वो मुझे बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति लग रही थी। मुझे उसमे खो जाना , डूबना, डूबकर तैरते हुए किनारे आ जाना अच्छा लग रहा था। मैं उसके चेहरे को देख रहा था, वो अपने नैना बंद किये मेरी गोद में सिर रख अलौकिक जगत की सैर कर रही थी। उसका चेहरा मुझे मुल्तानी मिटटी से पुती तख्ती लग रहा था जिस पर कोई गणितीय अवधारणा खुद ब खुद उतर आने को आतुर हो।
मेरी प्रेयसी का चेहरा अभी भी सपाट था बिना किसी चिह्न की उपस्थिति लिए, कोई भाव नहीं, कोई आलेख नहीं, एकदम कोरा।
पार्क के इस पेड़ के आस-पास स्याह ख़ामोशी थी। यकायक पत्तो की सरसराहट ने उसकी स्थिरता को भंग किया। लेकिन ख़ामोशी अभी भी बरक़रार थी।
पार्क में शाम के समय लोगो की आवाज भी बढ़ने लगी। नीला आकाश.... सर्द हवा। सामने वाली बेंच पर बैठे आवारा टाइप लड़के... अश्लील साहित्य हाथ में लिए। ऊपर का कवर अर्ध नग्न स्त्री का चित्र लिए,कवर को हिला हिला कर सामने बैठी स्त्रियों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास। दीपाली की वक्षाकृति पर फब्तियां कसी, सामने बैठे लड़के ने आँख मारी और जोर से हँसा। शायद लड़के पार्क के मौसम में कम और हम दोनों में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे थे।
किन्तु उसके भाव में कोई बदलाव नहीं।
लड़के सोच रहे हैं, मैं गुस्से से पागल हो जाऊंगा और झगड़ बैठूँगा या फिर इधर से उठकर हम लोग दूसरी तरफ बैठ जायेंगे, जैसा कि इन पार्कों में अक्सर होता है। लड़का मेरे चेहरे के भाव बदले हुए न देख सीटी बजाता है। मैं एक बारगी उस लड़के के चेहरे को देखता हूँ फिर मेरी निगाह दीप के चेहरे पर टिक जाती है। मैं उसे खुश करने के लिए मुस्कुरा पड़ता हूँ। वह फिर आँखें बंद कर लेती है।
धीरे धीरे समय आगे बढ़ रहा है। एक ही जगह पर बैठे रहना, मौन स्थिर चित्त एक ही मुद्रा में लेते रहना मुझे थोडा नर्वस कर रहा है। लोगो का आना जाना थोडा बढ़ गया है । दीप पलकें नीचे किये कुछ सोच रही है। जाने किस दुनिया में खोई है।
पार्क में हम दोनों साथ-साथ आये थे, उसे पहले मैं कनाट प्लेस के गोल सर्कल की हर सड़क पर घूमता रहा था... जनपथ की दुकानों पर घूमते हुए आने जाने वालों के कंधे से टकराता इधर उधर टहलता रहा। दीप के आने से घंटा भर पहले यहाँ आया था।
जनपथ पर पत्र-पत्रिकाओं की दुकान पर खड़ा पत्रिकाओं के पन्ने पलटता रहा। अधिकांश पत्रिकाएं बंद कमरे में बंद होकर पढने वाली थी। नग्न तस्वीरों वाली पत्रिकाएं खुलेआम रख लड़का उनकी बिक्री के लिए नए-नए श्लोक बोल ग्राहकों को आकर्षित करने का प्रयास कर रहा था। लड़के के अन्दर शायद नग्न तस्वीरों से उत्तेजना नहीं होती। रोज-रोज दुकानदारी करते शायद उसकी उत्तेजना गायब हो गयी है या फिर... विदेशी ग्राहक पत्रिकाएं खरीदते रहे, लड़का उनसे मुद्रित मूल्य से ज्यादा रकम वसूलता अन्दर ही अन्दर मुस्कुराता, धंधे की कमाई देख खुश होता।
