विनय सक्सेना द्वारा की गयी पुस्तक-समीक्षा
पुस्तक समीक्षा ( साहित्य स्पंदन, पटना में प्रकाशित)
सच के आस पास ---सन्दीप तोमर
प्रकाशन वर्ष - 2003
प्रकाशक - शब्द स्रष्टि
समीक्षक - विनय सक्सेना
कवि श्री संदीप तोमर का उपर्युक्त काव्य-संकलन ‘शब्द
सृष्टि’
द्वारा वर्ष में जब प्रकाशित हुआ था उनकी आयु
मात्र २८ वर्ष थी। इस
आयु में जब कि रोटी-रोज़ी
की तलाश तथा जीवन की दिशा निर्धारित करने का असमंजस होता है, आश्चर्य
है कि इस अल्पायु में वह एक परिपक्व विचारधारा के धनी, संवेदनशील
तथा आसपास की समस्याओं को तीक्ष्ण दृष्टि से विश्लेषित करने वाले कवि के रूप में
उभरे ही नहीं अपितु स्वयं को स्थापित करने में भी सफ़ल हुये हैं।
जीवन दर्शन, सामजिक
परिस्थितियों,
धर्माडंबर, नारी की वेदना पर उनकी पैनी नज़र
और दृष्टिकोण परिलक्षित होता है। इस
संग्रह सागर के तल में अनेक मोती बिखरे पड़े हैं।
‘दोई हाथ उलीचिय यही सज्जन को काम।
नारी सम्मान की चर्चा करते हुये कवि कहता है-
‘...नारी
के हाथों दंड दिलवाऊँ...
तूने तो बेकसूर नारी के साथ
किया था अन्याय
मैंने तो फिर भी
तुम्हारा कसूर माफ़ कर
उस नारी को देवी का दर्जा दिया है।’
पुरुष का विश्वासघात झेलती नारी की वेदना-
‘तुम
तो सदा से देते रहे थे
आश्वासन-पग पग चलूँगा साथ
बन कर तुम्हारा कर्णधार।
और जब सबसे अधिक मुझे
तुम्हारी जरूरत थी
...तुम
वापिस चल पड़े
बिना जवाब दिए
मुझे अकेला छोड़ा।’
बाल विवाह के दंश पर प्रतिक्रिया कवि की
संवेदनशीलता का परिचायक है –‘बचपन से भली प्रकार यौवन आने के
पूर्व ही विवाह के काल में धकेल बचपन का रौंदा जाना’
नारी की आज़ादी को कोई परिभाषित नहीं कर सका। नारी को पूज्य कहा गया,
भोग्या माना गया। क्या
विडंबना है-‘नारी
तुम केवल श्रद्धा हो’
नूतन सदी के मशीनीकरण पर भी कवि खेद व्यक्त करता
है- मशीनों
में भावनायें नहीं होतीं। पुरानी
नसीहतों,
संस्कारों के आधुनिकता के अंचल में बेमानी होते
जाने पर उसे रोष भी है- हर मोड़ अंधा हर मोड़ पर एक हादसा।
गाँव और शहर को कवि ने गहनता पूर्वक देखा परखा है- कॉलेज
के अध्यापक की संवेदनहीनता,
बस की भीड़ में अनर्गल हरकतें, बॉस
की स्टेनो की विवशता देखता वह आग्रह करता है-
‘माँ
से उसका आँचल
बहन का दुलार
स्त्री से संवेदना
ना देना तुम-
किसी लाचार को
नई वेदना।’
गाँव से शहर की ओर उज्वल भविष्य की आशा में भाग कर
आई कमली के धूमिल होते सपने
शहर की उदास गलियों में...वह कैसी हँसी हंसता है-
‘नैतिकता
पर
रुके आवेग के प्रवाह पर
विक्षिप्त भावनाओं पर
शून्य में विचरती
संवेदनाओं पर।’
कवि का काल्पनिक शहर कुछ ऐसा है-
‘न
हो जहाँ धुंये का कहर,
गलत क्रॉसिंग करने वाला
कोई भी अनाड़ी न हो
आमने सामने
मन्दिर-मस्जिद
गिरजाघर और गुरुद्वारा हों
अमन चैन भाई चारा हो
इंसान समझे इंसानों को
इंसानियत न हो बेआबरू।
किन्तु,
‘मानवता
पर आघात
कर रहा विकसित
हिंसा,द्वेष
और भेद भाव
कर रहा विसर्जित
अमन चैन और सद्भाव
बन कुशल सौदागर
किया उसने सौदा...
सिर्फ़ और सिर्फ़
नीरव अवसाद।’
जीवन मूल्यों का पतन,ह्रास,संस्कारों
की अधोगति।परिवर्तन...एक
यात्रा सभ्यता की ओर...
परिणाम
शून्य से भी बदतर।
कवि केवल कृष्ण पक्ष ही नहीं शुक्ल पक्ष पर भी
दृष्टिपात करता है। श्रृंगार
रस के संयोग-वियोग की वृष्टि भी करता है। उसे
नकारात्मकता ही नहीं सकारात्मकता भी नज़र आती है।
‘कर्तव्य
बोध’ की
याद कराता वह आशा व्यक्त करता है-
‘बूँद
बूँद से सागर बनता
चोट खाया हर इन्सान
करे कुछ मन में ठान
तो यह मुमकिन होगा यह सपना।’
वह स्वीकार करता है एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता
किन्तु प्रयास आवश्यक है। एक बीज
ही एक घना
फलदार वृक्ष बनता है।
‘अनुमत्यर्थ, ‘तेरी
याद’, ‘पहली
मुलाकात’,
‘मिलन’, ‘अर्से
बाद’, मधुर
श्रृंगार,
आशाओं और उमंगों से परिपूर्ण कविताएँ हैं।
‘कुछ लोग’ में भी
वह उत्साहित करते हैं-
‘जंग
है यह ज़िंदगी इसे
जारी रखना तुम
सर कटे तो कटे तो कट जाय
ज़ुल्म के आगे ना झुकना तुम।’
‘विकल्प’ में
भी कवि ऐसा ही आव्हान करता है-
‘हर
सज़ा पाने को अब
सर नहीं झुकाया जायेगा
होंगे तत्पर मर जाने को
नहीं कोई हमसे अब
गुलामी अपनी करायेगा।’
‘अमन’, ‘हट
जा पड़ोसी’
देशभक्ति की हुँकार करते हुये आव्हान व चेतावनी
देती रचनायें हैं।
काव्य संकलन ‘सच के
आस पास’
पढ़ते हुये ऐसा आभास हुआ मानो कवि कोई यज्ञ अनुष्ठान
करता हुआ उसमें अपनी कविताओं की पवित्र आहुतियाँ दे रहा है।
यह ‘सच के
आस पास’
नहीं सच के अंदर का सच है। संदीप तोमर कवि है लेखक है किन्तु उससे पूर्व वह
एक सच्चा जागरूक, विचारवान, ज़िम्मेदार
साधारण व्यक्ति से अपनी रचनाओं से असाधारण बन जाता हैं।
आपकी लेखनी और पूर्व प्राप्त अनेकों पुरस्कारों व सम्मानों
में और वृद्धि की शुभकामनायें।
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