Thursday, 1 December 2022
Setu 🌉 सेतु: दीप्ति गुप्ता से सन्दीप तोमर की साहित्यिक चर्चा
Tuesday, 11 October 2022
साक्षात्कार द्वारा सुमन युगल
लेखकों को नई ऊर्जा के साथ नए प्रतिमान स्थापित करने की अवश्यकता है।
- सन्दीप तोमर
(सन्दीप तोमर देश की राजधानी दिल्ली में रहकर
साहित्य सेवा कर रहे हैं, मूल रूप से वे उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक गाँव- गंगधाड़ी से ताल्लुक रखते हैं। लम्बे समय से लेखन से जुडे रहे हैं, साहित्य की विभिन्न विधाओं पर अध्ययन और लेखन उन्हें विशिष्ट पहचान देता
है। लघुकथा, कहानी, उपन्यास, कविता, नज़्म, संस्मरण इत्यादि विधाओं पर
उन्होने अपनी कलम चलाई है। वर्तमान
में हिन्दी उपन्यासों से उन्होंने साहित्य में एक अलग पहचान बनायीं है,
हाल ही में शिक्षिका और
कवयित्री सुमन युगल की सन्दीप तोमर
जी से लेखन
पर विस्तृत बातचीत हुई जिसमें श्री तोमर जी ने बेबाकी से अपनी ईमानदार राय रखी है। प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत।)
सुमन युगल: सन्दीप जी, आप
हमारे शहर यानि मुजफ़्फ़रनगर में जन्मे, पले-बढ़े और महानगर को अपनी कर्म-स्थली बनाया, जानना चाहती हूँ इसके पीछे कोई खास योजना थी या...?
सन्दीप तोमर: मेरे बचपन से लेकर उच्च शिक्षा तक की मेरे शहर
की यादें मेरे जहन में हैं, यहाँ तक कि मेरे ईमेल
पते में भी मेरे गाँव का नाम दर्ज है। मुझे मेरा शहर बहुत प्रिय है, जिसकी भूमि सृजन की भूमि है भले ही वह सृजन खेती से हो या कलम से।
इस भूमि ने कितने ही कलमवीरों को जन्म दिया है, इसकी खुशबू को कैसे भुलाया जा सकता है? जहाँ तक सवाल महानगर को कर्मस्थली बनाने का है- शारीरिक दायरे के चलते
मुझे महसूस हुआ कि कनेक्टिविटी के चलते मेरे लिए राजधानी दिल्ली अधिक उपयुक्त स्थान
है, अतः खतौली में सरकारी नौकरी मिल जाने के बावजूद
मैंने महानगर का रुख किया। हाँ, यहाँ आकर समझ आया कि
साहित्य के लिहाज से भी मेरे लिए यह महानगरीय जीवन अधिक आसान है।
सुमन युगल: महानगरीय जीवन शैली और ग्राम्य-जीवन शैली दोनों
को आपने करीब से देखा,
साहित्य रचते हुए इसका लाभ मिला?
सन्दीप तोमर : मेरे पहले उपन्यास “थ्री गर्लफ़्रेंड्स” का नायक इन्हीं दो
संस्कृतियों, या कहूँ कि जीवन शैली की ही उपज है, कितनी ही लघुकथाओं, कहानियों में दो
अलग-अलग संस्कृतियों का द्वंद्व आप देख सकते हैं। एक कहानी “ताई” जिसे सेंटपीटर्सन
से निकलने वाली पत्रिका सेतु ने छापा था, उसमें भी गाँव और शहर
दोनों के जीवन का अंतर स्पष्ट रूप से उपस्थित है।
सुमन युगल: आप एक शिक्षक है अच्छे कथाकारों में आपकी गणना की जाती है, आपने
कहानी, लघुकथा, उपन्यास,
संस्मरण और काव्य सबकुछ लिखा, इन सब पर कुछ सवाल हो तो आप क्या कहेंगे?
