Monday, 10 May 2021

एक अपाहिज की डायरी - आत्मकथा भाग-15

पंद्रहवां भाग   

एक हफ्ते स्कूल से बिना बताये मैं गायब रहा। इस बीच मैंने बी.टी.सी में दाखिला लिया, उसके बाद स्कूल गया, प्रिंसिपल ने मनेजर को फोन करके बुला लिया था, बातचीत शुरू हुई तो मनेजर ने कहा-“आपने बिना बताये जॉब छोड़ी हम आपको सैलरी नहीं देंगे।“

“मनेजर साहब, ये कोई आई.ए.एस. की जॉब नहीं, जिसके लिए मैं अपना फ्यूचर न देखूँ, आपको सैलरी नहीं- देनी मत दीजिये।“ मैं बस औपचारिक रूप से बताने आया था कि आप अपनी व्यवस्था कर लें, मैं अब अपनी सेवाएँ नहीं दूँगा।“

“धन्यवाद, आपने आकर बताया।“-मुझे मनेजर की टोन से परेशानी जरुर हुई लेकिन कहा कुछ नहीं।

“अच्छा मनेजर साहब इजाजत हो तो मैं बच्चो से मिल सकता हूँ?”

“नहीं, आप मेरे स्कूल के बच्चो से नहीं मिल सकते। आपने इन्हें अपना समझा होता तो आप इन्हें यूँ बीच में छोड़कर नहीं जाते।“

“किसी के आने या जाने से दुनिया ख़त्म नहीं हुआ करती मनेजर साहब, स्कूल आपका, मर्जी आपकी। जिन्दगी रही तो फिर कभी मुलकात होगी।“-कहकर मैं स्टाफ रूम में गया, जो उस समय उपस्थित थे उनसे मिला, और वापिस कमरे का रुख किया। रुपाली से मिलना मैंने जरुरी नहीं समझा।

बी टी सी में दाखिला लिया तो पता चला कि यहाँ होस्टल में रहना जरुरी था। होस्टल क्या था अंग्रेजो के ज़माने की एक खंडहरनुमा ईमारत थी। कुछ दिन तो मन ही नहीं लगा। मैं अक्सर होस्टल से गायब हो जाता। नीलू अब अकेला कोचिंग दे रहा था। शनिवार को तो मैं अक्सर होस्टल की बजाय कमरे पर गुजारना बेहतर समझता।

एक शाम एडमिशन लेने और नौकरी छोड़ने की खबर बलजीत को देने का मन बनाया। शुगर मिल के ऑफिसर रेंक के स्टाफ-क्वार्टर का रुख किया। जग्गी साहब के नाम से पूछते हुए क्वार्टर तक पहुँच ही गया। डोर बेल बजायी तो एक महिला दरवाजा खोलने आई-“जी कहिये किससे मिलना है?”

“जी बलजीत मैडम से मिलना था? क्या वो यहाँ पर हैं?”

“एक मिनट”- कहकर महिला अन्दर चली गयी। कुछ देर बाद बलजीत आई, दरवाजे पर देख उसे आश्चर्य हुआ। हाय-हेल्लो के बाद बलजीत ने अन्दर बुलाया।

चाय-पानी के दौर के साथ ही बातचीत का दौर शुरू हुआ। बलजीत को मैंने बताया कि दाखिला होने के चलते मैंने स्कूल छोड़ दिया है और मनेजर ने मुझे दो महीने की सैलरी का बकाया देने से मना कर दिया। बलजीत ने बताया कि उसे भी ऐसे ही कहा गया था लेकिन उसने अपनी पूरी सैलरी ले ली थी।

दोनों ही वो बातें कर रहे थे जो नहीं करना चाह रहे थे और वो बातें नहीं कर पा रहे थे जो करना चाह रहे थे, बहुत कुछ दोनों के बीच अनकहा रह गया था।

कुछ वक़्त बैठने के बाद मैंने चलने की इजाजत ली, औपचारिकतावश बलजीत दरवाजे तक साथ आई, वहाँ से चला तो बलजीत ने चिरपरिचित अंदाज में कहा-“बाय-बाय सर।“

मैंने बदले में हाथ हिलाकर बाय किया।

होस्टल में रहकर अध्यापक प्रशिक्षण हो रहा थाये जर्जर इमारत अपने जर्जर होने की खुद ही गवाह थीशायद पिछले 20 सालों से इसमें कुछ भी नहीं बदला हो। इस होस्टलनुमा  के पीछे एक बाग़ था जिसमें से शाम होते ही मच्छरों का रेला निकालकर कमरे में घुसता था, रोज एक टिक्की गुड नाईट की 200 वाट के बल्ब पर रखकर पहले मच्छरों को बेहोश किया जाता था फिर झाड़ू से उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया जाता। तब जाकर पढ़ाई शुरू होती। दिन में क्लास के बाद पाउडर के दूध की चाय बनाकर पीना और सो जाना और रात भर पढ़ना होता। अनिल, परविंदर और सुदीप तीनो एक ही साथ एक कमरे में रहते। ये कमरे काफी बड़े-बड़े थे। कहा जाता था कि ये ईमारत अंग्रेजो ने अपने ऑफिसर्स को रखने के लिए बनायीं थी, लेकिन अभी इसकी हालत ऐसी थी कि लोग इसमें रहते हुए डरते थे। सांप का निकल आना यहाँ आम बात थी। हालाकि पुरातत्व विभाग ने इस इमारत को खारिज किया हुआ था, फिर भी इसे क्यों इस्तेमाल किया जा रहा था ये किसी को मालूम नहीं था। मेस के नाम पर एक रसोई थी, जिसमें चूल्हे पर खाना बनता था, रसोई के सामने एक मेज लगी थी- जहाँ खड़े होकर खाना खाते। अनिल ने कमरे के बाहर लिख दिया था-“शाही हवेली”, लोग सोचते कि शाही हवेली में तो तीनों अनिल, परविंदर और सुदीप सोते रहते हैं, ये क्या खाक पढ़ेंगे? होस्टल से घर जाने की मनाही होती लेकिन तीनो को तो जैसे नियम तोड़ने में भी आनन्द आता था, लिहाजा हमने घर जाना बदस्तुर जारी रखा। मिस्टर जोहरी होस्टल वार्डन और ऑफिसियेट प्रिंसिपल। वे अनिल और मुझसे तंग थे और हम दोनों उनसे।

