उन्नीसवाँ भाग
जब से
असलातपुर ट्रांसफर हुआ, आने-जाने की आसानी होने लगी, बस पकड़ने और फिर रिक्शा आदि
का झंझट ख़त्म हो गया। बस एक सडक पार करना, बमुश्किल ८०० मीटर की दूरी पर स्कूल था।
कम बच्चे कम ही अध्यापक। हालाकि यहाँ भी शाम की शिफ्ट में ड्यूटी होने के चलते
टाइम बहुत वेस्ट होता था, लेकिन जब तक कोई विकल्प न हो तो ऐसे ही समझौतावादी होना
पड़ता है।
ज्योति
का मेरे जीवन में अहम रोल था, उसके साथ कितनी ही शाम साथ गुजारी थी, आकाशवाणी भवन
भी उसी के साथ आना-जाना हुआ, “मेरी आकांक्षा” कार्यक्रम भी उसके कहने पर किया था।
दोनों ने युववाणी के लिए ऑडिशन दिया, लेकिन उसी दौरान मेरे गले में तखलीफ़ हुई तो
मैं सेलेक्ट नहीं हो पाया, ज्योति को कार्यक्रम करने के लिए बुलाया गया। कार्यक्रम
की स्क्रिप्ट मैंने लिखी, ख़त को विषय बनाकर इस स्क्रिप्ट को लिखा गया था, जिसे
काफी सराहना मिली। उसके बाद ज्योति के पास ‘पंजाबी वार्ता’ और अन्य कार्यक्रम के
प्रोपोजल भी आये, हर एक स्क्रिप्ट मैं ही लिखता। टीवी पर भी कार्यक्रम में उसने
शिरकत की, उसे इस सबमें बहुत आनन्द आने लगा था, लेकिन वो इस सबके पीछे का शोषण
नहीं समझ पा रही थी, मैं उसे आगाह करने की कोशिश करता लेकिन वह मानो समझना ही न
चाहती हो।
कितनी ही बातें थी जिन पर उससे तकरार होती, वह कभी अपनी गलती नहीं मानती, उसे अपना पक्ष ही सही लगता। उसे समझाना मुझे व्यर्थ लगने लगा था।
अब मैंने घर के काम काज, कपडे आदि के लिए एक लड़की को रख लिया था। अब जैसे सब बातों की आदत सी होने लगी थी। गॉव
जाता तो शादी का जिक्र होता, माँ का तो एक ही सवाल होता-कब तक यूँ अकेले रहेगा ? कभी बीमार हो गया तो कौन देखभाल करेगा? मैं कब तक बैठी रहूँगी तेरी चिंता करने
के लिए। सुप्रिया दीदी को भी एक ही चिंता। भाई शादी कर ले, उन्हें ज्योति को भाभी
के रूप में देखने की इच्छा थी लेकिन मुझे लगने लगा था कि ये इच्छा शायद ही पूरी हो।
अब
मैंने अखबार में रिश्ते देखने शुरू कर दिए थे। अख़बार से रिश्ते ढूँढना मुझे बड़ा ही
मुश्किल काम लगा, कुछ लोगो से फोन पर बातचीत हुई लेकिन बात जमी नहीं। इस दौरान एक
दिलचस्प बात ये समझ आई कि विकलांगता में भी लोग ये देखते कि कितना विकलांग है? कोई
कहता मेरी बेटी को तो कम प्रॉब्लम है आपको ज्यादा? एक महाशय ने तो हद ही कर दी,
उनका कहना था कि इतनी विकलांगता होने पर सेक्सुअल लाइफ ठीक से चलेगी या नहीं? मन
तो हुआ कहा दूँ कि पहले ट्रायल ले लीजिये, लेकिन किसी लड़की का यूँ अपमान करना