सन्दीप तोमर : अक्सर सुनता हूँ- “सुंदर स्त्रियों से गुफ्तुगू/वार्तालाप करने का नाम ग़ज़ल है”, उसी तर्ज़ पर मेरी नजर में लघुकथा प्रेयसी संग बैठ किसी प्रसंग की
गुफ्तगू का नाम है। लघुकथा के साथ यह महत्त्वपूर्ण एवं अनिर्वाय है कि जब कोई रचना
कथा-विकास के छोटे कलेवर में वांछित परिणति को सिद्ध करने तक पहुँचने में
पूर्ण-रूपेण सक्षम हो तो उसे अनावश्यक विस्तार देने की कोई गुजाइश/आश्वयकता नहीं
होती। कहानी में इससे अधिक
विस्तार सम्भव है लेकिन कहानी में फिर भी संक्षिप्तता
होती है, एकपन होता है– एक घटना, जीवन का एक पक्ष, संवेदना का एक बिन्दु, एक भाव, एक उद्देश्य
इसकी विशेषता है, इसमें मेरी समझ से समाधान का विशेष महत्व
नहीं होना चाहिए। हाँ, इतना अवश्य है कि कहानी अपने अभीष्ट तक पहुँचे। उपन्यास में एक पूरी
गाथा, एक या
उससे अधिक जीवन को समेटा जा सकता है।
सामान्यत: किसी भी साहित्यिक आंदोलन का सूत्रपात निश्चित रूप से
योजनाबद्ध न होकर सहज तथा स्वाभाविक होता है। ऐतिहासिक संदर्भ में विशिष्ट
व्यक्तियों तथा विशिष्ट परिस्थितियों के फलस्वरूप ही कोई प्रवृत्ति साहित्य में
परिलक्षित होती है। सशक्त होने पर यही प्रवृत्ति धीरे-धीरे एक धारा का रूप ले लेती
है, तब जाकर उस धारा का नामकरण होता है।
इस प्रकार लेखन की एक नई विधा अस्तित्व में आती है। तो कहानी के साथ ये आन्दोलन
बहुत पहले शुरू हुआ, तुलनात्मक रूप से
लघुकथा बहुत बाद में अस्तित्व में आई। उपन्यास भले ही पश्चिम की देन माना जाता हो लेकिन हमारे यहाँ
महाकाव्य के रूप में यह पहले से विद्यमान रहा।
सुमन युगल: तोमर साहब आपकी कहानियों में अमूमन चित्रकारी/चित्रकार का जिक्र रहता है। ऐसा लगता है आप चित्रकारी से कहीं
गहरे जुड़े या फिर मात्र कल्पना?
सन्दीप तोमर : बचपन में मैं चित्रकारी से बहुत डरता था, स्कूल के काम भी बड़े भैया या दीदी से करवाता था, बदले में वे मुझसे कहीं अधिक श्रम करवा लेते थे, लेकिन एक घटना ने मुझे चित्रकारी के निकट ला खड़ा किया। असल में
हुआ यूँ कि 1998 में जब चलती बस से गिरने के कारण लिम्ब-फ्रेच्चर हुआ तो एक साल
बिस्तर पर रहना पड़ा, तब एक मित्र (आप प्रथम प्रेमिका भी कह सकते
हैं) के लिए स्केच बनाए, उसे स्केच बनाकर भेजता
तो वह खुश होती, लेकिन अफसोस है कि वे स्केच उसने न कभी लौटाए, न ही सम्भाल कर रखें। उसके बाद कुछ स्केच काफी समय बाद बनाएँ
जिनमें से कुछ मेरे पास हैं।
मेरा मानना है कि कोई किसी भी कला का व्यक्ति हो, वह चित्रों से अवश्य ही लगाव रखेगा, अब देखिये न जो कहानी या कथा हम लिखते हैं वह सब स्वयं में एक
रेखाचित्र ही तो होता है, जिसमें हम नए-नए रंगों
से उसे आकर्षक और मोहक बनाते हैं।
सुमन युगल : अभी आपने प्रथम प्रेमिका का जिक्र
किया, आप का जीवन प्रेम के मामले में काफी चर्चित रहा है - प्रेम के विषय
में आपके क्या विचार
हैं? कैसे परिभाषित
करेंगे?