२३ जनवरी के दिन नेताजी सुभाष की जयंती मनाई जा रही थी, सब स्टूडेंट्स हॉल में इकठ्ठा थे, मिस्टर त्यागी स्टेज संचालित कर रहे थे। उन्होंने प्रतिभागियों के नाम अनाउंस किये- जिसमें मेरा भी नाम था। आश्चर्य हुआ कि मेरा नाम किसने लिखवा दिया। मैंने मिस्टर वर्मा से इजाजत माँगी कि मैं कुछ देर के लिए होस्टल जाना चाहता हूँ। इजाजत मिलने पर कमरे से डायरी उठाकर लाया, संभवतः पहली बार कोई कविता लिखी, अपनी बारी आने पर कविता पाठ किया-

तीन राष्ट्रीय पर्व हैं जिन्हें हम सम्मान मनाते

वो २६ जनवरी, १५ अगस्त, 2 अक्तूबर के दिन आते

बात सुभाष जयंती की करता हूँ आज

उड़ रहा है जिनके देश का उपहास......

काव्य पाठ पूर्ण हुआ तो खूब तालियाँ मिली, कार्यक्रम की समाप्ति के बाद सब अध्यापकों ने शाबासी दी, मिस्टर वर्मा ने कहा-“सुदीप तुम्हारे अन्दर बहुत प्रतिभा है- इसे निखारो।“

मैंने मिस्टर वर्मा को धन्यवाद दिया और होस्टल आ गया। शनिवार आया तो घर पहुँच गया। २० फ़रवरी को सुप्रिया की शादी होना तय हो चुकी थी, नीलू और मैंने निमंत्रण का मैटर तैयार किया। ट्यूशन से जो पैसा बचाया था उसे पिताजी को सुपुर्द कर दोनों ने राहत कि साँस ली कि पिताजी को कुछ तो मदद कीकार्ड छपकर आये तो उन्हें बाँटने का काम शुरू हुआ। मैंने गर्ल्स होस्टल और बॉयज होस्टल दोनों के अलग-अलग कार्ड दिए। 

२० फरवरी को मैं और मेरे दोस्त बारातियों की आवभगत में लगे रहे, यश चाचा के संरक्षण में सब वेटर का काम देखते रहे। होस्टल से सीनियर और बैच के कई लड़के आये थे, गर्ल्स होस्टल से अलग-अलग गिफ्ट भिजवाये गए थे। नए दोस्तों का आना अच्छा लगा। वो लोग रुके नहीं, रात में ही वापिस लौट गए, मैं उन्हें सबको और गर्ल्स के लिए लड्डू देना नहीं भूला था। 

सारी रात जाग कर काटी सुबह पाँच बजे सुप्रिया विदा हुई, लगा जैसे कोई मेरे कलेजे को मुझसे अलग कर रहा है। सुप्रिया दीदी की विदाई के बाद जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ी आँसुओ की रफ़्तार उससे भी तेज थी, कितने ही दोस्त जो अलग-अलग जगह से आये थे विदा लेते रहे मुझे पता ही नहीं, कोई सुध ही नहीं, बबलू कब विदा लेकर हरिद्वार के लिए निकला, कब किस-किस ने विदा ली, मुझे कुछ नहीं पता था, बस मैं रोता रहा। आज मैं खुद को अकेला बहुत अकेला महसूस कर रह था। सुप्रिया दीदी ही तो थी जिससे अपने सब दुःख-सुख शेयर किया करता था, शाम तक ऑखें सूज कर मोटी हो चुकी थी, उस दिन मैंने खाना नहीं खाया, अगले दिन वर-पक्ष ने रिसेप्शन रखा था, मैं उसमें भी नहीं गया, उसी दिन बैंक का एग्जाम था जिसे अनिच्छा से दिया।

सुप्रिया दीदी ससुराल से पहली बार आई तो मैं बुझा-बुझा सा रहा, ज्यादा बात भी नहीं कर रहा था, सुप्रिया दीदी ने पूछा कि मेरे छोटू भाई क्यों तू ऐसे बुझा-बुझा सा है तो मैंने कहा-कुछ नहीं जीजी, अकेले रहने कि आदत डाल रहा हूँ, आप तो आज शाम को ही वापसी ससुराल चले जाओगे फिर अकेले ही रहना है।“ 

