Tuesday, 13 April 2021

एक अपाहिज की डायरी - - ७

 

सातवां भाग  

इस गॉव की संरचना भी अन्य उत्तर भारतीय गॉवों की तरह ही थी। गॉव के बीच में उच्च जाति यानि स्वर्ण लोग और बाकी हर एक कौने में अन्य निम्न जाति के लोग। पूर्व में भंगी पट्टी थी तो उत्तर में चमार पट्टी, दक्षिण में कुम्हार। जोहड़ के किनारे एक हिस्से में मस्जिद थी। गॉव के बाहर एक शिवालय था, जो जर्जर हालत में था, जहाँ पूजा पाठ के लिए मात्र शिवरात्रि या त्यौहार विशेष के समय महिलायें ही जाती थी, बाकी साल भर में बहुत कम लोग मन्दिर जाते। सबके घरों में भगवान की मूर्तियाँ थी, यानि पूजा का चलन घर पर ही ज्यादा था।

एक धर्म-परायण स्त्री के हाथों परवरिश होने के चलते ईश्वर में आस्था बढ़ रही थी। साथ ही बढ़ रहा था दायरा। लेकिन घर में धर्म का गूढ़ अर्थ जानने लायक कोई धार्मिक पुस्तक नहीं थी। चुनान्चे धर्म का अर्थ पूजा पाठ-करना मूर्ति के आगे दीपक जलाना, धूप-अगरबत्ती लगाना और व्रत रखना ही समझ आया। बुद्धि में कभी ये बात नहीं आई कि ईश्वर एक है या अनेक? कभी मैं शिव का व्रत देखता, कभी दुर्गा का, तो कभी किसी अन्य का? उस समय गॉव में हनुमान और साई बाबा की पूजा का चलन नहीं था अलबत्ता दुर्गा-अष्टमी, महाशिवरात्रि और  जन्माष्टमी के व्रत ज्यादा चलन में थे।

जनेश से मित्रता हुई। जनेश भी व्रत वाले धर्म-कर्म में विश्वास रखता था। अब दोनों ने मिलकर इकट्ठे व्रत रखने शुरू कर दिए। दुर्गा की मूर्ति के सामने घण्टों बैठकर किताब से कहानी पढना, फिर आरती करते हुए दीपक को घुमाते रहना और प्रसाद बाँटना, दोनों ही दोस्त एक-दूसरे के घर जाकर बारी-बारी से पूजा करते-करवाते। नौ दिन तक उपवास रखते, दिन में तीन बजे एक बार दूध या फलाहार करना, या कोई कन्द-मूल खा लेना और रात में एक गिलास दूध पीना, बस ये ही उनका आहार होता, जिसके कारण नौ दिन में कब्ज की शिकायत होनी शुरू हो जाती। जनेश और मैं दोनों ही दसवे दिन यानि नौ रात पूरी होने पर ही उपवास खोलते, दुर्गा-अष्टमी या राम-नवमी को व्रत खोलने को कहा जाता तो दोनों का ही जवाब होता अभी नौ रात पूरी कहाँ हुई। ये ही हमारी  भक्ति थी, ये ही हमारे लिए धर्म।

जनेश मुझसे दो क्लास आगे था, उसने वाणिज्य वर्ग में दाखिला लिया हुआ था। उस समय वाणिज्य वर्ग में वह छात्र जाता था जिसे विज्ञान या कला वर्ग में पढने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता था, कुल मिलाकार जनेश की पढ़ने में दिलचस्पी नहीं थी¸ माँ को वह मासी कहता, उसकी एक आदत ये कि बोलने और खाने-पीने में कभी भी कहीं भी कोई शर्म नहीं करता। जिसके घर जो रखा हो बिना पूछे उठाना और खा लेना, कोई बुरा माने तो मानता रहे, किसी की जरुरत की वस्तु हो या गैर-जरुरी, उस इन बातो से कोई मतलब नहीं रहता¸ वहीँ दूसरी ओर मैं बहुत ही शर्मिला, कोई खुद से भी कुछ दे तो मना कर देता कि नहीं मैं तो घर से खाकर आया हूँ। दरअसल ये माँ के संस्कारों का असर था कि किसी के घर जाओ तो खाने को मना कर दो, वर्ना लोग सोचेंगे कि इसकी माँ क्या इसे कुछ खाने को नहीं देती, दूसरी हिदायत ये होती कि तुम एक अध्यापक के बच्चे हो, कोई भी ऐसा काम नहीं करना जो कुछ भी सुनने को मिले कि मास्टरजी के बच्चों ने ये गलत काम किया।

