Saturday, 17 April 2021

एक अपाहिज की डायरी - आत्मकथा भाग-10

 

आत्मकथा का दसवाँ भाग 

गतांक से आगे 

बारहवी क्लास में पढ़ते हुए कुछ ऐसी घटनाएँ हुई जिनका प्रभाव स्थायी रूप से मेरी जिन्दगी पर पड़ा। ऐसी ही एक बड़ी घटना हुई। सुकेश भैया ट्रेन से स्कूल जाते थे। खतौली की स्थिति ये थी कि वहाँ हर स्कूल, कॉलेज, बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन पर गुर्जर समुदाय की दादागिरी चलती थी। एकमात्र गॉव अपना ही था जिससे गुर्जर लड़के बचते थे। सुकेश भैया अपने दोस्त लोगो के साथ ट्रेन से जाते थे। एम्.एस.सी का फाइनल इयर था। ऐसे ही एक दिन ट्रेन से कॉलेज जाते वक़्त कुछ गुर्जर के लड़के ट्रेन में चढ़े। किसी को मारने के लिए ढूँढ रहे थे, प्रमोद (भैया का दोस्त) के पैरो से टकराए तो प्रमोद ने बड़े आराम से बोला- “भाई देख कर चलो।“

“अबे साले तू सिखाएगा- कैसे चलना है?”-एक ने कहा।

“अरे भाई, तू तो गाली पर उतर आया?”-प्रमोद ने बोला।

“अभी तो गाली दी है, चांटे देने में भी हम देर नहीं लगाते।“

“इतनी गरमी भी ठीक नहीं.......।“-प्रमोद ने अभी बात पूरी भी नहीं की थी कि दूसरे लड़के ने इसकी माँ की..... कहते हुए प्रमोद को एक थप्पड़ रसीद कर दिया। सुकेश ने देखा तो लड़के का कोलर पकड जबाबी थप्पड़ दिया। दोनों तरफ से हाथापाई शुरू हुई। सुकेश की कद-काठी के आगे वो टिक न पाए। अच्छी खासी मार पड़ी। लेकिन वो जाते-जाते धमकी दे गए कि हम यहाँ के नामी बदमाश मोतला के लड़के हैं, तुम्हें देख लेंगे। सुकेश ने भी जबाबी धमकी दी-“अबे गुजरैट, हम भी ठाकुर हैं, तुम जैसे पिल्ले रोज ठीक करते हैं। जा बोलना अपने बाप मोतला को कि हमने मारा है।“- सुकेश को अंदेशा हो गया था कि ये झगडा बढ़ने वाला है। शाम को सुकेश और उनके सभी साथी ट्रेन की बजाय अलग-अलग वाहनों से वापिस आये।  

रात को तीनो भाई ऊपर के कमरे में पढ़ते थे, मैंने देखा कि सुकेश भैया कुछ परेशान हैं, किताबे खोली हुई हैं लेकिन पढ़ नहीं पा रहे।

मैंने पूछा-“भैया आज आप कुछ परेशान लग रहे हैं, कहीं किसी से कोई झगडा तो नहीं हुआ?”

सुकेश को लगा कि सुदीप के खबरची इसे सब कुछ बता गए है और ये जानबूझ कर अनजान बनते हुए पूछना चाहता है। मेरे बारे में सब जानते थे कि इसे हर तरह के लोगो की हर तरह की खबर की जानकारी होती है। मेरा नेटवर्क बड़ा जबरदस्त था या यूँ कहें कि हर तरह के दोस्त थे। पढने वालो से लेकर कट्टे-चाकू तक वाले लोगो से मिलता-जुलता था। सुकेश ने कहा-“सुदीप, जब तुझे पता है तो भोला बनकर क्यों पूछ रहा है?”

“नहीं भैया, मुझे सच में नहीं पता, आप बताओ न बात क्या है?”

