Monday, 24 May 2021

एक अपाहिज की डायरी - आत्मकथा भाग-18

 अट्ठारहवाँ भाग   

ज्योति एक धनाड्य परिवार की लड़की थी, माँ-पिताजी दोनों सरकारी जॉब में थे। उसने जामिया मिलिया इस्लामिया से एम. एड. किया था। एक कॉलेज में हम दोनों की किसी एंट्रेंस एग्जाम में ड्यूटी लगी थी। वहीँ पर हमारा पहला परिचय हुआ था। वह अपने घर में इकलौती लड़की थी, उसके जन्म से पहले जितने भी बच्चो ने जन्म लिया, वो सब ज्यादा दिन जीवित नहीं रहे। जुड़वाँ बच्चे के साथ ज्योति ने जन्म लिया था, दूसरा बच्चा चल बसा था, वह बच गयी थी, इकलोती होने के चलते बड़े नाज-नखरे। हर चीज को पा लेने की तमन्ना, तितली की तरह पंख लगा उड़ जाने की तमन्ना। बहुत ही महत्वाकांक्षी, वो चाहती थी कि सब कुछ उसकी मर्जी से चले, सारी दुनिया उसे समझे, सब उसे महत्व दें। जबकि मैं उसके उलट, सादगी से चलने वाला... मैंने जो भी सीखा दिल्ली से सीखा... दिल्ली की लड़कियों ने मुझे अलग रंग में रंग दिया।

पहली मुलाकात के बाद मानों मिलने का एक सिलसिला बन गया था, बार-बार के मिलने से पता ही नहीं चला कि कब उससे प्यार हो गया? हालाकि न उसने कभी इजहार किया और न ही मैं ही कर पाया। हाँ इतना जरुर हो गया कि दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे की जरुरत बन गये, और शायद इस प्रगाढ़ता के बाद इस दोस्ती का कोई विकल्प भी नहीं बचता था। इन दिनों में मैंने ये साफ़-साफ़ महसूस किया कि वह अधिकार कुछ ज्यादा ही जताने लगी थी, और इसी अधिकार से मेरा अधिकार का दायरा भी बढ़ रहा था। ज्योति का जब मन होता फोन करके जहाँ मन करता बुला लेती, चाहे तबियत खराब हो या ठीक, समय है या नहीं..

इस दौरान मैंने ये भी महसूस किया वो कुछ मतलबी हो गयी है, उसे खुद की ख़ुशी से मतलब है चाहे मेरी तबियत कैसी भी हो, बस उसे मिलने से मतलब, अपनी खुशियों से वास्ता..। जब जो कह दिया होना चाहिए, मुझे लगता कि ये एक तरफा प्यार है जल्दी ही इस बात का अहसास भी बहुत हो गया कि ये जो हो रहा है प्यार के नाम पर छल है, धोखा है मुझे चीट किया जा रहा है, लेकिन मैं फिर भी चीट होता रहा, लुटता रहा प्यार के नाम पर.., कारण ये कि ये तीसरी लड़की थी, मेरे जीवन में जो प्रेमिका बनकर आई थी.. जिसने सपने दिखाए थे.. दिल्ली में बस जाने का सपना भी उसी ने दिखाया थानौकरी यहीं करना है, वह इसी बात पर अड़ जाती थी. जब-जब मैं पढाई पूरी करके लौट जाने की बात करता था, वह मुझे दिल्ली में ही कुछ करने की जिद्द किया करती थी। अपनी पढाई छोड़-छोड़ उसे पढाता.. जब जहाँ जरुरत होती वह मुझे संग ले जाती.. ऐसा लगने लगा था कि वह मुझ पर पूरी तरह डिपेंड हो रही है। मैंने उसे ख़त लिखे, जिनका उसने कभी जवाब ही नहीं दिया, जब मैं कभी कहता कि तुम मेरे लिखे ख़त पढ़ती भी हो या नहीं तो उसका जवाब होता कि जब मिल लेती हूँ तो जवाब लिखना क्या जरुरी है?, मैं उसे कहता तो फिर मिलने पर अपने मुँह से जवाब सुना दिया करो, तो तुरन्त कह देती-“मेरी आँखों में देखो, तुम्हें जवाब मिल जायेगा, बस पढना आना चाहिए।“ बस कुछ इसी तरह की उसकी बातें होती

मैंने उसे लिखा- ये खत जो तुम पढ़ रही हो और मैं लिख रहा हूँ उसे पढ़ने और लिखने के लिए बहुत हिम्मत की जरूरत है, ऐसा नही है कि आज अचानक मैं हिम्मत वाला बन गया हूँ, ऐसा भी नही कि मुझ पर किसी नशे का असर है, बात इतनी सी है कि अगर मैंने आज नहीं लिखा और तुमने आज नहीं पढ़ा और पढ़कर जवाब नहीं दिया तो आखरी वक़्त तक एक बोझ लेकर जियूँगा कि क्यों नहीं वो सब कह दिया, जिसे कह देना लाजिमी था। और अगर मैं इस बोझ को लेकर मरा तो ये बोझ मेरी मौत के बाद भी मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा

