Thursday, 3 June 2021

एक अपाहिज की डायरी - आत्मकथा भाग-20

 बीसवाँ भाग  

मंजू से एक-दो बार मुलाकात हुई लेकिन शादी के लिए अब उससे बात करने का कोई औचित्य नहीं था, जिसने मेरे अहम को ठेस पहुंचाई उसे जीवन साथी बनाया नहीं जा सकता था, रक्षिता से भी बातचीत हो जाती थी। एक दिन मैंने रक्षिता की मम्मी से बात करने का विचार बनाया तो उन्हें फोन लगाया-“आंटी जी, आपने एक बार कहा था कि कुछ बन जाओ नौकरी लग जाओ तो मुझसे बात करना, आज मैं अच्छी सम्मानजनक नौकरी पर हूँ, आज मैं आपसे रक्षिता का हाथ माँगता हूँ, आप हमारी शादी के लिए हाँ कर दीजिये।“

उन्होंने कहा-“मैंने तुमसे ऐसा कोई वायदा नहीं किया, और फिर मेरी बड़ी दो बेटियाँ भी हैं, पहले उनके लिए सोचूँ या रक्षिता के लिए? जेंटलमैन तुम उसका ख्याल न ही रखो। और हाँ, उससे फिर कभी मिलने की भी अब मत सोचना।“ सुनकर मुझे बड़ा आघात लगा, मन बनाया वालो का इमोशनली दबाव बनना शुरू हो गया। जब भी घर जाता यही सवाल उठता कब तक ऐसे जियोगे? नीलू की शादी के बाद घर का माहौल ख़राब हो ही चुका था, ऊपर से सुकेश भैया का हैदराबाद से दिल्ली आना सोने पे सुहागा जैसे था, एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। कितनी ही घटनाओं से दिमाग भिन्नाया रहता। होटल पर खाना खाने की बात से सुप्रिया दीदी अधिक परेशान रहती, जब तब फोन करके बुला लेती, खाना खाते हुए फिर यही विषय शुरू हो जाता-“मेरे छोटू भाई शादी करके अपना घर बसा लो, एक चिंता से मुक्त हो जाओगे तो लेखन भी ठीक से कर पाओगे और यूनिवर्सिटी के लिए भी अप्लाई करके अपने सपनों को साकार कर पाओगे।“

दीदी की बात को टालना भी मुश्किल था और मानना भी, आखिर जिद्द हार गयी, स्नेह जीत गया। मज़बूरी में शादी के लिए हाँ कर तो दी, अब मसला ये था कि शादी किससे हो? इसी बीच दीदी के स्कूल में एक लड़की ने ज्वाइन किया, नाम था- स्मृति, सुन्दर भरे बदन की लड़की, पिता की मृत्यु के बाद माँ का हाथ बँटाने के लिए जॉब कर रही थी, छोटी क्लास को पढ़ाती थी। कई बार उससे बात हो जाती थी, उसने बताया कि उसका कोई जेंट्स दोस्त नहीं है, पहले आप हैं जिनसे इतनी बात कर लेती हूँ, उसने ये भी कहा कि आप मुझसे स्कूल में कम बात किया कीजिये। जब मन हो घर आ सकते हो। उसका घर मेरे स्कूल के रास्ते में पड़ता था। शाम का स्कूल था, ६ बजे छुट्टी होती तो उसके घर कभी-कभी चला जाता। उसकी एक छोटी बहन और एक भाई था, वो दोनों ही पढ़ते थे, बहन आठवी में थी और भाई उससे तीन क्लास पीछे। स्मृति भी बी.ए. कर रही थी। जब कभी उसके घर जाता तो बहुत बातें करते हम, वो कम बोलने वाली लड़की मुझसे खूब बात करती, उसने एक दिन कहा-“सर शादी कर लो, यूँ ही कब तक पढ़ते रहोगे?” 