“आज ट्रेन में झगडा हुआ है और ये झगडा बढ़ भी सकता है।“

“ओह तो ये बात है, बताओ मुझे क्या करना है?”

“कुछ खास नहीं, बस अगर जरुरत पड़ी तो कुछ हथियार चाहियेंगे।”

“एक दिन का समय मिलेगा?”- मैं चाहता तो अपनी किताब के पीछे पड़े पञ्च, गरारी और खटके वाले दो-चार चाकू अभी दे देता लेकिन उससे भैया को शक हो जाता कि इन सब चीजों का इसके पास क्या काम? इसलिए चालाकी से काम लिया।

“हाँ, तू मुझे कल शाम तक ला देना और तुम दोनों भाई घर में किसी से नहीं बताना। हम लोग एक-दो दिन ट्रेन से कॉलेज नहीं जायेंगे, झगडे को टालने की कोशिश करेंगे लेकिन अगर सिर पर बात आई तो फिर पिटकर नहीं मारकर ही आयेंगे।“

अगले दिन मैंने सुकेश भैया को पञ्च और एक गरारी वाला चाकू दिया और कहा कि सम्भालकर यूज करना। साथ ही ये भी बताया कि पञ्च को कैसे हाथ में पहनकर वार किया जाता है?

सारी बाते समझा दी गयी। सुकेश और उनके दोस्त कई दिनों तक अलग-अलग तरीके से कॉलेज जाते रहे। इस बात को लगभग हफ्ता बीत गया। उन्हें अब लगने लगा कि अब झगडा नहीं होगा, लेकिन फिर भी वे अलर्ट रहते। शायद वो इस बात से बेखबर कि मुखबिर उनके पीछे लगे हैं। एक सुबह सारे दोस्त कॉलेज जाने के लिए 9 बजे की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पहुँचे ही थे कि प्रमोद की कमर में हॉकी लगी, जब तक ये लोग सम्भलते चारो तरफ से घेर लिए गए। हाथापाई में एक-दो लोगो के हाथ से हॉकी छिन गयी, अब कुछ पासा पलटा। सुकेश के हत्थे एक लड़का चढ़ गया जो सबसे ज्यादा उछल-उछल कर हॉकी चला रहा था, सुकेश ने पञ्च निकाला और उसके सिर में मारा। खून का फव्वारा छूटा तो प्लेटफोर्म पर गिर चुका था, सुकेश की शर्ट खून से लथपथ थी, ट्रेन भी आ चुकी थी कुछ साथी ट्रेन में चढ़ गए प्रमोद और सुकेश वापिस आ गए। नल पर कहीं शर्ट को धोया।

अगले दिन मुझे जिला अस्पताल से डिसेबल्ड सर्टिफिकेट बनवाना था। पिताजी ने सुकेश को ये जिमीदारी सौंप दी। सुबह को सुकेश साईकिल से बैठाकर बस अड्डे ले आया और बोला कि मैं मीरापुर के रास्ते से आता हूँ, तू जानसठ से आना। पहली बार बस से अकेले कहीं गया। १९९२ में मोबाइल फोन क्या लैंडलाइन भी किसी-किसी को मयस्सर थे। सम्पर्क का कोई साधन नहीं था। खुद ही जिला अस्पताल पहुँचा। सरकारी अस्पताल में जाकर कंसर्न विभाग का पता लगा फॉर्म लिया। निशुल्क फॉर्म का 50 रूपये भुगतान करके फॉर्म भर कर जमा कराया तो क्लर्क ने बताया कि इसमें पासपोर्ट फोटो नहीं पैर को नंगा दिखाते हुए फोटो लगेगी। अब ऐसी फोटो तो अपने पास थी नहीं, क्लर्क ने बताया कि इसकी भी व्यवस्था है मेरे पासउसने एक फोटोग्राफर का बताया- जो साथ के साथ फोटो बनाकर देगा। मैं बताई दुकान पर पहुँचा तो १० रूपये के काम के वहाँ भी 50 रूपये माँगे गए, पूछने पर  फोटोग्राफर बोले- “जिस क्लर्क ने तुम्हें भेजा है- २५ रूपये तो उसका कमीशन ही है।“