मैंने उसे ख़त में अपने जीवन की वो तमाम संघर्ष गाथा लिख भेजी तो शायद मैं किसी के साथ भी शेयर नहीं करना चाहता था, मैंने उसे बताया था कि कैसे मेरे मन में बार-बार आत्महत्या जैसे विचार आते हैं और उन विचारों को पुख्ता करने में तुम कितनी जिम्मेदार हो? मैंने उससे ख़त में वायदा भी लिया था कि देखो- पहले तुम एक वादा करो कि खत को पढ़ते वक़्त आँसू नहीं बहाओगीवैसे मैं लिखते वक्त बहुत रोया था, जिसका एहसास शायद उसे खत के नमकीनपने और शायद खुरदुरेपन से भी हो ही गया होगा

मैंने उसे बताया था कि बचपन से ही किसी ने मुझे स्वीकार नही किया था, किसी को मैं कमजोर लगा तो किसी ने मुझे आवारा समझा किसी भी लड़की ने दोस्ती की ओर बढ़ाए मेरे हाथ थामने की आरजू तक नहीं दिखाई.... । हाँ, हर लड़की दोस्ती जरुर करना चाहती थी, मैंने उसे रक्षिता और मंजू के बारे में भी लिखा था, उन दोनों के ही जिन्दगी से निकल जाने के चलते मैं रोता था। मैं ये सब माँ को बताना चाहता था, पिताजी को बताना चाहता था, सुप्रिया को बताना चाहता था, मगर पता नहीं क्यों कह नहीं पाता था .....रोज रोते-दहाड़ते जी रहा था

मैं अपने अपाहिज होने से दुखी हो चुका था, शुरुआत में मैं तुमसे कभी कुछ नहीं कह पाता था ऐसा नहीं था कि मैं कुछ कहना नहीं चाहता था बस आज तक किसी ने मुझे कभी सुना नहीं था तो बोलने में एक हिचक सी थी फिर मेरी उन बातों में कुछ भी तो आकर्षक नहीं था जो तुम मुझे सुनती, मेरी वेदना को समझती, यही सोचकर बस मैं तुम्हारे साथ घूमने जाता, तुम्हारी हर इच्छा पूरी करने की कोशिश करताहाँ, एक बात यहाँ कहना चाहता हूँ - तुम्हें घूमने, रेस्तरा जाने का बहुत शौंक था, और मेरे पास उतने पैसे नहीं होते थे, और फिर पढाई भी तो छूटती थी, तुम मेरी मज़बूरी समझ खुद ही रेस्तरा का बिल चुकता कर दिया करती तुमसे बात करने की वजह नहीं होती थी इसलिए रोज चुपचाप बैठ जाया करता था, तुम भी कितनी अच्छी थी कि रोज ही मेरे लिए कुछ न कुछ बना कर इसलिए ले आया करती थी कि मैं होस्टल में रहता हूँ, और होस्टल में रहकर घर के खाने को मन तरसता है

सब कुछ कितना अच्छा चल रहा था ...दिन, साल, महीने गुजर रहे थे ..हम दोस्ती की दहलीज पर आगे और आगे बढ़ रहे थे ...दोस्ती गहरी हो रही थी तुम्हें पता है मुझे हमारी दोस्ती में सबसे अच्छा क्या लगता था? यही कि तुमने मेरे अपाहिज होने पर कभी कोई सवाल नहीं किया था, सब कितना अच्छा चल रहा था मगर फिर अचानक मैंने महसूस किया कि तुम मुझे इस्तेमाल कर रही हो, तुम मेरे अपाहिज होने से तरस खाती हो, आखिर ऐसा क्या और क्यों हो गया था जो मेरे विचार में ये बातें सुमार होने लगी, शायद तुम्हें आत्म-मंथन करना होगा, ये खत मैंने यही बताने के लिए लिखा है

उसके बाद ज्योति का मुझे फोन आया था, उसकी ही एक दोस्त अनीता ने फोन किया था, ये एक एसटीडी कॉल थी, दो बार तो मैंने उसके इलाके का नम्बर देख कॉल उठाया ही नहीं, लेकिन फिर उठाया तो अनीता की आवाज थी-“सुदीप! तुमने प्रेम-पत्र लिखा या फिर किसी को आहत करने के लिए एक इमोशनल गाथा?”