मैंने उसे कहा-“तुम हाँ करो तो तुम्हारी मम्मी से बात कर लूँ।“

उसने कहा -“मैं...? सर कहाँ आप और कहाँ मैं, मैं आपके लायक नहीं, आप इतने पढ़े-लिखे और मैं सिर्फ बारहवी पास, आपका मेरा क्या मेल?” मैंने उसे कहा कि रिश्ते में पहचान और इन्सान देखे जाते हैं, पढाई-लिखाई ये सब तो बाद की बातें हैं, अगर दोनों में अच्छी अंडरस्टेंडिंग है तो फिर कुछ भी ज्यादा मायने नहीं रखता, बस तुम हाँ करो बाकि मुझ पर छोड़ दो। मैंने उसे ये भी बताया कि मैं जल्दी ही नया मकान या फिर फ्लैट खरीदने के मूड में हूँ, सबसे अलग अपनी दुनिया में रहेंगे।

उसने कहा –“मैं तो किसी से भी शादी करने के मूड में ही नहीं हूँ, सर आप बहुत अच्छे हैं और मेरे अच्छे दोस्त भी, लेकिन मेरी कुण्डली में लिखा है कि जिससे मेरी शादी होगी उसकी जल्दी मृत्यु हो जाएगी तो मैं किसी लड़के की मौत का कारण बनना नहीं चाहती, अगर मेरा शादी का मन होता तो आप मेरी पसन्द होते, लेकिन मैं इतने अच्छे दोस्त को खोना नहीं चाहती। प्लीज आप कहीं और शादी कर लीजिये।“ -आसमान से गिर कर खजूर पर अटकने वाली कहावत बार-बार चरितार्थ हो रही थी, स्मृति को मैं मन से धूमिल करना नहीं चाहता था। सुप्रिया दीदी को भी समझ आ रहा था कि छोटू स्मृति को पसन्द करता है। लेकिन चाहत तो रक्षिता, मंजू और ज्योति भी थी, फिर मन कहने लगा, सुदीप बाबू पत्नी सुख तुम्हारे लिए है ही नहीं।

अब स्मृति से बात करना कम हो गया, एक बार फिर पहले की तीन कहानियाँ दोहराई जाएँ ऐसा मैं नहीं चाहता था। अब ये यकीन हो चला कि १९९५ से २००४ के नौ साल यूँ ही जाया किये, अब और वक़्त नहीं है जो जिन्दगी के साथ एक्सपेरिमेंट किये जाते रहें, स्मृति के लिए न मैं समय निकाल सकता था, न ही उसके पास इतना समय था कि वो डेट कर सके। कभी मैंने उसे कहा भी कि चलो डिस्ट्रिक्ट सेण्टर चलें तो उसने बहाने से मना कर दिया। मैं भी समझ गया कि जो ग्रंथि उसे दिमाग में घर कर गयी उसे निकालना इतना आसान नहीं है। 

इस बीच मेरे घर पर दबाव शादी के लिए बढ़ने लगा था। मेरा बाहर का खाना मुख्य वजह था जो माँ-पिताजी को आहत कर रहा था। माँ-पिताजी ने दीदी को मेरे ऊपर मानसिक दबाव बनाने के लिए कहा, मैं पहले ही उन्हें कह चुका था कि आप लड़की ढूँढ लीजिये

इसी बीच स्कूल में कुछ मित्र थे जो अक्सर कहते कि सुदीप यार अब बारात करा ही दो। स्कूल में ही एक वाटर वुमन भी थी, जो अक्सर कहती सर, हमने भी शादी की दावत खानी है, मैं अक्सर सबकी बातें मजाक में टाल देता। एक दिन हम सब लोग इंटरवल के समय ग्राउंड मैं बैठे थे, ये तरकीबन जनवरी के पहले या फिर दिसम्बर के अंतिम दिनों की बात रही होगी। बिमला ने फिर कहा-“ सर कोई लड़की पसन्द आई?”

मैंने उसे कहा-“ बिमला, तुम भी तो राजपूत हो, अपनी पहचान में कोई लड़की देख लो, पसन्द आई तो मना नहीं करूँगा, बस एक शर्त है मेरी तरफ से, लड़की वाले कोई खर्च न करें, बिना बारात और बिना दहेज़ के लड़की को विदा करें, और हाँ एक शर्त ये है कि मैं किसी विकलांग लड़की से शादी नहीं करना चाहता, अगर कोई ऐसा मिले जो मेरी बात मान लें, मैं  शादी कर लूँगा।“

उसने कहा-“देख लो सर, बाद में मुकर मत जाना, राजपूत की जुबान हैं फिसलनी नहीं चाहिए।“

