एक अपाहिज की डायरी- संदीप तोमर
पांचवा भाग
माँ और पिताजी दोनों ही
यहाँ-वहाँ इलाज कराते-कराते थक चुके थे। मैं जैसे-तैसे
दीवार पकड़ चलता या फिर हाथ में डंडा या गडूलना लेकर। अब मौहल्ले भर में घूम आता। आयु नौ वर्ष के आस-पास हो गयी तो पिताजी को पढाई
की चिंता होने लगी।
महेश उससे
उम्र में 28 दिन छोटा था। उसकी माँ और मेरी माँ दोनों
सहेलियाँ थी। बचपन साथ बीत रहा था। मानो हर कदम साथ-साथ रखना सीख रहे थे। पूरे
मौहल्ले में दो ही घर थे- जिनमें बिजली थी। एक हमारा और दूसरा मास्टर लाल सिंह का।
लाल सिंह का व्यवहार मौहल्ले में ऐसा कि किसी की उनके बगड़ (दालान) में कदम रखने की
हिम्मत न होती। पिताजी और लालसिंह दोनों ही अध्यापक थे लेकिन उनका स्वभाव एकदम अलग
था। जहाँ लाल सिंह की तुलना किसी खड़ूस से होती वहीँ पिताजी की गिनती अच्छे व्यक्ति
के रूप में होती।
बिजली
की सुविधा होने की वजह से घर पर मौहल्ले भर की औरतें इकट्ठी हो जाया करती। रात में
अक्सर पिताजी अपने हमउम्र लोगो के साथ कुएं की मुडेर पर बैठ जाते या फिर घेर
(पशुओं के रहने का मकान) में शाम को हुक्का-पानी के लिए चले जाते। घेर में 10 बजे तक हुक्का चलता रहता। पूरे परवा के लोग शाम
में इकट्ठे होते। ये वो समय था जब मनोरंजन का कोई साधन आज की तरह नहीं था। टीवी भी
किसी इक्का-दुक्का के घर हुआ करता था। मात्र रेडियो पर ही रागनी या फिर रोहतक
केंद्र अथवा नजीबाबाद केंद्र से कुछ गाने वगैहरा सुने जाते थे। खानदानी परिवार
होने के चलते गॉव-गमांड में परिवार का मान था, सम्मान
था। घेर में मर्दो की महफ़िल होती तो घर पर महिला मोर्चा जमता।
3 या 4 साल
उम्र रही होगी। महेश और मैं हमउम्र होने के चलते पक्के दोस्त थे। दोनों के कपड़ो का
साइज भी एक ही होता। जब कभी कोई मामा के गॉव जाता तो एक दूसरे के कपडे भी पहन
जाता। हालाकि मेरी महेश के कपडे ले जाने की नौबत कम ही आती। लेकिन दोनों परिवारों
की घनिष्टता में ये बात कोई मायने नहीं रखती थी। दोनों की दोस्ती तब परवान चढ़ रही
थी जब शायद दोस्ती का मतलब भी नहीं मालूम होता है। मानो कि दोनों की दांत काटी
रोटी हो। शाम को बच्चे बिजली होने के कारण हमारे घर आ जाते। महेश भी उनमें से एक
होता। मैं, महेश और अन्य बच्चो को देख खुश होता। सब बच्चे मिलकर कभी आईस-पाइस
खेलते तो कभी तोता उड़-चिड़िया उड़। बचपन जैसे खुशियों से भरा था। बच्चो को देख मेरी
उदासी छूमंतर हो जाती।
महेश
स्कूल जाने लगा था। मेरा स्कूल और टीचर सब कुछ माँ ही थी। पिताजी नौकरी और खेती
में इतने रम बस गए थे कि उन्हें पढ़ाने की फुर्सत ही न होती। माँ हर दम पढ़ने पर जोर
देती। दोनों दोस्तों की पढ़ायी तो चल रही थी लेकिन एक स्कूल में पढ़ रहा था जबकि
दूसरा घर पर।
पोलियो
का इलाज तो 7 साल की उम्र में बन्द हो गया था। संयोग
से मास्टर जीतराम शाम को घूमते हुए आये और मेरा नाम लिखकर ले गए। इस तरह सीधे चौथी
कक्षा में दाखिला हो गया। पिताजी की एक बड़ी चिंता का समाधान हो गया था। उनका बेटा
अब स्कूल में दाखिल हो चुका था। सविता बुआ गोद में उठाकर ले जाती, बगल में बस्ता
दबाती और स्कूल में बैठा आती। इस प्रकार स्कूल जाना शुरू हुआ। जल्दी ही होशियार
समझ मास्टरजी ने मुझे 5वीं क्लास में कर दिया गया। महेश का
साथ अब स्कूल में भी मिल गया था। दोनों की दोस्ती
परवान चढ़ रही थी।
दोनों
ही बहुत बातूनी थे। मास्टर जी ने एक दलित कन्या को उनके बीच बैठाना शुरू कर दिया।
हालाकि मन को जाति-पाति का ज्यादा ज्ञान न था लेकिन दोनों को ही वो लड़की बिलकुल पसन्द
नहीं आती। वो लड़की उनके लिए पुरानी फिल्मों की ललिता पंवार से कम न थी।
मेरे
लिए ये पहली कक्षा थी। गणना के हिसाब से वो पाँचवी कक्षा थी। एक अध्यापक पाँच कक्षाएँ।