मैंने उससे कहा-“अनीता, जो मेरा और उसका सच है मैंने वही सब लिखा है। अब उसे जो लगे, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?”

“जानते हो आज वो मेरे घर आई, और बहुत रोई, लो उससे बात करो।“

मैं उसे बात करने को मना करता उससे पहले उसने ज्योति को फोन थमा दिया। वह सुबकते हुए बोली थी-“तुमने मुझे इतना छोटा, इतना नीच समझा कि मैं तुम्हारी इच्छाओं, तुम्हारे आवेग, मनोभाव को नहीं समझती, और हाँ वो अपाहिज कहानी देकर मुझे क्या बताना चाहते थे? जानते हो मैं जिन्दगी में इतना नहीं रोई जितना आज रोई, क्या तुम चाहते हो कि हमारी दोस्ती का हस्र ऐसा हो, जैसा तुमने अपाहिज कहानी में दर्शाया है?”

मैं उसे कोई जवाब नहीं देना चाहता था, मैंने फोन काट दिया था, और रिसीवर उठाकर क्रेडिल से अलग रख दिया था ताकि मुझे और मानसिक वेदना का शिकार न होना पड़े। मैं जीवन में अब शांति चाहता था। उसके पापा हार्ट पेशेंट थे, ये उससे ही मुझे बताया थामैं अपनी तरफ से हर प्रयास चाहता था कि मैं उससे शादी कर पाऊँ, लेकिन उसके पापा बहुत बड़े सरकारी अफसर थे, हर किस्म की शानोशौकत थीमगर अफ़सोस मैं समाज के हिसाब से थोड़ा ऊँची जाति में पैदा हुआ था, जिसके साथ रुढ़िवादी विचारधारा हमारे खून में थी। लेकिन मैं ठाकुर परिवार के जातीय अहम को बीच में लाना नहीं चाहता था, उससे प्यार जो करता था मैं ... शायद वह भी करने लगी थी ...मगर इस तरह मैं उससे माँ-बाप से हमारी शादी की बात किये बिना इस रिश्ते को समाप्त करना नहीं चाहता था। इस वजह से मैं दो बार उससे घर भी गया, लेकिन माहौल ऐसा नहीं बना कि उसके घर पर इस प्रेम का जिक्र भी कर पाऊँ। उसने कहा था-“सुदीप अगर मेरे घर वालों को इस प्रेम की भनक भी लगी तो मेरे मम्मी-पापा मेरा घर से निकलना बन्द कर देंगे। फिर तुमसे मिलना भी बन्द हो जायेगा।“

ये एक इमोशनल ब्लैकमेल था, उसने मुझे हमेशा रोके रखा, और कभी इस रिश्ते को आगे पनपने ही नहीं दिया। हाँ, प्यार तो अब भी उससे करता था, लेकिन क्या फायदा इन बातों का, जिनसे कुछ हल ही नहीं निकलना

उधर नौकरी लगी तो अपने परम आदरणीय गुरुदेव के पास गया, उन्होंने सलाह दी- “सुदीप, समाजशास्त्र में एम.ए. कर लो, कहीं विश्वविद्यालय में सलेक्शन हो जायेगा, चुनांचे उनकी सलाह पर अमल हुआ और दो साल में एम.ए. भी पूरा हो गया। तभी विश्वविद्यालय से पार्ट टाइम एम.फिल शुरू हुआ, तो वहाँ एडमिशन ले लिया। एम.फिल और इश्क साथ-साथ चल रहे थे। अब रक्षिता और मंजू से तो मिलना-जुलना सब बन्द था, हाँ, ज्योति से अक्सर मिलना होता रहता, वो और मैं हम दोनों का जन्मदिन साथ ही मनाते। किताबों से ज्यादा उससे मिलना होता, न मिलते तो दोनों ही बेचैन हो जाते। अब हालात ऐसे हुए कि कोई भी दूरी बर्दास्त न होती।

सुप्रिया दीदी ने स्कूल खोलने का प्लान बनाया, मेरा दूसरी पाली का स्कूल था, इसलिए अब दीदी को सहयोग करने के लिए उनके साथ स्कूल में ठहरना शुरू किया, जिसके चलते ज्योति से मिलना कम हो गया। सप्ताह में दो बार मेरी खुद की क्लास होती, बस उन्ही दिनों में उससे मिलना हो जाता।