मैंने उससे कहा दिया कि बिमला ये जुबान मुकर जाए तो सौ कोड़े मार लेना, हम जुबान देकर उस पर अडिग रहना भी जानते हैं लेकिन तुम भी ध्यान रखना जो मैंने कहा है उसका पूरा पूरा ख्याल रहे।“

३ या चार जनवरी २००५ को बिमला अपने साथ एक फौजी को लेकर मेरे घर आई और परिचय कराकर बोली- “मास्टरजी जी, ये मेरे समधी हैं, इनकी भतीजी मेरी छोटी बहु है, उनका एक भाई गॉव में रहता है, उनकी बेटी के लिए आपके बारे में बात की थी, सोचा आज आपकी बात करा दूँ।“

मैंने कहा-“ठीक है लेकिन बिमला बातचीत तो बड़े लोग करें, वही ठीक रहता है।“

उन्होंने कहा-“आप बता दीजिये कौन बात करेगा?”

उस दिन सुकेश भैया भी घर पर नहीं थे, मैंने दीदी-जीजाजी को फोन करके बुला लिया। औपचारिक बातचीत में ही उन्होंने बताया कि मेरी भतीजी आई हुई है, और मेरी भी छुट्टियाँ हैं आप ६ तारीख को मेरे घर आ जाइये, लड़की से भी मिल लीजिये और फिर आगे के बारे में भी बात कर लेंगे। बातचीत करके वो लोग चले गए

लड़की को देखने जाने का तय हुआ। अब मैं मानों एक ऐसे चक्रव्यूह में फँस गया था, जिसमें से चाहकर भी निकल नहीं कर पा रहा था लड़की देखकर फैसला हुआ कि इसी महीने शादी कर देते हैं, मैंने कहा कि इतनी जल्दी क्या है, थोडा सोचने का भी तो वक़त होना चाहिये

सुप्रिया दीदी और सुकेश भैया ने तय कर लिया तो अब मेरे लिए सोचने या विचार करने जैसा कुछ नहीं रह गया था। दीदी ने गॉव में पिताजी से भी सलाह कर ली थी, उन्होंने सारा निर्णय ही दीदी पर छोड़ दिया। मैंने दीदी को कहा –“दीदी, आपने उस लड़की के हाथ देखे थे कितने काले हैं, और खुद भी वो कितनी काली है।“

दीदी बोली- “छोटू हमारी माँ भी काली थी तो क्या हम बच्चों में से कोई काला है या माँ ने हमारी परवरिश ठीक तरह से नहीं की?”

मैंने कहा-“ दीदी वो बहुत ही कम पढ़ी-लिखी है, कल अपने बच्चो को भी नहीं पढ़ा पायेगी, कितनी दिक्कतें होंगी, मुझे लगता है, सब कुछ सोचकर ही निर्णय लेने चाहिए, कहीं बाद में पछताना न पड़े।“

दीदी ने कहा-“हमने सब सोच लिया है, जो होगा उसे भविष्य पर छोड़ दो, रही बात पढाई की तो उसे माहौल नहीं मिला, बारहवीं पढ़ी ही है, जैसे तुम पढ़ रहे हो, उसे भी दाखिला दिला देना, पढ़ लेगी।“

मुझे लगा कि पढना-पढाना माँ-बाप का फर्ज होना चाहिए। मैं सबको समझा सकता था, लेकिन दीदी को नहीं। जिसके प्रति आपका स्नेह अधिक हो या आप जिसे अपने आप से ज्यादा तवज्जो देते हों उससे ज्यादा तर्क करने की गुंजाईश नहीं होती। लड़की वालो से विवाह की तारीख तय की जाने लगी। उसके चाचा का कहना था कि फ़ौज में छुट्टियाँ बहुत मुश्किल से मिलती हैं, जनवरी में ही शादी हो जाये तो बेहतर हो। वर्ना समय लम्बा खिच जायेगा। उन्होंने बताया कि उनका भाई यानि लड़की का पिता बेहद ख़राब कंडीशन में है, वह कुछ करने की हालत में नहीं है, शादी भी मुझे ही करनी है। इस एक बात ने मेरी धारणा एकदम बदल दी। अब मैं इस मसले पर शांत ही रहा, हाँ अपनी शादी की तमाम शर्ते जो बिमला को बताई थी वो उसे भी बता दी। वो मेरी बात से सहमत थे।

