Wednesday, 13 May 2015

प्रेम क्षण जी लेने दो

प्रेम क्षण जी लेने दो- कविता 


ऐ सुब्रे बन शीतल 
प्रेम क्षण जी लेने दो 
प्रगति के एक दौर का 
मधु गरल पी लेने दो
इतर यथार्थ के जाकर
कौन सुख पा सकता
भ्रमित रजनी अगर हो
पलपल धोखा खा सकता
वजह यही है आ जाता हूँ
हर पल तेरे अंचल में
छा जाती है खुमारी
तन मन रुपी जंगल में
द्रुमदल सी फैली कामना
अंग अंग लरकता है
सर्पिल बना समय अब
कामुक हुआ सरकता है
सुब्रे बोली तुरंत उमंग से
मत मन अपना तुम भरमाओ
कामुकता के मर्मर भँवरे
कुछ तो लज्जा खाओ
प्रेम सरोवर में गोता खाकर
क्या तुम कहलाओगे
खुद की पीड़ा तो हर लोगे
पर परपीड़क बन जाओगे
समय पुकार रहा तुम्हे
पथ प्रदर्शक बनने को
जन्म लिया है तुमने
पर-पीड़ा हरने को
फिर आमोद छोड़ तुम
नव रूप क्यों नहीं धरते हो
मानवता के बन पालक
समाज नूतन क्यों नहीं रचते हो..
"उमंग" संदीप

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