सुप्रिया दीदी की शादी के बाद मैं बहुत अकेला सा हो गया था। होस्टल गया तो अब पढाई शुरू हो चुकी थी, मिस्टर वर्मा असेम्बली इंचार्ज थे, उन्होंने एक नियम बनाया कि हर रोज एक छात्र असेम्बली में एक विषय पर कुछ बोलेगा। शुरुवात मुझसे ही हुई थी, शनिवार के दिन असेम्बली को सम्बोधित करते हुए ‘समय की महत्ता’ पर प्रकाश डाला, सभी भाषण-कौशल और शब्द-संचयन से प्रभावित थे, अगर कोई प्रभावित नहीं था तो वो थे मिस्टर जोहरी। शनिवार होने के चलते मैंने दोपहर होते ही अपने घर के लिए प्रस्थान किया।

सोमवार को बस न मिलने के चलते वापसी में लेट हो गया जब वह पहुँचा तो असेम्बली लगभग ख़त्म हो चुकी थी, असेम्बली में ही मिस्टर जोहरी ने कहा-“परसों समय की महत्ता पर लम्बा-चौड़ा आख्यान देने वाले खुद समय की महत्ता को नहीं जानते।“ उन्होंने असेम्बली के बाद ऑफिस में आकार मिलने को कहा। बैग मेरे कंधे पर टंगा था। होस्टल अपने रूम में गया, बैग रखकर प्रिंसिपल साहब के ऑफिस पहुँचा। जोहरी साहब बोले-“मिस्टर सुदीप, विकलांग कोटे में दाखिला मिलना तो आसान है, लेकिन मैं देखता हूँ- कैसे यहाँ से ट्रेनिंग पूरी करके जाते हो?”

मेरे शरीर में खून खोल गया, मन किया अभी..... लेकिन अपने गुस्से पर संयम किया, और बोला-“सर, मैंने क्या किया जो आप ऐसा बोल रहे हैं?”

“तुम संस्थान के सबसे उद्दंड बालक हो, नियम तोड़ते हो, जब मर्जी यहाँ से भाग जाते हो। ऐसे ट्रेनिंग करोगे, क्या सोचते हो, विकलांग होकर लोगो की सहानुभूति ले लोगे?”

“सर आप बार-बार मुझे विकलांग होने का अहसास क्यों जता रहे हैं?”

“क्योंकि, तुम जैसे लोग इसका फायदा उठाते हैं। देखता हूँ तुम कैसे ..... ।“

“बस सर बहुत कह लिया आपने? अब सुनिए, मैं आज तक जहाँ भी पढ़ा, न मैंने किसी से अहसान लिया, न ही कोई फायदा ही उठाया, हाँ मेरे स्कूल के टीचर आज भी लोहा मानते हैं, आप देख लेना, रिजल्ट सब बता देता है, आज मैं आपकी किसी बात का जवाब नहीं दे सकता, लेकिन वक़्त आने पर आप भी देखेंगे।“

इससे पहले जोहरी साहब कुछ और कहते मैं उनके ऑफिस से बाहर निकल आया। दिमाग भन्ना गया था, होस्टल का रुख किया। होस्टल में कोई नहीं था, कमरा बन्द किया और कुर्सी पर बैठ गया। मन ग्लानि से भर गया था। स्वयं को अपमानित महसूस करता रहा। सोचता रहा---

“क्या गुनाह किया है मैंने? अपाहिज हूँ ये मेरा गुनाह है? लोग मुझे इसका अहसास क्यों दिलाते हैं? क्या कसूर है मेरा? क्या मैं औरो से बेहतर नहीं पढता? क्या मैं लोगो से सहारा माँगता हूँ? क्या मेरा गुनाह ये हैं कि मुझे पढने की चाह है, आज जोहरी जैसे लोग मुझे अहसास दिला रहे हैं, कल सारा समाज ऐसा करेगा? क्या मेरा जीना बेफिजूल है, क्या मुझे जीना नहीं चाहिये? क्यों जोहरी जैसे लोग हमें अहसास दिलाते हैं कि तुम अपाहिज हो? क्या पिताजी की सारी तपस्या बेकार जाएगी? क्या मैं गुनाहगार हूँ?”

मैं फूट-फूट कर रोया। मेरे रुदन को सुनने वाला कोई नहीं था, खुद को सांत्वना दी-“सुदीप, तुम्हें खुद को साबित करना है, ऐसे हजार जोहरी मिलेंगे. सबको जवाब देना होगा, कब तक आखिर कब तक लोगो की बकवास सुनते रहोगे? तो क्या अभी ऑफिस जाकर जवाब दिया जाए?नहीं सुदीप, तरक्की.... तरक्की... तरक्की ही सबसे बड़ा जवाब है, तुम्हें अब संस्थान में टॉप करना है, तब ही जोहरी जैसे लोगो की आँखें खुलेंगी।“

मैंने खुद में नई ऊर्जा का संचार पाया, पास में रखे पानी के जग को उठाया, और अपने मुँह पर उडेला, पानी से उसके कपडे गीले हो गए, इस गीलेपन से कलेजे को ठण्डक मिल रही थी, मैं कुर्सी पर बैठा रहा।

क्लास ख़त्म हुई तो अनिल ने आकर दरवाजा खटखटाया। तब तक सामान्य हो चुका था, किसी को इस विषय में कुछ भी बताना उचित नहीं समझा। 