“लेकिन मैंने तो आपको कहा ही नही कि मुझे किसी ने यहाँ भेजा है?”- सुदीप बोला।

“देखो दोस्त, हमें मालूम है यहाँ इस तरह की फोटो कौन लेने आता है? मैं आपसे २५ रूपये लूँ तो भी वो क्लर्क इतना कमीना है कि दिन भर के केस का कमीशन लेने आ जायेगा, तो मैं अपना घाटा तो नहीं कर सकता न।“

उसे 50 रूपये दिए और फोटो लेकर फॉर्म जमा कर दिया। सर्टिफिकेट बनने की 20 दिन बाद की डेट दी गयी। वापिस अपने शहर बस से आया और बस स्टैंड पर पहुँच भाई का इंतज़ार करने लगा। सुकेश भैया न कहा था कि अगर मैं कहीं न मिलूँ तो इसी जगह शाम को मिलेंगे और फिर घर इकट्ठे जायेंगे, नहीं तो माँ-पिताजी को शक हो जायेगा। जब तक सुकेश भैया नहीं आये मेरे मन में जाने कैसे-कैसे विचार आते गए। भैया के आने के बाद दोनों घर वापिस आये। खाना खा पी कर तीनों भाई फिर ऊपर के कमरे में पढने के लिए बैठ गए थे। नीलू दूध पीने नीचे गया था। सुकेश और मैं दोनों बात कर ही रहे थे कि पड़ोस के घर से चाचा छत पर कूदे और आकर कहा- “सुकेश भाग, तुझे पकड़ने पुलिस आई है। बिजली नहीं थी तो बाहर अँधेरा था, अन्दर लैंप जल रहा था। सुकेश चाचा के साथ उसकी छत पर कूदा ही था कि पुलिस ने नीचे का दरवाजा खटखटाया नीलू ने बिना पूछे कि कौन है दरवाजा खोल दिया, पुलिस के दो जवान बिना किसी से कुछ पूछे सीढियों से ऊपर आये। दोनों के कंधे पर गन टंगी हुई थी, एक ने पूछा-“कौन-कौन था यहाँ?”

“मैं और मेरा भाई नीलू?”

“अब कहाँ है नीलू?”

नीचे दूध पीने और मेरे लिए दूध पीने गया है।“

“और ये जो इतनी लम्बी चप्पले हैं, ये किसकी हैं?”

“चप्पल से क्या मतलब, थोड़ी देर में ये पूछना कि ये एक ही लैंप क्यों है चार रिजाई क्यों हैं?”

“अच्छा बहुत बोल रहे हो, सीधे-सीधे जबाब क्यों नहीं देते कि और कौन था यहाँ पर?”

“भूत था, अब नहीं है, क्या ऊल-जलूल सवाल पूछ रहे हो?”

“भूत तो हम निकाल लेंगे, जहाँ कहीं भी गया है, रिपोर्ट हुई है तेरे भाई के नाम की, अरेस्ट तो उसे होना ही पड़ेगा, ३०७ का केस है।“

“तो दिन में ये सब काम होते हैं या रात में?”

‘चलो इससे क्या बहस करनी, लंगड़ा वैसे हैं।‘–दूसरे पुलिस वाले ने कहा।

“मिस्टर ये बंदूक और वर्दी का रोब दिखा रहे हो, वर्ना बता देता ये लंगड़ा क्या चीज है और क्या पता कि वर्दी में कोई चोर-डाकू हो। अभी वार कर दूँ तो मेरे खिलाफ एक ऍफ़ आई आर करने के लायक भी नहीं रहोगे।“