सन्दीप तोमर: प्रेम पर बहुत कुछ लिखा गया, कभी इसे शाश्वत कहा गया तो कभीं इसे निष्काम कहा गया। कभी कहा
गया कि प्रेम तो अंधी लालसा है।
प्रेम अगर एक अंधी लालसा है तो हमें इस भ्रम में क्यों रहना चाहिए कि प्रेम हमें
अनिवार्यतया उदात्त ही बनाएगा। प्रेम बहुधा आत्मा के पोषण का ईंधन भी होता है। ‘मुझे अमुख से प्रेम है।' यह वाक्य बहुधा किसी की व्याप्ति/प्राप्ति का साधन भी हो सकता है। मैं तो कहता हहूँ कि प्रेम में जानने का भाव अधिक जुड़ा है, बिना जाने प्रेम सम्भव ही नहीं है। सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति
में हो सकता है जिसने अपने आत्म को पूर्ण रूप से जान लिया है। लोग कहते हैं कि जहाँ प्रेम है, वहाँ श्रद्धा है, मुझे
लगता है जहाँ श्रद्धा है वहाँ भक्ति तो हो सकती है, प्रेम नहीं हो सकता।
विज्ञान
की भाषा में एड्रिनलीन के स्राव के कारण हुआ एक रासायनिक परिवर्तन भी इसे कहा जा सकता है, कुछ लोग इसे दिमाग में होने वाला एक केमिकल लोचा तक कह देते हैं। कुछ को लगता है कि प्रेम एक आदत है किसी
के साथ रहने की, किसी
के करीब होने की। इतना अवश्य कहूँगा कि प्रेम को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। प्रेम स्वयं से
होता है, निमित्त कोई भी हो सकता है।
सुमन युगल: कहा जाता है-
साहित्य समाज का दर्पण है, इस दृष्टि से मौजूदा साहित्य कसौटी पर कितना खरा उतरता है?
सन्दीप तोमर: साहित्य और समाज को लेकर दो मत हैं, एक- दर्पण सिद्धांत, दूसरा- प्रतिबिम्बन। मैं दूसरे सिद्धांत का पक्षधर हूँ, मेरे विचार से साहित्य समाज का दर्पण न होकर प्रतिबिंब होता है, इसे वैज्ञानिक नियम से समझना होगा, दर्पण तो खुद रचनाकार है, साहित्य वह है जो पाठक देख रहा है, यानि प्रतिबिंब। जो समाज में घट रहा है वही तो साहित्य के रूप मे
सामने है। लेकिन अगर आपकी बात को आशय के रूप में लेकर प्रश्न पर बात की जाये तो
कहना होगा कि आज साहित्य समाज को दिशा देने की बजाय लेखकों की आत्ममुग्धता, खेमेबाजी, दलगत राजनीति, लेखकों का राजनीतिक संरक्षण इत्यादि के चलते अपना उद्देशय खो चुका
है। लेखकों को नई ऊर्जा के साथ नए प्रतिमान स्थापित करने की अवश्यकता है।
सुमन युगल: आपने अभी बात की
राजनीतिक संरक्षण की, ये सच है कि लेखन या
यूँ कहें कि साहित्य भी राजनीति से अछूता नहीं है, आप खुद विभिन्न
राजनीतिक विचारधाराओं की समझ रखते हैं, देश के मौजूदा हालातों के विषय में कुछ कहना चाहेंगे?