उसे जॉब की जितनी ज्यादा ललक थी उतनी ही ललक लिखने और छपने की भी थी, पहले उसकी एक नामी-गिरामी पब्लिक स्कूल में जॉब लगी तो मैंने उसे जींस गिफ्ट करते हुए कहा-“डिअर, अब थोडा मॉड हो जाओ, ये जींस हमारे प्रेम के नए अध्याय की एक तुच्छ सी भेंट।“ हम दोनों एक-दूसरे को छोटी से छोटी ख़ुशी पर गिफ्ट दिया करते थे। हम साथ घूमते, वो मुझे कितनी ही बार साहित्यिक कार्यक्रमों में लेकर जाती, मैं उसकी स्क्रिप्ट लिखता तो वो रेडियो पर प्रोग्राम देती, चेक जो मिलना होता उसमें मेरा कोई शेयर नहीं होता, मैं मजाक में कह भी देता कि मेहनत मेरी ज्यादा है, अगर अच्छी स्क्रिप्ट नहीं लिखता तो कैसे प्रोग्राम करती?, वो हँस कर बात को टाल देती। उसे जूनून था कि उसकी किताब आये। मैंने एम.एड के समय से ही एक नोट पैड में कवितायेँ लिखनी शुरू कर दी थी, हिंदी अकादमी से विज्ञप्ति निकली थी, प्रकाशन सहयोग योजना के तहत, हम दोनों ने पाण्डुलिपि भेज दी। अभी परिणाम आया तो उसकी पाण्डुलिपि स्वीकृत नहीं हुई थी अलबत्ता मुझे प्रकाशन योजना का लाभ मिल गया था, उसने कहा- “तुम सब जगह सेटिंग कर लेते हो, देखो मैंने भी भेजी थी, मुझे नहीं मिला।“

मैंने कहा-“ ज्योति तुमसे तो सेटिंग आज तक नहीं कर पाया, और कहीं क्या करूँगा?

अरे यार मैं तुम्हारे  आलावा दिल्ली में किसी साहित्यिक को नहीं जानता। “

ज्योति ने ही ‘हम सब साथ साथ’ के कार्यकारी सम्पादक किशोर दादा से सम्पर्क कराया था, बाद में उन्होंने मुझे सम्पादक मण्डल में भी सम्मलित किया और मैंने एक अंक का ‘नारी शक्ति विशेषांक’ के रूप में सम्पादन भी किया। उस समय एक पत्रिका निकलती थी जिसका सम्पादक सुरंजन था। आठवी पास सुरंजन शक्ल से बीमार जैसा लगता उसकी पत्रिका में मेरी कवितायेँ और लघुकथाएँ निरन्तर छप रही थी। उसी बीच ‘मानव मैत्री मंच’ की कविता लेखन प्रतियोगिता में हम दोनों को पुरस्कार मिलना तय हुआ, उसने मुझे न जाने को कहा, मैंने कारण पूछा तो जवाबा मिला-“मेरे मम्मी-पापा दोनों साथ जायेंगे, मैं नहीं चाहती कि तुम्हारा सामना उनसे हो।“

ये एक अजीब सी शर्त थी, और मैं भी आसानी से उसकी इस शर्त पर अपनी सहमति की मोहर लगा जाने का विचार त्याग घर बैठ गया। ऐसा एक बार नहीं कितनी ही बार हुआ, जब उसे या मुझे कहीं से अवार्ड मिलता तो न वो मेरे साथ जाती और न ही मुझे अपने साथ चलने देती। कुल मिलाकर ये तय होने लगा कि अब इस रिश्ते को ज्यादा दिन चलना नहीं है।

एक रोज उसने मेरे मकान पर आने की इच्छा जताई, मैंने मन में हजार सपने बुन उसे आने की सहमति दे दी। उस दिन मैंने सारे मकान को साफ किया सब सामान करीने से सजाया, मैं उसे कोई मौका नहीं देता चाहता था कि वो मेरे रहने के स्टाइल पर कोई सवाल उठाये, मैंने बड़े जतन से उसके लिए खाना बनाया। वो नित्य समय पर पहुँच गयी थी। आते ही उसने मुझे हग किया, और अपनी गोद में सिर रख सहलाती रही, पहली बार उसे इस रूप में देखना मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था, उसने अपने घुटनों को मोड़ मेरा सिर घुटनों पर टिका दिया, मेरे गाल उसके उरोजो को छू रहे थे, दोनों ही सोच रहे थे कि वक़्त यूँ ही ठहर जाए, लेकिन दोनों में एक मर्यादा थी, एक संयम था, कोई भी तो मौके के फायदे में नहीं था, बस एक स्नेहिल हाथ और उसके खुले केस जो अपेक्षाकृत छोटे थे, मुझे उत्तेजित कर रहे थे, वो मेरी प्रेयसी थी और मैं मात्र एक मानव, उसने कहा था-“सुदीप तुम विश्वामित्र हो, कोई और होता तो शायद मेरे अकेले होने का फायदा उठा सब मर्यादाएँ तोड़ने की जिद्द करता और शायद तब ये मिलन का आखिरी दिन होता, तुम महान हो।“

