आत्मकथा
गतांक से आगे............
दूसरा भाग
दादा
अपने भाइयों में सबसे बड़े थे..उनसे छोटे ७ भाई और तीन बहने थी। एक
बड़े भाई की मृत्यु जवानी में ही हो गयी थी। उनकी दो बेटियां ही थी। खुद
की पांच संतान, तीन बेटे और २ बेटियां। दादा ने ७ बच्चों की परवरिश की, ४
बेटियों की शादी भी की। दो बेटे बड़े थे और पिताजी सबसे छोटे। गॉव-गमांड
में परिवार को उसके नाम से जाना जाता।लोग गॉव में मेरे परिवार को मुकद्दम कहते। ये एक पदवी
थी, इलाके का प्रतिष्ठित परिवार, दादा बेहद ही सीधे इंसान, इनके
सीधे होने के चलते बड़े बेटे ने घर की सब सम्पति पर अपना अधिपत्य किया हुआ था। मझले
बेटे ने शुगर-मिल में कामदार की जॉब पकड़ ली और खेती-बाड़ी का काम छोटे बेटे के
जिम्मे आ गया। उनकी
पढाई-लिखाई पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। सब अपने-अपने चक्कर में लगे रहते, पिताजी
जब तीसरी क्लास में पढ़ते थे तब से ही उन्हें खेती में लगा दिया गया। किसी
तरह पढ़ते रहे.. दसवी क्लास में थे तो मालती देवी यानि मेरी माँ से शादी हो गयी..
फिर यहाँ-वहां नौकरी करते हुए घर का गुजारा करने लगे, जैसे-तैसे नौकरी
के साथ प्राइवेट पढ़ते हुए १२वी की तो भविष्य की चिंता होने लगी। माँ खेती का काम
देखती। अब बड़े दोनों भाई फसल बटवाने लगे। माँ
खेती में पूरा हाथ बटाती, उसे दुःख होता कि मेहनत हम करें और अनाज सबका।
प्रिगनेंट रहती तो भी खेती का काम देखती।
माँ
का सहयोग न होता तो शायद पिताजी पढ़ भी न पाते। नीलू
के जन्म के समय तक वे टीचर ट्रेनिंग कर चुके थे। मेरे
जन्म से कुछ दिन पहले ही अध्यापक बने थे। मकान भी बिना किसी के सहयोग के बनाया
था।
दादी
के बड़े ताऊ के यहाँ जाने के फैसले से पिताजी आहत जरुर हुए थे।
लेकिन हिम्मत नहीं हारी थी।
माँ मुझे
लेकर डाक्टर के पास जाती। पिताजी स्कूल से आते तो बच्चे भी आ चुके होते। वो
स्टोव पर खाना बनाते, सुप्रिया पिताजी को रोटी बनाते देखती तो अन्दर तक दुखी हो
जाती, उसने कहा-"पिताजी मैं रोटी बनाउंगी।
"
“हाँ
बेटी तू बड़ी हो जा, फिर तुझे ही तो ये सब करना है।"-पिताजी
आहत मन से कहते।
एक
बच्ची उम्र से पहले बड़ी हो रही थी। तीसरी क्लास में आई तो नन्ही
अँगुलियों से तवे पर रोटियां सेकने लगी। कच्ची-पक्की रोटियां बनाती, पिताजी बड़े
चाव से खाते।
बच्ची का हौसला बढता। छोटी होते हुए भी सुप्रिया पर काम की
जिम्मेवारी बढ़ने लगी। साफ-सफाई, खाना-बर्तन सब करती। माँ
के आने से पहले तक एक भी काम न छोडती। माँ को भी फक्र होता कि मेरे बच्चे
कितने नेक हैं।
सुकेश जरुर सुप्रिया को तंग करता लेकिन फिर भी सब भाई बहनों में
बड़ा प्यार। पिता
के अध्यापक होने का दबाव सबके मन पर था। कोई भी गलत काम करने से पहले मन में आ
जाए कि एक टीचर के बच्चे हैं लोग क्या कहेंगे? ऐसे ही माहौल में परवरिश हो रही थी।
मैं अब ५ साल का हो गया लेकिन पेट के
बल ही सरकता। हाँ
बस इतना सुधार आया कि अब घुटनों के सहारे घिसड़कर जमीन पर चल लेता।
मोहल्ले के कुछ बच्चे मेरे दोस्त बन गए। महेश और राजेंद्र मेरे हमउम्र थे तो
पहले उनसे ही दोस्ती हुई। छोटे-मोटे खेल खेलते, मेरा दिमाग तीव्र गति से चलता ये बात पिताजी
को समझ आने लगी थी। उनका
मन कहता कि बच्चा थोडा भी खड़ा होने लगे तो इसे स्कूल भेजा जाये।
सुप्रिया
भाई का ख्याल रखती, जिस दिन उसकी छुट्टी होती और माँ को डाक्टर के पास नहीं जाना
होता तो सुप्रिया ही मुझे नहलाती और कपडे बदलती।
कोई
भी इलाज मुझ पर कारगर नहीं हो रहा था। माँ पिताजी सब परेशान। किसी