भादो का महीना था- गॉव में जन्माष्ठमी की तैयारी चल रही थी, सुकेश भैया की दोस्तों की एक टीम थी जो जन्माष्ठमी पर गॉव में नाटक खेलने की तैयारी कर रही थी, रोहताश उनके गुरु थे जो उन्हें स्टेज कैसे खेला जाता है- उसके गुर सीखा रहे थे, नाटक मण्डली के पास ड्रेस इत्यादि सब सामान था, सुकेश भैया भगवान् विष्णु का रोल कर रहे थे। विष्णु का चक्र मण्डली के सामान में नहीं था। बिना चक्र के कैसे चक्रधर? सुकेश भैया परेशान रात में आठ बजे से नाटक खेला जाना है और चक्र है नहीं। मैंने बीपीएल कम्पनी के टेपरिकॉर्डर का मोटर निकाला और उस पर गत्ते की कटिंग करके अबरी कागज और पन्नी लगाकर चक्र के आकार का गोला बना चिपका दिया एक तार ले साथ जोड़कर दो सेल लगा एक स्विच का इंतजाम किया, सुकेश भैया की जेब में सेल डाल हाथ में जहाँ से चक्र पकड़ना था वहाँ स्विच का बटन दबा कर चक्र घूमता हुआ दिखाया तो भैया की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। अस्सी के दशक में इस तरह की कोई पढाई भी नहीं होती या करायी जाती थी कि कोई वैज्ञानिक प्रोजेक्ट बच्चे खुद बना सकें। अपनी इस छोटी सी वैज्ञानिक उपलब्धि से मैं बड़ा खुश था। रात को सब नाटक देखने पहुँचे, मैं भी जाना चाहता था लेकिन पिताजी ने ये कहकर मना कर दिया कि भीड़-भाड़ में चोट लग सकती है लेकिन मुझे तो सुकेश भैया को विष्णु के रूप में देखना था। मैंने बिना फलाहार के बिना जल पिए व्रत रखा हुआ था, जनेश से शर्त भी थी कि कौन व्रत को नियम से निभाएगा? अगर घर पर रहता तो भूख परेशान करती, माँ की खुशामद की तो माँ ने नीलू के साथ नाटक देखने भेज दिया। मुझे तो बस अपने सुकेश भैया के रोल का इन्तजार था, जैसे ही विष्णु का रोल आया- मैं ताली बजाने लगा सुकेश भैया विष्णु की ड्रेस में किसी को पहचान में नहीं आ रहे थे, लेकिन मैंने अपने भैया को पहचान लिया था, दोस्तों से कहा- “देख ये मेरे भैया है और अब देखना चक्र कैसे चलता है, मैंने जो बनाया है।“ विष्णु का चक्र जैसे ही घूमना शुरू हुआ, मानो असीम सुख की प्राप्ति हुई। चाँद निकलने तक नाटक का मंचन होता रहा। चाँद निकलने पर कृष्ण के जन्म की घोषणा हुई तो लोग अपने अपने घर गए। नीलू के साथ उबड़-खाबड़ खडंजे पर रात के अँधेरे में जैसे-तैसे घर आया। चाँद को अजवायन के साथ अर्धय देकर नारियल से व्रत खोल, आलू के परांठे, दही का रायता और मिठाई के साथ सबने व्रत खोला।

मुझे इन सब धार्मिक कृत्यों में असीम आनन्द आता लेकिन कुछ ऐसा प्रत्याशित घटा कि धर्म और ईश्वर दोनों के विश्वास से पहला झटका लगा।

अँधेरी रात थी, बरसात का मौसम सड़क के दोनों ओर के नाले पानी से लबालब भरे हुए थे। संकरी सड़क थी, सडक का ये हाल कि अगर सामने से या पीछे से कोई गाड़ी आ जाये तो साईकिल को कच्ची सड़क पर उतारना पड़े, बरसात के मौसम में कच्ची सड़क पर गड्ढो में कीचड और फिसलन। सुबह जब लोगो की आवाजाही शुरू हुई तो लोगो ने देखा कि सडक के किनारे एक साईकिल टूटी हालत में पड़ी है, नाले में लाश थी। लोगो ने जैसे-तैसे करके लाश को निकाला। गॉव में खबर पहुँची। गॉव से लोग जाकर इकठ्ठा हुए, लाश पानी के कारण फूल चुकी थी, पहचान जनेश के रूप में हुई थी।