मैंने उसे मात्र इतना कहा-“देखो कितने मन से खाना बनाया है, चलो कुछ खा लें।“

“नहीं सुदीप, आज खाने में समय नष्ट न करके मैं ये अनमोल क्षण अपने लिए यादगार बना लेना चाहती हूँ, तुम्हें यूँ ही बाँहों में भर मन को एक शुकून मिल रहा है, बस मुझे यूँ ही इन लम्हों को अपनी झोली में भर लेने दो।“- कहकर उसने अपनी पकड़ और मजबूत कर ली। बस वो घण्टों यूँ ही बैठी रही।

मैंने ही उसे कहा-“सुनो, देखो बहुत देर हुई चलो तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ दूँ, वर्ना मम्मी-पापा नाहक परेशान होंगें।“

मन तो बिछुड़ने का दोनों का ही नहीं था लेकिन वक़्त और हालात दोनों की ही सीमा थी। उसे छोड़कर आते हुए मन बहुत उदास, बहुत मायूस था।

अब ज्योति से मुलाकातों का सिलसिला कुछ कम होने लगा, मैं दीदी के स्कूल को स्टेबलिस करने की कोशिश में लगा था। स्कूल के मुहूर्त पर उसे भी इन्वायिट किया था लेकिन वो नहीं आई। एक दिन मैंने उसे फिर से पत्र लिखा और उसे मिलने की खातिर फोन किया। समय नियत हुआ और हम द्वारका रेस्तरो मिले। उसने प्लेन सोडा आर्डर किया। समझ नहीं आया कि कैसे प्लेन सोडा वो पी लेती है इतना कसैला स्वाद? उफ़ क्या जिन्दगी में भी इतना ही कसैलापन लिए है?

उस दिन उसने कहा-“सुनो सुदीप, तुम मुझे भूल जाओ?”

मैंने पूछा था-“क्यों?

उसने जवाब दिया-“देखो मैं कभी बर्दास्त नहीं कर सकती कि कोई मुझे छुए, कोई मेरे बदन से खेले, कैसे कोई मेरे शरीर को कष्ट दे सकता है?”-मन किया कि उसे समस्त जीव विज्ञान सिखा दूँ लेकिन जाने क्या सोच मैं चुप हो गया और प्लेन सोडा का गिलास उठा बिना स्ट्रो के दो ही घूँट में खाली कर गया।

चलने लगे तो मैंने उसे लिखा हुआ ख़त थमा दिया। उसने कहा-“क्यों लिखते हो, जवाब तो मैं लिखूँगी नहीं।“

“मत लिखना, बस पढ़ लेना। मुझे यूँ लिखना अच्छा लगता है।“- वहाँ से जुदा होकर हम अपने अपने घर के लिए चल दिए। बस में बैठे हुए मुझे अपने ही लिखे शब्द याद आने लगे। ख़त में लिखा था-

तुम सोचोगी- मैं अभी क्या प्लान कर रहा हूँ? बस अब इंतज़ार खत्म हो चुका है, नौकरी की तलाश में हर युवा होता है, मुझे अब वो चिंता नहीं हैलेखक बनना चाहता था, वो तुमने बना ही दियाअब अपने सपने को जीना चाहता हूँएक अदद गर्ल फ्रेंड बने ऐसा मन था, तुम्हें जिन्दगी में पाकर अब ये भी इच्छा नहीं रही, अब किसी और की खोज में नहीं भटकना चाहता कुछ ऑफर आज भी आते हैं, लेकिन आगे बढ़ना नहीं चाहता। तुम ही तो कहती हो कि गोपियों के किशन हो, जब भी कॉलेज मिलने आती तो गोपियों से घिरे मिलते थे। आज किसी के साथ बैठ कॉफ़ी पीने की इच्छा नहीं होती, वजह तुम ही हो, हाँ प्यार तो अब भी है तुमसे

देखो मैं जानता हूँ कि तुमने आज फिर उस दिन की तरह रो रोकर पूरे खत को भिगो दिया है

सुनो, कभी-कभी मिल लिया करो और हाँ, तुम उपमा बहुत अच्छा बनाती हो, अगली बार जल्दी बनाना। तुमने मुझे खाने के मामले में बड़ा चूजी बना दिया है। अब तुम मुस्कुरा रही हो.. ऐसे ही मुस्कुराया करो, अच्छी लगती हो। अच्छा अब लिखना बन्द करता हूँ। ख़त को एक बार चूम लेना। बिलकुल उसी तरह जैसे नेशनल म्यूजियम की लिफ्ट से ऊपर जाते हुए मेरे होंठो को चूमा था। 

दो रोज ही हुए थे उसे मिलकर ख़त दिए हुए, उसने अपने स्कूल जाते हुए सुबह ही फोन करके बोला था- आज छुट्टी कर लेना, मैं हाफ छुट्टी लेकर आ रही हूँ। उसने आधे दिन की छुट्टी भरी थी। पर्स उठाया, और स्कूल के गेट से निकलते हुए ऑटो पकड़ा। 

ऑटो में बैठकर उसने रियर व्यू मिरर में खुद को देखा, और माथे पर आई पसीने की बूँदों को पोछकर, बाल ठीक किये तभी मेरे फोन की घंटी उसके मोबाइल पर गयी थी। "हेलो"- उसने कहा था।“

'हा, बोलो'

मैंने उससे पूछा-'तुम निकली या नहीं?'

