Monday, 10 May 2021

कुछ आँसू कुछ मुस्काने... (संदीप तोमर की आत्मकथा से )

 तिकड़ी नहीं बनी   

बत्तख पानी के ऊपर कितने चिकने और शांत तरीके से तैरती है, पर, पानी के अन्दर बिना आराम के वह अपना पैर हिलाती है। ऐसा ही कुछ लेखन से जुड़े लोगो के साथ भी है।

जब से लेखन में पदार्पण हुए लगभग उसी समय से हिंदी अकादमी से जुड़ा, ये जुडाव कार्यक्रमों और प्रकाशन योजना तक ही सीमित रहा। लगातार दो पुस्तकों को अनुदान मिलना संतोषप्रद रहा।

हिन्दी अकादमी से जुड़ने का एक फायदा ये अवश्य रहा कि अकादमी के बहाने ललित मिश्र, अखिलेश द्विवेदी ‘अकेला’, इरफ़ान अहमद ‘राही’, महेश कौशिक, शीलबोधी और ललित झा से मुलाकात हुई, इस परिचय से ललित मिश्र, और अखिलेश द्विवेदी ‘अकेला’ से प्रगाढ़ मित्रता हुई। इरफ़ान के पिताजी चूँकि हमारे साथ के लेखक-कवि रहे, उसे मित्रता के लिहाज से न देख, एक बच्चे के रूप में ही देखा, मानो रशीद भाई की तरह ही हम भी उसके अभिभावक ही हैं, जबसे उसने गजल-कविताएँ कहनी शुरू की, तब से यानि बाल कवि के रूप में वह हम सबके बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहा, यही वजह है- उसके किसी कार्यक्रम के निमंत्रण को सहज स्वीकारोक्ति मिल जाती है। पहली पुस्तक पर हुए चर्चा-कार्यक्रम में रशीद भाई की गजलों की किताब “सच का आइना” को भी इस कार्यक्रम में शामिल किया, रशीद भाई के बार-बार आग्रह पर भी मैंने उनसे कार्यक्रम में हुए खर्च पर धन नहीं लिया। ये सब खास रिश्ते थे रशीद भाई के साथ, जिनका निर्वाह अब उनका पुत्र इरफ़ान करता है।

किशोर श्रीवास्तव के साथ भी लगभग शुरुआती दौर से ही साहित्यिक सम्बन्ध रहा। परमज्योति ने उनसे परिचय कराया अवश्य था लेकिन उसे परवान स्वयं ही चढ़ाया, प्रकाशित साहित्य को सहेजकर रखने की प्रवृति उनसे ही सीखी। उनके मार्रून ‘हम सब साथ साथ’ से काफी समय तक जुड़ा रहा हूँ। एक विशेषांक की योजना भी मेरी रही, और बाद में मुझे उस अंक का संपादन करने का सौभाग्य भी मिला, इस अंक के बाद रिश्तो में एक लम्बे समय के लिए दूरी का समय भी आया।

 अखिलेश से पत्र-व्यव्हार के जरिये बातचीत होती रही, रूबरू काफी बाद में हुआ, “प्रारंभ” संस्था और इसी नाम से काव्य-संकलन, “युवाकृति” पत्रिका का प्रवेशांक, और किशोर के मार्रून के लिए केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की तत्कालीन डायरेक्टर “पुष्पलता तनेजा” का साक्षात्कार इत्यादि घटनाओं के परिणाम भले ही सुखद रहे या दुखद, इन्हीं सबकी मार्फ़त अखिलेश ने सैदव के लिए जो स्थान बनाया, वह अतुलनीय है। अखिलेश की काम करने की ऊर्जा, लेखन की गति और व्यक्ति-सम्मान सबको मिलाकर तिकड़ी का एक मजबूत पिलर मुझे दिख रहा था।

ललित झा में ओज था, ऊर्जा थी, दिनकर की तरह राष्ट्रवादिता भी थी, लेकिन अति उत्साह और शाखा संतति के चलते वह इस योग्य नहीं लगा, उसमें साहित्य होने की सम्भावना भी मैं नहीं देख पा रहा था।