जनपथ से आगे निकल मैं कॉफ़ी होम की तरफ आ गया। हवा चल रही है।
दिसंबर का महीना है... अगला साल आने में चंद कदम बाकी हैं... बमुश्किल छ दिन। ठण्ड बढ़ी हुई है।
सर्द हवा के झोंके चेहरे को कंपकपा जाते हैं... धूप नहीं निकली, सुबह के दस बज जाने पर भी सूर्य का कुछ अता पता नहीं है। आकाश का नीलापन लुप्तव कोहरे की बूंदें चेहरे पर टपकती तो महसूस होता ये दीप के ह्रदय से कोमल हुए बूंदें हैं जो मुझे छूकर उसकी उपस्थिति का अहसास करा रही हैं... उसे ग्यारह बजे आना है... रात को आकाश साफ। मैं कमरे से बाहर आ सीढियों पर आ बैठा था, मुझे आकाश में तारों को टिमटिमाते देखना अच्छा लगा था। मैं तारे गिनने का प्रयास करता रहा.... मैं एक-एक कर आस-पास की तमाम चीजें गिन लेना चाहता था.. मुझे अपने स्कूल के दिन भी याद आये थे... जब मुझे पढाया गया था कि आकाश में दिखाई देने वाले तारे ग्रह, उपग्रह, नक्षत्र, उल्काएं आदि हैं। तारों का टूटना कोई घटना नहीं बल्कि छोटे-छोटे पिंड हैं... जब मैं तारें गिनने का प्रयास करता हूँ तो उलझ जाता हूँ कि कौन से तारें हैं और कौन से नक्षत्र, कौन से ग्रह या फिर उपग्रह ।
रात में न सो पाने से आँखें दर्द कर रही थी मुझे ग्यारह बजने का इंतज़ार था। मैं चुपचाप इन्ज्जार कर रहा था। कॉफ़ी होम से निकलकर हनुमान मंदिर की ओर बढ़ गया। हनुमान मंदिर के बाहर बड़ा खुला मैदान, जमीन पर पत्थर बिछें हैं। अभी दर्शकों की भीड़ नहीं थी। सर्दी में शायद श्रद्धालुओं की श्रद्धा मंदिर में कम रूम हीटर में ज्यादा हो जाती है। फुटपाथ पर कुछ शोर अवश्य था। ऐसा ही पहले एक बार यहाँ आया था, एक ज्योतिषी के बारे में सुना था.. आज याद हो आया... ज्योतिषी से हमारी शादी के लिए ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति का पता करने साथ ले गयी थी... राष्ट्रपति पुरस्कार विजेता ज्योतिषी ने बताया था- दीप तुम्हारे ग्रह-नक्षत्र निर्मल के ग्रह-नक्षत्रों से मेल नही खाते... तुम दोनों के विवाह में अडचने हैं... यदि विवाह हुआ तो गृह-क्लेश की सम्भावना है और एक बात... निर्मल यदि तुम्हारी हर ज्यादती सहे तो जिन्दगी सही चल सकती है, तुम्हारे तर्क इन्हें ताउम्र परेशान करेंगे। इनका प्रतिशोध दोनों का जीवन तवाह कर देगा। यदि निर्मल सहनशील है तो विवाह कर लेना... एक बात और दीप के भाग्य में विदेश जाने और वहाँ जाकर बस जाने का योग है... विवाह सोच समझ कर करना। दीप को उस दिन विवाह की बात से कम तनाव और विदेश जाने वाले प्रसंग से ज्यदा रोमांच था। दीप उस दिन ज्योतिषी की बात पर विश्वास का जोर देती रही। मुझे नास्तिक से आस्तिक बनाने का कर्म करती रही। अत्यधिक वेदनायुक्त प्रसंग याद कर मेरा मन विचलित हो गया था।
