मेधा महत्वपूर्ण है, काया नहीं”
(एक यायावर का जीवन)"खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले
खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।"
शायद ये पंक्तियां उन इंसानों के लिए लिखी गईं हैं जिन्होंने क़िस्मत के आगे घुटने नहीं टेके बल्कि अपने संघर्ष और कुछ कर गुजरने के जुनून से अपनी तक़दीर को खुद लिखकर न केवल सँवारा बल्कि वे दूसरों के लिए भी प्रेरणा स्रोत बन गए।
बहुत मुश्किल होता है विपरीत हालातों में भी आगे बढ़ते जाना और यह मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब अपने ही शरीर का कोई हिस्सा बाधक बन जाय यानि शरीर के किसी एक अंग के सामान्य रूप से कार्य कर पाने या बिल्कुल भी कार्य नहीं कर पाने में अक्षम होना। शारीरिक अक्षमता की स्थिति को विकलांगता कहा जाता है। आजकल एक शब्द भी प्रचलन में आया है ‘दिव्यांग’। सरकार ने पीडब्ल्यूडी अधिनियम- 2016 के बाद इस शब्द को मान्यता प्रदान की।
शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति के लिए प्रत्येक दिन की शुरुआत ही एक संघर्ष की तरह होती है। पूर्ण रूप से सक्षम व्यक्ति तब तक उनकी परेशानी को नहीं समझ सकते जब तक कि उनके आस-पास कोई ऐसा व्यक्ति न हो या फिर कुछ समय के लिए परिस्थितिवश उन्होंने स्वयं इन पलों को जिया हो। अधिकांश मामलों में परिजनों के सहयोग से दिव्यांग व्यक्ति स्वयं को आत्मनिर्भर बना पाने में सक्षम हो जाते हैं लेकिन अधिकांश व्यक्ति खुद को इस स्तर तक नहीं ला पाते हैं, यहां सबसे महत्वपूर्ण बात है कि कोई व्यक्ति स्वयं को मानसिक रूप से कितना सक्षम कर पाता है, क्योंकि परिवार व समाज की सहानुभूतिपूर्ण नजरें, कटाक्ष उनमें बेचारगी का अहसास उत्पन्न कर कहीं न कहीं उन्हें कुंठित कर देते हैं। ऐसे में उनका सर्वांगीण विकास होना कठिन होता है।
कठिन व विपरीत परिस्थितियां सभी के जीवन में आती हैं, कोई इन स्थितियों में टूट कर बिखर जाता है तो कोई नया रास्ता बनाकर न सिर्फ आगे बढ़ता चला जाता है अपितु अन्य लोगों के लिए भी प्रेरक बन अनुकरणीय हो जाता है। हमारे समाज में ऐसे कई व्यक्तित्व है जिन्होंने अपनी विकलांगता को स्वयं पर हावी न होने देते हुए एक मिसाल कायम की है। इतिहास में भी ऐसे प्रेरणास्रोत मिलते हैं जिन्होंने एक लंबा समय विकलांगता कि चपेट में जीते हुए भी खुद को एक मिसाल की तरह पेश किया, अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन, महान वैज्ञानिक एडिसन, प्रकृति पर कविता लिखने वाले कवि जॉन. मिल्टन, ब्रेल पद्धति के जनक लुई ब्रेल, इत्यादि न जाने कितने नाम है जिन्होंने विकलांगता को कभी बाधा नहीं माना, ऐसे ही एक सख्श से मैं आपका परिचय करवाने जा रही हूं जिन्होंने शिक्षा, लेखन व समाजसेवा के क्षेत्र में अपना एक विशेष मुकाम हासिल किया है। जी हाँ, मैं कवि, कथाकार, आलोचक, शिक्षक, फो
एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार में जन्में ' सन्दीप तोमर ' जी बचपन में ही पोलियो के शिकार हो गए थे। घर की दहलीज पर बैठ कर मैदान -सड़क पर खेलते-कूदते बच्चो को देखकर बालमन भोलेपन में प्रश्न कर उठता," ये कैसे चल पा रहे हैं - भाग दौड़ रहे हैं और मैं क्यों चाह कर भी ठीक से चल नहीं पा रहा?" उन्होने अपने बचपन के दिनो में दैनिक जीवन के कार्यों में जिन संघर्षों का सामना किया, उनके बारे में सुनकर भी किसी संवेदनशील इंसान की रूह काँप सक्ति है, लेकिन वे सदैव ही मुश्किलों से सीखते रहे और हर बाधा की राह तलाशते रहे। माँ, बालक सन्दीप को अपने आँचल में छिपा कर आशा के ढेरों दीपक उनकी आंखों में जगमग कर देती थीं। उनकी माँ उनका भावनात्मक सम्बल थीं।
एक साक्षात्कार में वे स्वयं कहते हैं जब ललित मिश्र उनसे सवाल करते हैं- संदीप जी ये बताइए कि आपका बचपन कहां और किस तरह गुजरा और किन घटनाओं का बचपन में आपकी जिंदगी पर गहरा प्रभाव पड़ा? जवाब में संदीप तोमर कहते हैं-“मैं मुजफ्फरनगर जिले के खतौली कस्बे का रहने वाला हूं। खतौली से सटा हुआ मेरा गॉव है गंगधाडी। उसमें हमारा मिटटी का कच्चा घर मेरे जन्म से पूर्व तोड़कर पक्का घर बना था, वहीं मेरा जन्म हुआ। मेरे पिताजी अध्यापक थे पास के ही गॉव में। इसलिए बचपन गॉव में ही बीता। और बचपन के नाम पर मेरे जहन में इतना कुछ है कि गिनाता रहूँगा तो हफ्ता कम पड़ जायेगा, हाँ जिस बात ने मेरे सोचने का ढंग बदल दिया वह बात याद आती हैं पिताजी के चाचाजी यानि छोटे दादा जी ने कहा- कि इस बच्चे को सिलाई सीखा दो तो ये अपना गुजारा करने लगेगा, उस वक़्त मैं सातवीं में पढता हूँगा। पिताजी ने जो भी जवाब दिया, मेरा लोगो के प्रति नजरिया बदल गया और पिताजी के प्रति सृद्धा बढ़ गयी।“ ललित मिश्र ने दादाजी का ऐसी सलाह देने का कुछ विशेष कारण जानना चाहा तो वे जवाब में कहते हैं-“हाँ, कारण ये कि उन्हें लगता था कि शारीरिक अक्षमता के चलते ये ही बेहतर विकल्प हो सकता है, यानि गुजारा महत्वपूर्ण है शिक्षा-दीक्षा नहीं।“ इससे एसपीएसएचटी होता है – जब परिवार के सदस्य इस प्रकार का नजरिया विकलांगों के प्रति रखते हैं तो समाज की सोच उस समय कैसी रही होगी?
पोलियों होने और इससे अपने जीवन पर प्रभाव के सवाल पर उनका कहना है- “माँ बताती है कि ग्यारह महीने की आयु रही जब मुझे पोलियो हुआ। प्रभाव तो ये हुआ कि बहुत से काम सुचारू रूप से नहीं हो पाए, चलती बस में चढ़ने-उतरने से लेकर बचपन में बस्ता कंधे पर लटका स्कूल तक जाने में बाधाएं जरुर हुई लेकिन मानसिक रूप से मुझे कभी कोई बाधा नहीं लगी। बल्कि ये बात पुख्ता होती गयी कि मेधा महत्वपूर्ण है, काया नहीं।“
आठ वर्ष की आयु में उनका दाखिला पास के ही एक स्कूल में करा दिया गया था, जहां उनकी विचारधारा को एक नई दिशा मिली। 'अध्ययन से सब साधा जा सकता है।', इस एक सूत्र को गांठ में बांधकर उन्होंने सबसे पहले अपने मन से अपनी विकलांगता को लेकर उपजी हीनता को हटाना आरम्भ किया। पोलियों के लंबे इलाज के बारे में उन्होने अपनी आत्मकथा-“एक अपाहिज की डायरी" में काफी विस्तार से लिखा है, अक्सर उनकी माताजी उनको अपनी गोद में लेकर डॉक्टर के यहां जाया करती थीं। इलाज और फिजियोथेरिपी के अनेक दौर के बाद जो कई बार कष्टप्रद भी होती थी, सन्दीप सहारा लेकर खड़ा होने व चलने भी लगे थे। पोलियो का इलाज बन्द हो चुकने के बाद ही उनकी शिक्षा-दीक्षा आरंभ हुई। अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बलबूते सन्दीप न केवल अपनी कक्षा में अव्वल आते थे बल्कि उनकी मित्रमण्डली गिल्ली डंडा व कंचे खेलने में भी उनका लोहा मानती थी।
