी मुझे छेड़ते हुए कहते कि राष्ट्रवादियों के घर भगतसिंह पैदा हो गया। वह भगतसिंह को घोर वामपंथी कहते हैं। मैं झेंपते हुए कहता कि भगतसिंह का सम्मान पूरा देश और हर विचारधारा के लोग करते हैं, इसमें आश्चर्य कैसा ?

हमारी ट्यूनिंग ठीक थी। कभी-कभी हंसी-मजाक में राष्ट्रवाद और वामपंथ आ जाते। विचारधारा कभी मित्रता में बाधक न बनी। किंतु एक बार ऐसा समय आया जब सोशल मीडिया के कारण हम दोनों में बहुत खटास आ गयी। यह बात 2014-15 की होगी।

हुआ यह कि संदीप अपने फेसबुक पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी पर कोई न कोई राजनीतिक कॉमेंट करते। उन दिनों मोदी जी के फैंस उन पर जान छिड़कते थे उनमें एक मैं भी था। मुझे बड़ा बुरा लगता लेकिन मैं उन पर कोई सख्त कॉमेंट न करता। बाकी बहुत से कॉमेंट लड़ने-झगड़ने वाले आते। संदीप उनसे जूझते रहते। कभी-कभी अकेले भी पड़ जाते। मुझे बड़ा बुरा लगता। मैंने उन्हें समझाता-"क्यों नाहक राजनीति में पड़ते हो? अगर लिखना भी है तो कविता, लेख या लघुकथा के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करो। या फिर खुलकर राजनीति में आ जाओ।"

वह हंसकर कहते-"तुम नहीं समझोगे पंडित।"

सोशल मीडिया पर संदीप से उलझना पड़ जाये तो मैं अजीब स्थिति में पड़ जाता। हारकर एक दिन उन्हें अनफ्रेंड कर दिया और बातचीत बंद कर दी। लेकिन बंदा नाराज नहीं हुआ। एक दिन वाट्सअप पर मैसेज आया। फिर बातचीत शुरू हुई। उन्होंने "पाठशाला" नामक एक वाट्सअप ग्रुप बनाया। उसमें लघुकथाओं और साहित्य की कुछ विधाओं पर चर्चा होती थी। पर राजनीति से हम बाज न आते। एक सकारात्मक बात यह हुई कि संदीप, मैथिल और ललित के साथ मैं भी एक-दूसरे को कटाक्ष करते हुए या यूं कहूँ लक्ष्य करते हुए लघुकथाएं और कविताएं लिखते जो बड़ी चर्चित होतीं। उनमें कई बड़ी अच्छी रचनाएं निकलकर सामने आयीं।

उसी बीच संदीप से फिर राजनीति पर बहस हुई और मैं फिर उनके वाट्सअप ग्रुप से लेफ्ट हो गया।

संदीप से कभी घनिष्ठता तो कभी नाराजगी चलती रही। शायद वर्ष 2006-07 में हम वयोवृद्ध साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र जी का इंटरव्यू हम दोनों ले चुके थे। करीब 2016 में हम दोनों फिर मिश्र जी का साक्षात्कार लेने गये। वह “विश्वगाथा” पत्रिका में छपा भी। उस बीच हमारी बोलचाल बंद थी। लेकिन संदीप का फोन आया- "पंडित, हमने जो ड्रॉ. रामदरश मिश्र जी का इंटरव्यू लिया था वह छप गया है।"

"जल्दी वाट्सअप पर भेजो।" मैं बड़ा उत्साहित हुआ।

संदीप का सम्पर्क कई पत्र-पत्रिकाओं में है। वह छपते भी रहते हैं। मुझे भी कहते रहते हैं कि पंडित यहाँ रचना भेजो-वहाँ भेजो। मैं इस मामले में बहुत सुस्त हूँ। किंतु संदीप मुझे सुस्त देखकर लगातार कोंचते रहते।