शाब्दिक रूप से भी मुझे खुद को ही गवारा नहीं था।
ज्योति
से शादी का योग नहीं था, घर वालों का दबाव था तो मुझे भी लगने लगा कि घर वालो के
हिसाब से भी सोचना चाहिए। उसी दौरान मेरे मामा के किसी साथी के बारे में पता चला
जो नरेंद्र नगर उतरांचल से शादी करके आया था। माँ को मामा ने कहा तो मैं और मामा
उसके साथ नरेंद्र नगर लड़की देखने गए। एक सुरेन्द्र भारद्वाज से मुलाकात हुई जिसने
एक लड़की को शादी के लिए दिखाया। लड़की का नाम लक्ष्मा था, उसके पिता वी.डी.ओ. थे।
लड़की को देखा तो देखता ही रहा गया, फिल्म अभिनेत्री मन्दाकिनी की हमशक्ल, सूरत
देखी तो सीरत देखने की सुध ही नहीं रही। मैंने शादी के लिए हाँ कर दी। हम लोग
दिल्ली वापिस आ गए, सुरेन्द्र ने कहा कि मैं लड़की के घर वालों को लेकर दिल्ली टीके
की रस्म के लिए आऊँगा, कुछ किराया खर्चा दे दीजिये। मुझे अटपटा लगा, लेकिन बिचौलिए
ने मुझे साढ़े तीन हजार रूपये दिला दिए। २००३ में ये राशि भी बहुत ज्यादा थी, कुछ
दिन बाद वह आया और बोला कि लक्ष्मा के घर वाले राजी नहीं हुए। मैं कहीं और देखता
हूँ, घूमने-फिरने के लिए कुछ पैसे दे दीजिये। मैंने उसे दो हजार रूपये और दे दिए।
उसने ये भी कहा कि हमारे यहाँ रिवाज है कि लड़के वाला लड़की के गॉव वालो और
रिश्तेदारों के लिए भोज की व्यवस्था करता है आपको ये सब खर्च भी करना होगा। एक
बरगी तो मुझे लगा कि ये अच्छा है, लड़की वाले क्यूँ खर्च करें लड़के वालो को ही ये
सब खर्च करना चाहिए। उस वक्त कमला भसीन को पढ़ पढ़कर दिमाग भी पूरा नारीवादी हो चुका
था। माँ पिताजी की तू-तू, मैं मैं में भी मुझे माँ का पक्ष समझ आता था पिताजी का
नहीं। लेकिन जब मैंने पूरे प्रकरण को समझना शुरू किया तो मुझे समझ आया कि सुरेन्द्र
एक ठग था जो शादी के नाम पर लोगो से पैसे वसूलता था, बाद में पता चला कि उसका पूरा
गैंग था जो भोले-भाले लोगो से इस तरह की ठगी करते थे। जल्दी ही ये एपिसोड भी बन्द
हो गया।
इसी
बीच मेरे गॉव से ही किसी व्यक्ति ने अपने किसी रिश्तेदार को मेरा फोन नम्बर दिया। वो
लोग ‘नांगल राया’ रहते थे। एक शाम उन्होंने मुझे फोन किया। मेरा स्कूल शाम का था
तो मैंने उन्हें सात बजे मिलने का समय दे दिया। लड़की का भाई आया था, उसने मुझे
पूछा- “सर आपको कौन सी गाड़ी पसन्द है, मैंने उन्हें कहा था- गाडी तो हौंडा सीटी से
लेकर तमाम बड़ी गाड़ियाँ हो सकती हैं लेकिन आप मुझसे ये सवाल किसलिए कर रहे हैं?”
