साक्षात्कार
(सच जब सामने आता है
तो अधिक मुखर होकर पुनः प्रस्फुटित होता हैं – संदीप तोमर)
अखिलेश द्विवेदी
द्वारा संदीप तोमर का साक्षात्कार
साहित्यकार “अखिलेश द्विवेदी अकेला”की प्रबुद्ध साहित्यकार
संदीप तोमर साथ खास बातचीत के अंश पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है:)
अखिलेश -आज आप साहित्य जगत में परिचय के मोहताज़ नहीं हैं. आपकी लेखनी
खुद आपका परिचय कराती है. आपने लेखन कब व किस विधा से
शुरू किया?
संदीप तोमर- मेरा मानना है कि किसी भी कलमकार का परिचय उसका लेखन ही होता है..मेरे
पाठक, समीक्षक और साहित्यिक मित्र ही मेरी ताकत है ..आप लोग हैं तो साहित्य है /
लेखन है। पिछले जीवन पर दृष्टिपात करता हूँ तो याद आता है १९८६ में छठी कक्षा में
पढ़ते था, एक साथी था -अशोक शर्मा, उसकी जान-पहचान में अमर उजाला अखबार के कोई पत्रकार
थे तब “पेड़ का भूत” कहानी लिखी थी.. जिसे अशोक ने अपने नाम से छपवाया था। दुःख और
सुख की मिली-जुली अनुभूति हुई थी उस वक़्त।
अखिलेश -पहली लिखी रचना कौन सी है व पहली प्रकाशित रचना कौन सी है?
संदीप तोमर: “पेड़ का भूत” रचना मेरी होकर भी मेरी नहीं रही। उसके बाद झुटपुट डायरी
लेखन और शायरी और कविता का दौर चलता रहा
लेकिन वो सब समय के साथ और बार-बार अध्ययन क्षेत्र बदलने के चलते नष्ट हो गया। सन
२००० में पुनः कविता लिखना शुरू किया। ”पतझड़” कविता को इस मायने में मैं अपनी पहली
रचना मानता हूँ, लेकिन प्रकाशित हुई “ताकतवर हिजड़े“ जिसे मानव मैत्री मंच ने
पुरस्कृत किया था।
अखिलेश -पढ़ाई, गृहस्थी, लेखन, शिक्षण, गाँव, राजनीति,सोशल मीडिया, क्षेत्रीय, सामाजिक कार्य, शारीरिक समस्याओं के बावजूद इन सबके लिए कैसे समय निकालते हैं व कैसे सामजस्य
बिठाते हैं ?
संदीप तोमर- एक घटना याद आती है। १९८७ या ८८ की बात है, शारीरिक अक्षमता के चलते पिताजी को
किसी जानकार ने मुझे पढने की बजाय सिलाई जैसे रोजगार में लगाने की सलाह दी। पिताजी की उन पर नाराजगी देख मन ने जैसे एक संकल्प दिला दिया
कि जोखिम से बचना नहीं है। बढ़ते जाना है, बस उस
घटना को भूला नहीं और उसी घटना ने जो जूनून पैदा किया वो जूनून ही बहुत सी
व्यस्तताओ के बावजूद सामजस्य बैठाने की ताकत देता है। पता ही नहीं चलता
कि सब कैसे हो रहा है। मुझे लगता है ये सब रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा है।
अखिलेश -आपका आत्मकथात्मक लेखन उपन्यास के रूप में पढ़ने को मिला। क्या वह आपकी
आत्मकथा है या उसमें कल्पनाओं के रंग भरकर रोचक बनाया गया है? अगर वह आत्मकथा है तो आत्मकथात्मक उपन्यास नहीं हो
सकता। उस बारे में कुछ रोशनी डालिए।
संदीप तोमर- नहीं, जो आपने पढ़ा
वो दरअसल एक संस्मरणात्मक उपन्यास है। और ये कोई पहली बार
मैंने अनूठा प्रयोग नहीं किया. संस्मरणात्मक उपन्यास कोई नयी विधा नहीं है. बहुत
से नामचीन लेखकों का इस प्रकार का लेखन देखा जा सकता है. मुक्तिबोध ने भी “एक
साहित्यिक की डायरी” नाम से संस्मरणात्मक लेखन किया है.. और भी नाम गिनाये जा सकते
हैं। अभी मैं स्वयं को इस स्थिति में नहीं पाता कि आत्मकथा लिखी
जाए। आत्मकथा लिखना मेरे जैसे लेखक के लिए जल्दबाजी होगी। अभी बहुत कुछ लिखा जाना है..आत्मकथा तो बहुत बाद की बात है।
अखिलेश -आप बार-बार अपनी पूर्व प्रेमिका का नाम लेकर यादों
को उकेरते हुए लिखते हैं। क्या आपको नहीं लगता कि इन बातों का उसकी वर्तमान
गृहस्थी पर असर पड़ता होगा?