एक बार उन्होंने 'ऋषि अष्टावक्र' के बारे में पढ़ा जिनका शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा था पर वे अपनी शारीरिक स्थिति के कारण उपहास का पात्र नहीं बने बल्कि उनकी योग्यता व ज्ञान के कारण पूजनीय व आदर का पात्र बने। यहीं से उनकी लगन स्वयं को स्थापित करने की ओर बढ़ गई। उन्होंने मन में ठान लिया कि उन्हें स्वयं को उस स्तर पर लेकर जाना है जहां लोगों का ध्यान उनकी शारीरिक अपूर्णता की तरफ न जाये बल्कि उनकी क़ाबलियत के आधार पर लोग उनको पहचाने। उन्होने अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग (कुछ आँसू कुछ मुस्काने...) में लिखा है-
जब छोटा था, तो देखता- बच्चे दौड़ रहे हैं, खेल रहे हैं, लगता, मानो मेरे अलावा सब ही तो वक़्त के साथ भाग रहे हैं, गली के मुहाने या फिर घर की दहलीज पर बैठा– होंठों से बुदबुदाता- ‘दीप, तुझे दौड़ना है?’ मन से एक आवाज आती- ‘कैसे?’
आसमान में उड़ते पंछी, अपने घर को लौट रहे होते, या पेड़ की डाल पर बने अपने घोंसले में शाम को आकर चहचहाते तो होंठ फिर बुदबुदाते- ‘दीप, तुझे दौड़ना है? तुझे वक़्त के साथ चलना है या फिर वक़्त से भी कुछ तेज’, तब अल्फाज तो थे लेकिन लिखना अभी कहाँ सीखा था, माँ का पढाया काला पन्ना ही अभी जेहन में घूमता था, या फिर बारह खड़ी की दिमाग में न घुसने वाली मात्राओ का चक्रव्यूह, इन सबसे पार पाकर ही अल्फाजों को कागज पर उकेरा जा सकता था, लेकिन दिमाग के केनवास पर तो बहुत से चित्र बन गए... और एक अमिट पंक्ति अंकित हुई- ‘दीप, तुझे दौड़ना है, तुझे वक़्त से कहीं तेज चलना है।‘
पिछला जिया सब याद आता है- तो सोचता हूँ, इतना छोटा बच्चा इतना संवेदनशील कैसे हो सकता है? कैसे बना इतना संवेदनशील? एक दीप, मेरे अंदर उजाला भर रहा था, जिसकी लौ टिमटिमाती रहती, बुझने के कगार पर आने से पहले माँ उसमें तेल डाल जाती, वह दीप फिर जल उठता, उसकी लौ में भी वही पुकार होती- ‘दीप तुझे दौड़ना है, वक़्त से तेज चलना है।‘
अब इस बात को कहने में सक्षम हुआ हूँ- जिन्दगी के सफ़र में जब कोई आगे बढने से रोकने को खड़ा हुआ, तब अन्दर एक हलचल हुई और उस हलचल ने हमेशा कहा- ‘उठो दीप, तुम्हें वक़्त से आगे चलना है।‘
कहते हैं कि सभी के लिए एक राह खुली हुई होती है जब दूसरी राह बन्द हो जाती है। पढ़ाई में कुशाग्र बुद्धि सन्दीप को भी अपनी राह मिलने लगी थी। एक दिन उनकी एक कविता पढ़कर उनके पिताजी ने उन्हें शाबासी दी। यहाँ से उन्हें उनके जीवन को एक नयी राह मिली। अड़ोस-पड़ोस के वातावरण, ज़िन्दगी की कटु सच्चाइयां उनके लेखन का विषय बनने लगीं। झंझावात तब भी उनके जीवन में थे लेकिन उनका हौसला उससे भी बढ़कर था। अब उनमें आत्मविश्वास आ चुका था। वह अच्छी तरह समझ गए थे कि योग्यता के आगे एक दिन दुनिया की उपहास भरी नजरें झुक जाएंगी। उनकी बड़ी बहन पूनम चौहान, माताजी श्रीमती माया देवी तोमर और उनकी मित्र परम ज्योति ने उनका बहुत साथ दिया। तीनों से ही उन्हें मानसिक सम्बल मिलता रहा।