उन्होंने
कहा-“सर आप जिस गाड़ी को पसन्द करेंगे हम अपनी बहन की शादी में वही गाड़ी आपको दे
देंगे।“
मैंने
उन्हें टोका-“देखिये, बंधुवर आप किसी गलत फहमी का शिकार हैं, आपकी हैसियत गाड़ी
देने की हो सकती है लेकिन मेरी हैसियत गाड़ी अफोर्ड करने की नहीं है, फिर आपको किसी
उसी स्तर के लड़के से शादी करनी चाहिए जो आपके स्तर का हो।“ उन्होंने कहा-“नहीं सर
आप बुरा न माने दरअसल हमारी बहन जब छोटी थी तो उसे ब्रेन फीवर हुआ था, ऐसा नहीं है
कि वह बिलकुल पागल है, वह अपने छोटे मोटे काम आकर लेती है, बस थोडा दिमाग अटकता है।“
“फिर
ये कहिये कि आपको अपनी बहन के लिए एक पति नहीं, कोई ऐसा इन्सान चाहिए जो आपकी बेटी
का भविष्य का गार्जियन हो, बन्धु, शादी का नाम गार्जियनशिप नहीं होता, अच्छा हो कि आप अपने इस
पैसे से उसके लिए पति नाम का पालतू जीव न खरीदकर एक नौकर रख दें तो उसकी सेवा करे।“-मैंने
कहा।
चाय
पिलाकर मैंने उन्हें रवाना तो कर दिया लेकिन मेरा दिमाग भन्ना गया कि कैसे-कैसे
लोग जीवन में मिलते हैं। उस लड़की से मुझे सहानुभूति जरुर हुई थी लेकिन सहानुभूति
का अर्थ खुद की मुसीबतों में इजाफा करना कतई नहीं होता। कुछ दिन मन आहत रहा। फिर
धीरे-धीरे जिन्दगी पुराने ढर्रे पर आ गयी
थी।
उससे
भी पहले ‘लाडपुर’ गॉव की लड़की के रिश्ते को मना कर चुका था हालाकि मन हुआ कि
आकांक्षा को हाँ कर दी जाए।
वो
पूरा वाकया कुछ यूँ हुआ, मैंने कितने की रिश्ते देखे तो लोगो के विचार शादी के नाम
पर जानकर और एक विकलांग व्यक्ति के रिश्ते के बारे में जानकर ये तय कर लिया था कि
अब शादी नहीं करूँगा, अगर दुनिया में किसी विकलांग को मनुष्य ही नहीं समझा जाता तो
फिर क्या फायदा इस परिवार नाम की संस्था का सदस्य बनने में। मेरे मेंटर चाँद किरण जी से एक बार ज्योति को लेकर बातचीत हो
रही थी तब मैंने उन्हें विकलांगता को ज्योति से शादी में बड़ी बाधा बताया तो वो
चौंके थे, तब मैंने उन्हें कहा था-“सर ऐसा ही है दिल्ली की लड़कियां विकलांग लोगो
से इश्क तो कर सकती हैं लेकिन वो उन्हें अपना दूल्हा बनते देखना पसंद नहीं करती, हम
विकलांगों की यही बद्किश्मती है कि हम इनके प्रेमी बन सकते हैं, पति नहीं।
आकांक्षा
को देखने जाने का कार्यक्रम ऐसे ही नहीं बना था, मेरा दोस्त ताहिर इलाहाबाद
से दिल्ली आया हुआ था, उसने गॉव घूमने की
इच्छा जाहिर की तो मैंने माँ को बताया कि मैं और मेरा दोस्त गॉव आ रहे हैं। तब माँ ने अखिल भैया और सुधा भाभी को बताया कि सुदीप गॉव आ
रहा है, तुम लोग आकांक्षा के घर वालों को कह सकते हो, और सुदीप तुम्हारी बात टालता
भी नहीं। तो हमारे घर पहुँचते ही सुधा भाभी का फोन आ गया, फोन मैंने ही उठाया था, मैंने
कहा-“क्या बात है आपको अपने इस लाडले देवर की खुशबू आ जाती है क्या, जो मेरे आते
ही फोन भी आ गया?”