अनिल को बीड़ी पीने की लत थी। कमरा गन्दा रखता। जोहरी साहब होस्टल वार्डन भी थे। अनिल से कमरा साफ़ करवाने का एक तरीका निकाला जब हमें लगता कि आज कमरा साफ़ कराना है तो हम बाहर जाते और आकर कहते कि जोहरी साहब कमरों की चेकिंग करते हुए आ रहे हैं। बस फिर क्या अनिल हवेली को शाही बना देता। कमरे की सफाई हो जाती। 

जो भी स्टूडेंट अपने घर जाता कुछ न कुछ घर से लाता था। एक था चंद्रपाल, पान खाने का शौकीन, घर से कुछ लाता तो किसी को नहीं खिलाता, ताला लगाकर रखता। मैं और अनिल उसे लालच देकर महावीर चौक भेजते और पीछे से उसकी अलमारी का ताला तोड़ देते। उसने जो कुछ भी गॉव से लाया होता उसे सब उड़ा जाते। बाद में वह सबको बहुत गाली देता। 

हर एक लड़के का अपना हुनर था। पूरे बैच में 25 स्टूडेंट थे। 8 लड़के 17 लड़कियाँ। कुछ जोड़े भी बने। कोई किसी पर मेहरबान तो कोई किसी पर मेहरबान। एक थी संयोगिता, वो चुप रहती। ‘न काहू से दोस्ती न काहु से बैर।‘ माहौल कुछ ऐसा बना कि लड़के गर्ल्स होस्टल में चले जाते जब जिसका मन होता जाकर लड़कियों से चाय बनवाकर पी आता। मेस में खाना सिर्फ दो ही टाइम बनता था, सुबह आठ बजे या फिर रात को आठ बजे, पूरे १२ घण्टें भूखा रहना सम्भव नहीं था, सबने अपने-अपने कमरे में छोटे गैस के सिलेंडर रखे हुए थे। पाउडर के दूध की चाय बनती।

एक दिन बैठे-बैठे एक आर्टिकल लिखा “वो चेहरे भुलाऊँ कैसे?” कागज जेब में डाले हुए  था। गर्ल्स होस्टल के लिए परविंदर और मैं दोनों ही निकले थे। एक लड़की के कमरे में महफ़िल जम गयी, बातों ही बातो में जिक्र छिड़ा- सबके प्रेम-किस्से उजागर हो चुके हैं, सुदीप साहब का नहीं मालूम चलता? मैंने कहा-चलिए दोस्तों आज आपको अपनी एक रचना सुनाते हैं, आप समझ जाना।“ मैंने परचा जेब से निकाला और पढ़कर सुनाया तो जहाँ बात पहुँचानी थी वहाँ तक चली गयी थी । इशारा जहाँ था वो शरमा कर रूम से बाहर चली गयी। बाद में लड़कियाँ बोली- “सुदीप जी हमें मालूम हो गया कि ये अल्फाज किनके लिए हैं? इस घटना के बाद से संयोगिता ने और अधिक चुप रहना शुरू कर दिया। उसकी चुप्पी मुझे तंग करती लेकिन न मैंने उससे कभी कुछ कहा, न ही उसने मुझसे कोई शिकायत ही की।

अनिल मेरा रूम-पार्टनर ही नहीं पक्का दोस्त भी बन गया था- महाखर्चीला। बस बीडी की उसकी लत नहीं छूट पाई, उनकी वजह से मेरी कई शर्ट जली। बीड़ी पीता तो कपडे जलाता। मैं हफ्ते भर के कपडे बैग में भरकर धुलवाने घर ले जाता। घर पर डॉट भी पड़ती। लेकिन अनिल को नहीं सुधरा जा सकता था।

एक लड़की का अनिल पर दिल आ गया। बेचारा शर्मीला। पीछे से कहता कि उससे शादी हो जाए तो लाइफ बन जाए। किसी तरह मैंने और परविंदर ने उसे मैसेज भिजवाया और दोनों को एक पेड़ के नीचे ले जाकर खड़ा कर दिया। लड़की थी हिम्मतवाली, उसने कहा अनिल अगर आप चाहे तो मेरी मांग में अपने नाम का सिन्दूर भर दें। लेकिन साहब बोले मेरा पेट खराब है। बाद में बात करता हूँ। जनाब लड़की को पेड़ के नीचे खड़ा छोड़कर होस्टल आ गया। मैंने उसे समझाया कि देख अनिल, तू उससे शादी कर लेगा तो अच्छा रहेगा, दोनों की नौकरी लग जाएगी, जिन्दगी आराम से कटेगी। लेकिन वह बोला कि उनके घर वाले मुझे काली मोटर साइकिल नहीं दे पाएँगे। ये लड़की गरीब परिवार से है, मेरे घर वाले नहीं मानेंगे। धीरे धीरे इस प्रेम कहानी का बिना किसी अंजाम के अन्त हो गया। इस घटना का प्रभाव ये हुआ कि मुझे दहेज़ नाम से चिढ हो गयी, बाद इस पर एक आलेख भी लिखा।

जोहरी साहब छुट्टी वाले दिन स्टूडेंट्स को चैन से नहीं बैठने देते, कभी क्यारियों की घास निकलवाने का काम, कभी क्यारी बनवाने का काम, मैंने कभी खेत नहीं देखे थे, कभी जरुरत भी नहीं समझी थी, बस कभी-कभी सुकेश भैया के साथ घर की छोटी सी क्यारी में पौधे लगवाये थे, और क्यारी भी बनवाई थी। मैं इतने बड़े संस्थान की बागवानी कैसे करवा सकता था? जोहरी साहब स्पेसियली मुझे बुलवाते और टारगेट देते कि तुम्हें आज इतनी दूर तक ये क्यारी बनवानी है, मेरे लिए नीचे बैठकर आगे सरकना बड़ी मुसीबत का काम था, मुझे लगता कि मुझे टॉर्चर किया जा रहा है, लेकिन शिकायत भी करें तो किससे? मिस्टर जोहरी ही प्रिंसिपल भी और वार्डन भी। मन विद्रोह कर बैठा। ठान लिया कि जब भी ऐसे-वैसे काम दिए जायेंगे, जानबूझकर गलत करूँगा।