संदीप तोमर: लेखन और गृहस्थी को
मैं अलग-अलग रूपों में देखता हूँ। समाज में चारों और
आपको प्रेम-कथानक मिलते हैं तो ये एक महज संयोग ही कहा जा सकता है कि आपको उसमें
मेरे निजी जीवन का आभास हो। फिर सच जब सामने आता
है तो अधिक मुखर होकर पुनः प्रस्फुटित होता प्रतीत होता है, इसे किसी एक नायिका या
पूर्व प्रेमिका से जोड़ना उचित नहीं। हाँ इसे यूँ कहा जा
सकता है कि किसी एक नारी पात्र के रूप में विभिन्न नायिकाएं मेरे लेखन का हिस्सा
बनती हैं.. जिससे कई बार पाठक को एक ही नायिका का भ्रम पैदा होता है।
अखिलेश -आप ईश्वर को नहीं मानते। नकारना भी तो स्वीकारना है। क्या कहेंगे?
संदीप तोमर: ओशो कहते हैं मैं
मृत्यु सिखाता हूँ। कई बार ये असहज लग सकता है कि लोग जीना नहीं सीख
पाते फिर मृत्यु सीखना या सिखाना क्या हुआ? तो इस विचार से ही
स्वीकार्य का भाव आएगा। वर्तमान में जो ईश्वर या भगवान, अल्लाह, गॉड
इत्यादि को जिस दैवीय शक्ति या फिर मेरे वाला श्रेष्ठ का भाव उत्पान करने का प्रयास किया जा रहा है। मैं उस रूप की आलोचना करता हूँ। अगर वाकई ऐसा है तो उसे नकारना की श्रेयकर है। विज्ञान का छात्र और अध्यापक रहते हुए जो तर्कपरक ज्ञान
अर्जित हुआ उसके आधार पर मैं सृष्टि को बनाने और चलाने के लिए प्रकृति को आधार
मानता हूँ, उसे आप ईश्वर कहें तो मुझे आपत्ति नहीं।
असल में भारतीय परम्परा में हर महान व्यक्ति को
ईश्वर तुल्य माना जाता है। आप वेद-पुराण इत्यादि
ग्रंथों का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि सबके मूल में प्रकृति ही है। अग्नि वायु जल इत्यादि की पूजा के पीछे प्रकृति के संरक्षण और
दोहन का विज्ञान है।
अखिलेश -आप पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े थे फिर भाजपा के समर्थक बनें। अब
आपका झुकाव वाम विचारधारा की ओर है, साथ ही आप पार्टी के प्रतिनिधियों से नजदीकी भी। शिक्षक संघ के चुनावों
में आप कांग्रेसी नेताओं से सहयोग मांगते है। यह खिचड़ी कभी-कभी आपके सार्वजनिक
व्यक्तित्व को अबूझ बना देती है। आपकी स्पष्ट विचारधारा क्या है? किस राजनीतिक दल का समर्थन करते हैं?
संदीप तोमर- हाँ ये सत्य है कि
मैं युवावस्था में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुडा और भाजपा के साथ
एक कार्यकर्त्ता के रूप में कार्य करता रहा उसका एक बड़ा कारण कैडर बेस पार्टी का
होना है। देश में दो ही पार्टी है जिन्हें कैडर बेस कहा जा सकता है भाजपा और वाम,
बाकी सब जो किसी पार्टी के प्रतिनिधि या कार्यकर्ताओं से रिश्ते का सवाल है वो सब
आम लोगो के सामाजिक कार्य के रूप में ही आप देखें। गर आप सर्वजनिक जीवन में हैं तो
आपको किसी पार्टी विशेष का सदस्य न होकर मात्र एक जनसेवक के रूप में होना होगा। वर्ना आप एक ठप्पा लेकर रह जाते हैं
ऐसे में आमजन के मन में आप नहीं बस सकते। सत्ता और पार्टी का तो आना-जाना लगा रहता
है। एक जनसेवक को सदा आमजन के साथ रहना है, वो आमजन आपकी जिन्दगी का एक हिस्सा है।
उससे विमुख आप नहीं हो सकते।
हाँ, एक साहित्यिक के रूप में मैं इतना
जरुर कहूँगा कि सब विचारधारा को जानना उस विचारधारा का होना नहीं होता। लेखक का
काम है सच को पाठक के सामने लाना। समाज में जो घटता है लेखक उसे अपने साहित्य में
स्थान देता है। किसी विचारधारा पर लिखने से लेखक को उस विचारधारा का नहीं कहा जा
सकता। इस अंतर को समझना बेहद जरुरी है।
अखिलेश - आपकी अधिकांश
कहानियां प्रेम के इर्द गिर्द घुमती है जबकि आपकी कविताओं में समाजवाद के तत्व की उपस्थिति नजर आती है? वो समाजवाद कहानियों में क्यों उपस्थित नहीं होता दिखाई पड़ता ?
संदीप तोमर- जी आपने सही
कहा। मेरी अधिकांश कहानियां प्रेम के इर्द गिर्द घूमती हैं..असल में जीवन में
प्रेम है तो सब कुछ है। प्रेम से इतर मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। फिर
प्रेम सिर्फ दो विपरीत लिंगी जीव तक ही नहीं सिमटा है। हर रिश्ता प्रेम पर ही तो टिका है। प्रकृति बहुत
खूबसूरत है प्रेममय है। लेखक जो देखता है वही तो लिखता है। कहानी कल्पना से नहीं
लिखी जा सकती। फिक्शन भी यथार्थ के बिना संभव नहीं। लेकिन कई कहानियां हैं जो
सामाजिक ताने बाने को लेकर लिखी गयी हैं. एक ऐसी ही कहानी है “ताई” जिसमे सास-बहु के रिश्तों की
बारीकियों को दिखाया गया है. आपने बात की कविता की तो कविता को मैं आन्दोलन के
हथियार के रूप में देखता हूँ.वह आन्दोलन जो जीवन से है, समाज से है, व्यवस्था से है, जो स्फूर्ति पैदा करे। तो मैं कह रहा था कि कविता जीवन का एक
आवश्यक अंग है। व्यक्ति पैदायशी समाजवादी होता है वह साम्यवादी ही पैदा होता है।
साम्यवादी अर्थात प्रकृति, संसाधन पर बराबरी का पैदाइशी हक़।
बाकि सब वह सामाजीकरण से बनता है। प्रयास होगा आपको आगामी कहानियों में भी समाजवाद
दिखाई दे।
अखिलेश - आपने कविता से
सफ़र शुरू किया..और कहानी लिखते हुए लघु कथा की और उन्मुख हुए..लघु कथा की तरफ आपका
ध्यान क्यों और कब गया? आप लघु कथा को किस रूप में पाते हैं? क्या इस विधा का छोटे आकर में होना इसकी तरफ जाने का कारण है या
...?
संदीप तोमर: बिलकुल ऐसा ही
कुछ रहा.. शुरुवाती लेखन कविता तक सीमित रहा । कुछ पत्र-पत्रिकाओं में कवितायेँ छप
रही थी। काव्य संकलन “सच के आस-पास” के प्रकाशन के बाद कहानियां लिखी लेकिन जल्दी ही यानि २००५ में
कहानी संकलन आया। लघु कथा साथ-साथ लिखी जा रही थी, लेकिन संकलन रूप में २०१० में “कोमरेड संजय” के रूप में आया।
ये सब किसी योजना का हिस्सा कभी नहीं रहा.. जो भी लिखा गया स्वाभाविक रूप में लिखा गया.मैं योजनाबद्ध होकर लेखन
कर ही नहीं पाता..