“हाँ
देवर जी, अब अपने लिए देवरानी की तलाश भी कर रही हूँ, ताकि ये तुम्हारी आज़ादी ख़त्म
हो। कल घर आ जाना।“
शाम
को दीदी और जीजाजी भी गॉव आ गए थे, मुझे आश्चर्य भी हुआ कि दीदी ने बताया नहीं
वर्ना तो साथ ही आ जाते।
सुबह
मैं ताहिर को घुमाने अखिल
भैया के घर गया तो वहाँ कुछ लोग बैठे थे।
मैंने पूछा-भाभी ये लोग कौन हैं तो भाभी ने कहा-‘तुम्हें कल बताया तो था कि
देवारनी ढूँढ रही हूँ।‘ मुझे लगा भाभी मजाक कर रही है लेकिन फिर भाभी ने कहा-“सुन सुदीप,
ये लड़की वाले हैं और तुमसे बात करने आये हैं, तुम्हारे भैया ने बात की हुई है, कल
मैंने तुम्हें इसलिए नहीं बताया कि कहीं तुम आओ ही न, मुझे मालूम है तुमने आने को
बोला तो तुम टाइम के बड़े पंक्चुवल हो, इसलिए इन्हें यही टाइम दिया।“
पिताजी, दीदी और जीजाजी भी आ गए थे, यानि ये सब प्लान
मुझे छोड़ सबको मालूम था, सब लोग अन्दर के कमरे में बैठ गए। मैं, ताहिर और भाभी बाहर बैठे थे...वो लड़की और
उसकी माँ और भैया पहले से ही कमरे में बैठे हुए थे।
चाय
पीते हुए इंट्रोडक्शन शुरू हुआ.. उसने अपना नाम आकांक्षा बताया ... ताहिर उससे बड़े
सवाल पूछ रहा था।
मुझे
इस तरह लड़की देखने की इस रस्म से ही नफरत सी होती, ये भी कोई तरीका हुआ, लड़का-लड़की
बैठ जाएँ, एक इंटरव्यू हो, लड़की को कम बोलने, शरमाने की बाकायदा ट्रेनिंग दी जाए,
मुझे आज तक समझ नाही आया कि इस देखने-दिखाने में आखिर देखने के लिए होता ही क्या
है? बढ़िया चाय, बिस्किट, नमकीन, मिठाई और ज्यादा हुआ तो लंच, और हो जाए निर्णय कि
तुम्हें लड़की पसन्द आई? लड़की को लड़का पसन्द आया ये तो सवाल ही एग्जिस्ट नहीं करता। एजुकेशन
पूछी, जन्म-तिथि पूछी, क्या क्या पसन्द है ये पूछा और हो गया निर्णय। क्या
किसी का व्यवहार एक या दो घण्टें में आँका नहीं जा सकता है? शक्ल-सूरत तो दुनिया में दो ही होती हैं एक
अच्छी दूसरी बुरी, रंग भी दो ही गौरा या काला। उसमे ऐसा क्या देखा जा सकता है कि शादी का
निर्णय कर लिया जाए? बिना बार-बार मिले या दो-चार मुलाकातों के बिना शादी का
निर्णय मुझे बेतुका लगता।
बहराल
हम लोग आपस में बात करते रहे।
ऐसा
लग रहा था कि आकांक्षा या तो नर्वस है या फिर उसे जबरदस्ती लाया गया है।
मैंने उससे कहा-“आपको कुछ मेरे बारे में जानना है तो आप निसंकोच पूछ सकती हैं।“
आकांक्षा
ने कहा- "नहीं मुझे नहीं पूछना।” मुझे मेरा शक विश्वास में बदलता नजर आया, लगा
कि वो वाकई नर्वस है या फिर वो इस रिश्ते की बात से ही नाखुश है। भाभी समझ गयी कि मामला कुछ उलझ सा रहा है तो
वो तरीके से बाकि लोगो को दूसरे कमरे में ले गयी। अब
कमरे में मैं, ताहिर और आकांक्षा थे।
"आकांक्षा,
तुम यहाँ अपनी ख़ुशी से नहीं आई हो?"-मैंने कहा था।
"नहीं, सुदीप जी ऐसी कोई बात नहीं है, आपको ऐसा क्यों लगा?"
