सोलहवां भाग
खतौली मेरा अपना शहर। जहाँ की सड़कों
पर स्कूल कॉलेज जाते हुए मौज मस्ती में अपनी जिंदगी पल रही थी और साथ ही पल रही थी
कुछ अजीज साथियों के साथ दोस्ती। प्रमेन्द्र तोमर, राजेंद्र सैनी, विपिन चौधरी, विपिन कुमार, संजय चंद्रवंशी, राजीव विश्वकर्मा (स्वर्गीय), अपने महाकमीने दोस्त थे। महकमीने
इसलिए कि उनके बिना मैं जिन्दगी को अधूरा समझता था। कुछ घटनाएँ थी जो इस दोस्ती को और मजबूत करती थी, ये सच था कि
अपनी जिन्दगी जिस दिशा में जा रही थी उसमें दोस्तों का बहुत बड़ा हाथ था। मेरे
विचार जितनी तेजी से परिपक्व हो रहे थे उसमें दोस्तों की जिन्दगी के अनुभव बहुत
मायने रखते थे।
संजय से मुलाकात बी.एस.सी करते हुए
हुई। प्रमेन्द्र तो बचपन का साथी है। राजेंद्र सैनी, विपिन चौधरी, राजीव छठी कक्षा से साथ पढ़े। विपिन कुमार उर्फ लंबू
नवी में हमारे साथ आया।
१९९६ की जनवरी की एक दोपहर, अभी मैं और अनिल क्लास ख़त्म
होने पर शाही हवेली आये ही थे कि राजीव आया। उसने बताया- “यार
सुदीप मुझे एक लड़की से प्यार हो गया है। तू तो उसे जानता भी है, अपने भूड कॉलोनी
में ही रहते हैं, बंशीलाल, उन्हीं की इकलौती बेटी है, वंशिका, यार सच तो ये है कि
वो भी मुझे बहुत प्यार करती है।“
“हाँ याद आया, वही न जिसके पिताजी
की फोटोकॉपी की मशीन है, यार कई बार वंशिका की वजह से हम लोग बिना वजह फोटोकॉपी के
लिए उनकी दुकान पर जाया करते थे।“
“ऐसा मत बोल यार, अब वो तेरी भाभी
है।“
“अबे चिरकुट साले, भाभी अब है न, तब
क्या पता किसकी भाभी होती?”
“सुन सुदीप, आजकल उसके बाप को हमारे
बारे में पता चल गया है और तू तो जानता हैं न छोटे शहरों की कहानी, उसका बाप उसे
कॉलेज तक छोड़ने जाता है, या फिर बस में बैठाकर वापिस घर जाता है, मिलना-जुलना एकदम
बन्द है।“
“ओह तो आशिक मियां दर्द काफी बढ़ गया
है... ।“
“अबे सुन भी, बीच में अपनी बकवास
क्यों घुसेड़ने लगता है, मैं उससे बिना मिले जिन्दा नहीं रह सकता, मेरे पास एक
प्लान है, मैं उसके कॉलेज जाने वाली बस से पहले वाली बस से यहाँ शहर में आ जाउँगा
और जैसे ही वो अपनी बस से उतरेगी, उसे कॉलेज की बजाय यहाँ तेरे रूम पर ले आऊँगा।“
“तो जनाब अब हमारी शाही हवेली ठाकुर
की हवेली की तरह महकेगी, अबे साले! ये जो लड़के होस्टल में रहते हैं न ये लड़के नहीं
भेडियें हैं, और वो जो मेरा प्रिंसिपल हैं न मिस्टर जोहरी, वो प्रिंसिपल नहीं पूरा
गेंडा राम है, मेरी ट्रेनिंग आज ही पूरी हो जाएगी, और साले तुम मुफ्त में मजे
लूटोगे।“
“यार सुदीप तू समझता क्यों नहीं,
मैं वंशिका को सच्चा प्यार करता हूँ, उसके बिना... ।“
“ये सच्चा प्यार उस दिन तक होता है
जब तक प्रेमिका बेड रूम में नहीं होती, देख तू जो सोच रहा है मैं उसमें तेरा कोई
साथ नहीं दे सकता, साला यहाँ करियर का सवाल है, तुम्हारी एक दिन की अयाय्सी अपना
पूरा जीवन चोपट कर देगी।“
“प्लीज सुदीप! तू मेरे बचपन का
दोस्त है, मेरी मदद नहीं करेगा?”
