Thursday, 11 January 2018

मैं संपादक बन गया"-१ /लघुकथा

संदीप तोमर/"मैं संपादक बन गया"/लघुकथा

अखिल और देवेश पक्के दोस्त थे।दोनो ही लिखने के शौकीन।लेकिन एक बात थी लिखने से उन्हें कुछ खास मिल नहीं रहा था जिससे घर- बार चल सकता।देवेश तो जैसे- तैसे दाल रोटी का जुगाड़ कर लेता, अखिल के यहां हर दिन चौमास का दिन था।
आज दोनो दोस्त भविष्य की योजना बनाने के लिए बैठें हैं। देवेश ने कहा-" मेरे पास एक योजना है।वारे के न्यारे हो जाएंगे। समझ ले तेरा काम बन गया।"
" ठीक है बता क्या स्कीम है तेरे पास?"
"हम अलग-अलग विधाओं पर साझा संकलन निकालते हैं। अब हर कोई छपना चाहता है।"
"छपना तो चाहता है लेकिन हजार- पांच सौ रुपये कोई देना नहीं चाहता। फिर पैसा कहां से लगेगा?"
"उसका भी इलाज है, मेरा एक दोस्त प्रकाशक है, अठारह हज़ार रुपये में तीन सौ प्रतियां छाप देगा। हम लेखक से कुछ नहीं लेंगे। सौ लोगो की एक-एक पन्ने की रचना लेंगे। तीन सौ रुपये मूल्य भी रखा तो लेखक को तीस प्रतिशत की छूट पर हमने दो सौ दस में लेखक को बेच देनी है।अब जो छपा है वो अपनी रचना की प्रति अपने पास तो रखेगा ही न।लेखकों से ही इक्कीस हजार आ गया। बाकी बची 200 प्रतियों से सौ का मुनाफा हमारा, बाकी सौ का प्रकाशक का।"
"अरे वाह इसे कहते हैं- हल्दी लगे न फिटकरी रंग भी चौखा होए।"
अखिल की आंखों में चमक आ गया थी।

4 comments:

  1. क्या असलियत में ऐसा होता है ?

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    1. जी कथाएं यथार्थ से ही जन्म लेती हैं।

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  2. इसे दुबारा पढ़ने की जरूरत है।

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  3. दोबारा ? यानि?

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