उसी दौरान एक घटना घटी- ‘दिलीप सिंह’ (बलरामपुर) जो एक साहित्यिक मित्र के पत्रिका का उत्तर प्रदेश प्रभारी थे, रोजगार के चलते पत्रिका के संपादक के कहने भर से दिल्ली चले आये। बेरोजगारी का आलम और दिल्ली की फिजा से महरूम दिलीप दिल्ली चले तो आये  लेकिन वे अंजाम से एकदम अनजान थे। अखिलेश ही उसे मेरे पास मेरे कार्यस्थल पर मिलाने लाये। सजातीयता या फिर संस्कार के चलते दिलीप ने चरण-स्पर्श करते हुए कहा-“प्रणाम भैया”- आज तक उसका ये नियम बदस्तूर जारी है। और हर बार मैं उन्हें गले लगा लेता हूँ।

दिलीप ने योजना बताई, सम्पादक का बुलावा और पत्रिका का काम देखने की बात पर मैं शंकित था, मुझे यह निर्णय और यह उदारता दोनों ही चलने वाले नहीं लगे। उक्त संपादक की पत्रिका के “नारी शक्ति विशेषांक” के हस्र के बाद मेरी एक राय सम्पादक महोदय को लेकर कायम हुई थी- वह आर्थिक मामलों को छोड़ बाकि सब मामलों में एक सहज, और सरल व्यक्ति हैं, जिस राय पर मैं आज तक कायम हूँ। हुआ यूँ कि बमुश्किल एक हफ्ता ही हुआ और दिलीप मेरे पास लौट आये, अखिलेश को भी मैंने बुला लिया। जिन हालात और जिस संवाद के बाद दिलीप और वह सम्पादक मात्र एक हफ्ते में अलग हुए वह दुखद था। युवावस्था का खून और सजातीय गुणों (उस समय) और ‘प्रणाम भैया’ के संस्कार ने दिलीप को आश्रय दिया। आवास खरीदने के चलते मैं स्वयं आर्थिक हालात से जूझ रहा था, अखिलेश भी प्रयास करने लगे, बीस दिन के बाद कुछ स्थायी व्यवस्था हो पाई। लेकिन दिलीप का मन अब दिल्ली से उचट गया और उन्होंने वापिसी का निर्णय लिया। बाद में वे मुम्बई चले गए, उनका इरादा पूर्णकालिक लेखन और फुल फ़्लैश फिल्म स्क्रिप्ट राइटर बनने का था।

वह हम सबका संघर्ष का दौर था। मेरी स्थायी नौकरी थी, अखिलेश ने कैंपोडरी के अनुभव के चलते कुछ दिन क्लिनिक चलाया जिसके चलते आज तक उन्हें लोग डॉक्टर साहब कहते हैं। ‘मास्टर बिजेंदर सिंह’ के सम्पर्क में रहने के कारण उन्हें राजनीति का चस्का लगा, उन्हीं के सम्पर्क का असर था कि उन्होंने कुछ दिन प्रोपर्टी डीलिंग करके पैसा भी अर्जित किया। ट्रासंपोर्ट के बिजनेस में हाथ डालकर, चालाक न होने के चलते भारी आर्थिक नुकसान भी झेले।

 

अखिलेश की इन सब हरकतों पर मुझे ऐतराज रहता। मैं चाहता था कि वे कोई स्थायी नौकरी करें, शिक्षक बनने की कई बार सलाह भी दी, लेकिन राजनीति की चकाचोंध और रातो-रात करोडपति बनने के ख्वाब उन्हें साहित्य में वह करने देने से वंचित करते रहे जो उनका पोटेंशियल था। उनके अन्दर के किस्सागो को मैं महसूस सकता था, “आवे की आग” उनकी बेहतरीन कृति होने हुए भी उस चर्चा का हिस्सा नहीं बन पायी, जिसके वह कृति योग्य थी, उनके एक उपन्यास की भूमिका लिखी तो कहा भी-“कोई स्थायी नौकरी करके पूरा फोकस लेखन पर दो।“

अखिलेश “दो शब्द” उपन्यास लेकर जब मेरे पास आये, तो बोले- इसे पढना और अपनी समीक्षात्मक दृष्टि डालना। पढने के बाद मैंने फोन किया और कसकर डांटा-“ तुम ऐसा घटिया और चलताऊ उपन्यास लिखोगे, मैं सोच भी नहीं सकता, हो क्या गया तुम्हारी मेधा को? आखिर  कब बाहर आओगे, इन सब पूर्वाग्रहों से?”