तकरीबन 12 -15 बच्चे रहे होंगे क्लास में। टाट-पट्टी
पर बैठना होता। कच्ची मिट्टी के बने टूटे-फूटे मकान में बना स्कूल। स्कूल कम और
भूत बंगला ज्यादा। महेश से तो दोस्ती पहले से ही थी, विकास, प्रसेनजीत से भी जल्दी ही दोस्ती हो गयी। महेश तो
बचपन से ही दोस्त था, एक साथ खेले साथ-साथ पले-बढ़े। साथ-साथ
किलकारियाँ भी एक ही आँगन में गूँजी। 28 दिन
छोट-बडाई कोई मायने भी नहीं रखती। विकास एक चपल चतुर लड़का था। प्रसेनजीत मनघडंत
किस्से बनाने में अभ्यस्त। अपने परिवार-पिता-बहन-भाई के बारे में लम्बी-लम्बी
फेंकता। कुछ भी हो सबमें भिन्नता होते हुए भी दोस्ती पक्की थी।
क्लास
अक्सर एक बरांडे में बैठती। पाँचवी के सामने की पंक्ति में चौथी क्लास बैठती थी। पाँचवी
क्लास में एकमात्र लड़की थी जबकि चौथी में एकमात्र लड़का, यानि वहाँ अधिकांश लड़कियाँ ही थी। सब लड़कियाँ
चुलबुली और बिंदास। आज के ज़माने की तकनीकी उपज से भी ज्यादा चपल। उनमें एक साँवली-सलोनी
सी बड़े नयनो वाली मधु थी। मधु यूँ तो पढ़ने में अच्छी ही थी लेकिन उसे गणित कुछ कम
ही आता था। जबकि मेरी तो रूचि ही गणित में रही चुनांचे जल्दी ही पूरे स्कूल के
होशियार बच्चो में गिना जाने लगा। होशियार होने का मापदण्ड था-किसको कितने पहाड़े
याद हैं और कविताओं, दोहों की अंताक्षरी में कौन जीतता है?
पिताजी ने कभी पढ़ाया नहीं लेकिन माँ ने सब पहाड़े गिनतियाँ और गुणा-भाग पहले ही
सिखा रखे थे। लेकिन कवितायेँ, दोहे, चौपाई उसने पिताजी से ही सीखे थे। जल्दी ही स्कूल
का मेधावी छात्र बन गया। मधु की क्लास बरांडे में मेरी ही पंक्ति के सामने बैठती
थी। जब कभी मास्टर जीतराम गणित के सवाल कराते तो होड़ ये होती कि कौन सबसे पहले सवाल
हल करके दिखाता है। मधु से गणित के सवाल हल नहीं होते तो उदास हो जाती। वो अक्सर मेरे
सामने बैठी होती, और उसकी निगाहें बड़ी मासूमियत से बोलती
कि सुदीप तुम मेरे अच्छे दोस्त हो। बस ये सवाल करा दो। वो चाहती थी कि उसकी गिनती
सबसे अच्छी लड़की में हो। वो कभी जुबान से न बोलती, बस
आँखों की मौन भाषा में वो संवाद करती। दोनों ने जल्दी ही एक फार्मूला निकाला। वो
अपनी स्लेट पर सवाल लिखती और मैं उसे अपनी स्लेट पर उतार लेता। स्लेट को तिरछा
करके उसे जल्दी से कर लेने का इशारा करता और वो जल्दी से उतार कर मास्टरजी को दिखा
आती। ये हम दोनों के लिए एक खेल बन गया और मधु मेरी जिंदगी की पहली सखी। इस मौन की
भाषा में, इस अनकहे संवाद में जो आनन्द था वो
शायद प्रत्यक्ष बोलचाल में न होता। महेश हो या विकास सबसे उसका झगड़ा होता। जब कभी
मास्टरजी को कहीं काम से जाना होता या किसी मीटिंग में जाना होता तो वो महेश को
जिम्मेदरी दे जाते और साथ में हिदायत भी। उसे बड़ा गर्व होता कि आज वो पूरे स्कूल
का मॉनिटर है। तब वो एक-एक लड़के की ड्यूटी लगाता कि किसे किस क्लास का काम कराना
है? इस काम में बहुत आनन्द आता। सब नन्हे
टीचर बन जाते और मास्टरजी की स्टाइल में बच्चों पर रॉब भी जमाते। मधु बड़ी खुश
होती।
एक
दिन ऐसे ही मास्टरजी को कहीं जाना पड़ा। आधी छुट्टी तक सब कुछ सही चला। बच्चे अपने
अपने घर गए और आधे घण्टें में वापिस आ गए। महेश ने सबको अपनी-अपनी तख्ती लिखने का
आदेश दिया और खुद का काम करने लगा। विकास को कुछ शरारत सूझी और उसने मधु की सहेली सुधा
को टोंट किया-"देख चौड़े (कीचड़) में धासु धस गया।" सुधा को इससे चिढ हुई।
सब बच्चे एक-दूसरे का नाम उल्टा करके बोलते तो कुछ बच्चों को अच्छा नहीं लगता था।
सुधा मधु के चाचा की लड़की थी। मधु को गुस्सा आया। उसने नजरों से ही
कहा-"सुदीप! रोको विकास को वरना बुरा होगा।" लगा वो आग्रह कर रही है-‘सुदीप!