एक बार होली के अवसर पर निहाल विहार कार्यालय में एक काव्यगोष्ठी हुई। बहुत दूर-दूर से कवि आये थे। शानदार गोष्ठी हुई। हमने फूल की पंखुड़ियों से होली खेली। जाते-जाते ठाकुर अड़ गया। बोला-"पंडित, हम ऐसे न जायेंगे। होली के अवसर पर बुलाया है तो ठाकुर बिना खाये-पिये जायेगा नहीं।"

"घर चलो। भोजन करके जाना।" मैं पिंकी को फोन करने लगा।

"क्यों अनुजवधु को परेशान करते हो? किसी होटल में चलो। पैसों की कमी हो तो मैं फाइनेंस कर दूँगा।" वह आँख दबाकर बोले।

"नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है। आज आप लोग मेहमान हैं। किंतु...?"

"किंतु-परंतु क्या ....?" संदीप मेरी दुविधा समझ गये।

"तुम खाओगे क्या...?"

"ठाकुर हूँ। समझ जाओ क्या खाऊंगा? शेर घास नहीं खाता।"

मैथिल और ललित मिश्र भी थे। उन्हें लेकर निलोठी मोड़ के पास यादव ढाबा पर ले गया। वहाँ शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन मिलते थे।

वेटर को बुलाकर कहा- "जिसे जो पसंद हो वह भोजन लगाओ।"

"ऐसे नहीं खाऊंगा। पीने के बाद खाऊंगा। आज मना नहीं कर सकते। आज हम मेहमान हैं। अतिथि देवो भव। यह मैं नहीं राष्ट्रवादी लोग ही कहते हैं!" तना कहकर उन्होंने ललित और मैथिल की तरफ देखकर आँख मारी।

मैं अजीब धर्मसंकट में पड़ गया। मैथिल और ललित भी मुस्कराने लगे। उनकी भी मौन सहमति थी। मुझे पता था कि संदीप का मकसद खाना-पीना कम मुझे खींचना ज्यादा था।

मैंने वेटर को बुलाया और पीने की व्यवस्था करने को कहा। उसने सारी व्यवस्था बना दी।

संदीप खुलेआम प्लास्टिक के ट्रांसपीरियंट गिलास में पीने लगे। मैंने घबराकर कहा-"क्या करते हो यार? लोग देख रहे हैं। कोई जानने वाला आ गया तो मेरी बड़ी फ़जीहत होगी।" मैंने प्लास्टिक के गिलासों को स्टील के गिलासों के अंदर डाल दिया ताकि वह दिखायी न दें।

"यही तो राष्ट्रवादियों को ढ़कोसला है। हम वामपंथी जो काम करते हैं खुलेआम करते हैं। हा-हा-हा-हा...।"

मैथिल ने मेरे कान में कहा- "यह प्रैक्टिकल दिखा रहे हैं।"

उस दिन हम चारों में खूब बातें हुईं। जी-भरकर खाना-पीना हुआ। जिसे जो मन भाया, उसने वह खाया-पिया। संदीप ने बिल भरने का भरकस प्रयास किया लेकिन उस दिन मैंने उनकी एक न चलने दी। हम सब चिंतित थे कि संदीप घर कैसे पहुंचेंगे। लेकिन वह हम सबको आश्वस्त करके तिपहिया लेकर चलते बने।

जैसी कि हम सबको आशंका थी कि इस घटना का उल्लेख भी संदीप किसी न किसी रचना में करेंगे। संदीप भला हमारी आशंका को खाली कैसे जाने देते। उन्होंने इस पर लघुकथा भी लिखी और कटाक्ष भी किया।