ने बताया कि बुढाना कस्बे में बस स्टैंड के पास एक देशी वैद है जो इसी तरह के
मरीजों का इलाज करता है। इलाज के लिए वहां ले जाने का फैसला किया गया।
एक सुबह पिताजी और माँ मुझे लेकर बुढाना डॉ
सुबोध के क्लिनिक पहुंचे। मैं अब बातों को समझने लगा था, बातों
का बारीकी से निरीक्षण करता।
कहते हैं कि जब किसी का अंग-भंग होता है तो उनकी संवेदना का स्तर बढ़ जाता है और
उसकी उस अंग विशेष की ताक़त भी मस्तिष्क में चली जाती है। चुनांचे मेरा मस्तिष्क भी शीघ्रता से परिपक्व हो रहा था। पिताजी ने मुझे गोद से उतार एक बैंच पर बैठा
दिया।
डॉ सुबोध ने बताया कि ये लड़का तीन साल
में सड़क पर दौड़ेगा और आप यही इसी बेंच पर बैठे हुए देखोगे। उन्होंने कुछ मरीजों से बात करायी। उनके माँ-बाप से बात करायी। जिन्होंने बताया कि हमारा बच्चा भी पेट के बल
सरकता था, इसे आज डॉ साहब ने इतना कर दिया कि अब धीरे-धीरे चलने लगा है। मैं ये सब बाते सुन रहा था तो मैंने कल्पना की
कि एक दिन मैं भी और सब बच्चो की तरह चल पाउँगा।
इलाज शुरू हो गया था। हर तीसरे दिन डाक्टर बुलाता कुछ अजीब से तेल
की मालिश करता और फिर पट्टियों को लपेट देता। पट्टियों के नीचे लकड़ी की खरपच्चिया होती जो मुझे
चुभती और परेशान करती। मेरा मन बाहर दोस्तों के साथ खेलने का
करता।
अब मैं दीवार पकड़ कर थोडा चलने का
प्रयास करता। डॉ ने बताया कि इसे एक गडुलना लाकर दो ये उसे
पकडकर चलेगा।
पिताजी बढई से एक गडुलना बनवाकर ले आये। मैं अब गडुलने की सहायता से चलने का प्रयास
करता। हर पंद्रह दिन बाद डॉ सुबोध दोनों पैरों पर
प्लास्टर कर देता और फिर दो-तीन दिन उसका चलना फिरना बंद हो जाता। इस इलाज से एक फायदा ये हो रहा था कि अब मैं घर
से बाहर कुछ कदम रखता, मुझे अनुभव होता कि दुनिया इस चारदीवारी से भी आगे है। माँ ने पिताजी को कहकर एक हिंदी का कायदा
मंगवा दिया और एक स्लेट। अब मेरा स्कूल घर पर ही लगने लगा। मध्यमा पास माँ मुझे क ख ग पढ़ाती, स्लेट पर लिखाती, मेरा कई बार मन नहीं होता तो
माँ सख्ती दिखाती। मेरा पढाई में मन नहीं लगता। माँ घर के काम-काज करती तो साथ में पीढ़े पर मुझे
बैठा लेती और पढने को कहती।
प्लास्टर और पट्टियों के बीच जूझता बालक कैसे पढाई में मन लगाये। क्लास में तो मास्टर का ध्यान ज्यादा बच्चो पर
रहता है लेकिन यहाँ तो एक अध्यापक और एक ही छात्र, वो निगाह भी बचाए तो कैसे? माँ
सख्ती करने लगी, हिंदी के कायदे का काला पन्ना जो किसी के भी होश उड़ा दे। माँ चाहती कि मुझे वो काला पन्ना कंठस्थ हो। काले पन्ने के लिए मार भी लगती। तब मुझे स्कूल गयी बहन सुप्रिया की याद आती,
दीदी घर पर होती तो पिटाई से बचा लेती, मैं दीदी के स्कूल से आने की प्रतिक्षा करता,
सुप्रिया स्कूल से आती तो ही मैं खाना खाता।
उम्र बढ़ने से शरीर का वजन भी बढ़ रहा था। माँ डॉक्टर के पास जाती तो रिक्शा न लेकर पैदल
ही जाती।
सात साल की उम्र के बच्चे को गोद में
लेकर चलाना ऊपर से पट्टी और प्लास्टर का भी वजन। माँ मुश्किलों से ढाई-तीन किलोमीटर दूर बस
अड्डे तक ले जाती और वहां से बस से बुढाना जाती। अब ये सब जिन्दगी का एक हिस्सा बन गया था।
परिवार से ही एक थे वीरेंदर चाचा जो स्कूल में
पढ़ते थे। यशवीर चाचा फ़ौज में थे। लेह में पोस्टिंग हुई। वो फ़ौज से छुट्टी आये तो बादाम और अखरोट लाये। मैं बहुत खुश हुआ, मैने बादाम खाए, अखरोट मुझे
पसंद नहीं आये।
चाचा जितने दिन छुट्टी आते तो रोज़ मुझसे
मिलने आते।