मैंने ज्योति को फोन किया अक्सर उसका फोन बन्द मिलता या वो जानबूझकर फोन नहीं उठातीएक दिन उसने फोन उठाया, उससे बात हुई तो मैंने उसे कहा-“ज्योति तुमसे मेरा मिलना बहुत जरुरी है, सब कुछ फोन पर नहीं कहा जा सकता। बोलो कब मिलोगी?“

ये बात २१ जनवरी की है, उसी दिन मिलना तय हुआ। मैंने छुट्टी कर ली थी, हालाकि जनवरी में आकस्मिक अवकाश लेने में हिचकिचाहट इसलिए होती है कि पूरे साल कब जरुरत पड़ जाए, वैसे भी मात्र ८ अवकाश पर्याप्त नहीं होते, उसका स्कूल सुबह का होने के चलते उसे छुट्टी की जरुरत ही नहीं थी। २ बजे हम कैंटीन के बाहर बोद्धि वृक्ष के नीचे बैठे थेमैंने उससे एक ही सवाल किया- "बोलो मुझसे शादी करोगी या नहीं?"

उसने कहा-"सुदीप अचानक तुम्हें ये क्या सूझा, और बार-बार ये शादी का सवाल हमारे बीच क्यों आ जाता है?"

"ज्योति! बस अब और गुमराह नहीं करो, तुम्हें आज ही और इसी वक़्त ये तय करना होगा कि हम शादी कर रहे हैं या नहीं?”

और अगर मैं हमेशा की तरह नहीं कहूँ तो...?”

तो फिर समझ लेना फिर हम आज के बाद दोबारा नहीं मिलेंगे।“

“क्या तुम ऐसा कर सकते हो?”

“हाँ, मैं कुछ भी कर सकता हूँ।“

“हो सकता है कि कल मेरे घर वाले मेरी शादी किसी और से कर दें?”

मैं कल में नहीं आज में जीना चाहता हूँ ज्योति, कल के भरोसे बहुत जी लिया प्लीज अब मुझे आज में जी लेने दो।“

“सुदीप, इतने जिद्दी मत बनो, जैसे चल रहा है इसे यूँ ही चलने दो, न मैं तुम्हें खोना चाहती हूँ, न ही अपना ही सकती हूँ, एक बार लड़की होकर सोचो, मेरी मज़बूरी समझने की कोशिश करो, जितने पल तुम्हारे साथ बैठकर बातें करने के मिलते हैं वो मुझसे मत छीनो, जब तक मेरी शादी कहीं नहीं हो जाती, तब तक मेरे बनकर रहो, मैं तुमसे इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहती।“

“ज्योति, ये एक तरफ़ा निर्णय है, इसमें हर तरफ से मेरी ही हार है।“

“सुदीप, तुम्हें तय करना है कि तुम मुझे खुश देखना चाहते हो या मायूस?”

“सोचना तो तुम्हें होगा, इस और या उस और? बीच का कोई रास्ता अब तुम नहीं चुन सकती, या तो अपना लो या फिर हमेशा के लिए मेरी जिन्दगी से चली जाओ”- मैं लगभग चिल्ला पड़ा था।  

“तुम्हें छोड़ भी तो नहीं सकती, तुम्हारे बिना मुझे लगेगा कि किसी ने मेरे शरीर से मेरा दिल निकल लिया है कैसे सह पाऊँगी ये सब"- उसने फिर से उलझाने की कोशिश की। लेकिन अब मैं उससे सब कुछ साफ कर लेना चाहता था। मैं बार-बार अपना सवाल दोहरा रहा था, मैंने उसे दलील दी-“ फर्ज करो कल मेरे घरवाले मेरी शादी किसी ऐसी लड़की से कर देते हैं जो तुम्हारे मेरे बीच का सेतु ख़त्म कर दे, या तो वो मुझे इतना प्यार दे कि मैं तुम्हें भुला बैठूँ या फिर ऐसा व्यवहार उसका हो कि मेरा भी जीना दुभर कर दे, ऐसी स्थिति में तुम क्या करोगी?”