एक शनिवार की शाम हम तीनों रूम पार्टनर रात भर मस्ती करते रहे, सुबह सबके कमरों के दरवाजे खुले थे, हम तीनों को छोड़कर। जोहरी साहब राउण्ड पर थे, तीनों को सजा मिली, अनिल और परविंदर को पौधों की छटाई और मुझे दस कमरों के दरवाजो के किवाड़ पेंट करने थे।

एक डिब्बे में गेरू, तारपीन का तेल मिलाकर स्टूल पर रखकर मैंने ब्रुश चलाना शुरू किया। एक किवाड़ पर ही रंग किया कि कमर जबाब दे गयी, अचानक स्टूल को लात जड़ी, पेंट दूर-दूर तक बिखर गया। जोहरी साहब उधर से आये नजारा देख बोले-“सुदीप ये सब क्या है? ये पेंट कैसे गिरा?”

“जी सर, वो... मैं पेंट कर रहा था कि अचानक डिस-बैलेंस हुआ और गिर गया, सर पैर  मुड गए, बहुत दर्द हो रहा है।“- दर्द का अभिनय करते हुए मैंने कहा।

जोहरी साहब के पास कहने को कुछ नहीं था, जानते हुए भी कि ये सब बहानेबाजी है, वो सिर्फ इतना कहकर चले गए- “जाओ कमरे में जाकर कपडे बदलो और आयोडेक्स लगा लो, न हो तो अनिल को मेरे क्वार्टर भेजकर मँगवा लो।“

टीचिंग प्रैक्टिस शुरू हुई तो मेरी लेसन प्लान बेस्ट होती, टीचिंग क्लास में रिमार्क भी अच्छे मिलते। फर्स्ट इयर के एग्जाम भी अच्छे हुए। रिजल्ट आ चुका था। मेरे रिजल्ट की चर्चा थी, पहला स्थान जो था, दूसरे स्थान पर संयोगिता थी। रिजल्ट अच्छा आने ख़ुशी नहीं हुई, जैसे ही मार्कशीट हाथ में आई, जोहरी साहब के ऑफिस का रुख किया।  

“मेय आई कम इन सर”- मैंने मजबूरीवश ही सही औपचारिक परमिशन ली थी।

जोहरी साहब कुछ फाइलों में उलझे थे, एक नजर ऊपर उठाकर फाइल्स बन्द करते हुए बोले-“कम इन, बोलो सुदीप क्या काम है?”

“सर, कुछ कहना चाहता था, लीजिये मेरी फर्स्ट इयर की मार्कशीट, आपने उस दिन कहा था- विकलांग होकर कोटे में एडमिशन लेना आसन है, देखता हूँ कैसे ट्रेनिंग पूरी करके जाते हो? सर, देखिये पूरा गजट आपकी टेबल पर भी होगा, फर्स्ट इयर तो टॉप कर लिया है, इन्साल्लाह फाइनल भी यूँ ही हो जायेगा।“

“इसका अभिमान?”

“अभिमान नहीं सर, मैं आपको ये कहना चाहता हूँ कि किसी को इस तरह बेइज्जत नहीं करना चहिये, उसे उसके विकलांग होने का यूँ अहसास नहीं दिलाना चहिये, हर लड़का सुदीप नहीं होता, बहुत से लड़के आपके जैसे लोगो की वजह से डिप्रेशन में आ जाते हैं, और सर कुछ तो सुसाइड तक कर लेते हैं, सर! मेरी रिक्वेस्ट है- किसी को यूँ जलील न कीजिये कि कोई सुदीप न बनकर जीवन ही खत्म कर ले।“-मुझे खुद नहीं मालूम था कि मैं किससे क्या कह रहा था।

“गेट आउट फ्रॉम माय ऑफिस।“- जैसे जोहरी साहब ने कुछ सुना ही न हो।

मैं ऑफिस से बाहर आ चुका था, जोहरी साहब को छोड़ सबने ही बधाई दी थी, दोस्त लोगो ने तो बीयर पीने की इच्छा जाहिर की थी। यूँ तो मैं इसे बड़ी ख़ुशी नहीं मान रहा था, लेकिन दोस्तों को पार्टी देना उचित जान पड़ा। गर्ल्स होस्टल इस बात से दुखी था कि टॉपर उनके होस्टल से क्यों नहीं है? हालाकि अधिकांश लड़कियों ने मुझे बधाई दी थी, लेकिन संयोगिता शांत ही रही, मैंने उसके मौन नयनों की भाषा को पढना चाहा लेकिन निराशा ही हाथ लगी थी।