मैं बहुत खुश होता, यूँ तो चाचाजी सबको
प्यार करते लेकिन मुझे कुछ ज्यादा।
चाचाजी की शादी हुई लेकिन मुझे पट्टियाँ बंधी
होने के कारण कोई उसे बारात में नहीं ले गया। उस दिन
बेहद दुखी हुआ, रोता रहा, यशवीर चाचा से बहुत लगाव था, मैं भी बारात में जाना
चाहता था, उस शाम खाना भी नहीं खाया।
सोचता रहा कि मैं यूँ इस हाल में ना होता तो मैं भी सुकेश भैया और नीलू की तरह नए
कपडे पहनता, बारात का खाना खाता, रोते-रोते कब नींद आई होगी पता ही नहीं चला।
एक दिन माँ डाक्टर के पास से मुझे लेकर आ रही
थी। रास्ते में वीरेंदर चाचा मिले.. बोले- “भाभी
सुदीप को मेरी साईकिल पर बैठा दो, मैं घर ही जा रहा हूँ।”
माँ ने मुझे साईकिल पर बैठा दिया। चाचा साइकिल लेकर चल दिए, अभी गॉव में घुसे ही
थे कि देखा कुछ बच्चे शोर मचा रहे थे।
साईकिल रोक वो उन्हें देखने लगे। बच्चे
एक टिड्डे को पकड़ने के लिए शोर मचा रहे थे।
चाचा भी उस मण्डली में शामिल हो गए। टिड्डा
मेरी कमर पर आकर बैठा। मैंने जैसे ही उससे डरकर कमर को हिलाया
साईकिल ने अपना बैलेंस खोया और साईकिल और मैं दोनों धडाम नीचे। बाए हाथ की कोहनी की हड्डी टूट गयी। चाचा घबराकर भाग गए, सुदीप रोये जा रहा था। माँ आई तो बहुत तमाशा हुआ। चाचा जाकर खेत में छुप गए थे। अब खचेडू चूढ़े को बुलाया गया। उसने सोचा कि कोहनी उतरी है हिला-डुला कर कुछ
किया और लुडपुड़ी बनवाकर बांध दी। दर्द
के मारे मैं कराहता रहा। अलगे दिन सुबह होते ही पिताजी सुरेश
डाक्टर के यहाँ ले गए। हाथ पर भी प्लास्टर बंध गया था।
मैं हाथ और पैर दोनों पर प्लास्टर देख रोता
रहता।
माँ चाहती कि मैं पढू। अब हिंदी के साथ-साथ गिनती का भी जोर होने लगा। गिनती मुझे फट से याद हो जाती। देखते ही देखते २० तक के पहाड़े भी रट गए। छोटे-मोटे गुना भाग जोड़-घटा भी सीख गया। इन सबमें सुप्रिया का मुझे भरपूर साथ मिलता। हाथ का प्लास्टर कट गया था। लेकिन अब कोहनी का मुड़ना बंद, रोज़ गर्म पानी की
सिकाई। कभी-कभी सुप्रिया भी झल्ला जाती कि सारा काम
मेरे जिम्मे दिन में चार-चार बार सिकाई।
छोटी बच्ची ऊपर से काम का इतना बोझ? लेकिन फिर सोचती मेरा भाई है जल्दी ठीक हो
जायेगा।
डॉ.सुबोध प्लास्टर के बाद पंद्रह दिन पैर खुले
छोड़ देता ताकि जोड़ जाम न हो जाये।
पंद्रह दिन फिर पैरों की सिकाई होती और पैर को खोलने के लिए व्यायाम करना पड़ता। मैं एक ही काम रोज़-रोज़ करने से उकता जाता। लेकिन माँ की सख्त हिदायत थी कि ठीक होना है दूसरे
बच्चों की तरह चलना है तो ये सब करो।
माँ खेत का काम करती पशुओं का काम करती। मैं घर पर अकेला बोर हो जाता, बसंती दादी अपने दालान में बुला लेती। बसंती दादी और हमारा एक ही दालान था बस बीच में
एक दरवाजा लगा था, जो सिर्फ रात में ही बंद होता। दोनों परिवारों का एक ही नल था जिस पर दोनों
परिवारों का काम होता था, नहाना-धोना, बर्तन सब। बिजली भी सिर्फ हमारे यहाँ ही थी, रात में
दोनों परिवारों के बच्चे वहीँ पढ़ते थे।
इस बीच दादी की तबियत ख़राब चल रही थी.. माँ
पिताजी ताउजी के यहाँ जाते.. उनकी सेवा करते। माँ दादी के बाल धोती, कंधी करती उसके कपडे
बदलती, कभी सुकेश भैया दादी से मिलने जाते तो दादी उसे ताऊ के बच्चो के कंचे दे देती
और कहती मेरे छोटे पोते को दे देना।
एक दिन खबर आई कि दादी मर गयी। उस दिन सब लोग ताऊजी के यहाँ गए। मुझे खाना बसंती दादी ने खिलाया। दादी के अंतिम दर्शन भी नहीं हुए। मैं सोचता रहा कि
दादी कहाँ चली गयी, क्या अब दादी फिर उससे मिलने नहीं आएगी।
क्रमशः