वह कुछ देर मौन रही फिर बोली-"सुदीप, तुम शादी कर लो मैं तुम्हारे साथ ना आ पाऊँगी ...हमें अपनी-अपनी यादों के सहारे जीना होगा, यही इस प्यार की नियति है"

"कैसे जीना है ये तय करने का अधिकार न तुम्हें है और न ही मुझे ही। तुमने दिल से मुझे अपना माना ही, माना होता तो ये नौबत ही न आती"- मैंने पूरे गुस्से में कहा तो उसने बड़ी विनम्रता दिखाते हुए फिर से मज़बूरी की दुहाई दी-“सुदीप, लड़कियाँ कई मामलों में बहुत मजबूर होती हैं, उनके पास अपने जीवन के फैसले करने का अधिकार भी नहीं होता, तुम हम लड़कियों की मजबूरियाँ क्या समझोगे?"

"मजबूरियों का नाम लेकर यूँ मेरे अरमानों का मजाक तो न ही उड़ाओ, खैर जाने दो, ये सब सोचने का वक़्त अब नहीं है। हो सके तो एक बार फिर से सोच लेना क्या पता तुम्हारा मन मेरे इतने दिन के साथ, मेरी इंसानियत की दुहाई दे और तुमसे कहे कि सुदीप को अपनाने में ही भलाई है"

"अब क्या सोचना, मैंने अपने फैसले से तुम्हें अवगत करा ही दिया है, इसे मेरा अंतिम फैसला मान तुम अपना जीवन जैसे चाहो शुरू कर सकते हो"

“ठीक है फिर  चलने की इजाजत दो, फिर न मिलने के वायदे के साथ"

"सुनो, अच्छे दोस्त होने के नाते, तुम्हारी पसंदीदा कॉफ़ी तो साथ में पी जा सकती है?"

"क्या ये सब बेमानी नहीं होगा?"

"पुराने साथ बिताये पलों का सेलिब्रेशन!"

"ज्योति, चलो तुम्हारी ये आखिरी इच्छा भी पूरी कर देते हैं।“-कहकर मैंने कैंटीन बॉय को दो कॉफ़ी का आर्डर किया।

कॉफ़ी आ चुकी थी, सब कुछ कॉफ़ी में वही था जो हमेशा हुआ करता था लेकिन आज की कॉफ़ी का स्वाद बेहद कसैला था, मन किया कॉफ़ी का कप जमीन पर फेंक सारा आक्रोश निकाल लूँ। लेकिन जाने क्या सोच कप बैंच पर रख पुराणी यादों में खो गया।

कॉफ़ी ख़त्म हुई तो ज्योति अपने घर को जाने के लिए उठी, हम साथ-साथ माल रोड आये, उसने कहा-“आज घर छोड़ने नहीं चलोगे?”

मैंने कहा-“अब वो वक़्त कहाँ, जिस पर हमारा अधिकार हुआ करता था।“-मेरा जवाब सुने बिना वो उस बस में चढ़ गयी जो अभी-अभी आकर रुकी थी, मैं भी घर लौट आया

रात भर नींद नहीं आई, सुबह दीदी का फोन आयाउन्होंने बुलाया था मैं शाम को ड्यूटी के बाद उनके पास गया तो उन्होंने बताया कि ३० जनवरी शादी के लिए तय हुई हैअपनी शोपिंग शुरू कर दोमैंने दीदी को कहा-“अब सब कुछ ख़त्म हुआ, आप अपने हिसाब से सब तय कीजिये मुझे कोई आपत्ति नहीं है -आँसुओं का सैलाब मेरी आँखों से रुक नहीं रहा था, वैसे मैं इन्हें रोकना भी नहीं चाहता था। मैं चाहता था कि सब कुछ बह जाए, लेकिन सब कुछ अपने हाथ में नहीं होता और ये सब इतना आसान भी कहाँ कि आपने सोचा और हो गया।

अब मेरे पास इस शादी को मना करने का कोई औचित्य भी नहीं था। हाँ, मुझे अपनी एम.फिल की परीक्षा की चिंता जरुर थी, इस बाबत लड़की के चाचा को मैंने कहा भी कि अभी एम.फिल. के एग्जाम फ़रवरी में होने हैं, अपना रिसर्च वर्क तो बाद में भी पूरा कर लूँगा लेकिन परीक्षा खराब हुई तो फिर मुश्किल होगी उन्होंने फिर से ‘मैं फ़ौज में हूँ ..अब छुट्टी आया हूँ फिर पता नहीं कब छुट्टी मिले?’ कहकर इसी तारीख को शादी करने की मंशा व्यक्त कीमैंने उनसे कहा-"ठाकुर साहब ठीक हैं मैं इसी ३० तारिख को शादी करने को तैयार हूँ लेकिन मेरी शर्ते याद रखियेगा"

शर्तों के नाम पर वो कुछ चौंकें -"कैसी शर्ते?"