हुआ यह कि उन्होंने मुझे फिर अपने "पाठशाला" वाले वाट्सअप ग्रुप में जोड़ दिया। हममें यह सहमति बनी कि अब इस ग्रुप में सिर्फ साहित्य की बातें होंगी। राजनीतिक चर्चा के लिए एक अलग ग्रुप बना लिया जाये। हम दोनों अपनी-अपनी विचारधारा के लोगों को जोड़ लें। उन्होंने अशोक यादव जी और कई वाम विचारकों को जोड़ा। मैंने भी भाजपा नेत्री बहन हेमलता वरुण, विहिप अधिकारी श्री ओंकार जी और मित्र मधुसूदन शर्मा जी को जोड़ा।ब हस शुरू हुई जो बहुत नई-नई चीजों को सामने ला रही थी। वाम पक्ष से संदीप के अलावा कोई और ज्यादा देर ठहर न सका। संदीप जब अकेले पड़ने लगे तो व्यक्तिगत आक्षेपों पर आ गये। शाम गहराने लगी थी। ठाकुर अब खूंखार होने लगा था। ग्रुप में एक महिला बहन हेमलता भी थीं। शायद झोंक में संदीप यह भूल गये थे। मैंने परेशान होकर ग्रुप ही डिलीट कर दिया। सार्वजनिक रूप से हार-जीत व अपने अहं को पोषित करने के चक्कर में कहीं सम्बंध न हार जायें। इसलिए मैंने कुछ दिनों के लिए फिर संदीप से दूरी बना ली।

दिल्ली के वरिष्ठ साहित्यकार और संपादक श्री सुरजीत सिंह जोबन जी हर वर्ष साहित्यकारों के साथ किसी न किसी प्रसिद्ध सिक्ख धर्म के धार्मिक स्थल का टूर करते हैं और वहीं पर साहित्यिक कार्यक्रम भी करवाते हैं। 2017 की बात होगी। जोबन जी ने बताया कि हम लोग हिमाचल के पाऊंटा साहिब जा रहे हैं। वहीं पर गुरु गोविंद सिंह ने कई पुस्तकों की रचनाएं की थीं और कवि दरबार लगाते थे। मेरी संदीप, यास्मीन मूमल(मेरठ) और नीतीश तिवारी(गुरुग्राम) से बात हुई। हम सब साथ जा रहे हैं, यह हम लोगों के लिए नया अनुभव था।

वहाँ गुरुद्वारे की धर्मशाला में रहना और गुरुद्वारे में ही भोजन करना था। महिलाओं के रुकने का कमरा अलग था पुरुषों का अलग था। लेकिन नाश्ता व भोजन सबका साथ ही होता था। एक दिन तो ठीक था। दूसरे दिन संदीप का ठाकुर जाग उठा। कसमसाकर बोले- "यार पंडित, सब कुछ तो ठीक है लेकिन यहाँ भिखारियों की तरह दोनों हाथ फैलाकर रोटी मांगनी पड़ती है। भोजन भी तेज-मिर्च मसाले वाला नहीं मिलता। चलो बाहर खाते हैं।"

"यार, हम समूह में आये हैं। अलग कहीं गये तो ठीक नहीं लगेगा। बाबा के दरबार में याचक बनकर ही हाथ फैलाकर मांगा जाता है।" मैंने समझाना चाहा।

लेकिन वह ठहरा अक्खड़ आदमी। वामपंथी नास्तिक होते हैं। उन्हें किसी का अस्तित्व स्वीकार नहीं होता। संदीप का समर्थन यास्मीन ने भी किया। हमने गुरुद्वारे की बस में न जाने का निर्णय लिया। मजाक-मजाक में संदीप का पर्स मैंने छीन लिया और कहा कि आज हम सब जमकर खर्च करेंगे। पैसों की चिंता मत करना अपना ही माल है।

"ठाकुर का दिल बहुत बड़ा है पंडित। रुपये खत्म हो जाएं तो एटीएम कार्ड भी पर्स में है, पिन भी बता देता हूँ।"

उस दिन हम तीनों ने बाहर ही नाश्ता किया और होटल में खाना भी खाया। यह बात जोबन जी को अच्छी नहीं लगी लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं कहा।

दूसरे दिन कवि सम्मेलन और सम्मान समारोह था। अंत में गुरुद्वारे के गर्भगृह में सरोपा देकर गुरुद्वारे की ओर से सबका सम्मान होना था। मैंने कहा-"कॉमरेड, गुरुद्वारे में सरोपा ग्रहण तो करोगे न?"