जनेश रात को साईकिल से गॉव आ रहा था, जनेश को सामने से दूध की गाड़ी टाटा ४६० आती दिखाई दी, गाड़ी की लाइट से आँखें चौंधिया गयी। इससे पहले कि जनेश कोई निर्णय कर पाता गाड़ी, उसे हिट कर चुकी थी, साईकिल सहित वह औंधे मुँह जाकर नाले में गिरा, गाड़ी का ड्राईवर बिना गाड़ी रोके चलता बना, ऐसा अंदाजा लगाया गया। 

अगर जनेश को समय रहते निकाल लिया जाता तो वह बच सकता था। मैंने अपने जीवन में कभी कोई लाश नहीं देखी थी, ये पहला वाकया था जब किसी की लाश को देखना था, अपने जिगरी दोस्त की लाश कैसे देख सकता था, मैंने जनेश के घर न जाने का निर्णय किया। श्मशान घाट भी कभी नहीं गया था। उस दिन भी नहीं गया।

इस घटना से दो बातों का प्रभाव मुझ पर पड़ा- एक मेरा विश्वास भगवान् नाम की संस्था से डगमगा गया। दुर्गा, शिव और कृष्णा के दो बाल साधक, एक इस दुनिया से कूच कर चुका था, दूसरा उस दुर्घटना का मातम मना रहा था। दूसरा असर ये हुआ कि जीवन-मरण के बारे में मेरे मन में तरह-तरह के विचार घर करने लगे, नतीजतन नवी क्लास की पढाई प्रभावित होने लगी। अब पढने में मन नहीं लगता।

उसी दौरान अर्धवार्षिक परीक्षा की तैयारी न होने के चलते और अंग्रेजी के अध्यापक के क्लास न लेने के कारण वह अंग्रेजी में फेल हो गया। मिस्टर विश्वामित्र भारद्वाज अंग्रेजी पढ़ाते थे, स्कूल के वाईस प्रिंसिपल, पढ़ाते क्या कभी-कभी क्लास में आते, कुछ बच्चो को मारते और चले जाते। पिताजी को आश्चर्य कि बेटा अंग्रेजी में कैसे फेल हुआ, उन्होंने अपने स्तर पर तफतीस की तो पता चला कि ये सब ट्यूशन का जोर देने की मुहीम थी, पूरी क्लास मिस्टर भारद्वाज से ट्यूशन लगा चुकी थी। ये मेरे अहम् का सवाल था, ट्यूशन पढने से इन्कार कर दिया।

राजेन्द्र ने कहा-“ सुदीप, अगर तूने ट्यूशन नहीं लगायी तो ये तुझे फाइनल एग्जाम में भी फेल कर देंगे।“

“देख दोस्त मुझे अपने ऊपर विश्वास है अंग्रेजी में अब मुझे फेल नहीं होना, और अगर पहले की तरह जानबूझकर किया तो पिताजी कॉपी निकलवा कर उनका पर्दाफाश कर देंगे।“-मैंने जबाब दिया।

“लेकिन दोस्त, मुझे ये भी अच्छा नहीं लगेगा कि मैं अगली क्लास में चला जाऊँ और मेरा दोस्त.... ।“

“सैनी साहब, अभी इतना कमजोर नहीं है तेरा भाई।“

मेरे कुछ दोस्त भी अब कभी-कभी साईकिल से स्कूल जाने लगे थे। उस वक़्त दो ही साइज़ की साईकिल आती थी- एक २२ इंच दूसरी २४ इंच। कुछ दोस्त तो ऐसे थे जिनके पूरे पैर पैडिल तक नहीं आते थे वो कुल्हे ऊपर-नीचे करके साईकिल चलाते या फिर कैंची स्टाइल में। कोई साथी कहता कि आज तेरे पिताजी नहीं आयेंगे, चल हमारे साथ तुझे घर छोड़ देंगे। मैं कहता- “मेरे पिताजी हमेशा लेने आते हैं, आज भी आयेंगे। तू मेरी फ़िक्र मत कर, फिर तेरे खुद के पैर तो पैडिल तक आते नहीं, मुझे बैठकर चलाएगा।“

दोस्त कहता-“ क्यों दूसरी भी टूटने से डरता है क्या?”

मैं इस सवाल का कोई जवाब न देता, लेकिन मन ही मन खून के आँसू रो देता। कभी पिताजी किसी मज़बूरीवश नहीं आ पाते और कोई साथी स्कूल से घर न जाकर बाजार घूमकर  आ रहा होता तो मैं स्कूल के गेट पर खड़ा देख छेड़ता –“क्यों बे लंगड़े, घर नहीं गया अभी तक, देख बोला था न तेरा बाप नहीं आयेगा आज तुझे लेने, नहीं आया न?’