तुम मेरे दोस्त हो और सुधा मेरी बहन ही नहीं दोस्त भी है।‘ आश्चर्य ये था कि महेश
ने भी विकास को कुछ नहीं कहा। अब ये बात कब वाक-युद्ध में बदल गयी पता ही नहीं
चला। वाक्-युद्ध से नौबत हाथापाई तक आ गईं। मधु और विकास में जबरदस्त लड़ाई हुई। दोनों
गुथमगुथा हो गए। एक-दूसरे के बाल फाड़ें, गाल
नौच डाले। इस बीच विकास ने कुछ ऐसा अकल्पित किया जिसे पाठकों के लिए लिखा नहीं जा
सकता।
मेरे
दो दोस्त लड़ रहे थे। और पूरा स्कूल गोला बना तमाशबीन बना था। उसकी सखी उसकी बहन
सुधा ने भी कोई प्रतिकार नही किया था। मेरा मन ग्लानि से भर गया। कब दोनों ही थक
गए तो जैसे-तैसे मामला शांत हुआ। अब महेश को घबराहट इस बात की हुई कि मास्टरजी को
पता चलेगा तो मार पड़ेगी।
इस
घटना से जो मास्टरजी के आने पर हुआ सो हुआ। मधु मुझसे नाराज थी कि विकास जैसे लड़के
दोस्त बना रखें हैं। अब वो सवाल नहीं पूछती थी। अब वो स्लेट का सिलसिला बन्द हो
गया था। मुझे लगा मानो एक अजीब सा खालीपन आ गया।
मुझे
खुद समझ नहीं आता कि इतनी अल्प आयु में इतनी संवेदना कैसे थी? वो उम्र न ही प्रेम करने की थी न ही किसी के लिए
संवेदना की। जब सब बच्चे खेलने में रूचि रखते, उस समय में किसी के लिए सोचना क्या
वाकई प्रेम था? इस बात को सोचता तो परेशान हो जाता।
पाँचवी
क्लास की परीक्षा हुई तो मेरे सबसे ज्यादा अंक थे। पिताजी और माँ दोनों की ही ख़ुशी
का कोई ठिकाना नहीं था। उस समय 20 मई को रिपोर्ट कार्ड मिलते थे और उसी दिन से
गरमी की छुट्टियाँ शुरू होती थी। छुट्टियाँ शुरू हुई तो माँ की छोटी भाभी गॉव घूमने
आई। असल में माँ के इकलौते भाई की 3 बेटियाँ थी और उनकी पत्नी चौथी बेटी को जन्म
देकर स्वर्ग सिधार गयी थी। माँ ने ही अपनी कोशिशो से भाई की दूसरी शादी करायी थी। माँ
की भाभी दो-तीन दिन गॉव में रही, जाने वाले दिन पिताजी से बोली-“ननदोई जी, मैं
सुदीप को अपने साथ लेकर जा रही हूँ। छुट्टियों में मेरे साथ ही रहेगा।“
पिताजी
तैयार नहीं हुए, बोले-“इसे साथ ले जाकर दुखी हो जाओगी। खाने-पीने से लेकर टट्टी-पेशाब
तक की दिक्कत होगी, हमें तो आदत पड़ चुकी है, इसकी सब जरूरतों को समझते हैं। दुबारी
में बैठाकर इसे टट्टी-पेशाब करा देते हैं इसकी माँ तसले में भर कूड़ी पर डाल आती है,
तुम क्यों इसे ले जाना चाहती हो।“
बार-बार
जिद्द करने के बाद पिताजी मान गए। मैं मामा के गॉव जाने के नाम से ही खुश था।
सुप्रिया दीदी से दूर जाने का दुःख जरुर था लेकिन बस और रेलगाड़ी दोनों की यात्रा
मुझे रोमांचकारी लगती, इलाज ख़त्म होने के बाद से बस या रेलगाड़ी में बैठा भी नहीं
था।
इस
दौरान मैं घुटने पर हाथ रख धीरे धीरे चलने-फिरने भी लगा था। मामा के गॉव में मामा
की दुकान के सामान निगाहों में घूमने लगे। तीन छोटी बहनों के साथ खूब खेलने के
सपने देखने लगा।