वह इतमीनान से बोले-"जानता हूँ, गुरु गोविंद सिंह सिक्ख धर्म के दसवें गुरु हैं। लोग उन्हें उसी रूप में मानते हैं, पूजते हैं। लेकिन मैं तो उन्हें इससे बढ़कर एक लेखक के रूप में सम्मान देता हूँ। उनकी कर्म स्थली में उनके नाम पर सरोपा न लेना एक गुरु, एक लेखक का अपमान होगा, और फिर मैं तो खुद एक सरकारी शिक्षक हूँ, मेरा तो कर्म ही शिक्षा देना है, फिर कवि और लेखक तो हूँ ही, एक बात और मेरी नास्तिकता इस सम्मान से अछूती नहीं है।" उस दिन संदीप का एक नया रूप मेरे सामने था, मेरा हृदय गदगद हो गया।  

हम सब गुरुद्वारे में रखे दशमेश गुरु के अस्त्र-शस्त्र और उनकी कलम देखकर बहुत उत्साहित हुए। मैं बड़ी देर तक खड़ा अपलक उनकी कलम को ही देखता रहा।

मार्च 2018 मेन किशोर जी ने नेपाल की किसी संस्था के साथ नेपाल में ही कार्यक्रम करने का मन बनाया। मुझे जिम्मेदारी दी तो मैंने डॉ. जय सिंह आर्य व संदीप से बात की। दोनों चलने के लिए तैयार हो गये। इरफान के जिम्मे टिकट बुकिंग का कार्य था। लेकिन मुझे दिल्ली में उसी दिन कोई आवश्यक कार्य पड़ गया। मैं नहीं जा सका। संदीप मुझे बहुत दिनों तक कोसते रहे कि तुमने बहुत बुरा किया। अचानक धोखा दे दिया पंडित। तुम्हारे साथ रहने से मुझे विशेष प्रकार की संतुष्टि रहती है। मुझे ज्यादा झेल पाना सबके वश की बात नहीं।

कुछ दिनों बाद किन्ही सूत्रों से मुझे ज्ञात हुआ कि संदीप की छोटी बेटी का ऑपरेशन होना है वह अस्पताल में भर्ती है। मैं अस्पताल तो न जा सका। उन्हें मैसेज भेजा- "ईश्वर बेटी को शीघ्र स्वस्थ करे।"

उत्तर आया- "कौन ईश्वर, कैसा ईश्वर? कोई ईश्वर मेरी बेटी को कैसे ठीक कर सकता है जिसका अस्तित्व ही नहीं है?"

इस नाजुक घड़ी में कौन उनसे बहस करे। उस दिन उन्हें पहली बार कामरेड कहा-

 "चलो, डॉक्टर को भी तो भगवान कहते हैं। डॉक्टरों के हाथों से चमत्कार हो और बेटी ठीक होकर शीघ्र घर आये। मैं ऐसी कामना करता हूँ।"

कुछ दिनों बाद उनका सन्देश आया कि बेटी ठीक होकर घर आ गयी है।

एक दिन समय निकालकर मैं हालचाल लेने उनके घर जा पहुंचा। वहाँ मेरा परिचय संदीप के ग्राउंड फ्लोर पर रह रहे एक उपन्यासकार मुकेश कुमार रॉय से हु। उन्होंने "पिघलते बर्फ की कहानी" नामक उपन्यास लिखा था। एक और सज्जन से मिलवाते हुए संदीप ने कहा- "इनसे मिलो, यह हैं हमारे होने वाले समधी साहब।"

मैं असमंजस में पड़ गया ।मैंने सोचा संदीप के भाई साहब या किसी और सम्बन्धी के समधी होंगे। संदीप ने हंसकर कहा-"भाई मेरे बेटी है और इनके बेटा। यह मेरे इतने घनिष्ठ दोस्त हैं कि हमने तय किया है कि आगे चलकर हम दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल देंगे।"

मुझे सही अवसर मिला। मैंने भी चोट की।"ऐसे वायदे तो परम्परावादी लोग करते हैं। वामपंथी कबसे ....??"