सन्दीप तोमर: इस प्रश्न के जवाब को मैं दो भागों ममें बाँटकर रखना चाहता हूँ-
पहला ये कि लेखक किसी एक विचारधारा
या पंथ का नहीं होता, वह न वामपंथी
होता है, न ही दक्षिणपंथी ही। व
वह संघी है, न ही कांग्रेसी या
कोई अन्य। लेखक की स्वयं की एक दृष्टि होती
है। लेखक को चाहिए कि वह गलत का विरोध करे, न
कि स्वयं को किसी एक विचारधारा में बांध ले। लेखक की नजर में सब रहता है,
उसकी
दृष्टि से क्या कुछ छिपा रह सकता
है। उसका कर्तव्य बनता है कि वह बिना
किसी के प्रभाव या लालच में आए तठस्थ होकर
लिखेँ।
दूसरा-
मेरी नज़र में देश आज राजनीतिक रूप से बुरे दौर से गुजर रहा है,
व्यक्तिगत जीवन में सत्ता का इतना हस्तक्षेप न देखा है, न
ही सुना था। किसी के पहनावे, खानपान,
विवाह के फैसले, तलाक,
लिवइन के चलन इत्यादि के फैसले अगर सत्ता को करने होंगे तो शिक्षा,
स्वास्थ्य
या रोजगार इत्यादि का दायित्व किसका होगा?
सत्ता का दायित्व जनता की बेहतरी से जुड़ा होना चाहिए न कि सेंसरिंग से। आर्थिक
मोर्चो पर भी हम सरकारों की विफलताओं से परिचित हैं,
मुद्रा का गिरना जारी है, महँगाई चरम
पर है, स्वास्थ्य सुविधाओ का हाल हमने हाल
ही में देखा है। सरकारों के पास एक रेडीमेड जवाब है- जनसंख्या वृद्धि,
मैं कहता हूँ जनसंख्या एक बड़ा संसाधन है, यकीन न हो
तो कम जनसंख्या वाले देशो के आँकड़े उठाकर देखे जा सकते हैं,
जरूरत है- समुचित नीति और समुचित उपयोग की,
जिस मामले में हम बुरी तरह असफल हैं, और अफसोस
के साथ के साथ कहना पड़ेगा कि वर्तमान दौर कुछ लम्बा चलेगा।
सुमन युगल: सराजनीति के बारे में आपकी व्यक्तिगत राय क्या है? यदि आपको राजनीति में आने का मौका मिले तो किस तरह के बदलाव करना चाहेंगे?
सन्दीप तोमर: अगर राजनीति पर मेरी राय पूछोगे तो मैं कहूँगा
कि अभी हम पूरे विश्व के मुक़ाबले बहुत पीछे चल रहे हैं, अगर हमें पर्फेक्ट डेमोक्रेसी की ओर बढना है तो हमें भारतीय
राजनीति में बड़े परिवर्तन करने की जरूरत है। विश्व इतिहास बताता है कि पूंजीवाद
समस्याओं को बढ़ाता है कम नहीं करता, देश के जो वतर्मान
हालात हैं, जो वैश्विक परिदृश्य में हमारी स्थिति है, वह भले ही हंगर इंडेक्स हो या भ्रष्टाचार, समाधान समाजवाद ही है। नेहरू जिस लोकतान्त्रिक समाजवाद की बात
करते थे, हमें उसे ग्रहण करना ही होगा, समाधान उसमें ही है।
रही बात मेरे राजनीति में आने की या मेरे सरोकार
की तो ये स्पष्ट है कि हर व्यक्ति के राजनीतिक सरोकार होते हैं, मेरे भी है, अगर मैं एक्टिव
राजनीति में हूँगा तो मैं शिक्षा, स्वास्थ्य और जीविका
पर काम करना पसंद करूँगा क्योंकि मुझे लगता है कि ये अब बुनियादी जरूरतें हैं। अभी
जो माहौल बना है जिसमें लोगों को निजीकरण में समाधान दिखाई देता है असल में वे किसी
मुगालते में जी रहे हैं, निजीकारण कभी भी
कल्याणकारी राज्य में विकल्प नहीं हो सकता। कल्याणकारी राज्य का ये दायित्व है कि
वह अपने नागरिकों को शिक्षा, स्वस्थ्य और संतुलित आहार उपलब्ध कराये। और ये सब समाजवादी
व्यवस्था में ही सम्भव है। किसी भी समाज में शिक्षित जन का होना लोकतन्त्र की
मजबूती है, ध्यान रहे हमने पर्फेक्ट डेमोक्रेसी की तरफ
बढ़ना है।
सुमन युगल: तो ये माना जाये कि शिक्षा व्यवस्था
को दुरुस्त किए बिना समतामूलक समाज की
स्थापना एक दिवास्वपन है, फिर हम ये जानना चाहेंगे कि आधुनिक शिक्षा पद्धति के बारे में आपकी क्या राय है?