सेकिंड इयर की पढाई शुरू हो चुकी थी। जोहरी साहब का टीचिंग ऑफ़ इंग्लिश का पीरियड था। मुझे यूँ तो जोहरी साहब के अलावा सभी टीचर लाइक करते थे, मेरी छवि संस्थान के सबसे होनहार स्टूडेंट के रूप में बन चुकी थी, फिर भी डर था कि जोहरी साहब कुछ भी कर सकते हैं, किसी भी हद तक जा सकते हैं, पढाई में मेहनत शुरू कर दी, मोड्यूल बनाने का काम हो या टीचिंग प्रैक्टिस की फाइल का काम हो, मैं खूब मेहनत करने लगा अब पिछले साल की तरह घर जाना भी बन्द कर दिया था। फाइनल इयर की टीचिंग प्रैक्टिस ख़त्म हुई तो प्रैक्टिकल की डेट्स आने लगी थी, लगातार तीन छुट्टी थी, परविन्द्र ने रूम बदल लिया था। मैं और अनिल दोनों ही अपने-अपने घर चले गए, अनिल की तो शादी की बातचीत चल रही थी, मैंने सोचा कि छुट्टी है अकेला क्या करेगा? इसी बीच साइंस और मैथ्स का फाइनल प्रैक्टिकल हो गया, खान साहब ने एक्जामिनर को होटल में ले जाकर पार्टी दी, और मेरे और अनिल दोनों के ही मार्क्स रखवाए।

एग्जाम शुरू हुए तो सब स्टूडेंट्स मेहनत में लगे हुए थे। अंग्रेजी के एग्जाम में अनिल की हालत खराब थी, अपना और अनिल दोनों का पेपर लिखा, अनिल का पेपर हिन्दी में लिखा लेकिन अंग्रेजी अच्छी होने के चलते खुद का पेपर अंग्रेजी में ही लिखा। सारे एग्जाम अच्छे हुए थे।

एग्जाम के बीच में ही अनिल की शादी हो गयी थी। बड़ा अजीब लगा कि लड़की की पढ़ाई से ज्यादा बड़ी मोटर साइकिल हो गयी। मात्र एक मोटरसाईकिल की वजह से उसने मात्र बारहवी पास लड़की से शादी के लिए हाँ भर दी थी। बारात वाले दिन भी एग्जाम था। एग्जाम होने के चलते अनिल शादी वाले दिन सुबह गॉव से एग्जाम देने आया था, एग्जाम के बाद बारात में जाने वाले स्टूडेंट्स खुली जीप में चले, मैंने कुछ बियर और विस्की की बोतल जीप में डाल ली थी, हमसे कुछ ही दूरी पर टीचर्स की कार थी, मैंने जीप ड्राईवर को पीछे चलने को कहा ताकि वो सब बियर पी सकें, मिस्टर जोहरी को शक हुआ तो उन्होंने कार को धीमा कर लिया था।

शादी के बाद जोहरी साहब ने कई टीचर्स को बोला भी- “देखा आप लोगो ने सुदीप अपाहिज होते हुए भी वो सब करता है जो उसे नहीं करना चाहिए।“

एग्जाम के बाद सब लोग अपने-अपने घर चलने की तैयारी कर रहे थे, अनोखा दिन था, कुछ कपल्स कमरे बन्द होकर अंतिम मिलन कर रहे थे, मैंने आज किसी का इन्तजार नहीं किया, मैं और अनिल अपने सामान को रिक्शा में रख बस स्टैंड की तरफ चल दिये, दोनों ने इस दोस्ती को कयाम रखने का वादा किया।

रिजल्ट आया तो आश्चर्य हुआ, मात्र अंग्रेजी में ही कम मार्क्स थे, अनिल का पेपर मैंने लिखा था अनिल को अंग्रेजी में पचास में से पैंतालिस मार्क्स मिले थे वहीँ मुझे सत्ताईस मार्क्स, इस बार का टॉपर मैं नहीं था, अंग्रेजी के इन्टरनल में भी पच्छीस में से १२ अंक ही मिले थे। मैं  सेकिंड टॉपर था, संयोगिता इस बार की टॉपर थी।

पम्मी का एम.एस.सी. (मैथ्स) का फर्स्ट इयर हो चुका था, बबलू ने डिप्लोमा इन पर्सनल मनेजमेंट में दाखिला लिया था। विपिन नौकरी कर रहा था। मैंने भी अब एम.एस.सी (मैथ्स) में दाखिला लेने का विचार बना लिया। एस.डी. कॉलेज में उसने दाखिला ले लिया। रोज गॉव से आना-जाना मुश्किल था, ट्रेन से आने जाने लगा।

जिस ट्रेक पर ट्रेन प्लेटफोर्म पर रूकती थी वहाँ से कॉलेज जाने के लिए बहुत दूर से घूमकर जाना पड़ता था, इसलिए सब स्टूडेंट्स सॉर्ट रास्ते का इस्तेमाल करते, उसके लिए सिर्फ दो ट्रेक को पार करके पुल के नीचे पहुँचना होता था, वहाँ से मेन रोड नजदीक पड़ती थी। यूँ तो मैं रोज रिक्शा से कॉलेज जाता था। आज मैं भी शोर्ट रास्ते से जाने की सोच ट्रेक पार करने लगा, अभी एक ट्रेक को पार करके दूसरे ट्रेक पर पहला ही कदम रखा था कि पैर फिसल गया, इतेफाक था कि उसी ट्रेक पर सुपर फ़ास्ट ट्रेन आ रही थी, ट्रेन की दूरी बहुत कम थी, किताबे हाथ से छूट गयी थी, सामने से ट्रेन के रूप में मौत आती दिखाई दी, एक पल के लिए भी सोचने का वक्त नहीं था, गिरे-गिरे ही दोनों हाथ पत्थरों पर टिका जम्प लगाई, अब मैं ट्रेक के दूसरे पार था, एक तार हाथ में आ गया, जब तक ट्रेन नहीं गयी तार को नहीं छोड़ा, ट्रेन की रफ़्तार होने की वजह से ट्रेन उसे अपनी और खींच रही थी, अगर गलती से भी तार हाथ से छूटा होता तो ट्रेन के साथ लिपटा होता।