'हा बस ऑटो में बैठी ही थीमैंने जवाब में कहा- 'ठीक है, जल्दी आओ। मैं इंतजार कर रहा हूँ।

'हम्म'-कहकर उसने फोन काट दिया 

उसने नहीं बताया था कि कहाँ मिलना है, न ही मैंने पूछा था। एक बार मन में आया कि फोन करके पूछ लूँ-‘कहाँ मिलना है?’ लेकिन फिर जाने क्या सोच हाथ में उठाया फोन का रिसीवर पुनः क्रेडिल पर रख दिया था। लाल बत्तियों को क्रॉस करते हुए वो मेरे घर के बाहर खड़ी थी। उसने बेल की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि उससे पहले मैंने आवाज़ दी- 'तुम्हें तो बेल बजाकर आने की जरुरत नहीं है, दरवाजा खुला है, अन्दर चली आओ, मैंने आज तुम्हारे लिए पिज़्ज़ा आर्डर किया है।'

वो अन्दर आई। उसने कमरे में चारो ओर नजर दौडाई थी। क्या कुछ बदल गया है? नहीं कुछ भी तो नहीं बदला है, उसने देखा- घर एकदम साफ़-सुथरा था, टेबल पर अखबार भी सिमटे हुए रखे थे। फ्रीज में पानी की बोतलें भरी हुई रखी थी। वो सोफे पर बैठ गयी और बोली-“तुम जरा भी तो नहीं बदले हो। रहने-जीने-काम करने का ढंग आज भी वैसा ही है, जैसा पाँच साल पहले था, जब हम पहली बार मिले थे, कितने करीने से तुमने सब कागजात पूरे किये थे, एग्जाम की कापियों के बण्डल पैक किये थे, प्रो. रोमेश भी तुमसे कितना खुश थे।“

वो अपने आस-पास की घटनाओं को समझने की कोशिश करने लगी। तभी मैंने उसे कहा-“चलो, किचन में चलकर चाय या फिर कॉफ़ी बनाते हैं। तुम्हें फेंटकर बनाई कॉफ़ी बहुत पसन्द है न।“

मैं उसका हाथ पकड़कर उसे किचेन में ले गया। मैंने उससे कहा था-“तुम कॉफ़ी बना रही हो या फिर मैं बनाऊँ?”

उसने मुझे बनाने को कहा था। मैं कॉफ़ी बनाने लगा, उसके हाथो ने मेरी कमर के चारो तरफ घेरा बना लिया था। मैं कॉफ़ी बनाने में मशगूल था और वो अपना प्रेम प्रदर्शित करने में।

कॉफ़ी बनाकर मैं बैडरूम की तरफ चलने लगा।

'चलो अन्दर ही बैठेंगे।'-मैंने कहा थावो बेड पर बैठ गयी। कॉफ़ी के कप टेबल पर रख मैं उसके साथ बातें करने लगा। हम दोनों ही बहक जाना चाहते थे। कॉफ़ी ठण्डी हो गयी थी लेकिन साँसों में गर्माहट बाकी थी। उसने पूछा था-“तुम इतने दिनों से कंप्यूटर चलाते हो, इसके कुछ रोमांटिक नहीं है?”

मेरी हामी भरने पर वो कंप्यूटर में मशगूल हो गयी थी। पिज़्ज़ा बॉय ने बेल बजायी मैं गेट खोलने चला गया। पिज्जा ले मैंने उसके आगे रख दिया वो कंप्यूटर पर व्यस्त थी। अक्सर ऐसा होता था कि जब कभी हम पिज्जा खाते वो एक स्लाइस उठाती, आधा खा मुझे कहती-मुँह खोलो, और मेरी तरफ बढ़ा देती। उसे व्यस्त देख मैं एक स्लाइस उठाकर खाने लगा, और आधा खाकर उसकी तरफ बढ़ा दिया। उसने जैसे ही हाथ बढ़ाया आधी स्लाइस देख विष्मय से मेरी और देखा और मुस्कुरा दी उसकी आँखों में एक अजीब चमक थी और दो बूँदें भी। वो आँसू पोछती उससे पहले ही मैंने उसके चेहरे को अपने हाथो में ले लिया। और उसके करीब बैठ गया। एक बार फिर हम आलिंगनबद्ध हुए।