अपने संघर्ष के दिनो के बारे में संदीप कहते हैं –
“मैं नहीं जानता कि कब मुझे पोलियो हुआ, बस माँ बताती है कि मैं ११ महीने का था तब खाट(चारपाई) पकड़ खूब तेज दौड़ने लगा था। शरीर से बहुत ही हष्ट-पुष्ट, माँ को लगता था कि किसी की नजर न लगे, शायद इसीलिए माँ कुछ बड़ा काला टीका लगाती, फिर एक दिन मुझे तेज बुखार आया था, दादी ने माँ को डॉ के पास नहीं जाने दिया। पिताजी स्कूल से आये तो माँ ने बताया कि दिप्पे को बुखार है, और आज वह हाथ-पैर भी नहीं चला रहा, पिताजी माँ को साइकिल पर बैठा डॉ के पास ले गए। डॉ ने थोड़ी जाँच के बाद कहा-“पोलियो हुआ है।“
शिक्षक होने के नाते पिताजी जानते थे, पोलियो क्या बला है लेकिन माँ एकदम अनभिज्ञ थी, पिताजी ने ही उसे समझाया था।
खाट पकड़कर दौड़ने वाला लड़का अब खड़ा नहीं हो सकता था। ईलाज का सिलसिला शुरू हुआ, डॉ, नीम हकीम, मौलवी, पंडित जहाँ जो कोई कुछ बताता माँ–पिताजी मुझे वहाँ लेकर जाते। मुझे बहुत सी घटनाओ की धुँधली यादें हैं, कुछ यादें घिनौनी भी हैं। यानि घोर अन्धविश्वास, लेकिन यकीन मानिये- जब किसी पिता को ये कहा जाए कि अब तुम्हारा बेटा कभी खड़ा नहीं हो पायेगा, चल नहीं पायेगा, तब वह पिता अन्दर तक कितना टूटता है, तब उसे अन्धविश्वास पर भी विश्वास करने को बाध्य होना पड़ता है। घोर अन्धकार में एक रोशनी की किरण को पाने की चाह ही उस सब पर विश्वास करने को बाध्य करती है, जिसके परिणाम सिफर ही होने हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही थी, पिता की चिंताएँ भी बढ़ रही थी।“
इस तरह की बातें अक्सर उन्हें भावुक भी कर देती हैं। जो महत्वपूर्ण बात है- बतौर दिलीप (शिक्षक व लेखक) “संघर्ष की एक लंबी जीवन यात्रा के बारे संदीप अपनी निष्ठा, ईमानदारी एवं अथक परिश्रम से अध्यापन से जुड़े रहे और आज भी अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे रहे हैं, छात्रों, अध्यापको की मदद उनकी दिनचर्या का हिस्सा है, किसको क्या दिया, याद नहीं रखते, किताबें नोट्स, या अन्य पढने लिखने का सामान। साथी अध्यापकों के सुख दुःख में हाज़िर, उनका कहना है कि नेकी कर दरिया में डाल। कश्मीरी पंडितों की मदद हो या अभावग्रस्त लेकिन पढने में रूचि रखने वाले बच्चो का उनके आवास पर पढना, वो किसी से कुछ नहीं लेते, मुफ्त शिक्षा देने में उन्हें असीम आनंद आता है, उल्टा जिन बच्चो के पास किताबे खरीदने के लिए पैसे नहीं होते, उन्हें किताबे और अन्य सामग्री लाकर देते हैं, समाजसेवी जयप्रकाश हों या कोई अन्य उनके बच्चों की शिक्षा का जिम्मा अपने ऊपर लेकर वे निश्चित ही समाज को वो सब दे रहे हैं जिसके लिए समाज उनका ऋणी रहेगा। मटियाला, दिल्ली और सुलाकुल द्वारिका जैसी जगह पर कूड़ा बीनने, और भीख मांगने वाले बच्चों को शिक्षित करने वाले मनोज कुमार और अंशु पाठक जैसे कर्मठ शिक्षकों के साथ मिलकर कार्य करते हुए जब संदीप तोमर द्वारा की रेड लाइट्स को भीख मांगने वाले बच्चों से मुखत करने का संकल्प लेते हैं तो किसी को भी उनके जैसी शख्सियत पर गर्व हो सकता है, मटियाला की काली बस्ती के बच्चों को कड़ाके की ठण्ड में सिकुड़ता हुआ देखते हैं तो उनका द्रवित हृदय १२५ बच्चों को अपनी बेटी के जन्मदिन पर, उन्हें स्वेटर बाँटने के लिए विवश कर देता है।“