ट्रेन जा चुकी थी, मैंने देखा- कपडे फट गए थे, घुटने बुरी तरह से लहूलुहान थे, दर्द के मारे कराह रहा था। अब तक कुछ लोग आस-पास इकट्ठे हो गए थे। उन्होंने पानी पिलाया और मदद के लिए पूछा, वापसी कि ट्रेन का इन्तजार करने को बोलकर उनका धन्यवाद किया। जो भी ट्रेन आई उसमे बैठ, घर वापिस आ गया। आज मैंने मौत को इतना करीब से देखा था कि एक पल भी अगर गंवाया होता तो मौत के मुँह में होता। सोचकर ही रोंगटे खड़े हो गए। एक हफ्ते तक दोबारा कॉलेज नहीं जा पाया।

जब तक ट्रेन से उतरता और रिक्शा पकड कलेज पहुँचता तब तक पहला पीरियड शुरू हो चुका था, चीफ प्रोक्टर साहब का पहला पीरियड होता वो रियल अनेलेसिस पढ़ाते थे, वह क्लास शुरू होने के बाद किसी को अन्दर नहीं घुसने देते थे, पहला पीरियड रोज मिस हो जाता। लास्ट पीरियड ट्रेन पकड़ने के चक्कर में मिस करना होता, कुल मिलकर एम्.एस.सी की पढाई चौपट हो रही थी।

1997 का अक्टूबर का महीना शुरू हो चुका था। पिताजी ने कहा कि विशाखापत्तनम में पोलियो का ऑपरेशन होता है, चलो! ये प्रयास भी करके देखते हैं। मैंने उन्हें कहा कि पिताजी मेरी एम.एस.सी मैथ्स की परीक्षा चौपट हो जायेगी। उन्होंने कहा- “अब तक पढ़ते ही रहे हो। ये भी जरुरी है, क्या पता कुछ फायदा ही हो जाए।“ मैंने उन्हें बहुत समझाया- “मैं जिस हाल में हूँ ठीक हूँ। आपने अब तक जितने भी प्रयास किये जितना भी मेरे लिए किया। उसका ऋण मैं ताउम्र नहीं उतार पाउँगा। उऋणी होने का तो प्रश्न ही नहीं होता।“

लेकिन पिताजी नहीं माने। विशाखापट्नम का टिकट करा दिया गया। दिवाली की शाम हम लोग विशाखापट्नम के प्रेमा हॉस्पिटल में थे। मेरा ऑपेरशन हो चुके कुछ पोलियोग्रस्त लोगों से बातचीत का मन हुआ। पहली बार दिवाली पर घर से दूर था। मन में दुःख भी था लेकिन पिताजी के मन का मान भी रखना था। 

घूमते हुए हॉस्पिटल के महिला वार्ड में गया। वहाँ दीवाली की मिठाई का आदान-प्रदान चल रहा था। एक छोटी सी बच्ची गुलाब-जामुन का डिब्बा लेकर पास आई बोली -"भैया हैप्पी दिवाली, लो मिठाई खाओ।" 

मैंने भी उसे दिवाली की शुभकामना दी और नाम पूछा। 

उसने अपना नाम सौम्या बताया और कहा कि मेरी दीदी का भी ऑपरेशन हुआ है। उन्होंने ही आपको मिठाई खिलाने को कहा है।

मैंने कहा-“सौम्या चलो हमें भी मिलाओ अपनी दीदी से।“

वो हाथ पकड़कर मुझे अपनी दीदी के बेड के पास ले गयी। 

मैंने अपना परिचय दिया-“जी, मेरा नाम सुदीप है, एम.एस.सी कर रहा हूँ, पिताजी की इच्छा थी कि पोलियो का ऑपरेशन कराया जाए, सोचा कि कुछ पेशेंट से मिलकर उनके अनुभव लिए जाए।“

“जी, मेरा नाम डॉ. रश्मि है। मैं एम.बी.बी.एस. की स्टूडेंट हूँ। दोनों पैर पोलियोग्रस्त हैं, दो ही दिन पहले मेरा ऑपरेशन हुआ है। दोनों पैरो में पोलियो होते हुए भी मैं स्कूल कॉलेज के हर कार्यक्रम में स्टेज पर एंकरिंग करती रही हूँ।"

“जी, आपका कॉन्फिडेंस देखकर अच्छा लगा।“

मेरे और रश्मि के बीच बहुत सी बातें हुई। रश्मि ने कहा- “अच्छा सर, आप जीवन को किस रूप में देखते हो?