"ऐसा
इसलिए क्योंकि आप अंग्रेजी से एम.ए. हो और मैं खुद एक लेखक, लेकिन आपके जबाब ऐसे
हैं जैसे जिन्हें सुनकर कोई भी अंदाजा लगा ले कि ये दिल की आवाज नहीं है।"
उसके चेहरे पर एक मुस्कान मैंने महसूस
की। शायद ये मुस्कान बनावटी थी या फिर असल, नहीं जानता,
मैंने आगे कहा-"जिन्दगी का हर पल अनमोल है, इसका भरपूर लुत्फ़ उठाना चाहिए। हर क्षण को हर लम्हे को जी लेना ही
जीवन का उदेश्य सार्थक करता है।“
मेरी बात सुन उसने कहा-“अरे वाह आप तो शायराना बात करते हैं, आपसे बात करने में
मज़ा आएगा।“
“खैर
छोडो... आपने एम.ए. अंग्रेजी किया है, कोई खास
वजह या यूँ ही, यूँ ही तो किया नहीं होगा, क्योंकि इस इलाके की लड़कियाँ अंग्रेजी
विषय से बहुत बचती हैं, मेरी सुप्रिया दीदी का भी यही हाल था।“
“मैंने
तो सुना है कि आपकी दीदी खुद का स्कूल चलाती हैं, फिर बिना अंग्रेजी के?”
“रिसेप्सन
से लेकर एडमिशन तक का सारा काम एम्प्लोयी करते हैं, उनका मनेजमेंट बहुत जबरदस्त है।“
“ओके।”
“अच्छा आपका
आगे क्या करने का प्लान है?"
"एसएससी
देना है और बैंक पी ओ।"
“ये सब जॉब्स मैं समझता हूँ एक
डिसेबल्ड लड़की के लिए ठीक नहीं, आज तो कर लोगे लेकिन जब गृहस्थी होगी तो फुल टाइम जॉब
से परिवार प्रभावित होगा, मेरे विचार से आपको टीचिंग के लिए सोचना चाहिए। कम समय की नौकरी है,
बच्चे भी आराम से पल जाते है।"
"मुझे
टीचिंग में जरा भी इंटरेस्ट नहीं है, न ही मैंने कभी सोचा ही, मेरा मन करता है बस मैं
ऑफिस जॉब करूँ।“
मुझे लगा-अभी उसे प्रेक्टिकल लाइफ की
समझ नहीं हैं, कुछ देर हमारे बीच चुप्पी रही फिर उसने पूछा- “आपने ये
क्यों सोचा कि मैं यहाँ आकर खुश नहीं हूँ?."
"आपके
व्यवहार से, आपके जवाब देने के अन्दाज से, और वैसे भी मैंने कई साल चाइल्ड
साइकोलॉजी पढ़ी है, तो चेहरे पढने की कला में पारंगत समझिये।"
“सुदीप जी वाकई आप बड़े ही व्यावहारिक इन्सान हैं,
सही बताऊँ तो पहले मैं वाकई उदास थी।“
“लेकिन अब नहीं हो, क्यों ठीक कहा न?"
"आप सच
में कोई जादूगर हैं, आपसे जिसकी शादी होगी वह अवश्य ही खुशनसीब होगी। आप जैसे इन्सान से मुलाकात होना अपने
आपमें बड़ी बात है, आप शायर भी हैं, दार्शनिक भी हैं और उससे बढ़कर मैं आपमें एक
बेहतरीन इन्सान देख रही हूँ एक ऐसा इन्सान जो जीवन के प्रति एक नजरियाँ रखता है,
वर्ना तो दुनिया मूर्खों से भरी पढ़ी है, सच कहूँ तो यहाँ आने से पहले मुझे गुस्सा आया
था।"
“वजह बतायेंगी, वैसे इतनी तारीफ करने
के लिए आपको शुक्रिया भी कहना पड़ेगा और फिर
अपनी पीठ खुद ही थपथपानी पड़ेगी।"
“चलिए आपको ये शिकायत थी कि मैंने कुछ नहीं
पूछा तो एक सवाल आपसे..."