मैं फिर सोचता यह मुझे ऐसे क्यों बोल रहा है? मेरे पिताजी ऐसे नहीं जो मुझे लेने न आयें, जब उन्हें मज़बूरी होती है तब ही नहीं आते, और ऐसी में वो सुकेश भैया को भेज देते हैं, भैया आकर ले जाते हैं। लेकिन मैं नहीं चाहता था कि सुकेश भैया उसे लेने आयें। उसके दो कारण हैं- पहला कारण मैं पीछे के करियर पर बैठ नहीं पाता, आगे के डंडे पर बैठना होता, जब आगे बैठता तो भैया दोनों पैर मिला हिप्स से ऊपर उठा देते, तब डर लगता कि नीचे गिर जाउँगा। दूसरा कारण ये कि साईकिल पर बैठ जब चलता तो आते-जाते लोगो के चहेरे देखना अच्छा लगता, पीछे तक मुड कर देखता रहता। कोई लड़की जा रही हो तो और गौर से उसे देखता। सुकेश भैया को यूँ आते-जाते लोगो को देखना अच्छा नहीं लगता तो वह डांटते और सिर में चपत भी लगाते। भैया का यूँ मारना अच्छा नहीं लगाता। वह कई बार पिताजी और माँ दोनों से ही शिकायत करता।

एक दिन सुकेश भैया की छुट्टी थी, नीलू उनकी साईकिल लेकर स्कूल गया और बोला-“पिताजी आज सुदीप को मैं स्कूल छोड़ देता हूँ और स्कूल से आते हुए भी ले आऊँगा।“

“देख ले नीलू, तू इसे बैठाकार चला भी पायेगा, अगर दिक्कत हो तो मैं ही छोड़ दूँगा।“-पिताजी ने कहा था।

“नहीं पिताजी आप चिंता मत करो, मैं ले भी जाऊँगा और सही से ले भी आऊँगा।“-कहकर नीलू ने बस्ता साईकिल पर टांगा। मुझे स्कूल छोड़ वह अपने स्कूल चला गया। छुट्टी के बाद काफी देर नीलू का इंतज़ार करना पड़ा, उसका स्कूल काफी दूर भी था और उसकी छुट्टी मेरे स्कूल के बाद होती। नीलू आया तो दोनों भाई गॉव के लिए साईकिल पर बैठ चल दिए। पम्मी भी साईकिल लाया था, दोनों की साईकिल साथ-साथ सड़क पर चल रही थी, नीलू किनारे पर था और पम्मी सड़क वाली साइड। तभी पीछे से बस आई, बस इतनी भरी थी कि खिड़की पर भी सवारी खड़ी थी। अचानक पम्मी कच्ची सड़क की साइड हुआ और नीलू की साईकिल सडक की तरफ जैसे ही साईकिल कि साइड से बस निकली किसी सवारी ने बस का दरवाजा खोल दिया, दरवाजा साईकिल से टकराया। दोनों भाई जमीन पर कच्ची सडक की ओर गिरे। मेरा सिर फट गया और मैं बेहोश हो गया था। खून की धार बह रही थी, कुछ सडक पर आने-जाने वाले इकट्ठे हुए किसी ने कहा- “अरे ये तो मास्टरजी के बेटे हैं, तुम्हारी साईकिल हम घर पहुँचा देंगे, तुम चिंता मत करो, इसे तुरंत डॉ. के पास ले चलो। नीलू को भी हाथ में चोट थी, नीलू ने एक रिक्शा वाले को रोककर बोला-“ भैया मेरे भाई को डॉ. सुरेश के क्लिनिक तक ले चलोगे?”

तुरंत रिक्शा में बैठा नीलू डॉ. के यहाँ ले चलने लगा। उसने मेरा सिर अपनी गोद में रख लिया था। जहाँ से सिर फूटा था वहाँ उसने कसकर दबाया हुआ था, मुझे हल्की-हल्की चेतना आई, कपडे खून से भीग गए थे, नीलू की भी पूरी युनिफोर्म खराब हो गयी थी, शर्ट फट गयी थी। मेरी चेतना लौट रही थी, नीलू ने देखा कि उसका भाई आँखे खोल रहा है। उसने गालो को हाथो में ले पूछा-“ भाई तू ठीक तो है न, भाई तुझे दर्द तो नहीं हो रहा, भाई आँखें खोलकर रख, देख मुझसे बातें कर।“

मेरे कानों में हल्की सी आवाज पड़ी, मैंने फिर से आँखें बन्द कर ली। नीलू अभी मात्र पन्द्रह या सोलह वर्ष का ही था, इस घटना से पूरी तरह घबरा गया था। रिक्शा डॉ. सुरेश के क्लिनिक पहुँचा तो नीलू ने मुझे नीचे उतारा और डॉ. से बोला-“अंकल, देखो मेरे भाई को क्या हो गया?’