'क्यों ज्योति? ये सब ज़रूरी है क्या? ये तुम्हारा फैसला है और मैं सिर्फ साथ दे रहा हूँ, तुम जब मन होता है करीब हो जाती हो, जब मन होता है दूर हो जाती होआज तुम मुझे कन्विंस कर रही हो और फिर खुद ही रो भी रही हो?' उसने आँख उठाकर मेरी तरफ देखा फिर बोली –“मेरे विश्वामित्र तुम्हारी तपस्या ख़त्म हुई, लो तुम्हारी उर्वशी तुम्हारे पास है। तुम ही कहते थे न कि मुझे तुमसे एक बेटी गिफ्ट में चाहिये, तुम अपनी इच्छा पूरी कर सकते हो।“-कहकर उसने अपनी पकड और मजबूत कर ली थी।

हम बहक ही गए थे। मात्र दो कपड़ों में वो वाकई अप्सरा ही लग रही थी। मैंने उसे कहा-“अमेरिकन ब्यूटी हो तुम, जैसे गोवा बीच पर लेटी कोई अंग्रेज बालिका। कहाँ से पाया ये सौन्दर्य, उफ्फ मैं पागल हो जाउँगा।“-अचानक मन में कुछ विचार कोंधा और मैंने उसे कहा- “ज्योति शायद हमें और आगे नहीं जाना चाहिए। ये हमारे दोनों के अरमानो के साथ ही कुठाराघात होगा।“

वक्त कुछ पल ठहरा। फिर सब कुछ शांत, उसने कहा-“तुम वाकई विश्वामित्र हो। आज तुमने प्यार की पवित्रता का मान रख लिया। मुझे तुम्हारे प्यार और विश्वास पर गर्व है। तुमने इस प्रेम को अमर कर दिया, मैं अपने होने वाले पति में हमेशा तुम्हारा अक्स देखूँगी।“

उसकी एक बात ने फिर मन कसैला कर दिया था। पिज्जा खा कर उसने कॉफ़ी गरम की। एक बेहतरीन दिन जिन्दगी में जुड़ गया था, कुछ मन में खटका जरुर लेकिन उस दिन के बाद मैंने उसे अमेरिकन ब्यूटी कहना शुरू कर दिया था।

वो उस दिन जब मेरे घर से गयी तो रोया तो मैं भी था रात भर, उसकी शक्ल दिमाग में घूम गयी थी और घूम गया था उसका वह वाक्य- ‘मैं अपने होने वाले पति में तुम्हारा अक्स खोजूंगी।‘

हम एक-दूसरे को बहुत सम्मान देते थे, दोनों एक-दूसरे की जरुरत थे, दोनों एक-दूसरे को तंग भी करते, गुस्सा होते, मना भी लेते, हम दोनों में कभी कोई बड़ा या कोई छोटा नहीं समझता थालेकिन पिछले कुछ सालो में जैसे सब कुछ बदल गया था, शायद वो प्यार भी बदल गया था, मुझे याद आया जब उसने कहा था- तुम्हें मुझसे एक बेटी गिफ्ट में चाहिए न, पागल, नहीं जानती इतना आसान नहीं है एक बेटी गिफ्ट में देना। कभी मुझसे दूर हो जाना, कभी बेटी की फरमाईश पूरी करने की पेशकश। कितना मुश्किल था, आगे की डगर पर चलना, मानों वह ऊँची हील के सैंडल पहने हो और मैं नंगे पाँव

उसने मुझसे कहा था-“सुदीप तुम अपने सब पेपर्स लेकर आ जाओ और मैं अपने ले आती हूँ, हम अहमदाबाद चलते हैं, दोनों पढ़े-लिखें हैं, नौकरी करके नया जीवन शुरू करते हैं।“  

मैंने उसे याद दिलाया-“हमने वादा किया था कि हम अपनों की ख़ुशी, अपनी ख़ुशी से पहले रखेंगे अगर हमारे अपने ही खुश नहीं होगे तो हम कैसे खुश रहेंगे, तुम्हें याद है न, मैंने तुम्हें कहा था मुझे एक मौका दो तुम्हारे मम्मी-पापा के सामने खुद को साबित करने का। तुमने ही मना किया हर बार, आज मैं तुम्हारा ये प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता।

उस दिन शायद मैंने बड़ी गलती की, लेकिन मेरे मन में उसके पापा की हार्ट प्रोब्लम थी, मैं नहीं चाहता था कि मेरी वजह से कोई इकलौती बेटी अपने माँ-बाप से अलग हो 