माँ
ने बेटे के कपडे एक थैले में भर दिए। ये पहली बार था- जब बिना माँ के मामा के गॉव
जा रहा था। पिताजी बस स्टैंड तक साईकिल पर छोड़ आये थे। मामा के घर पहुँच बहुत खुश
हुआ। दिन भर दुकान में काउंटरनुमा लगायी गयी मेज पर बैठा रहता। दुकान पर ग्राहक
आते तो मामी को आवाज लगा देता। बाते बनानी इतनी सीख गया कि जिस मर्जी को दोस्त बना
लेता। हाजत के लिए पास ही पट्टी थी, जहाँ से खेत शुरू होते थे। खेत में बैठ हाजत से
फारिग होने का भी ये पहला अनुभव था।
धीरे-धीरे
छुट्टियाँ बीत चुकी थी। माँ लेने अपने मायके पहुँची तो मामा-मामी ने भेजने से मना
कर दिया। माँ वापिस गॉव वापिस चली गयी। शाम को पिताजी ने पूछा-“मालती, तुम सुदीप
को लेने अपने मायके गयी थी फिर खाली क्यों लौट आई?”
माँ
ने बताया-“भैया-भाभी कह रहे हैं कि हमारे तीन बेटियाँ है कोई बेटा नहीं है, इसे हम
गोद लेंगे, अब ये यहीं पढ़ेगा। हम जीजाजी से खुद बात कर लेंगे।“
पिताजी
को ये बात नागवार गुजरी। स्कूल खुल चुके थे। स्कूल खुलने के बाद जो भी रविवार आया-
वे ससुराल पहुँचे। गुस्सा सिर पर सवार था। रात को साले साहब से बोले- मैं सुदीप को
लेने आया हूँ, मामा-मामी की लाख अनुनय-विनय के बाद उन्होंने कहा-“देखो अगर इसके
पैर ठीक होते तो मैं इसे छोड़ देता, समाज में मेरा एक नाम है, अगर मैंने इसे यहाँ
छोड़ दिया तो लोग क्या कहेंगे, मास्टर हरिप्रसाद एक अपाहिज बेटे को नहीं पढ़ा सके,
मैं मजबूर हूँ।“
अगले
दिन सुबह की रेलगाड़ी से मैं पिताजी के साथ वापिस आ गया।
अब पिताजी
को चिंता थी मेरे छठी क्लास में दाखिले की, सब अच्छे स्कूल शहर के दूर-दूर थे। और
देर होने के चलते दाखिले भी बन्द हो चुके थे। आखिर में गॉव से १ किलोमीटर दूर के
स्कूल में दाखिला करा दिया गया। ये एक ऐसा स्कूल था जिसे पढाई के नाम पर सबसे खराब
समझा जाता था। गॉव से नजदीकी और लेट दाखिला होना दोनों वजह एक बेहद ख़राब स्कूल में
दाखिले की वजह बना।
पिताजी
रोज गॉव से पश्चिम दिशा में स्कूल छोड़ते, फिर वापिस पूर्व दिशा में अपने स्कूल
जाते। ये उनका नित्य कर्म बन गया।
स्कूल
में पहले दिन आधी छुट्टी (लंच टाइम) तक गुमसुम बैठा रहा। पास ही में एक लड़का बैठा
था। दोनों ने एक-दूसरे से कोई बातचीत नहीं हुई। आधी छुट्टी में दोनों ने एक-दूसरे
से परिचय किया। अपना हाथ आगे बढाकर कहा-“ दोस्ती पक्की मिला हाथ।“
राजेन्द्र
ने भी हाथ आगे बढ़ा कहा-“देख सुदीप हाथ मिला रहा है तू, दायाँ हाथ नहीं बायाँ हाथ
मिला?”
“पर बायाँ
हाथ क्यो?”
“क्योंकि
बायी तरफ दिल होता है, दोस्ती करनी है तो दिल से करना वर्ना मत करना।“
“दोस्ती
पक्की दिल से।“-मैंने कहा।
अब
मैं और राजेन्द्र सैनी दोनों पक्के दोस्त बन गए। महेश ने शहर के जैन स्कूल में दाखिला लिया और मेरे स्कूल का नाम
जनता था। जनता स्कूल का स्तर ