Wednesday, 13 May 2015

दुष्यंत कुमार की जमीन से एक रचना....
लग रहा है बेफिक्र वो बेहद सावधान है
छोटा सा कमरा नहीं वो तो पूरा मकान है
लोग तो चलते हैं रेग रेंग कर सड़क पर
चेहरे पर है झुर्री वो अभी पूरा जवान है
एक अदद मकान की ख्वाहिश ही नहीं
उसकी झोली में तो पूरा ही आसमान है
वो जी रहा है सुखी ख्वाहिशों की खातिर
उसकी मुट्ठी में सारा इश्क-ओ-जहान है
समेटने को हर चाहत इश्क की गलियों से
वाह जी वाह ये भी कोई अहसान है
देखने है और कितने दौर कोई इल्म नहीं
आखिरी मंजिल तो सबकी शमसान है
उसमे मुझे एक खास आदमियत नजर आई
लोग कहते है कि वो पक्का बदजुबान है

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