"नहीं-नहीं, अगर हमारे बच्चे बड़े होकर एक-दूसरे को पसंद करेंगे तो हम शादी करेंगे।" संदीप ने हड़बड़ाकर में गलती सुधारी।

लेकिन वापस लौटते हुए मैं सोच रहा था कि संदीप कितना भी आधुनिक व वामी बन जायें। गाँव और जाति-धर्म के संस्कार इतनी आसानी से नहीं जाते।

संदीप और मेरी दोस्ती के एक सिरा बलरामपुर से भी जुड़ता है। संदीप व मुझसे कभी अनबन हो जाती है या बोलचाल बंद हो जाती है तो दिलीप का फोन आयेगा। कम से कम आधे-पौने घन्टे बतियाएंगे। पुरानी यादें,गाँव-समाज और साहित्य के साथ संदीप की भी चर्चा अवश्य होती है। हम दोनों इस बात पर सहमत होते हैं कि संदीप से कोई वैचारिक असहमति हो सकती है लेकिन संदीप की साहित्यिक समझ पर कोई शक नहीं किया जा सकता। यदा-कदा संदीप ने हम दोनों की सहायता की है। जब हम साहित्य से विमुख हो रहे थे तो संदीप ही हैं जो हमें फिर हमें वापस उसी धारा में लेकर आये। हमें आपस में सम्बंध बनाकर रखने चाहिए।

अभी पिछले दिनों उनकी शिवसेना और महाराष्ट्र की राजनीतिक समझ के विषय पर दिलीप से भी बहस हो गयी। दिलीप बड़े आहत हुए। मैं संदीप के घर अचानक जा पहुंचा। बातों ही बातों में दिलीप की बात छेड़ी। घर-परिवार की बातें हुईं। संदीप मुझे कुछ खिन्न दिखे। न जाने क्या बात थी ?कुछ तो था जो वह मुझसे छिपा रहे थे।

मैंने कहा- "अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग लिखना चाहता हूँ।"

उन्होंने मुझे कमलेश्वर और राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा दी।

"लिखने से पहले इन्हें जरूर पढ़ना।"

संदीप मुझे बार-बार आगाह करते रहे- “लेखन में विविधता लाओ। कुछ बड़ा लिखो। कब तक तुम नवोदित बने रहोग ? अब हम बड़े हो गये हैं। मुझे देखो, तुमसे कम लिखकर भी नाम अधिक चर्चा में रहता है।“

चलते-चलते मैं मुड़कर पूछता हूँ- "हम साल में छः महीने तो बच्चों की तरह लड़ते-झगड़ते रहते हैं ।क्या हम सचमुच बड़े हो गये हैं ?"

संदीप ने मुस्कुराकर कहा- "पंडित, यह बचपना बुढ़ापे तक बना रहना चाहिए।"

जोरदार ठहाका लगाकर मैं वापस चल पड़ा था। गली के आखिरी छोर पर मुड़ने से पहले मैंने एक बार फिर पीछे मुड़कर देखा संदीप अब भी मुझे आशा भरी निगाहों से अपलक जाते देख रहे थे। उनके इसी अपनेपन और अधिकार भावना की डोर से बंधा मैं बार-बार लौटकर उनकी तरफ खींचा चला जाता हूँ।

-अखिलेश द्विवेदी 'अकेला'

 

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