"वही शर्ते जो मैंने आपको पहले बताई थी, शादी बिना दहेज़ के होगी, बिना बारात के होगी, बिना किसी लेन-देन के होगी और बारात के नाम पर सिर्फ ६-७ लोग होंगे और मैं चाहता हूँ कि आपकी तरफ से भी इतने ही लोग हों यानि घर के सदस्य... और स्वागत के नाम पर कोई औपचारिकता नहींमात्र दाल-रोटी से स्वागत कीजिये और आपकी बेटी के कपडे भी आप नहीं देंगे मैं खुद लेकर आऊँगा दुल्हन की विदाई के नाम पर भी कोई कुछ नहीं देना.. मैं चाहता हूँ कि दहेज़ जैसी कुप्रथा ख़त्म हो और इसे हम जैसे पढ़े-लिखे ही ख़त्म करें"

उन्होंने मेरी बात पर सहमति जताई

मेरे परिवार की तरफ से शादी के नाम पर कोई कोई रीति-रिवाज नहीं निभाया गया२९ जनवरी की शाम को सब लोग दिल्ली वाले घर पर जमा हुएसुबह चाँद किरण सर और प्रमेन्द्र भी घर पर आ गए थे

बारात के नाम पर कुल मिलाकर ८-१० लोग थेबड़े ही साधारण तरीके से शादी की औपचारिकता पूरी हुईहालाकि मैं फेरों जैसी औपचारिकता भी बेफिजूल मानता हूँ लेकिन कई बार ऐसे समझौते किये जाते हैं जिनसे नफा-नुकशान नहीं होता। लिहाज़ा ये काम भी निपटा दिया गया। फेरो के समय रक्षिता का फोन आया स्क्रीन पर उसका नाम देखकर मैं आश्चर्य में पड़ गया, इस वक़्त रक्षिता के फोन आने का क्या औचित्य है जबकि पिछले कई महीने से कोई बातचीत नहीं हुई, मैंने मोबाइल कॉल काट दी, लेकिन पुनः कॉल आई तो मैंने फोन प्रमेन्द्र को पकड़ा दियाउसने पता नहीं क्या समझाकर फोन काटा कि फिर दोबारा कॉल नहीं आई विदा होते-होते शाम हो गयी जीजाजी की कार से हम लोग गॉव जा रहे थे, माँ पहले ही गॉंव चली गयी थी, यमुना विहार से गाड़ी गुजरी तो दिमाग को झटका लगा, काश ज्योति ने मेरा आग्रह न ठुकराया होता तो आज दुलहन यहाँ से विदा हुई होतीमैंने एक नजर साथ में बैठी दुलहन पर डाली, वो शांत स्वयं में खोई थी, मेरे द्वंद्व से बेखबर उसी की बगल में उसकी छोटी बहन उसके चाचा की बेटी रिंकी बैठी थी रिंकी ने कहा-“ जीजू, क्यों चुपचाप बैठे हो? कुछ बात-वात कीजिये न।“

मन हुआ कि कह दूँ, अब जीवन के रंग ही बदल गये तो बात करने का नया अन्दाज खोजने में वक़्त लगेगा। कैसे जिन्दगी में आई इतनी उथल-पुथल के बाद आराम से शांत होकर सहज रूप में बात की जा सकती थी, लेकिन मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, इतना भर कहा-“रिंकी कल रात घर पर काफी लोगों के होने के चलते ठीक से सो नहीं पाया, इसलिए सिर दर्द कर रहा है।“

रिंकी दिल्ली में पली-बढ़ी है तो थोड़ी मॉड भी है, उसने तपाक से कहा-“और अब दीदी नहीं सोने देगी।“ मैंने सोचा-“साली साहिबा एक जमाना था, हम लड़कियों को शीशे में उतार लिया करते थे, आज हमारा खुदा हमसे नाराज हुआ बैठा है।“- लेकिन ऐसा कुछ कहा नहीं, बस हल्का मुस्कुरा दिया।

गाडी गॉव की ओर बढ़ी चली जाती थी, वक़्त भी तो यूँ ही बढ़ रहा था, चल रहा था, पीछे काफी कुछ छूटता जा  रहा था, मैं गाड़ी के शीशे से पेड़ो का पीछे की ओर दौड़ना देख रहा था, चांदनी रात थी, तारें टिमटिमाने लगे थे, बहुत कुछ पीछे छूटते हुए भी एक चाँद था जो साथ-साथ चल रहा था। एक आशा, एक विश्वास के साथ एक अनजाना भय मेरा पीछा कर रहा था। मैं एकदम शांत हो जाना चाहता था, अचानक मेरे मोबाइल की रिंग बजी मैंने देखा ये रक्षिता की कॉल थी, बोली -"कहाँ हो?"

"गॉव जा रहा हूँ, रास्ते में हूँ"

उसने कहा-“मुबारक हो तुमको ये शादी तुम्हारी, लग जाये तुम्हे उमर भी हमारी"

“ओह हाँ, प्रमेन्द्र से तुम्हारी बात हुई थी।“

“हाँ, लेकिन जो खबर तुम्हारे मुँह से सुननी थी वो कोई तीसरा व्यक्ति बताये तो कितना बुरा लगता है?”

“देखो रक्षिता ये सब गिले-शिकवे करने का अब वक़्त ही कहाँ हैं? मैंने तो सबको मौका दिया लेकिन अफ़सोस मुझे किसी एक ने भी मौका नहीं दिया।“

ये सब बातें इतनी धीरे हो रही थी कि बगल में बैठे किसी एक शख्स के कानों में एक भी शब्द नहीं पड़ा।

उसने कहा-“जानते हो सुदीप आज जितना दुःख तो मुझे तब भी नहीं हुआ था, जब मम्मी ने तुम्हें मुझसे कभी न मिलने की हिदायत दी थी, सच में आज एक प्यारे दोस्त से एकमात्र अधिकार भी जाता रहाकाश ये सब न होता, काश हम मिल पाते सदा सदा के लिए"

"रक्षिता समय बड़ा बलवान है, फिर लौटकर ही नहीं आता न, चलो दुखी मत होना, हम अच्छे दोस्त थे, हैं और रहेंगे"

"हाँ ये भी एक कडुवा सच है कि एक दोस्त के रूप में तुम यादों से जाते ही कहाँ हो? मैं तुम्हें हमेशा अपने पास ही पाती हूँ, अब तो तुम्हारे लिए दुआ ही कर सकती हूँ कि जीवन साथी के साथ सदा खुश रहो"-मैंने उसे धन्यवाद् कहना उचित नहीं समझा, क्या करूँ बहुत ज्यादा फॉर्मल नहीं हो पाता, उसे बाय कह फोन काटने ही वाला था कि उसके चिरपरिचित अन्दाज की आवाज मेरे कानों में पड़ी-"सागर साहब, अब कब मिलोगे?"– मैं इस नाम को भूल ही चुका था, जब मैं उसके लिए शायरी करता था तो “सागर सुदीप” के नाम से लिखता था, प्रेम पत्र भी इसी नाम से लिखे थे, ये उसकी का दिया नाम था, उसके मुँह से दोबारा सुना तो एक हल्की सी मुस्कान एक बार फिर से मेरे होंठो पर आ गयी, मैंने शरारत में कहा-"दिल से याद करो अभी हाज़िर हो जाउँगा" "सुदीप, विश्वास नहीं कर पा रही हूँ कि मेरा प्यारा दोस्त अब शादीसुदा है, तुम बिलकुल भी नहीं बदले"-कहकर वो हँस दी थी मैं उस हँसी के बीच के दर्द को साफ़ देख पा रहा था। उसकी तड़प मेरे कानों को झंकृत कर रही थी, मानों उसके होंठ काँप उठे हो, और वो कम्पन मेरे दिल के कम्पनों से मिल जाना चाहता हो, मैंने फोन काट दिया था।