“जी, नेकी और पूछ-पूछ ... पूछिए –पूछिए?"
"मैं
आपको कैसी लगी...?" मैंने उसका सवाल सुना तो अनायास ही
बोल दिया-"मुश्किल सवाल है आकांक्षा जी, मेरा
जीवन के प्रति एकदम अलग नजरिया है, ये सवाल इतना आसान मुझे लगता नहीं कि जबाब इतनी
आसानी से दिया जा सके, ये हाँ/नहीं टाइप सवाल नहीं है, जब आप अपने लिए जीवन साथी
का चुनाव कर रहे हों तो एकदम जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए।"-
ये सब कहते हुए मेरे जहन में रक्षिता, मंजू और ज्योति तीनों ही के चेहरे घूम गए,
मुझे लगा कि इन तीनों लड़कियों ने मेरा पति रूप में सिर्फ इसलिए वरन नहीं किया कि
मुझे विकलांगता थी और वो एक विकलांग पति नहीं चाहती थी। मैं जैसे खुद में कहीं खो गया था।
आकांक्षा ने मेरी तन्द्रा को तोडा, उसके शब्द
मेरे कानों में पड़े-"चलिए, कोई
जल्दी नहीं है, सोचकर बता दीजियेगा, हमें भी जानने की कोई जल्दी नहीं है।"
"जी
सोचना तो पड़ेगा... शादी जैसे मसले पर इतनी जल्दी निर्णय नहीं लेना चाहिए।"
बातें हो ही रही थी कि सुधा भाभी ने वार्ता
पर विराम लगाते हुए कहा --"मुलाकात पहली जरुर है पर आखिरी नहीं, देवर जी कुछ बाद
के लिए भी छोड़ लीजिये, बातों से फुर्सत मिल जाए तो आकर खाना खा लीजिये, और हाँ अभी
तुम्हारी लाडली भतीजी प्रीति किताब लेकर भी धमक सकती है, चाचू ये पढ़ा दो वो पढ़ा दो।"
“अब वो बड़ी क्लास में है, अब उसे मैं
क्या पढ़ा पाऊँगा?”
“ठीक है ठीक है, अब खाना खा लीजिये।“
हम लोग खाना खाने के लिए दूसरे कमरे
में चले गए। आकांक्षा ने खाना खाने से मना कर दिया था। खाना
खाकर निपटे तो भाभी जी चाय बनाने के लिए जाने लगी, मैंने भाभी को कहा-"भाभी
देवर दिल्ली रहता है चाय कम चीनी की पीता है।"
“अच्छा जी, इतना बड़ा त्याग कर दिया, जब
यहाँ रहते थे तो तुम्हारे भैया हमेशा शिकायत करते थे कि सुदीप हर हफ्ते पाँच किलो
चीनी ले जाता है, करता क्या है इतनी चीनी का।“
मुझे याद आया तब गॉव से जितना भी दूध
आता था सबकी खड़ी चम्मच की चाय बना कर पी जाते थे, वक़्त के साथ-साथ आदतें भी बदल
गयी। भाभी ने चाय बनाई। चाय पीते हुए ही आकांक्षा के भाई से बातचीत हुई उन्होंने
बताया कि वो लोग आर.के. पुरम रहते हैं। मैंने उनसे फोन नम्बर ले लिया था।
चाय पीकर हम लोग घर आ गए, वो लोग भी चले गए। भाभी
का घर छोड़ने से पहले भाभी ने पूछा –“देवर जी लड़की आपको पसन्द आई या नहीं, कैसी लगी, मुझे तो पसन्द है आगे आपकी अपनी मर्जी।” जवाब में मैंने
कहा- "भाभी ये निर्णय करने के लिए समय चाहिए, शादी-विवाह के मामले में बहुत
ज्यादा जल्दबाजी ठीक नहीं रहती।“
"मुझे
तो लड़की अच्छी लगी, बाकि सुप्रिया और चाची से भी पूछना पड़ेगा।“
“जी भाभी, विचार करके बताता हूँ।“-कहकर