हवा अभी भी चल रही थी। मंदिर के बाहर पेड़ के पत्ते सुखकर गिर रहे थे। हवा के झोंके गिरे हुए पत्तो को कभी इधर तो कभी उधर कर देते।
मैं हनुमान मंदिर नहीं जाना चाहता था। मंदिर में जाने में मेरा विश्वास नहीं है, श्रद्धा तो बहुत दूर की बात है। श्रद्धा की कल्पना इहलोक और परलोक की कपोल कल्पना जैसी ही थी। उसने कल फोन पर मंदिर में मिलने को नहीं बोला था फिर भी मेरे कदम इस ओर चल पड़े थे। उसने तो कनाट-प्लेस के गोल चक्कर वाले सेण्टर पार्क में मिलने को कहा था। दो दिन पहले भी हम मिले थे, लोधी पार्क में हम दोनों दाई तरफ बनी ईमारत तक टहल रहे थे, तब मैंने विवाह करके साथ रहने पर दीप से उसके विचार पूछे थे, वह मौन होकर टहलती रही थी। मैं धीरे से उसका हाथ पकड़ आगे चलता, वह हल्के से अपना हाथ मेरे हाथ से खींच अलग कर देती। पार्क के अन्दर खाने का सामान उपलब्ध नहीं था, मेरा गला उसके मौन और रूखेपन से सूख गया था। ईमारत के आस-पास पहुँच कर हम वापिस मुख्यद्वार की ओर बढ़ गए थे। पानी की बोतल खरीद मुख्यद्वार के पास से दस-बीस कदम वापिस अन्दर आकर बैंच पर बैठे मैं पानी पीने लगा था। वह अपने दुपट्टे से बैंच साफ़ करने लगी, बैठते हुए बोली-“तुम हमेशा धूल-मिटटी में बैठ जाते हो, जरा भी सफ़ाई पसंद नहीं हो।“
“हाँ ऐसा ही हूँ।“
“क्यों?”
“गॉव में खेती बाड़ी की है। पढ़-लिख गया तो शहर आ गया। धूल-मिटटी से तो हम अन्न पैदा करते हैं। फिर उससे परहेज कैसे कर सकता हूँ?”
वह फिर मौन हो गयी थी। निगाहें नीची किये वह बैठी रही थी। मैं उसके चेहरे के हर एक भाव को पढ़ लेना चाहता था। मैंने अपना सवाल फिर दोहराया था-“विवाह करके साथ रहने के बारे में तुमने क्या फैसला किया है दीप?
उसने कहना शुरू किया –
“मैं तुमसे दूर बहुत दूर चला जाना चाहती हूँ। लेकिन चाहकर भी ऐसा नहीं कर पाती।
तुम्हारी बातों में, तुम्हारी आवाज में, तुम्हारे अंदाज में एक सम्मोहन है, तुम्हारे पास से एक पल के लिए भी दूर होने का मन नहीं करता। तुम्हारी बातों में एक जादू है। रोज सोचती हूँ तुमसे न मिलूं, तुमसे बातें न करूँ लेकिन हर रोज अपने आप से किया वायदा तोड़ देती हूँ... मैं इस इंद्रजाल में फंसती चली जा रही हूँ। निर्मल मुझे इस इंद्रजाल से बाहर जाने का रास्ता बता दो। मैं जानती हूँ ये प्रेम का संसार अनोखा है... इसमें कही गयी बातें व्यवहार की दुनिया से अलग हैं, ये एक मोह संसार है, जिसका यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं है… सब कुछ जानते हुए भी तुम्हारी दुनिया से बहार नहीं आ पाती, निर्मल मैं क्या करूँ?”
मैं उसकी बातें ध्यान से सुनता रहा, उसकी बातों में मेरे सवाल का जबाब नहीं था। मैंने सवाल फिर दोहराया था, उसने कहा था “आई एडमिट योर फीलिंग्स।“
मैं अचरज में था। इसका क्या अर्थ लगाया जा सकता था? मुझे ये डिप्लोमेटिक जबाब लगा। शायद वह इस सवाल से बचना चाहती थी। उसने बातों का रुख मोड़ देना चाहा। उसने धीरे से सवाल किया-“पहले कभी लोधी पार्क आये हो?”
“हाँ”
“कब?”
“यही कोई दो साल पहले।“
“किसलिए?”
बड़ा अटपटा सवाल था, पर था तो सवाल ही सो जवाब तो देना ही था – “बस यूँ ही“
“मलतब?”
“घूमने”
“ये भी कोई घूमने की जगह हुई?”
“नहीं वो... असल में हम चार-पांच दोस्त आये थे।“
“परन्तु माई डियर किसलिए?”
“बीयर पीने“
“व्हाट? तुम बीयर पीते हो?”
हाँ, कभी कभी”
“नशा नहीं होता ?”
होता है, पर नशा किसमें नहीं है?, हर काम में नशा है... और ये हमारा मिलना, एक-दूसरे की यादों में खोना, प्यार करना, ये भी तो नशा है।”
उस दिन उसने मुझे बीयर न पीने की हिदायत दी थी और नाराज होकर चली गयी थी। आज मैंने सोचा था कि उसे अब कभी नाराज नहीं करूँगा। जब वह आई तो मैंने ऐसा दिखाया कि मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा इंतज़ार करता रहा, मैंने सोच लिया था कि जनपथ और हनुमान मंदिर घूमने वाली बात उससे नहीं बताऊंगा, पार्क में मेरी गोद में लेटे वह घण्टों किसी दुनिया में खोयी रही, अचानक उसका मौन टूटा-“दो दिन क्या क्या किया?”
“बस कुछ खास नहीं ।“
“मतलब कुछ नहीं किया? तुम जैसा बेहतरीन लेखक कुछ खास न करे, कैसे विश्वास करूँ?”
उसका यूँ मौन तोड़ इस तरह सवाल करना मुझे अजीब भी लगा और दिलचस्प भी। आखिर उसकी चुप्पी मुझे इतनी देर तक सालती रही थी। मैंने जबाब दिया– “बस कुछ कवितायेँ लिखी और प्रकाशको, संपादकों के नाम कुछ लिफाफे प्रेषित करने के लिए तैयार किये।“
“और कितनी बियर पी?”
“दीप, कसम खाता हूँ मैंने इन दो दिनों में बीयर नहीं पी और अब कभी पियूँगा भी नहीं।“
वह फिर मौन हो लेटी रही। जैसे किसी दूसरे लोक में खो गयी हो। आज वह वही लाला रंग की शाल लिए थी, जो हमने दो हफ्ते पहले कमला नगर मार्किट से खरीदी थी। उसके होंठ चमक रहे हैं। बिना रंग की लिपस्टिक का लेप साफ दिखाई दे रहा है। उसके नाखून करीने से तरासे हुए हैं। नेल पेंट भी बिना किसी रंग का है। पता नहीं क्यों वह रंगोयुक्त प्रसाधनों का कम प्रयोग करती है।
उसने मुझसे पूछा –“तुम कब पहुँच गए थे?”
“तुम्हें मेरी आदत का मालूम ही है।“
“मतलब तय समय से एक घंटे पहले।”
“हाँ ऐसा ही समझ लो।“
“मैं जानती हूँ, तुम्हें मेरा इंतज़ार करना अच्छा लगता है। मैं हमेशा तय समय पर आ जाती हूँ फिर भी तुम्हें इंतज़ार करना होता है, तभी इतना पहले आ खड़े होते हो।“
मेरी आँखों की लालिमा देख उसे अंदेशा हो गया कि मैं रात भर सोया नहीं।
यह सच मेरे लिए छिपाना भी तो संभव नहीं है। एक लड़का आइसक्रीम का थर्माकोल वाला डिब्बा लिए पास आ गया। वह लड़का हमें पहचानता है। अक्सर हमें आइसक्रीम खिला जाता है। दीप गर्मियों की अपेक्षा सर्दी में आइसक्रीम खाना ज्यादा पसंद करती है।
मुलायम-मुलायम धूप निकलने लगी है। सर्दी से थोड़ी निजात मिल जाए शायद। उसने शाल उतारकर साइड में रख दी है। हवा अभी भी सर्द है।
“निर्मल शायद पूरब की हवा चल रही है, तभी बड़ी ठण्ड है।“
“नहीं दीप, पहाड़ से आने वाली हवा ज्यादा ठंडी होती है, इसे मेरे गॉव में पहाडा हवा कहते हैं।“
“हाँ, ये तो मैने सोचा ही नहीं था लेकिन इस बार तो कश्मीर की वादियों में स्नो फ़ॉल भी नहीं हुआ, फिर इतनी सर्द हवा क्यों?-उसने पूछा था।
“दिसम्बर का अंतिम पड़ाव है; सर्द हवा तो चलेगी ही, स्नो फ़ॉल भी जल्दी होने वाला है।“-मैंने कहा।
“कभी स्नो फ़ॉल देखा है?”
हाँ, पिताजी की पोस्टिंग कश्मीर में हुई थी, बमुश्किल दस-बारह साल की उम्र थी तब। आर्मी क्वार्टर की खिड़की से स्नो फ़ॉल देखता था। तब बाहर न निकलने की हिदायत मिली होती थी। चारो तरफ मिलितेंट्स का खतरा मंडरा रहा होता था। इसलिए ज्यादा आनंद तो नहीं उठा पाया।“
“परन्तु मज़ा तो आया होगा? मैंने तो स्नो फ़ॉल नहीं देखा, निर्मल।“
“दीप, हम शादी करके पहले कश्मीर घूमने चलेंगे, फिर शिमला। दोनों जगह की स्नो फ़ॉल का लुत्फ़ उठाना तब।“
उसके चेहरे पर फिर मौन पसर गया। उसने सिर्फ इतना ही कहा- “आई एडमिट योर फीलिंग्स।“- यह पंक्ति फिर मुझे असमंजस में ड़ाल देती है।
फब्तियां कसने वाले लड़के अब वहाँ नहीं हैं। शायद उनके जाने का वक़्त हो गया है या फिर कोई वजह उन्हें यहाँ से कहीं ओर ले गयी। धूप एक बार फिर विलुप्त हो गयी है।
दीप एक बार फिर चुप्पी साधे पानी में तैरती चिड़ियों को देखने लगी। मैं जेब से सिगरेट का पैकेट निकाल लाइटर से सुलगा लम्बा कश लगाता हूँ, मैं उदास था दीप का चेहरा कठोर हो गया है। वह जानती है, जब मैं उदास या परेशान होता हूँ तो सिगरेट पीने लगता हूँ, उसने पूछा- “परेशान क्यों हो?”
“कोई खास बात नहीं।“
“फिर सिगरेट क्यों सुलगाई?”
मैंने नजरें नीची कर ली।
“क्यों चुप क्यों हो गए?”
“कुछ नहीं बस कोई बात सोचने पर मजबूर कर रही है।“
“कौन सी बात?”- उसने सवाल किया।
“तुम्हारे कुछ शब्द सोचने को विवश कर रहे हैं।“
“कौन से शब्द?”
“वही तुम्हारा रटा रटाया जुमला- ‘आई एडमिट योर फीलिंग्स’।“
उसके होंठ आगे सवाल करने की स्थिति में नहीं थे। किसी पिंजरे में बंद पंछी की तरह फडफडा रहे थे, खुलने का प्रयास करके भी बंद थे।
मैंने बातों का रुख बदला- “उस दिन घर किस समय पहुँची?”
“किस दिन?”
“जब हम आकाशवाणी का ऑडिशन देकर जनपथ कोर्न सूप पीने चले गए थे। मेरा फोन आ जाने पर मुझे तुम्हें अकेले छोड़ जाना पड़ा था।“
“अच्छा, उस दिन, उस दिन तो बड़ा बुरा हुआ। ‘शिवाजी स्टेडियम’ से घर के लिए बस पकड़ने की सोची लेकिन बस तो जैसे आने का नाम ही नहीं ले रही थी। सड़क जाम सो अलग। कोई स्कूटर भी नहीं मिल रहा था। जैसे-तैसे घर जाने में रात के नौ बज गए।“
“तब तो बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ा होगा।“
“हाँ, पापा से डाट पड़ी सो अलग। उस दिन बड़ा अजीब लगा।“
“अजीब क्यों लगा?”
“पहली बार अकेले घर तक जो गयी, तुम साथ नहीं थे, तुम्हारा ऑटो में बैठ बाहें गले में डाल बैठना याद आता रहा।“
“और?”
“बस रात भर सोई नहीं।“
“क्यों?”
“तुम्हारा दिया हुआ गिफ्ट रात भर देखती रही।“
“गिफ्ट!”
मुझे वह दिन याद आता है। उस दिन जनपथ की हर दुकान पर एक प्यारा सा गिफ्ट खरीदने के लिए हम भटकते रहे थे। उसके साथ होने पर उसकी पसंद का सामान खरीदना उतना ही महान होता जितना चीन की दीवार को एक छलांग में फांदने का सपना देखना और फिर बार-बार छलांग लगाना। चार घंटे भटकने के बाद एक गिफ्ट खरीद पाए थे; एक झोंपड़ीनुमा घर जिसमे झूले पर बैठी एक प्यारी गुडिया और साथ में खड़ा उसका प्रेमी। दोनों के चेहरे की मासूमियत मानो हमारी प्रेम कहानी बयान कर रही है। अब वह दिन बीत गया है। उस दिन मैंने फिर एक सवाल उससे करना चाहा था पर कर नहीं पाया।
वह मेरे समक्ष बैठी है। मेरे चेहरे पर परेशानी और घबराहट है, जिसे वह स्पष्ट देख पा रही है। मेरे हाथ भी कांप रहे हैं। सर्दी के मौसम में चेहरे पर पसीना मेरे आवेश को बढ़ा रहा है। साथ ही बढ़ रहा है समय जो दिल्ली की तमाम सड़कों पर अँधेरे को बढ़ा रहा है, कोहरा चारों ओर फैलता जा रहा है।
मुझे लगता है आज वो सब कह दूँ जो अक्सर पन्नो पर कहने का प्रयास करता आया हूँ। जो बस में सफ़र करते हुए, पार्क में टहलते हुए, डायरी के पन्ने भरते हुए,रात में लेटकर किताब पढ़ते हुए, हर एक पल कहने के लिए सोचता हूँ। वह सब कह डालूँ। कुछ बातें हमेशा के लिए दिल पर अंकित हो गयी है; कुछ तो विस्मृति में चली गयी हैं, कुछ हैं जिन्हें भूलना चाहता हूँ परन्तु भूल नहीं पाता। कुछ न चाहते हुए भी याद हो आती हैं। सब कुछ कह देना चाहता हूँ।
जहाँ हम बैठे हैं वहाँ अब आस-पास कोई नहीं है। हम दोनों एक-दूसरे के एकदम पास। लेकिन महसूस होता है जैसे हम पास होकर भी दूर हैं, बहुत दूर। उसका नेकलेस उसके गले में लटका है। उसके लेटे रहने से गले पर निशान पड़ गया है। मैं उसके चेहरे को देख रहा हूँ।
“निर्मल”, उसने धीरे से कहा। वह मेरा नाम कम ही पुकारती है। जब कभी ऐसा होता है तो कोई दर्दनाक बात होती है। ऐसा होता है तो वो पल हमें अजनबी बना देता है। तब वह सोचती है कि उसकी बातें मुझे परेशान करेंगी।
मुझे लगा कि अब वह समय आ गया है जब जिन्दगी का कुछ फैसला होगा। उसका एक फैसला जिन्दगी बना देगा या फिर मुझे दलदल में धकेल देगा।
“निर्मल, क्या हम अच्छे दोस्त नहीं हैं?”-उसने धीरे से कहा। एक लम्बे अंतराल के बाद ये एक वाक्य उसके गले से निकला ।
“तुम कब से यह एक वाक्य बोलने पर विचार कर रही थी?”-मैंने कहा।
हाँ निर्मल, क्या हम अच्छे दोस्त नहीं है?”- उसने पुनः दोहराया।
“हाँ, हैं। -मैंने जबाब दिया।
“तब क्या हम अच्छे दोस्त बनकर नहीं रह सकते?”-उसने मेरे चेहरे पर अपनी निगाहें केन्द्रित की। उसके बाल हवा में उड़ रहे हैं। आगे की लटें उलझ गयी है और साथ ही मेरा दिमाग भी उलझ गया है उसके इस सवाल में, मेरे चेहरे पर भाव आ जा रहे हैं। वह मेरी ओर एकटक देख रही है, अपलक।
वह जबाब देने को आतुर है।
“निर्मल... तुम... एक... अच्छे...।“- उसने आगे जो कुछ आगे कहा, मेरे कानों तक नहीं पहुँच पाया है। मेरी अंगुलियाँ उसके उलझे बालों को सुलझाने के लिए आतुर हैं और विचार हैं कि उलझते ही चले जा रहे हैं।
मैं अशांत चित्त निगाहें इधर-उधर दौड़ा रहा था। मैं चाहता था मुझे मेरे सवाल का जबाब ‘हाँ’ में मिले, लेकिन... क्या यह जरुरी है कि लोग वही सोचे जो आप चाहते हैं... लेकिन लोगो में और दीप में फर्क है... दीप... मेरी है... उसे हाँ कह देना चाहिए... पर क्यों? उसका अपना संसार है, वह अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र है... मैं मन ही मन सोचने लगा- अगर वह तीस सेकण्ड में बोल पड़ी तो उसका जबाब ‘हाँ’ होगा ..अगर वह नहीं बोली तो संभवतः ये हमारी आखिरी मुलाकात होगी। मैं शांत मन हो जाना चाहता था। मैं जिन्दगी के एकतरफा फैसले करना चाहता था। मझधार के बाहर आ स्वतंत्र निर्णय चाहता था।
“निर्मल”, उसने कहा-“यदि तुमने ये सवाल मुझसे न किया होता तो कितना अच्छा होता, हम रोज इसी तरह मिला करते... इसी सहजता के साथ... कितनी सहजता थी इस मिलने में... लेकिन अब शायद हम सहज रूप से न मिल पायें।“
और मैं उसे अपलक सुनता रहा।
सोचा कि कह दूँ-“तुमने मेरे हृदय को हताहत कर दिया है, मेरे अरमानों को कुचल दिया है, अब मिलना संभव न होगा।“- पर कुछ कह नहीं पाया।
हम दोनों के बीच कोई और आ गया था, और वह कोई और था ”ख़ामोशी”। वह पलकें नीची किये बैठी रही। उसने कहा-“कॉफ़ी होम चलकर कॉफ़ी पीते हैं।“
हम दोनों उठ खड़े हुए। कॉफ़ी होम और हम दोनों दरम्यान कुछ सड़कों का फासला है, संभवतः दिलों का फासला अब उससे भी अधिक है। धूप खिलने की अब सम्भावना नहीं है। कोहरा बढता ही जा रहा है।
अच्छी कहानी
ReplyDeleteआभार रहेगा
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