Saturday, 15 May 2021

एक अपाहिज की डायरी - आत्मकथा भाग-17

 

 आत्मकथा भाग-17 


 


मेरे दिल्ली आगमन से पहले ही नीलू अपने कैरियर की तलाश में दिल्ली पदार्पण कर चुका था। सुकेश भैया और नीलू दोनों ही कहते, हमारे रहते तुझे नौकरी करने की क्या जरुरत है, तुझे जितना पढना था, तू पढ़ लिया। अब आराम से घर बैठ, लोग क्या कहेंगे कि एक अपंग भाई को दो भाई मिलकर रोटी नहीं दे पाए। मैं जानता था कि जीवन में रोटी ही सब कुछ नहीं होती और ये बातें तब तक ही अच्छी लगती है जब तक सबके अपने परिवार न हो, इसलिए फाइनली दिल्ली शिफ्ट होने का मन बना लिया था। मैं दिल्ली आया तो दोनों भाइयों ने मिलकर जनक सिनेमा के ठीक सामने की कॉलोनी में एक कमरा किराये पर लिया। दो-चार दिन गृहस्थी के सामान जुटाने में लग गए। उसके बाद दो-चार दिन के प्रयास से पहली ट्यूशन मिली, दो बच्चो को पढ़ाने की फीस तय हुई पन्द्रह सौ रूपये, जिसमे से साढ़े आठ सौ रूपये कमरे का किराया देना था। एक हफ्ते बाद एक ट्यूशन और मिली-एक दसवीं क्लास कि बच्ची को मैथ में कम्पार्टमेंट के एग्जाम की तैयारी करानी थी, वहाँ फीस तय हुई बारह सौ रुपया। मुझे लगने लगा कि अब फिर से गाडी पटरी पर लौटेगी। दसवीं की छात्रा को जब पढ़ाता तो नोट किया कि वह स्टूडेंट पढने में दिलचस्पी ही नहीं लेती, जहाँ बैठकर पढ़ाता, उसके ठीक सामने एक ड्रेसिंग टेबल था, वह स्टूडेंट लगातार ड्रेसिंग के शीशे से मुझे निहारती रहती, हफ्ते में लगने लगा- बेटा ये प्रोफेशन इन सब की इजाजत नहीं देता, एक बार बदनाम हुए और काम तमाम, एक भी ट्यूशन नहीं मिलेगी। अंततः उस ट्यूशन को छोड़ने का निर्णय ले लिया था।

अभी कुछ ही दिन हुए थे कि गॉव से खुशखबरी आई कि घर में एक नन्हा जीव आया है, सुकेश भैया के यहाँ बेटे का जन्म हुआ है और सुप्रिया दीदी को लेकर गॉव जाना है, ट्यूशन की दो दिन की छुट्टी की, दीदी को छोड़कर वापसी दिल्ली आ गया। ट्यूशन क्लास का टाइम था, सीधा दिल्ली कैंट गया ट्यूशन पढ़ाकर कैंट पुल से बस पकड़ी और जनक सिनेमा पर बस से उतरते हुए गिर गया। पहले लगा कि यूँ ही झटका लगा है, ठीक हो जायेगा, रिक्शा ली और कमरे पर पहुँचा। दर्द कम होने का नाम नहीं ले रहा था। रात को नीलू कमरे पर आया तो उसे सारी बात बताई, नीलू मूव की ट्यूब ले आया, मूव से भी आराम नहीं मिला, सुबह जीजा को मसेज भिजवाया, उन्होंने बताया कि कैंट में एक जर्राह है उसके पास चलते हैं, १० बजे जर्राह के पास पहुँचे, जर्राह ने जाते ही कहा- “देखिये ये लड़का पहले ही पोलियों पेशेंट है, मैं रिस्क नहीं ले सकता, कुल्हे के उतरने या टूटने का मामला है, आप इसे लेकर सीधे दीन दयाल अस्पताल ले जायें।“

जीजाजी दीन दयाल भर्ती करवाकर ड्यूटी चले गए। नीलू को ज्यादा जानकारी नहीं थी, गॉव से माँ आ चुकी थी, उस समय सुकेश भैया कुबेर ग्रुप में जॉब करते थे, वह छुट्टियाँ लेकर आ चुके थे, दो दिन तक दीनदयाल में इलाज आगे नहीं बढ़ा था, ये कंफ़र्म हो चुका था कि पोलियो वाले पैर के कुल्हे में फ्रेक्चर था। डॉ. ने ऑपरेशन के लिए बोला था, लेकिन अभी तय नहीं हो पाया कि डॉ. कब ऑपरेशन करेंगे सुकेश भाई से सुदीप का दर्द नहीं देखा गया, उसने डॉ. से बोला-“ आप मेरे भाई को डिस्चार्ज कीजिये, मुझे आपसे इलाज नहीं कराना।“

डॉ.-“हम ऐसे डिस्चार्ज नहीं कर सकते।“

“तो कैसे करेंगे, ये बताइए?”