एक तरह उनका शानदार व्यक्तित्व दिखाई देता है तो दूसरी तरफ समाज में विकृत सोच वाले लोगों से भी उनका वास्ता खूब पडा, वे स्वयं कहते हैं-“ वक्र बुद्धि लोग जीवन पर्यंत मिलते हैं, अक्सर मुझे भी मिलते रहे। मेरे ट्रेनिंग प्राचार्य से लेकर दिल्ली विश्विद्यालय के कुछ एक सीनियर, एडहोक फैकल्टी के मनोज झा और यहाँ तक कि ‘कथा संसार’ पत्रिका के संपादक ‘सुरंजन’ जैसे लोगों से मेरा वास्ता पड़ा, जिनसे शारीरिक वक्रता के चलते बेइज्जत होना पड़ा। लेकिन ये बातें मेरे लिए तब ज्यादा मैने नहीं रखती जब आपका ध्येय बड़ा हो और आपकी नजर मंजिल कि तरफ हो।“
अक्सर देखने में आता है कि शारीरिक अक्षमता वाले इन्सानों के साथ प्रेम के नाम पर भी बहुत धोखे होते हैं, संदीप भी इस सोच कि लड़कियों से अछूते नहीं रहे, उन्होने अपनी पुस्तक –कुछ आँसू कुछ मुस्कानें...” में लिखा भी है-“ तीन प्रेमिकाओं में से दो का इसी वक्रता के चलते शादी से इन्कार भी एक समय जरूर मन:वेदना का कारण बने, कालांतर में इन सबके बाहर निकलने की असीमित उर्जा का संचरण हुआ, ये उर्जा अकारण न उपजी, इसके मूल में लोगो की हेय दृष्टि ही रही। ऐसे नकारात्मक लोगों के चलते ही ‘मैं किसी से कम नहीं’ वाली धारणा ने मन के अन्दर एक दबंग इन्सान को जन्म दिया।“
लंबी संघर्ष यात्रा के बाद आज उनके नाम शिक्षा के नाम पर एक तरफ डिग्रियों का ढेर है तो दूसरी ओर प्रकाशित किताबों की लंबी फेहरिस्त है, कविता, नज़म, लघुकथा, कहानी,
मेघा राठी
प्रेरक व्यक्तित्व , मेघा जी की कलम ने शब्द चित्र खींचा है जो मन को छू गया। इतना गहन परिचय संदीप जी से आज ही हुआ ।वैसे तो उनसे परिचित थी ही पर उतना ही जितना उनकी रचनाओं को पढ़ कर जाना।
ReplyDelete👌👌
शुक्रिया
Deleteधन्यवाद मनोरमा दी
Deleteनिःसन्देश मेघा जी एक विशिष्ट रचनाकार हैं, हैरान हूँ कि इतने तथ्य जुटाने में कितना श्रम उन्होंने किया होगा
Deleteकुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका जीवन दुसरो के लिए भी प्रेरक बन जाता है। स्वयं में हीनता का बोध न करते हुए खुद को एक मुक्तम परले जाने वाले व्यक्ति की संघर्ष गाथा निश्चित ही किसी को प्रेरणा दे सकती है। मेरे इस लेख का आशय और मूल यही है
ReplyDeleteजी मेघा जी , आपने इस लेख को लिखकर पाठको के साथ साथ इस लेख के केंद्र बिंदु इस समान्य व्यक्ति को भी विशिष्ट बना दिया, आपकी लेखन क्षमता को मेरा नमन है.
ReplyDeleteसंदीप जी की रचनाएँ पढ़ती रही हूँ। उनकी सोच में संघर्ष, जिजीविषा, विद्रोह, सब कुछ अभिव्यक्त होता है। उनके जीवन के अनछुए पहलुओं को संवेदनशीलता से लेखन में उतारने के लिए लेखिका बधाई की पात्र हैं। आप दोनों को शुभकामनाएं
ReplyDeleteऋता शेखर 'मधु' जी आभार आपका इस सम्मान के लिए
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