मैं कुछ कहता इससे पहले अनिल, जो ये
सब बात चुपचाप सुन रहा था बोल पड़ा-“हम यारों के यार हैं, राजीव भाई, तू अपनी माशूका
को ले आ, देखते हैं कौन हमें रोकता है?’
“अनिल तुम्हें कुएँ में कूदना है तो
ठीक है देखा जायेगा, ठीक है राजीव, अब पार्टनर ने जुबान दे दी है तो जो होगा देखा जायेगा।“
राजीव अगले दिन वंशिका के साथ
होस्टल आ गया, वंशिका थोडा शरमा रही थी। अनिल और मैंने शाही हवेली को बाहर से लॉक
किया और खुद क्लास करने चले गए। राम जाने हमारे जाने के बाद राजीव और वंशिका ने
क्या रंग-रलियाँ मनाई।
दोपहर दो बजे लंच ब्रेक में ही
हवेली खुली, वंशिका के उलझे बाल और उलझे ख्यालात एक अनकही गाथा कह रहे थे। वे
दोनों लंच के बाद चले गए।
जोहरी का भय और भेड़ियों की गुर्राहट
दोनों से ही अब मैं बेपरवाह हो गया।
बीटीसी की पढाई पूरी हो चुकी थी।
राजीव, विपिन और राजेन्द्र अपने-अपने व्यवसाय में सेटल हो चुके थे। राजीव ने वेन
खरीद ली थी और उसे किराए पर चलाने लगा था, राजेन्द्र की शादी थी तो राजीव को ही
शादी के मेहमानों को बारात तक छोड़ने का जिम्मा दिया गया। उस दिन हल्की-हल्की बारिश
हो रही थी, राजीव पहले चक्कर में मेहमानों को छोड़ने गया, पम्मी भी जा चुका था,
दिनेश अपनी गाड़ी से राजेन्द्र और कुछ और लोगो को ले गया था, मुझे उसने कहा कि एक घण्टें
में राजीव गाड़ी लेकर आएगा, तुम तब आ जाना। दोपहर के दो बजे फिर तीन बजे, लेकिन राजीव नहीं
आया, अब इन्तहा हुई तो मैंने अपने घर का रुख किया, एक अजीब सी फाँस बनी लेकिन दोष
किसे दिया जा सकता था। बाद में सफाई किसी की तरफ से भी दी जाए उसका कोई औचित्य
नहीं रह जाता।
कुछ दिनों बाद विपिन और राजीव दोनों
की शादी हो गयी। मैं भी दिल्ली आकर संघर्ष कर रहा था, एक दिन सूचना मिली कि राजीव
ने अपनी एक साल की बेटी और पत्नी के साथ-साथ खुद को भी चाकू से गोंद दिया। फिर खबर
मिली कि राजीव को बचाया नहीं जा सका, और उसके दो दिन बाद की खबर थी कि उसकी बेटी
बच गयी लेकिन पत्नी चल बसी। अजीब हादसा था। राजीव की मानसिक स्थिति उन दिनों ठीक
नहीं थी, सुनने में ये भी आया था कि पत्नी का चाल-चलन ठीक नहीं था, मुझे आश्चर्य
ये था कि खुद का जिसका चरित्र हज़ार धब्बे लिए हो वो पत्नी में कौन सा चरित्र ढूढ़ते
हैं और क्यों?