अखिलेश –आपने कई विधाओं में लिखा। किस विधा को आप मुश्किल मानते है और
किसमें स्वयं को सहज महसूस करते हैं?
संदीप तोमर- देखिये अखिलेश
जी, कोई भी विधा आसान नहीं होती। आप
स्वयं एक अच्छे किस्सागो हैं। आपका लेखन मेरी आँखों के सामने से गुजरा है। हाँ
उपन्यास विधा को मैं एक मुश्किल विधा मानता हूँ। इतनी जटिल विधा शायद मेरे बस से
बाहर की बात है। २००२ में दो कथानक पर उपन्यास लिखने शुरू किये -”ये कैसा प्रायश्चित” और “उमंगाचार्य: एक संगर्ष-गाथा” आज तक उन्हें पूर्ण नहीं कर पाया। ”थ्री गर्ल फ्रेंड” भी पूर्ण न कर
पाता यदि शरदचंद्र के श्रीकांत को न पढ़ा होता। हाँ लघु कथा मेरी पसंदीदा विधा है और इसमें बहुत कुछ सीख भी रहा
हूँ।
अखिलेश -आप नये कवियों -लेखकों को अक्सर साहित्य की पाठशाला
नामक सोशल मीडिया के ग्रुप में साहित्य के गुण सिखाते हैं। नये लेखकों में सबसे
अधिक किस बात की कमी दिखायी देती है?
संदीप तोमर- हाँ, कुछ
सीखने-सिखाने के उद्देश्य से ये शुरू किया गाय
कार्य है, जिसका लाभ भी साथियों को मिल रहा है। नए लेखक अच्छा भी लिख रहे हैं लेकिन लगता है उन्हें बहुत जल्दबाजी है। जैसे सब कुछ अभी कर लेना चाहते हैं। छपने की छटपटाहट है। जैसे वो पढना कम चाहते
हैं और लिखना अधिक। मेरा
मानना है कि एक अच्छा लेखक होने से पहले एक बेहतर पाठक होना बहुत जरुरी है। मैं नयी पीढ़ी से आपके माध्यम से कहना चाहता कि समकालीन और
पूर्ववर्ती लेखकों को अधिक पढ़ें।
अखिलेश - लघुकथा विधा पर आपके क्या विचार हैं? इस समय बेजोड़ लघुकथाकार कौन है?
संदीप तोमर- जैसे कि मैंने पहले
भी कहा, सब विधाओं का अपना महत्त्व है। मैं लघु कथा को एक
ससक्त विधा मानता हूँ। हालाकि लघुकथा को गद्यांश, व्यंग, चुटकुले, संस्मरण इत्यादि का प्रतिरूप समझने
वालो की कमी नहीं है। अधिकांशत: देखने में मिलता है कि जल्दबाजी में लिखी गई कथाएँ
जो अत्यन्त छोटी होती हैं उन्हें लेखक लघुकथा का नाम दे देता है। लघुकथा की इस
समस्या ने इसे एक अजीब स्थिति में ला खड़ा किया है। अधिकांश व्यक्ति मात्र इसलिए
लघुकथाए लिख रहे हैं कि उन्हें सिर्फ लिखना है लघुकथा को इस मानसिकता के लोगों ने
साहित्य में शार्ट-कट मानना शुरू कर दिया है. फिलहाल योगराज प्रभाकर, मधुदीप,
मधुकांत, बलराम अग्रवाल, पुष्करणा जी, कमल कपूर, सीमा सिंह, कांता राय, हरनाम
शर्मा, अनिल शूर,कमल चोपड़ा कई नाम हैं जो
अच्छे लघुकथाकार है। योगराज प्रभाकर जी से लघु कथा विधा को बहुत आशाएं हैं।
(हँसते हुए ..) वैसे संदीप तोमर भी एक नाम
है।
अखिलेश- वर्तमान में साहित्य का राजनीतिकरण हुआ है। पुरुस्कार
वापसी प्रकरण पर आपके क्या विचार हैं?