जब इस नगरी में आया था तो एक भोला सा लड़का था। सब साथी कहते थे बहुत सीधे हो। उसने भी तो कहा था लल्लू हो पूरे। असल में मैं था भी लल्लू ही। हर किसी पर विश्वास कर लेना हर किसी को अपना समझ लेना। शायद उसके सम्पर्क में आकर ही दुनियादारी सीख पाया। वो न मिली होती तो सम्भवतः आज भी लल्लू ही होता।

याद आते हैं वो दिन जब हम साथ घूमा करते थे। मैं कुछ यादों में खो जाता। एक दिन फिर से यादों में खोया था- मानों वो मेरे सामने है- उडुपी जब तुम पहली बार लेकर गयी और डोसा आर्डर किया। मैंने डोसा परांठा की तरह खाना शुरू किया तो तुमने डाँटा था। ऐसे भी कोई डोसा खाता है। तब मैंने कहा था मैं अपने घर में परांठा ऐसे ही उधेड़ता हूँ। तुमने कहा था बुद्दू ये परांठा नहीं डोसा है इसे ऐसे तोड़कर नहीं खाते। एक हाथ में फोर्क पकडते हैं दूसरे में स्पून। और तब तुमने अपने हाथ से मुझे एक बाईट खिलाकर बताया था कि ऐसे खाया करो। और मैं उस वक़्त तुम्हारा चेहरा देखता रहा था, अपलक। मानो तुम मेरी मेट्रन हो और मुझे सिखा रही हो कि दीप देखो ऐसे सलीके से खाया करते हैं। तब मैंने मजाक में कहा था कि ज्योति क्या फर्क पड़ता है अगर मैं मेरी तरह खाता हूँ। तुमने कहा-“दीप देखो न- कितने लोग आपके गंवारपन को देख नीचे-नीचे मंद-मंद हँस रहे हैं।“ 

हाँ लोग हँस तो रहे थे लेकिन क्या करूँ, मैं तब भी गंवार था और आज भी गंवार हूँ। ज्योति मैं आज जब दीन दयाल अस्पताल गया, अपना डिसेबल्ड का सर्टिफिकेट बनवाने, लंच के बाद आने को बोला तो मुझे तुम्हारी याद आ गयी। जब मैं एक बार कॉलेज में बीमार हुआ था तब तुम मुझसे मिलने होस्टल आयी थी, तुमने देखा था कि मेरा बदन तप रहा था। तुमने पूछा तो मैंने मजाक में कहा था-ये तुम्हारे प्यार की गर्मी है तब तुमने गाल को सहलाते हुए कहा था -“दीप तुम्हे बुखार है और तब भी मजाक और शरारत सूझ रही है। चलो अभी डीयू के अस्पताल।“ तब तुमने दवा दिलवाई थी और मेरे मना करने पर भी फ्रूट और जूस के पैकेट्स जबर्दस्ती रख गयी थी। खाने-पीने के लिए। 

खाने-पीने से याद आया। आज जब भूख लगी तो हरिनगर की सड़कों पर खाने के लिए शांत जगह खोज रहा था। तुम तो जानती हो मुझे शांत बैठना कितना पसन्द है। एक साउथ इंडियन खाने की जगह दिखाई दी तो उनमें घुस गया। आज फिर मैं डोसा आर्डर करता हूँ। लेकिन टेबल के उस ओर की कुर्सी खाली है। अकेला बैठा हूँ। तुम्हारी यादें साथ हैं। आज भी मैं बिना फोर्क के डोसा खाने लगता हूँ। मन कहता है तुम डॉटोगी, फिर देखता हूँ सामने तो कोई नहीं है। मैं फिर साम्भर का आर्डर करता हूँ। तुम्हें दोबारा साम्भर माँगना पसन्द है न इसलिए। ज्योति आज कोई मेरे हाथ से, बिना फोर्क के डोसा खाने पर कोई हँस रहा है या नहीं, इससे मुझे फर्क नहीं पड रहा है।

तब तुम्हे बुरा लगता था तो मैंने तुम्हारे हिसाब से खाने की आदत डाल ली थी। मुझे पता है तुम सामने होती तो आज भी डांट देती। बोलती –“हो तो गंवार ही न।“ और मैं फिर मुस्कुरा कर कहता- “गंवार हूँ तो छोड़ दो मुझे मेरे हाल पर।“ तुम फिर कहती-“ दीप देखना, एक दिन चली जाऊँगी तुम्हे छोड़कर। तब तुम रोना मुझे याद करके।“-आँखों के कोर गीले हो गये। तुमने सच ही कहा था। जाने वाले लौट कर नहीं आते। वेटर बिल लेकर आता है मैं बिल के पैसे चूकते कर सौंफ मुँह में डाल रेस्तरां से बहार निकल आता हूँ।

 क्रमशः


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