मैंने जवाब दिया- "डॉ साहिबा, वैसे तो मैं बहुत ही बोल्ड हूँ। लेकिन कभी-कभी मन बहुत परेशान हो जाता है, तनाव होता है कि जो गुनाह किया नहीं उसकी सजा मिल रही है।“

उसने कहा –“सर जब भी तनाव हो, एक काम किया कीजिये, एक डायरी उठाइये और जो मन में आये लिख डालिये। फिर उसे पढ़िए देखना एक खूबसूरत रचना का जन्म होगा।“

मैंने कहा-“आप बहुत बोल्ड हैं, आज आपने मुझे एक नयी बात बताई, कभी सोचा ही नहीं था कि जिन्दगी को इस रूप में भी देखा जा सकता है, शायद मेरा कल ऑपरेशन हो, तब हम मिल भी न पाए, इस मुलकात को मैं हमेशा याद रखूँगा।“

हालाकि पहले भी थोडा-बहुत लिखता रहता था लेकिन उस रश्मि की बात में एक सच्चाई लगी। निर्णय किया कि जब कभी तनाव होगा, रश्मि के बताये नियम का प्लान करूँगा। 

अगले दिन ऑपेरशन हो गया था। ऑपरेशन के बाद जब होश आया तो खुद को एक फर्श पर पड़े हुए पाया, पिताजी नजदीक बैठे थे, सिर घूम रहा था, मैं जोर-जोर से सिर को जमीन पर पटकने लगा। पैरो में दर्द इतना कि मानो किसी ने हथोड़े चलाये हो। शाम हुई तो  एक बरांडे में एक बेड पर शिफ्ट कर दिया गया। पिताजी ने बताया कि आज यहाँ सौ से भी ज्यादा ऑपरेशन हुए हैं, डॉ. राव एक दिन में इतने ऑपरेशन कैसे कर सकते हैं। पिताजी से ही पता चला कि दो ऑपरेशन तो ऐसे हुए कि मानों यहाँ अंधेरगर्दी है, एक पेशेंट को शुगर थी और उसका ऑपरेशन कर दिया गया था, जिसके चलते उसके पैर में बहुत ज्यादा सुजन आ गयी थी। दूसरा केस ये हुआ कि किसी के बाएं पैर में पोलियो था और उसका दायें पैर का ऑपरेशन कर दिया गया था। ये दोनों घटना सुनकर आश्चर्य हुआ, मैं खुद पढ़ा-लिखा था, मुझे समझ आया कि ये सब इलाज नहीं बल्कि कुछ और ही सीन चल रहा है।

सौम्या और रश्मि के पापा रोज उससे मिलने आते। बहुत सी बातें होती, मैं रोज रश्मि के हालचाल पूछता, सौम्या रोज का समाचार मुझे सुनाती, जैसे सौम्या दोनों के बीच की कड़ी बन गयी थी।

शाम होते ही अस्पताल रुदन में बदल जाता था, ऐसा लगता मानो महाभारत के युद्ध के बाद युद्ध में जख्मी हुए अपनी अन्तिम साँस गिन रहे योद्धाओं का रुदन हो रहा हो, पिताजी कहते- “सुदीप बेटा, अकेले तुम ही हो जो इतनी हिम्मत वाले हो जो रोते नहीं, क्या तुम्हें दर्द नहीं होता?”

दर्द तो मुझे भी होता था लेकिन पिताजी को दु:खी करना और देखना नहीं चाहता था, जब पिताजी सो जाते तब रात भर रोता।

हस्पताल की हालत ऐसी कि वहाँ तिल रखने को जगह नहीं, मानो पूरा हिन्दुस्तान ही पोलिओग्रस्त हो, पिताजी पता नहीं कहाँ और कैसे रात काटते थे?   

एक दिन सौम्या आयी और बोली-“भैया आज हम जा रहे हैं। दीदी आपको मिस कर रही है। दीदी रोज आपके बारे में पूछती है।“

मैंने उससे कहा-“सौम्या, अपनी दीदी को बोलना हम भी उन्हें मिस करेंगे।“

सौम्या से पेपर और पेन लाकर देने को कहा, सौम्या कुछ ही देर में पेपर पैन लेकर आई, दो-चार पंक्तियों में कुछ कविता जैसा लिखकर सौम्या को दिया और बोला-“सौम्या, दीदी को बोलना सुदीप ने ये आपके लिए लिखकर दिया है।“

मैंने सोचा था कि कुछ रिप्लाई आएगा लेकिन उधर से कोई रिप्लाई नहीं आया।

वापसी की टिकट मिलने पर हम लोग वापिस आ गए। फरवरी में दोबारा प्लास्टर कटवाने जाना था। मुझे लगा कि कुछ इत्तेफाक हो और डॉ. रश्मि से मुलाकात हो, लेकिन जिन्दगी में ऐसे इत्तेफाक नहीं हुआ करते।

पोलियो के ऑपरेशन से कोई खास फायदा नहीं हुआ, एक नी-केज बनाकर दिया गया था। इसे पहनकर थोडा बहुत चलने लगा। पढाई न कर पाने के चलते अब एम.एस.सी के एग्जाम देने की कंडिशन में नहीं था।

उधर पम्मी पुणे चला गया था, अकेले मन भी नहीं लगता था। इस बीच प्राइमरी अध्यापक के लिए रिक्त पद निकले लेकिन मैंने अप्लाई नहीं किया। साथ के कितने ही लोग नियुक्त हो गए, लेकिन नियुक्ति बहुत दूर-दूर दी गयी थी, मुझे संतुष्टि थी कि फिर कभी मौका मिलेगा। चलने-फिरने लायक हुआ तो स्थायी रूप से दिल्ली में सटेल होने का मन बनाया, और एक दिन अपने डाक्यूमेंट्स और कपडे लेकर दिल्ली आ गया।

 क्रमशः

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