संदीप तोमर/"मैं संपादक बन गया-2 /लघुकथा
वह नौकरी से रिटायर हुआ था, रिटायरमेंट के पैसा मिल चुका था। उसे प्रकाशन और सम्पादन का भूत सवार हुआ। लिखता तो वह पहले से ही था।
देवेश ने उसे सुझाव दिया था कि साझा संकलन निकाले। नवोदित छपने की एवज में अपनी एक- एक प्रति तो खरीद ही लेंगे।
उसने अपने मित्र देवेश की बात मानते हुए धड़ाधड़ कई संकलन निकाल दिए। अपने नाम से प्रकाशन विभाग भी रजिस्टर्ड करा लिया था।
पुस्तक मेले में कर्ज लेकर एक स्टॉल भी बुक कर लिया। बिक्री के लिए दो लड़के भी पगार पर रख लिए। आज पुस्तक मेले का आखिरी दिन है और उसे दूर-दूर तक ग्राहक नहीं दिख रहे हैं। खुद उसका दोस्त देवेश भी अपनी मंडली के साथ किताबें खरीदने नहीं आया। पंद्रह-बीस लेखक तो हुज्जतबाजी करके लेखकीय प्रति तक उससे झटक कर ले गए।
वह आँखों के सामने पड़ी किताबो की खेप की देख रहा था। कर्ज़ के बढ़ते सूद का खयाल उसे उद्वेलित करने लगा।
वह नौकरी से रिटायर हुआ था, रिटायरमेंट के पैसा मिल चुका था। उसे प्रकाशन और सम्पादन का भूत सवार हुआ। लिखता तो वह पहले से ही था।
देवेश ने उसे सुझाव दिया था कि साझा संकलन निकाले। नवोदित छपने की एवज में अपनी एक- एक प्रति तो खरीद ही लेंगे।
उसने अपने मित्र देवेश की बात मानते हुए धड़ाधड़ कई संकलन निकाल दिए। अपने नाम से प्रकाशन विभाग भी रजिस्टर्ड करा लिया था।
पुस्तक मेले में कर्ज लेकर एक स्टॉल भी बुक कर लिया। बिक्री के लिए दो लड़के भी पगार पर रख लिए। आज पुस्तक मेले का आखिरी दिन है और उसे दूर-दूर तक ग्राहक नहीं दिख रहे हैं। खुद उसका दोस्त देवेश भी अपनी मंडली के साथ किताबें खरीदने नहीं आया। पंद्रह-बीस लेखक तो हुज्जतबाजी करके लेखकीय प्रति तक उससे झटक कर ले गए।
वह आँखों के सामने पड़ी किताबो की खेप की देख रहा था। कर्ज़ के बढ़ते सूद का खयाल उसे उद्वेलित करने लगा।
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