मेरी ये सब बातें, ये सब डांट-फटकार इतनी सहजता से वह सुन लेते, कोई सगा भाई भी शायद ही सुने। इतना धैर्य पता नहीं कहाँ से लाये हैं वह। उन्होंने खूब लिखा, एक बार मुझसे बोले- “मैंने आपके कहीं अधिक लिखा, लेकिन साहित्य की जो समझ आपको है, मैं अभी उससे कहीं दूर हूँ, आपका अध्ययन बहुत है, और मेरा अध्ययन कम है लेखन अधिक।“ मैंने उसे कहा-“कम लिखो, अधिक पढो, अभी लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है पढना।“ उसके बाद कितनी की किताबें उन्होंने खरीदी और पढ़ी।

अखिलेश के यहाँ ही एक कार्यक्रम में दिलीप के दिल्ली छोड़ने से कुछ पहले ही उक्त सम्पादक से झडप भी हुई, वजह वही दिलीप प्रसंग। दिलीप ने इस बात का कहीं जिक्र भी किया-“ भैया ने मेरी वजह से उस साहित्यिक मित्र से किनारा किया, जिसके चलते उन्हें कही छोटे-बड़े साहित्यिक लाभ होते।“ बाद में उसने एक पूरा लेख मेरे ऊपर लिखा, शीर्षक था- “एक यायावर का जीवन : संदीप तोमर”

दिलीप के साथ गहरे और आत्मीय रिश्ते हैं। उनका दिल्ली आगमन अक्सर होता रहता, राजेन्द्र यादव की मृत्यु वाले साल भी वह दिल्ली आये, उन्हें किसी पुस्तक के प्रकाशन के सिलसिले में किसी अच्छे प्रकाशक की तलाश थी, जून की भरी गर्मी में उन्हें साथ लेकर मैं स्कूटर से दरियागंज दिन भर घूमा था, राजेन्द्र यादव के दफ्तर, ‘अक्षर प्रकाशन’ भी गए, राजेन्द्र से वहीँ मुलाकात हुई

मैंने ‘कथा सन्सार’ पत्रिका के लिए एक लेख लिखा था-"हंस और आतंकवाद"। यह लेख उस संपादकीय पर प्रतिक्रिया थी जिसमें राजेन्द्र यादव हनुमान को लंका में पहले आतंकी लिखते हैं। कथा सन्सार के सम्पादक सुरंजन ने अपनी तरफ से कुछ शब्द जोड़कर लेख का शीर्षक कर दिया "हंस और आतंकवाद उर्फ़ राजेन्द्र यादव"।

हंस के दफ्तर में दिलीप के साथ जब राजेन्द्र जी से मुलाकात हुई, जिस सहज अंदाज में राजेन्द्र मिले, वह दिल को छूने वाला था। सिगरेट के कस लगाते हुए राजेन्द्र, सिगरेट बार-बार बुझ जाती, वे उसे फिर लाइटर से जलाते, फिर कस लगाते, बात करते हुए सिगरेट फिर बुझ जाती। मैंने कहा-" राजेन्द्र जी, सिगरेट को बार-बार सुलगाने से यह ज्यादा नुकसान करती है।" वो सिर्फ मुस्कुरा दिये, मानो कहना चाहते हों, क्या फर्क पड़ता है, जमाने ने कौन से कम नुकसान किये जो अब परवाह की जाए? दिलीप ने एक शख्स का नाम लेकर कहा-"सर, वह व्यक्ति आपको सरेआम गाली देता हैं और आप उसे हंस में छापते हैं?"

राजेन्द्र बोले-"यार क्या करूँ, कमबख्त लिखता ही इतना बेहतरीन है, देखो, बढिया लेखन का स्वागत किया जाना चाहिए, दुश्मनी बहुत पर्सनल मामला है।" यह एक वाक्य सीखने के लिए बडी बात थी।

पता नहीं क्यों इतना विवादित व्यक्ति मुझे आज भी बहुत प्रिय है। मुझे लगता है कि वो मेरे बहुत करीब हैं। प्रसंगवश उन्होंने कहा था-"मेरे चारों ओर बहुत दुश्मन हैं।" मैंने कहा-"फिर छापते क्यों हो?" उन्होंने पुनः जवाब दिया-"सन्दीप, जो बढिया लिखेगा, उसे छापना ही है, किसी से विवाद होना, किसी से अनबन होना, एकदम अलहदा बात है।"