मैं जानबूझ कर उन्हें बातों में उलझा रहा था ताकी सुकेश भैया इतनी दूर निकल जाएँ कि इनके हत्थे न चढ़ जाएँ, मुझे मालूम था कि पुलिस रात में अरेस्ट करती है तो दारू पीकर पहले डंडो से स्वागत करती है। पुलिस वाले बहस में नहीं पड़े। शायद उन्हें अहसास भी हो चुका था कि बात तो ये सही ही कह रहा है। पुलिस वाले जा चुके थे। उस रात सुकेश भैया रात भर किसी और घर पर रहे। पिताजी को अब नीलू ने सारा किस्सा सुना दिया था।

इसी दौरान मुझे सर्टिफिकेट बनवाने भी जाना था। जिला अस्पताल पहुँचा तो क्लर्क ने फिर १०० रूपये सुविधा शुल्क लिया और डॉ ने बिना जाँच किये ही ४०% विकलांगता दर्ज करके सर्टिफिकेट बना दिया। मैंने देखा सब तरफ रिश्वत और लूट का बोलबाला था। उधर पुलिस भी इसी ताक में थी कि केस में पैसा ऐंठा जाए। मामला धारा ३०७ का था अर्थात चस्मदीद गवाह। इस पूरे मामले में कोर्ट-कचहरी, जमानत, फैसला सब मिलाकर सत्तर-अस्सी हजार रुपया खर्च हुआ। पढाई ख़त्म होने का खतरा, पुलिस केस बनने पर सरकारी नौकरी न लग पाने का खतरा। पिताजी की रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया था। बड़ी मशक्कत के बाद आखिर समझौता हुआ और गुर्जरों को 50 हजार रूपये देने पड़े। कुल सवा लाख के आस-पास जाकर पूरा मामला निपटा।

बारहवी के जब एग्जाम आये, सब स्टूडेंट एडमिट कार्ड लेने आये थे। जितेन्द्र नाम का लड़का जो काफी दिनों से नहीं आ रहा था, मुझे मिला तो मैंने पूछा- “यार जितेन्द्र, तू महीनो से स्कूल नहीं आया, हमने तो सोचा था कि तूने पढना छोड़ दिया, लगता है शादी करके घर बसा लिया, तुम गुर्जर लोग जल्दी ही शादी कर लेते हो?”

जितेन्द्र ने बताया-“नहीं यार सुदीप, एक झगडा हुआ था, तुझे याद होगा ट्रेन पर, उसमें कुछ लड़के जबरदस्ती मुझे भी ले गए, और वहाँ तेरे ही गॉंव के किसी सुकेश नाम के लड़के ने मेरे सिर में चाकू मारा। कई टांके आये, सिर में चक्कर आते थे, अब जाकर ठीक हुआ हूँ।“

“ओह तो वो तू था, सुना है तुमने उस लड़के के घर वालो से पैसे भी लिए हैं?”

“वो सब छोड़ यार, लेकिन वो सुकेश यार है बड़ा खतरनाक, इतना लम्बा कि उसने मुझे एक बार पकड़ा तो छोड़ा ही नहीं, उसके घुटने मेरे पेट तक आते थे, उसने घुटनों से भी मुझे मारा।“

“सुना है तू भी बड़ी हॉकी चला रहा था।“

“कहाँ यार, दो भी हॉकी नही सेकी होंगी कि मुझे दबोच लिया। अगर मैं गिरा न होता तो शायद और मारते।“

“भाई, इन ठाकुरों से भिड़ोगे तो यूँ ही मार खाओगे।“-कहकर मैंने जोर का ठहाका लगाया।

मुझे लगा कि मजाक तकरार में न बदल जाए, मैंने कहा-“बुरा मत मानना जितेन्द्र, मैं तो मजाक कर रहा था। जो पचास हजार लिए हैं उनसे खूब घी खा, खूब फल खा और मजे में एग्जाम दे।

राजेन्द्र इस किस्से को सुन मंद-मंद मुस्कुराता रहा। मेरी बात से वह समझ चुका था कि सुकेश तो अपने ही भैया हैं।

 

 क्रमशः 

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