संदीप तोमर- ये आपने सही कहा
वास्तव में वर्तमान में साहित्य का राजनीतिकरण अवश्य हुआ है। समाजों
और देशों का राजनीतिकरण जैसे-जैसे ज़्यादा हुआ है, मानवीय
मुद्दों का संघर्ष उस अनुपात में नहीं बढ़ा। इससे भी समस्या बढ़ी है। हालाकि ये बड़ा
पेचिंदा मामला है। स्वायत्त संस्थाएं भी
राजनीति का शिकार हो रही हैं। कई बार सरकारें अपने फायदे के लिए इन्हें इस्तेमाल करने का प्रयास
करती है। मेरा स्पष्ट मानना
है कि स्वायत्त साहित्यिक संस्था का राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। प्रख्यात साहित्यकार नयनतारा सहगल एवं अशोक
वाजपेयी के साहित्य
अकादमी पुरस्कार लौटाने के निर्णय को हालाकि विपक्ष
ने भी समर्थन दिया लेकिन ये देखना महत्वपूर्ण है कि ये निर्णय स्वयं कितना राजनीति
से प्रेरित है। सवाल ये है ये विरोध के स्वर
आपातकाल में क्यों नहीं फूटे।
द्विवेदी जी एक बात देखिये पुरस्कृत से लेखक को बहुत सम्मान एवं प्रतिष्ठा मिलती
है। यदि लेखक पुरस्कार लौटा भी देता है तो उसे जो मान-सम्मान मिला उसका क्या होगा?
क्या वह उस सम्मान की भी वापसी कर पायेगा?
अखिलेश- साहित्य अकादमी ने अभी हाल ही में वयोवृद्ध साहित्यकार डॉ.रामदरश मिश्र
जी को सम्मानित किया। आपको नहीं लगता कि यह सम्मान उन्हें बहुत देर से मिला? सरकारों व् संस्थाओं को साहित्यकारों के प्रति और
अधिक संवेदशील होने के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे ?
संदीप तोमर- जी बिलकुल ये बहुत
अधिक देरी का निर्णय है. डॉ. रामदरश मिश्र जी का स्तर इन सम्मान इत्यादि से
बहुत ऊपर है। मैं उन्हें हिंदी साहित्य में एक मात्र व्यक्ति मानता हूँ जो कभी
राजनीति में संलग्न नहीं हुए जो कभी विवाद में नहीं रहे। और मैं नहीं समझता कि
उनका नाता कभी किसी राजनैतिक सत्ता से रहा। ऐसे वयोवृद्ध की अनदेखी से मन को एक
धक्का अवश्य लगता है। सरकारों व संस्थाओं को साहित्यकारों के प्रति और अधिक
संवेदशील होना होगा। उनके मान-सम्मान के लिए सजग होने की जरुरत है। कहते हैं कि
देर से लिया गया निर्णय भी अन्याय की श्रेणी में आता है। साहित्यकारों का सम्मान
देश समाज और संस्कृति का सम्मान है।
अखिलेश -सुना है एक काव्य-संकलन निकाल रहे हैं। इसके पीछे
क्या सोच है ?
संदीप तोमर: असल में ये ११
रचनाकारों का एक संयुक्त संकलन है। जिसमें अधिकांश वो
रचनाकार है जो काफी समय से लिख रहे हैं। लेकिन उनका कोई निजी
संग्रह या संकलन नहीं आया। उद्देश्य उन्हें एक
प्लेटफोर्म देना है। इस संकलन में कुछ नामचीन कवि भी हैं, जिनकी अनेक
पुस्तकें प्रकाशित हैं। ये एक अलग सोच है कि अनुभवी और नवोदितों को एक साथ संकलित
किया जाए ताकि पुस्तक का भी स्वागत हो और लेखन का असल उद्देश्य पाठक तक पहुँच कर
फलीभूत हो।
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