“अरे तुम तो मास्टरजी के बेटे हो न?”

“पहले तुम आराम से साँस लो। आराम से बैठ जाओ।“-कहकर डॉ. ने काम्पोंडर से पानी लाने को कहा।

नीलू ने पानी पिया और सारी बात बताई। तब तक गॉव में खबर पहुँच चुकी थी। पिताजी और माँ भी आ चुके थे। डॉ. ने सिर में जहाँ घाव हुआ था वहाँ से बाल काटे और टांके लगाकर पट्टी बाँध दी। अब मुझे धीरे –धीरे होश आ गया। रिक्शा में बैठाकर घर ले आये। माँ ने हल्दी का दूध पिलाया। नीलू डर रहा था कि भाई को चोट लगने की वजह से उसकी पिटाई न हो।

हफ्तों छुट्टी करनी पड़ी, थोडा ठीक हुआ तो फिर से स्कूल जाने लगा। पढाई एक बार फिर रूटीन पर आने लगी थी. पिछली पढाई की भरपाई के लिए राजेन्द्र जो था इसलिए ज्यादा परेशानी नहीं हुई। ज्यादा दिन बीते नहीं कि एक घटना और इसी बीच हुई, राजेन्द्र, राजीव और मैं तीनो आगे की पंक्ति में अध्यापको की टेबल के सामने बैठा करते थे। कुछ लड़के जो दूसरे स्कूल से आये थे, उनको ये गवारा न था, मेरी और राजेन्द्र दोनों ही की छवि अध्यापको की नजरो में बढ़िया थी। तीन लडको ने एक दिन हम तीनो दोस्तों के बस्ते पीछे फेंक खुद वहाँ बैठ गए, मैं शांत रहा, कुछ न बोला। प्रेयर ख़त्म हुई तो तीनो दोस्त चुपचाप पीछे की सीट पर बैठ गए। इंटरवल तक सब कुछ शांत था, जैसे ही इंटरवल हुआ राजेन्द्र ने उन गुर्जर के लडको में से एक को कहा-“ किसने हमारे बस्ते पीछे फेंके थे?”

एक ने कहा-“मैंने फेंके थे, बोल क्या करेगा, तू क्या यहाँ का दादा है, हम गुर्जर हैं और पूरे शहर में हमारी तूती बोलती है, आज से यहाँ हम बैठेंगे?”

मुझे स्कूल अब पंजा चैम्पियन के नाम से भी जानने लगा था, मैं ये सब सुनता रहा, जैसे ही उस लड़के ने अपनी बात ख़त्म की, मैंने एक जोरदार थप्पड़ उसके गाल पर रसीद कर दिया। और जबाब दिया-“साले जब तक सुदीप है तब तक यहाँ एक ही दादा रहेगा, और हाँ, अपने पिल्लो को भी समझाना, याद रखना दूसरे थप्पड़ की नौबत न आये।“

एक लड़के ने जिसका नाम महेंद्र था, मेरा कालर पकड़ कहा-“अबे लंगड़े, तू बनेगा यहाँ का दादा...अबे.....।“

उसने आगे का वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि राजेन्द्र ने घूँसों की बरसात शुरू कर दी झगडा काफी बढ़ा, लेकिन शुक्र ये था कि ये बात अध्यापको या घर तक नहीं पहुँची। तगड़ी मार-पिटाई हुई।

फाइनल एग्जाम हुए, 20 मई को रिजल्ट खुला, राजेन्द्र प्रथम श्रेणी से पास हुआ था, मैं सिर्फ पास हुआ था। मुझसे ज्यादा दुखी उस दिन राजेन्द्र था। उसे लगा कि प्रथम और द्वितीय श्रेणी पर तो हम दो दोस्तों का कब्ज़ा था, आज सुदीप इतना पिछड़ गया?



 क्रमशः 

 

 

 

2 comments:

  1. चलतित्र की भाँति आँखों के सामने चलती कहानी।
    जी लग रहा है।

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    1. यानि लेखक की मेहनत सफल हुई दिख रही है।

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