Wednesday, 13 May 2015

औरतें क्यों नहीं (लघुकथा)


औरतें क्यों नहीं 

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"कहाँ व्यस्त हो ?"
"घर के काम काज में बिजी हूँ"
"मसलन"
"अरे बाबा ! खाना पका रही थी" 
"क्या बनाया ?"
"गोस्त,बैगन का भरता ,रोटी चावल"
"खाना बनाया ही है या खाया भी है ?"
"जी अभी बनाया है ,खाया नहीं है "
"क्यों नहीं खाया ?दोपहर हो रही है फिर कब खाओगी?" 
"अभी 1 बजे की अजान होगी , फिर मैं नमाज पढूंगी तब खाना खाऊँगी,समझे सुदीप जी "
"ओह , रोज़ ऐसे ही करती हो?"
"जी, रोज ऐसे ही करती हूँ..पहले नमाज फिर खाना "-नजमा ने जबाब दिया...
"नमाज घर में ही पढ़ती हो या मस्जिद में ?"-सुदीप ने उत्सुकतावश पूछा.
"अरे बाबा! घर में ही पढ़ती हूँ."
"क्यों? घर में क्यों मस्जिद में क्यों नहीं ?"-सुदीप ने जानने के लहजे से पूछा .
"अरे बुद्धू ! लड़कियां घर में ही नमाज पढ़ती हैं..."
"घर में क्यों ? मस्जिद में क्यों नहीं ?"
"अरे जनाब मस्जिद मर्दों के लिए होती है. औरतों के लिए नहीं."-नजमा ने झल्लाकर जबाब दिया...
सुदीप ने मोबाइल काट दिया और विचारमग्न हो गया. मस्जिद अल्लाह का इबादतघर है और अल्लाह सबके लिए है,सबका है तो फिर मर्द ही मस्जिद ने नमाज अदा क्यों करें औरतें क्यों नहीं?

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