सन्दीप तोमर: हमारी शिक्षा पद्धति की समस्या ये है कि हम आज
भी मैकाले के समय में जी रहे हैं, जहाँ शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ शासन चलाने के लिए सस्ते क्लर्क
तैयार करना था, अफसोस है कि हम राजनीतिक आज़ादी के इतने सालों
बाद भी अपनी शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन
ही करते रहे, जो हमारे सरोकार हैं या जो हमारे समाज की
अवश्यकताएँ हैं, उनके हिसाब से हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था को
दुरुस्त करने का प्रयास ही नहीं किया। अगर आप मेरे विचार जानना चाहेंगे तो मैं
कहूँगा कि हमें गाँधीजी की बुनयादी शिक्षा की ओर लौटना होगा। अवश्यकता इस बात की
है कि हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को व्यवसायिक शिक्षा पर केन्द्रित करना होगा, आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए व्यवसायिक शिक्षा को सुदृढ़ करने की
अवश्यकता है। स्कूली शिक्षा में अनिवार्य रूप से व्यवसायिक पाठ्यक्रम को लागू किया
जाये। नई शिक्षा नीति-1986 में दिये गए प्रावधानों को अगर पूरा कर लिया जाए तो
अन्य किसी सुधार की गुंजाइश ही न रहे। स्कूली पाठ्यक्रम ऐसा हो कि पूर्वाहन में
सैद्धांतिक विषयों की पढ़ाई कराई जाये और अपरहान में प्रायोगिक ज्ञान दिया जाएँ।
स्कूल में वर्कशॉप हों जहाँ व्यवसायिक शिक्षा का समुचित प्रबंध हो, जिसमें रोज़मर्रा के जीवन से जुड़े काम व सामान का बनना, मरम्मत इत्यादि की शिक्षा दी जाये,छात्रों द्वरा तैयार किए गए माल के लिए सरकार बाज़ार उपलब्ध कराए, अधिक से अधिक को-ओपरेटिव स्टोर खोले जाएँ जहाँ सरकारछात्रों के सामान
को महंगे दामों पर खरीदकर उन्हें रियायति मूल्य पर बेचने का समुचित प्रबंध करे।
छात्रों को स्किल्ड करने के बाद एक प्रमाणपत्र जारी किया जाये कि वह अपने काम की दक्षता
प्राप्त कर चुका है। यह भी सुनिश्चित हो कि दक्षता प्रमाण-पत्र के बिना किसी भी
प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, इत्यादि को निजी काम या अनुबंधित काम करने की अनुमति न हो।
सुमन युगल: सन्दीप जी आप मूलतः एक साहियतिक
व्यक्ति हैं लेकिन आपके राजनीतिक और शिक्षा पर विचार भविष्य के लिए आशान्वित करते
हैं, हम पुनः साहित्य की ओर लौटते हुए पूछना
चाहेंगे- आपकी छवि एक यथार्थवादी लेखक की है, साहित्य में अतियथार्थवाद
क्या पाठक को निराश तो नहीं कर रहा
?
सन्दीप तोमर : सुमन जी, मैं आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ, कोरा यथार्थ या अतियथार्थ कहीं न कहीं मौलिक लेखन को तो अवरुद्ध
करता ही है साथ ही फैंटेसी और कल्पनाशीलता न होने के चलते सर्जना विलुप्त होती जाती
है। पाठक हमेशा नयापन खोजता
है, जिसके अभाव में एक नैराश्य की स्थिति उत्पन्न होती है। वर्तमान
में साहित्य के साथ ये समस्या है कि अब आधिक्य में लिखा जा रहा है और गुणात्मकता
ने गुणवत्ता को लीलने का काम किया है, लोग लिख रहें हैं, लगतार लिख रहे हैं, चिंतन-मनन का स्कोप
ख़त्म कर दिया है, सिर्फ इसलिए लिखा
जा रहा है क्योंकि लिखना है, छपना है, तो ये जो लिखने और छपने की चाह है ये साहित्य का नुक्सान अधिक कर
रही है। जब तक पाठक को केंद्र में रखकर लेखन नहीं होगा ये स्थिति अधिक विकट होगी।
सुमन युगल: सुनने में आता है कि वर्तमान में चाहे वह नारीवादी लेखन हो या दलित
लेखन या फिर मुख्याधारा का लेखन, आजकल अधिक विवादित लेखन हो रहा है, जहाँ विविधता को देखना भी ख्वाब की तरह है, ऐसे में आपका लेखन विविधता से भरा है, कैसे आप खुद को विवादों से अलग रख पाते हैं?
सन्दीप तोमर : देखिये “साहित्य जगत में एक स्लोगन चलता है रातोंरात प्रसिद्धि पानी है तो
विवादास्पद विषयों पर लिखें, आधा काम रचना, बचा हुआ काम आलोचक कर देंगे।“ अभी नारिवाद के नाम पर जो लेखन हो रहा है अगर
अपवाद को छोड़ दें तो वह मात्र खुद को विवादित करके चर्चा में बनाए रखने का उपक्रम
मात्र है, हाँ, ममता कालिया, दीप्ति गुप्ता, सुधा अरोरा, उषाकिरण खान, डॉ सूर्यबाला सरीखी
लेखिकाओं का लेखन हमें आश्वस्त भी करता है, इन्होने बिना किस हो-हल्ले के महिलाओं की पीड़ा को लेखन का हिस्सा बनाकर हमेशा अपनी ओर ध्यान आकृष्ट किया है। स्वयं
की बात करूँ तो कहूँगा कि नारी-वेदना बेडरुम से बाहर भी उतनी ही पीड़ादायक है, जितनी बेडरूम के अन्दर। प्रेम और उसके नाम पर होने वाले
उपक्रम मेरी रचनाओ का हिस्सा बनते हैं क्योंकि मैंने समाज में बहुत
बारीकी से इन सब का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। मेरे लिए प्रसिद्धि लेखन से अधिक
महत्वपूर्ण नहीं है, लेखन आत्माभिव्यक्ति और अंतर्वेदना के
प्रस्फुटन के लिए नितांत आवश्यक है। यही वजह है कि मैं विविधता में विश्वास करता हूँ ।
सुमन युगल: नवोदित लेखकों के लिए क्या संदेश देना
चाहते हैं?
सन्दीप तोमर देखिये, पढना यानि
अध्ययन साहित्य और उसकी विभिन्न विधाओं के अंगोपांग को
समझने के लिए जरुरी है, लेकिन देखने में आता है कि अधिक पढ़ने से कुछ नवलेखकों का स्वयं का लेखन भी प्रभावित होने लगता है, कुछ नवरचनाकार किसी
लेखक से इतने प्रभावित होते हैं कि उनकी शैली को ही अपनाने लगते हैं। जरुरी है कि नयी पीढ़ी के लेखक खेमेबाजी से दूर रहें, खुद के लिखे को बार-बार पढ़ें, और खुद के लेखन को खारिज करने से परहेज न करें। एक शब्द लिखने से
पूर्व कम से कम सौ शब्द अवश्य पढ़ें। सतत लेखन अवश्य ही शिखर तक ले जाएगा।
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