मैंने कथा सन्सार का जिक्र किया और जब अपना नाम बताया तो बोले थे-"हंस और आतंकवाद उर्फ राजेन्द्र यादव शीर्षक से लेख लिखा था, मुझे याद है।" मैं थोड़ा सहम गया, मुझे लगा शायद अब वो नाराज होंगे, उन्होंने कहा-"बढिया लेख था।" अब मैं थोड़ा सहज हुआ। मैं दावे से कहता हूँ-"राजेन्द्र यादव कोई दूसरा नहीं हो सकता। वह ही एकमात्र साहित्यकार हुए जो विरोध को भी सहजता से स्वीकार करता हो।“

चूँकि यह मुलाकात दिलीप की बदौलत थी, इसलिए ये साहित्यिक ऋण हुआ, मेरे ऊपर। इतने सबके बावजूद दिलीप भी उस तिकड़ी में फिट नहीं होते हैं, जिसकी कल्पना मैंने की और जिसे अखिलेश की सहमति रही।

युवाकृति पत्रिका की योजना में मेरे और अखिलेश सहित कुल ६ लोग थे, आर्थिक व्यवस्था के लिए सभी ने कंट्रीब्यूट करना तय किया, लेकिन पत्रिका के प्रारूप और काम करने के तरीके से मेरे शुरू से मतभेद रहे, और मुझे अंदेशा था, जिस तरह संपादन करने की योजना है, उस लिहाज से पत्रिका निकलना असंभव है, मेरा अंदेशा सच साबित हुआ, और पत्रिका  प्रवेशांक के साथ ही ठण्डे बस्ते के हवाले। पुनः काम करने की योजना पर अखिलेश से बातचीत होती रही लेकिन आजतक अंतिम रूप नहीं दिया गया।  

कालान्तर में ललित मिश्र और अखिलेश द्विवेदी के साथ तिकड़ी की योजना बनी। साहित्य के लिए अब प्रेमचंद वाला समय नहीं जो प्रकाशकों के बूते रोटी चलती रहे और आप पूर्ण कालीन साहित्य रचने में लगे रहें। अब गुजारे का सवाल कहीं बड़ा है, ललित और अखिलेश दोनों की रोजगार की जद्दोजहद तिकड़ी के ख्वाब को कुचलती रही। हाँ, ललित और अखिलेश दोनों ने ही बारी-बारी से मेरा साक्षात्कार लिया।

अखिलेश को लेकर एक बात जो हमें अलग करती है, वह है राजनीति- उन्होंने एक बार कहा-“जब आपका रुख संघ की तरफ था तब मैं कांग्रेस का कार्यकर्ता था, और जब आपका झुकाव संघ को छोड़ वाम की तरफ हुआ, मैं संघ में चला आया और भाजपा का कार्यकर्ता बना, जबकि आपसे सम्पर्क के चलते ही मेरा झुकाव संघ की तरफ़ हुआ। शायद हमारा राजनीतिक साथ कभी हो ही नहीं।“ जाने क्यों अखिल के इस वक्तव्य में एक कडुआ सच छिपा है।

तिकड़ी का ख्वाब फिर ख्वाब ही रहा

 

2 comments:

  1. संदीप जी । सर जब आलेख पढ़ रहा था। दिमाग मे एक ही बात चल रही थी। आखिर कौन सी वजह है जो हमलोगों में संवाद स्थापित नही हो पा रहा । कुछ असफल प्रयास हमने जरूर किये लेकिन दुहराया नही।
    बहरहाल, पूरे आलेख में राजेन्द्र यादव वाला प्रसंग उल्लेखनीय है। वर्तमान में ऐसे व्यक्ति का होना और सर्वाइव करना मुश्किल है। वो राजनीतिक परिस्थितियां ही होती है जिसमे राजेन्द्र यादव तैयार होता है। अंतःकरण को अभिव्यक्त करने का साहस और विरोध की स्वीकार्यता इतना आसान नही होता। यह स्वछंद राजनीतिक परिस्थितियों में ही सम्भव है।
    हिंदी लेखन में मुझे जो सबसे बड़ी कमी दिखाई देती है एक पाठक के तौर पर वह है परिवर्तन के सार्वभौम रूप में स्वीकार्यता का अभाव । जिसके वजह से अच्छे लेखक भी एक निश्चित रेखा चिन्ह से बाहर नही आ पाते।
    आपसे ढेर सारी बातें करनी है । देखते है वह संयोग कब पाता है।

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    1. संजीव जी , जब समय हो और ये बुरा वक़्त निकल जाए तब मुलाकात करते हैं,

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