हम लोग चले आये थे।
रात के खाने पर ये ही विषय था कि लड़की
कैसी लगी, जो सवाल मैं सिरे से ख़ारिज करता रहा, किसी के कैसा लगने मात्र से विवाह
का कैसे तय किया जा सकता है? मैंने रास्ते में ताहिर को इस विषय पर अपनी मंशा बताई
थी और उसे मेरी बात समझ भी आ गयी। उसने
मेरा पक्ष रखा था। सब उससे शादी के लिए सहमत थे.. पिताजी थोडा असहमत
थे.. जैसे ही मुझसे राय माँगी गयी, ताहिर ने कहा-"लड़की अच्छी भी है, पढ़ी-लिखी
भी है लेकिन उसका क्लर्क की नौकरी को प्रीफर करना और पाश्चात्य परिधान में इस मौके
पर आना ही काफी है कि सुदीप की इसके साथ शादी न की जाय।“
सबका मत था कि इसमें दिक्कत क्या है? ताहीर
ने कहा था -"दिक्कत ये है कि अभी हमारे समाज में
इतना खुलापन नहीं कि दिखाई की रस्म पर लडकियाँ जीन्स पहनकर आये, माना कि समाज बदल गया है लेकिन आज जब एक
इंट्रोडक्शन था तब उसे ये ड्रेस नहीं पहननी चाहिए थी, शादी के बाद सुविधा के हिसाब
से कोई कुछ भी पहने लेकिन उसमे एक मर्यादा हो।"
काफी बातचीत और बहस के बाद निर्णय हुआ
कि वहाँ से रिश्ता नहीं लेंगे। रात
को सोते हुए मैं सोचता रहा कि काश अभी भी रक्षिता या ज्योति में से एक भी हाँ कर
दे तो उससे ही शादी की जाए। वैसे तो
मैं अभी शादी करना नहीं चाहता था लेकिन साथ ही विचार मन में घर कर गया कि अब
फिजिकली फिट लड़की से ही शादी करूँगा।
आकांक्षा के घर पता भेज दिया कि लड़के
ने अभी शादी से मना किया है। हफ्ता भर मैं खतौली रहा तो बीच
में एक दिन फिर सुधा भाभी के पास गया, प्रीति ने
बताया-“चाचू कॉलेज जाते हुए रास्ते में आकांक्षा मिली थी, उसने कहा कि
अपने चाचू से कहो कि शादी के लिए हाँ कर दें, तुम्हारे चाचू बहुत अच्छे हैं और
मुझे पसन्द भी।"
मैंने कहा-“प्रीति बेटा मैं अभी शादी के मूड में नहीं हूँ, जब विचार बनेगा तब देखेंगे।“
प्रीति को तो मैंने टाल दिया लेकिन मन फिर विचलित हो गया। मन में एक द्वंद्व चलने लगा, क्या सिर्फ एक ड्रेस को लेकर किसी को इनकार करना ठीक है? क्या किसी को पसंद-नापसंद का क्रायटेरिया ऐसे तय किया जाना किसी एंगल से ठीक है? क्या किसी को यूँ किसी दूसरे सदस्य को रिजेक्ट करने का अधिकार है? मैं होता कौन हूँ किसी को रिजेक्ट करने वाला? मन में तय किया कि एक बार आकांक्षा से मिलकर फिर से बातचीत की जाए, मैंने दिल्ली आकर उसके भैया के यहाँ फोन भी किया लेकिन शायद वक़्त कुछ और ही तय किये बैठा था, उससे बात नहीं हो पायी या फिर उसे मेरा मैसेज ही नहीं मिला, लेकिन फिर मुझे दोबारा फोन करने का साहस नहीं हुआ। और एक इबारत लिखे जाने से पहले ही दम तोड़ बैठी। फाइनली आकांक्षा से शादी का विचार ख़त्म हो गया था।
क्रमशः
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