“आप लिखकर देंगे कि हम अपनी मर्जी से ले जा रहे हैं, और डॉ. की कोई जिम्मेवारी नहीं है।“

कागजी प्रक्रिया पूरी कराके सुकेश भैया मुझे डिस्चार्ज कराकर माता चन्नन देवी अस्पताल की अमर्जेंसी ले आये। डॉ. पी.पी. कपूर और डॉ ए.के. जैन की यूनिट ने ऑपरेशन किया। उस दिन मिलने आने वाले रिश्तेदारों का रेला लगा हुआ था। लेकिन मुझे किन्हीं दो बेहद खास लोगो का इन्तजार था।

पहला खास शख्स- मेरे पिताजी, जिनका हर दिन मैं इन्तजार करता था,  रह रहकर ये महसूस होता था कि पिताजी महज इसलिए नहीं आये क्योंकि वे मेरे दिल्ली आने से नाखुश थे, जब दिल्ली के लिए चला था तो पिताजी ने मना किया था, तब यश चाचा मेरे फेवर में बोले थे-“अगर दिल्ली विकलांग लोगो के लिए सेफ नहीं है तो क्या दिल्ली में बसने वाले सभी विकलांगो को दिल्ली से कहीं और जाकर बस जाना चाहिए।“ पिताजी ने उस वक़्त अनमने होकर जाने की इजाजत तो दे दी थी लेकिन वे खुश बिलकुल नहीं थे, शायद ज्यादा प्रोटेक्टिव हो गए थे। पिताजी खुद दिल्ली की भीड-भाड से बचते थे, ये भी उनकी मुझसे मिलने न आने की वजह थी, फिर भी आँखें पिताजी की झलक पाने का इन्तजार कर रही थी।

दूसरा शख्स – खास दोस्त रक्षिता।

ऑपेरशन के बाद कुछ दिन तक दिल्ली ही रहना पड़ा, मुझे दिल्ली में ही एक रिश्तेदार के यहाँ शिफ्ट कर दिया गया था। उस दौरान रक्षिता मिलने आई जरुर थी लेकिन ये मिलन, मिलन होकर भी बहुत अधूरा था। उस दिन मैं अकेला कमरे में लेटा हुआ था, कमरे का दरवाजा अन्दर से बन्द नहीं था, समय करीब ४ बजे का रहा होगा। रक्षिता कमरे में आई, पास में रखी कुर्सी पर बैठी, हल्की-फुल्की बातचीत के बाद मैंने देखा कि लेटे हुए भी दर्द हो रहा है, वह कुर्सी से उठकर चारपाई के किनारे पर बैठ गयी, उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया था। दोनों बहुत देर तक यूँ ही बैठे रहे थे। मैंने उसे अपनी तरफ खीँच लिया तो उसका सिर मेरी छाती पर आ टिका था, रक्षिता के खुले-लम्बे बाल मेरे चेहरे को ढके हुए थे। एक बहुत बुरे समय का ये एक हसीन पल था, मेरे दिल ने कहा कि वक़्त यूँ ही रुक जाए, लेकिन वक़्त की अपनी गति होती है, वह अपनी गति से चलता है। रक्षिता ने कहा- “दीप, अब मुझे चलना चाहिए, बहुत देर हो चुकी है। मैं दर्द पर काबू करने की कोशिश करता रहा, लेकिन असीम सुख के पलों में भी दर्द तेज ही था। मैंने रक्षिता की कमर के गिर्द घेरा बना लिया, रक्षिता की साँसों की गर्मी ने शरीर की तपन को बढ़ा दिया था। होंठो से होंठ का मिलन हुआ तो ये तपिस और बढ़ गयी। लम्बे अंतराल तक दोनों यूँ ही आलिंगनबद्ध रहे। दरवाजे की आहट हुई तो दोनों अलग हुए। रक्षिता बाय बोल अपने घर के लिए निकल चुकी थी। मैं उसके ख्यालों में खोया रहा।


क्रमशः 

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया। पढ़ने के दौरान, घटनाएं मस्तिष्क में दृश्यांकित होती रहीं।

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  2. आभार लेखन पसंद करने के लिए

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