१९९९ में ही खतौली से कोई १० किलोमीटर
दूर एक स्कूल में सरकारी नौकरी मिल गयी थी लेकिन मन जाने कैसा हुआ कि नौकरी में न
रम सका, चुनांचे नौकरी छोड़ दिल्ली विश्वविद्यालय में बीएड में दाखिला ले लिया।
जुलाई 1999 के बाद मैं खतौली से दिल्ली शिफ्ट हो गया। पहले हर हफ्ते गॉव जाना होता रहा फिर हर सेकिंड सैटरडे। जून १९९९
में जब बीएड का एंट्रेंस एग्जाम दिया था तब ही मंजू से मुलाकात हुई थी, यूँ तो
उसने मेरे घर शादी का पैगाम भिजवाया था लेकिन घर वालों ने सब कुछ मेरे ऊपर छोड़,
अपना पल्ला झाड लिया। ६ महीने उसके साथ डेट करता रहा, इन ६ महीनों में मैं इतना समझ
गया था कि दिल्ली की लड़कियों के साथ निभाह बहुत आसान नहीं है।
मंजू ने एक दिन धौला कुआँ बुलाया, हम
दोनों पार्क में बैठे थे, अचानक किसी बात पर नौक-झोंक हुई। मंजू ने कहा-“कौन
बेवकूफ माँ बाप होंगे जो तुझ जैसे अपाहिज के साथ अपनी बेटी की शादी करेंगे।“
“मंजू, तुम मेरे जमीर को गाली दे रही हो, ये सब बर्दास्त से बाहर है।“-मैंने
कहा।
“अच्छा तो अपाहिज लोगो का जमीर भी
होता है। वाह जनाब वाह।“
“देखो तुम अपनी हद को पार कर रही हो।“
“हद तो तुम पार कर रहे हो, मिस्टर
सुदीप जो मुझ जैसी सुन्दर हसीन लड़की को बीवी बनाने का ख़्वाब देख रहे हो।“
“मंजू, ये ख़्वाब तुमने ही तो दिखाया
था और आज तुम ही.... ।“
“हाँ बेवकूफ थी मैं जो मैंने
तुम्हें शादी के लिए कहा था, अब मैं अपना फैसला वापिस लेती हूँ, मैं खुबसूरत हूँ,
मुझे तो कोई गाड़ी-बंगले वाला मिल ही जायेगा, तुम अपना सोचना।“
“मुझे क्या करना है क्या नहीं, ये
मुझ पर छोड़ दो और दफा हो जाओ यहाँ से।“-कहकर मैंने अपने होस्टल जाने की राह पकड़ी।
उस दिन मानो मैं टूट सा गया था जो अहसास मंजू ने दिलाया था, कोई नहीं दिला सकता था।
मैंने सोचा-हो सकता है ये सब मेरे भविष्य के लिए ठीक हुआ हो।
कुछ भी हो एक बात तो तय थी, जिन्दगी
के थपेड़े मुझे मजबूत बना रहे थे। इन्हीं थपेड़ों में बीएड पूरी हो गयी थी। रक्षिता
के घर वालों से भी अपाहिज होने के चलते दूरियाँ बनी थी, जब उसकी माँ ने एक दिन
मेरे लिखें प्रेम पत्र पढ़े तो फोन पर बहुत खरी-खोटी सुनाई थी, और मैं सिर्फ इसलिए
खून का घूँट पी गया था कि मुझे अपाहिज होने का भरपूर अहसास कराया गया था, मंजू के
बेहुदे सलूक ने तो हदें ही पार कर दी थी, दो-दो घटनाओं ने मुझे अन्दर तक हिला दिया
था।
इसी तरह के माहौल में बीएड पूरा हुआ
तो मैंने एम.एड में दाखिला ले लिया था। उसी दौरान मुलाकात ज्योति से हुई थी,
ज्योति साहित्यिक मिजाज की लड़की थी, अपना मिजाज भी ऐसा ही था, दोनों को ही लगा कि
उनकी खूब जमेगी।
एम.एड. समाप्त हुआ तो करमपुरा किराए
पर रहना शुरू हुआ। २००१ में निगम में नौकरी मिल गयी थी। अब गॉव जाना महीने में एक
बार होता और किसी के दुःख दर्द में भी गॉव चला जाता था उसके बाद होली-दिवाली तो
जाना होता ही था। अब हारी-बीमारी, जीने-मारने के
चलते आना-जाना तो सामाजिक दस्तूर भी था। नौकरी और शरीर दोनों की विवशता के चलते
बहुत से शादी के निमंत्रण पर मैं नहीं जा पाता।
लेकिन ये जो दोस्त गिनाये गए हैं ये
मेरे इतने कमीने और प्यारे हैं कि इनके बिना मुझे अधूरापन सा लगता है। मुझे लोग
दोस्ती की मिशाल के रूप में देखते। किसी दोस्त को कोई दुःख-दर्द-तखलीफ़ हो वह मुझे
याद करता, मेरी कोशिश होती उनके दुःख-सुख में काम आया जाये, विपिन तो अक्सर कहता
था, यार तेरे पास कहाँ से इतने आइडिया आते हैं कि हर समस्या का चुटकी में समाधान
कर देता है। लेकिन मैं सोचता-अगर इतना आसान होता समस्या का समाधान तो अपने जीवन के
दो दाग न धो डालता.. चुटकी बजा अपने अपाहिजपन को दूर न भागा देता और उन तमाम
लड़कियों से अपनी बेगुनाही की बात न करता जो मेरे अपाहिज होने के चलते छोड़ गयी। दोस्त
साले जहन में घुसे हैं निकलते ही नहीं।
प्रमेन्द्र भी दिल्ली आ गया था वह
भी करमपुरा ही रहता था, मुझसे अक्सर उसकी मुलाकात हो जाती थी। हालाकि दिल्ली तो
चौधरी भी आ गया था लेकिन उसे फुर्सत नहीं कि दोस्तों से मिले। बाकि सबसे बहुत-बहुत
दिनों बाद मुलाकात होती थी। राजेंद्र सैनी के घर जब भी खतौली जाना होता तब जरुर
जाता, लेकिन जब राजेन्द्र मध्य प्रदेश में ठेकेदार हुआ तब मिलना जुलना कम हो गया। लेकिन
जब भी मिलते खूब पुरानी बातें याद करते। राजेन्द्र की पत्नी को बारात में न जा
पाने का किस्सा तो मैं हर बार सुना देता, वे जब कहती कि भाई साहब ये बात तो आप
पहले भी कई बार बता चुके तो मैं कहता-“भाभी फिर से बता लेने दो, कम से कम इस
नालायक को अहसास तो हो कि इसने घर बुलाकर भी बारात नहीं करायी।
मुझे अभी एक साल ही हुआ था नौकरी
किये हुए कि पश्चिमी दिल्ली की एक कॉलोनी में मकान खरीद लिया गया, हालाकि यह मकान
पारिवारिक संपत्ति थी लेकिन मैंने बड़े जतन से और मन से इसकी रिपेयर करायी और नीलू
के साथ इस मकान में रहना शुरू कर दिया।
नवम्बर २००२ में खतौली गया था,
चौधरी मिल गया, चौधरी ने बताया कि जनवरी में उसकी शादी है, और तुझे और प्रमेन्द्र
दोनों को आना है, कार्ड मैं दिल्ली भी भिजवा दूँगा और गॉव में अंकल के पास भी।
मैंने कहा-“देख चौधरी, दोस्तों में
कार्ड कोई मायने नहीं रखता तू सिर्फ शादी से कुछ दिन पहले मुझे तारीख और जगह बता
देना, हम दोनों आ जायेंगे।“
उसे लैंडलाइन फोन और मोबाइल दोनों
के नम्बर नोट करा दिए थे। मोबाइल तो ज्योति की जिद्द के कारण लिया था। वर्ना उस
समय मोबाइल पर कॉल अटेंड करने के भी महँगे चार्जेज लगते थे।
२४ जनवरी को विपिन का फोन आया कि कल
चौधरी की शादी है और उसने वेन्यु भी बताया, लेकिन चौधरी का फोन नहीं आया। मैंने
विपिन से कहा-“यार बिना निमंत्रण के किसी की शादी में जाना कितना अजीब नहीं लगता।“
विपिन ने कहा-“ सुदीप मैं उससे बात
करता हूँ, मैं उससे फोन कराऊँगा लेकिन तुझे आना पड़ेगा, और वैसे भी मैं परिवार के
साथ आ रहा हूँ तो रात में तेरे साथ ही ठहरना है।“
“वो सब ठीक है, मैं प्रमेन्द्र से
भी बात करूँगा लेकिन दोस्त अगर चौधरी का फोन नहीं आता तो न आना मेरी मज़बूरी होगी।“-कहकर
मैंने फोन रख दिया था।
प्रमेन्द्र से भी बातचीत हो गयी थी,
उसका भी मानना था कि दोनों में से अगर किसी एक के पास भी फोन आता है तो हम चलेंगे।
२५ जनवरी को स्कूल में गणतंत्र दिवस का कार्यक्रम था, शाम की शिफ्ट का स्कूल, फिर
भी मैं जल्दी घर आ गया। कपडे प्रेस किये और शादी में जाने की पूरी तैयारी के साथ
बैठ गया।
अब मैंने और प्रमेन्द्र ने तय किया
कि अब नहीं जाना है, खाना खा चुका तो विपिन का फोन आया, उसने चौधरी से बात करायी,
मैंने उसे साफ़ शब्दों में कह दिया कि अब इस दोस्ती और इस शादी में सरीक होने का
कोई तुक नहीं बनता। हालाकि
मुझे विपिन को लेने जाना पड़ा। कई दोस्तों को
आश्चर्य था कि इस दोस्ती में ऐसा मोड़ क्यों आया कि एक दोस्त दूसरे दोस्त की शादी
में भी सरीक नहीं हुआ।
मुझे इस घटनाक्रम के पीछे जो कहानी
समझ आई वो इस प्रकार थी-
ये १९९७ की बात रही होगी, चौधरी
मुज़फ्फरनगर से एनआईआईटी से कंप्यूटर कोर्स कर रहा था एक दिन ट्रेन में बिना टिकट
के यात्रा करते हुए उसका चालान हुआ, हालाकि लगभग हर स्टूडेंट ही बिना टिकट यात्रा
करता था, ये एक इत्तेफाक था कि इस घटना का किसी कॉमन दोस्त ने जिक्र किया। एक
बारात में चौधरी के गॉंव जाने का मौका मिला, संजय चंद्रवंशी के घर हम कुछ दोस्त
बैठे थे, मैंने चौधरी को मजाक में पर्ची कटने (चालान) वाली बात बोल दी, बात मजाक
की थी, मजाक में टल गयी थी। मैं इस बात को भूल गया, एक दिन ट्रेनिंग से छुट्टी के
चलते मैं गॉंव आया था, शाम का वक़्त था, मैं गॉव के ही एक लड़के की पान की दुकान पर
खड़ा था। ये दुकान एक चौराहे पर थी, जहाँ से एक रास्ता चौधरी के गॉंव जाता था,
दूसरा मेरे गॉव। अभी कुछ देर ही हुई थी कि चौधरी अपनी साइकिल से एक अन्य लड़के के
साथ आया, मुझे देख वह रुका, हाल-चाल पूछने के बाद उसके गाली-गलौच करना शुरू किया,
मुझे लगा वो मजाक में ये सब कर रहा है। दो ही मिनट में मुझे आभास हुआ कि अब बात
दोस्ती के दायरे से बाहर है, मैंने उसे बोला- “देख अब दोस्ती की हद से बाहर की बात
है। अब एक भी शब्द बर्दास्त नहीं होगा।“
उसने धमकी देना शुरू किया, गॉव का
गढ़ होने की वजह से लोग इकठ्ठा हो गये, नीरज, (पान की दुकान वाला दोस्त) ने लोहे की
रोड निकाल ली थी, मैंने उसे आग्रह किया कि दोस्ती की बात है, मैं खुद निपट लूँगा,
बाकि लोगो को भी इशारे से दूर ही रहने को कहा। खून खौल रहा था, मैंने उसके
चेहरे पर ऊँगली रखते हुए कहा-“चौधरी, अब अगर एक शब्द ही जुबान से निकला तो सोच ले
वो आखिरी शब्द होगा, पुरानी दोस्ती के चलते एक मौका तुझे अभय का देता हूँ, यहाँ से
चुपचाप निकल ले, मेरा एक इशारा हुआ और यहाँ खून के फव्वारे छूटेंगे।“
चौधरी मौके को भांप चुपचाप चला गया
था। मैं इस घटना से बहुत आहत था, लेकिन जब मेरा एक्सीडेंट हुआ, और मैं गॉव गया तब
चौधरी और दोस्तों के साथ मुझसे मिलने आया था तो मुझे लगा कि अब पुराने गिले-शिकवे
सब ख़त्म लेकिन आज जब शादी के नाम पर जो ड्रामा देखा तो आभास हुआ कि शायद ये उस
घटना का रिएक्शन है।
अरविन्द सिंह यानि बबलू से बीएससी
में ही दोस्ती हुई। वो भी बेहतरीन दोस्तों में है। हरिद्वार जब भी जाना होता तो
उससे मिलना होता। नौकरी में आकर सभी दोस्तों को मैं अक्सर याद करता । मुझे लगता कि
मुझे मैं बनाने में उन सब दोस्तों का कोई न कोई योगदान है। भले ही प्रत्यक्ष न हो,
अप्रत्यक्ष ही सही।
नौकरी के लिए जब चयन हुआ तो मैं कर्मपुरा रह रहा था। कर्मपुरा
से सीधी बस मेरे ऑफिस उतार देती थी। जिंदगी पटरी पर चल पड़ी थी।
एक दिन मैं किसी जरुरी फाइल के सिलसिले में हेड ऑफिस गया। अपना
काम कराकर बाहर निकला ही था कि मेरी निगाह बैंच पर बैठी एक लड़की पर पड़ी। दूर से
देखकर ही पहचान गया कि ये मेरी क्लासमेट शायरा है।
पास जाकर पूछा-"अरे शायरा यहाँ किसलिए बैठी हो?"
वह लगभग चौंकते हुए बोली-"कुछ
नहीं जॉब का अपॉइंटमेंट लेटर लेने आयी थी।"
"ओह तो आपको जोइनिंग मिल रही है?"
"हाँ सुदीप, पता
नहीं कहाँ का ऑफिस देंगे?"
"तुम पश्चिम विहार रहती हो न?"
"हाँ, लेकिन
ये तुम अब क्यों पूछ रहे हो?"
"शायरा सोचो तुम्हारा काम बन गया। मेरे ऑफिस में जगह खाली है। और
तुम्हारे घर से पास भी है। समझो तुम्हारा काम हो गया।"
"कैसे, क्या
ये मेरे मन-मुताबिक ऑफिस दे देंगे?"
"क्यों नहीं देंगे? अभी देखो कमाल।"- कहकर मैं एक साइड में बने केबिन में गया
और क्लर्क को 500
की पत्ती थमाकर उसे नाम वैगरह लिखाकर
वापिस आकर शायरा को इत्मीनान दिलाया कि तुम्हें मेरे वाला ऑफिस मिल जायेगा।
मुझे वापिस ऑफिस पहुँचना था इसलिए मैं
उससे विदा ले सड़क पर आया और बस पकड़ मीरा बाग़ ऑफिस पहुँचा। मैंने कुछ क्लोज कुलीगस्
को इस बाबत बता दिया कि एक बहुत इंटेलिजेंट डेवोटेड लड़की कल ऑफिस ज्वाइन करेगी।
अगले दिन शायरा ने ऑफिस ज्वाइन कर लिया
था। बहुत ही होनहार और कर्मठ होने के चलते जल्दी ही उसने अपने परमानेंट दुश्मन बन
लिए। जैसा कि अमूमन होता है, काम
किये जाओ, दुश्मन बनाये जाओ।
शायरा में एक और विशेषता थी विशेषता ये
कि उसमे स्त्रियोचित गुण नहीं थे। यानि वह स्त्रियों की तरह कपडे, खाने और गहनों
की बात नहीं करती था। शायरा एक बोल्ड
लड़की थी, महिला स्टाफ में न बैठकर पुरुष स्टाफ के साथ बैठती। पुरुष स्टाफ में भी वहाँ
दो तरह के ग्रुप थे, एक पुराने लोगो का, दूसरा नए चयनित लोगो का। हम नए चयनित लोग
अलग ही बैठते। कुछ ही दिनों में हमारे वर्क स्टाइल और मुखरता के चलते लोगो ने
ईर्ष्या भाव से हम लोगो के खिलाफ राजनीति शुरू कर दी। शायरा को मोहरा बना वो
राजनीति की कोशिश करते और हमें टारगेट करते लेकिन हर बार उन्हें मुँह की खाने को
मिलती। वहीँ से अध्यापक राजनीति की ललक हुई। जॉब लगते ही हड़ताल का दौर देखा, टेंट
के स्कूल में एक सेशन पढाया, पता चला कि दिल्ली में शिक्षा का हस्र गॉव-देहात से
भी खराब है। शायरा के लिए स्कूल नजदीक था लेकिन मकान खरीद लेने के बाद मुझे अपना
तबादला करवाना था, मैंने इस हेतु प्रयास शुरू कर दिए थे।
जब तक ट्रांसफर नहीं हुआ मैं शायरा
के साथ मीरा बाग तक रिक्शा से आता वहाँ से वह अपने घर की बस लेती और मैं अपने घर
के लिए। शायरा बहुत बिंदास थी, बात करती तो वह भूल जाती कि क्या बात पुरुष मित्र
से कहनी है क्या नहीं कहनी। मैं महसूस कर रहा था कि उसकी अधिकांश बातें अश्लील
होती या फिर सेक्स के इर्द-गिर्द होती, मैं ज्योति से डेट कर रहा था, मैं उसे धोखा
नहीं देना चाहता था लेकिन शायरा के साथ मैं महसूस करता कि वो दोस्ती का दायरा थोडा
बढ़ाना चाहती है। एक दिन वह कुछ थकी सी थी, मैंने अनायास ही पूछ लिया-“क्या शायरा
आज रोज जैसी चुस्ती नहीं है? बात क्या है?”
बिना किसी झिझक के वह बोली थी-“पीरियड
चल रहे हैं।“
मुझे ही थोड़ी झेंप हुई। लेकिन उसने
कहा-“मुझे ब्लीडिंग ज्यादा होती है तो थकान भी ज्यादा होती है।“ उसकी बातें कई बार
ऐसी होती कि मन उत्तेजित होने लगे। उसने अपने कुछ प्रेम प्रसंग भी कुछ इस तरह से
सुनाये जिनमें सेक्स कंटेंट कुछ ज्यादा होता, प्रेम और प्रेम कहानी कम। मैंने उसे
इस तरह की बातें न करने की हिदायत भी दी। लेकिन जैसे वह मुझे पा लेने के लिए आतुर
हो। मैंने उसे सचेत भी किया कि इस तरह की बातें हम दोनों के बीच दूरियां बढ़ा सकती
हैं। लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। ट्रांसफर हुआ तो मुझे सुकून मिला कि चलो अब
शायरा की उन बेतुकी बातों से तो पीछा छूटा।
इस सबमें ये महसूस हुआ कि जरुरी नहीं जो रिश्ते आज हमारे हैं, वो कल भी रहे। जीवन के साथ-साथ हमारी प्राथमिकता बदलती रहती है, तो एक-दूसरे के प्रति हमारे विचार भी बदल जाते हैं.
क्रमशः
वक़्त और जीवन के साथ साथ priorities का बदलते रहना ही जिन्दगी है,कहानी और शब्दों का ताना बाना दोनो गजब के हैं
ReplyDeleteजी भैया सही कहते हो जीवन के साथ प्राथमिकता बदलती रहती हैं,
ReplyDelete“अच्छा तो अपाहिज लोगो का जमीर भी होता है। वाह जनाब वाह।“
ReplyDeleteयह लड़की का असंवेदनशील, गैरजिम्मेदाराना कथन है.
ऐसे ही समाज में जी रहे हैं हम सुरेश जी, मालूम है, एक लड़की यहाँ किसी विकलांग (अपाहिज, दिव्यांग छाए उसे जो कहिये,) से प्रेम तो कर सकती है लेकिन शादी नहीं, ये बात उतनी ही अनुभव जनित हैं जितने अनुभव के बाद आत्मकथा लिखने का हौसला मिला.
ReplyDeleteक्या बात है
ReplyDeleteमेहरबानी करम शुक्रिया
Delete