गॉव जाते-जाते तकरीबन नौ बज चुके थे। अगले दिन माँ धार्मिक-सांस्कृतिक अनुष्ठान में व्यस्त रही। दिल्ली से जो जो लोग साथ में आये थे सब शाम तक लौट गए थे। खाना खा चुकने के बाद बचपन ही की तरह मैं, माँ और पिताजी बातें करते रहे। दस बजे तो माँ ने कहा- जाओ जाकर सो जाओ।

मैं कमरे में गया, ये वही कमरा था जिसमें मैंने जीवन की पहली साँस ली थी, जहाँ मेरी पहली किलकारी माँ ने सुनी थी। मुझे महसूस हुआ जहाँ से मैंने जीवन शुरू किया आज उसी कमरे में एक दुल्हन है जो सम्भवतः कुछ सपने संजोये बैठी है। मैं बैड पर जाकर बैठ जाता हूँ। मेरी साँसें तेज हो रही हैं, शायद उसका भी यही हाल हो। मैं उसके हाथ को छूता हूँ, एक आह सुनता हूँ, पास जाकर जैसे ही बाँहों का घेरा उसकी कमर के गिर्द बनाया, हल्दी, मेहँदी और दही की दुर्गन्ध उसके शरीर, उसके बालों से अपने नथुनों में प्रवेश करते पाता हूँ, बड़ी असमंजस की स्थिति हैं, जिन सब चीजों की गंध से हमेशा किनारा किया, उसी से जीवन की दास्तान लिखी जानी है, उफ्फ ये मैं कहाँ आ गया? अब यहाँ से कहीं और जाने का कोई रास्ता भी तो नहीं, यकायक मेरे कानों में एक आवाज गूँजती है-“सो जाओ, मुझे बहुत जोरो की नींद आ रही है।“

मुझे लगा था कि कितनी बातें होंगी जो वो मुझसे करेगी और मैं उससे, जिन्दगी की हर बात हर लम्हा जो जिया मैं उसे बता दूँगा- कुछ छिपाकर कैसे नया जीवन जिया जा सकता है? उसकी एक बात- ‘मुझे नींद आ रही है’, और वो दुर्गन्ध जो उससे शरीर से मेरे नथुनों को फुला रही थी, मेरे जहन में मानो हथोड़े बजने लगे, यकायक ख्याल आया, आज विश्वास की रात है, एक जज्बात पनपने की रात है, आज अगर यूँ सो गए तो कहीं मुझे नपुंसक करार न दे दिया जाए। मेरे हाथों की पकड़ उसकी कमर के गिर्द बढती जाती है, दो जिश्म अनावृत होते हैं, लेकिन दुर्गन्ध है कि पीछा ही नहीं छोडती। एक पीड़ा, एक आह मेरा मन व्यथित कर रही है। सन्नाटा चारो ओर पसरा है लेकिन मन की अशांति पीछा नहीं छोडती।

नोट: एक अपाहिज की डायरी शीर्षक से लिखी आत्मकथा का ये अंतिम हिस्सा था। दोस्त कहते हैं कि आप जाबांज हैं तो शीर्षक ये न होकर एक जाबांज की डायरी होना चाहिए।  

आत्मकथा का दूसरा भाग कुछ आँसू कुछ मुसकानें शीर्षक से प्रेस में है, जल्दी ही आपके सामने होगा। 

जुड़े रहिए। आत्मीयता से मुझे पढ़ने के लिए आभार। 


2 comments:

  1. अंतिम भाग अपने आपमें पूर्ण और स्वतंत्र है.
    आपने जो महसूसा, वह लिखा.
    मार्मिकता से भरी डायरी है.
    मुझे लगता है कि शीर्षक उचित रखा है.
    मगर मैं नाम रखता "मानसिक अपाहिजों की डायरी".
    हो सकता है ये लड़कियां आपको शारीरिक रूप से अपाहिज ही समझकर दूरियाँ बनाई हो.
    और आपको अहसास न होने दिया हो.
    खैर, पाठकों के लिए डायरी किसी फिल्म से कम नहीं है.
    बधाई स्वीकारें.
    - सुरेश वाहने

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    1. साथ बने रहने के लिए आभार

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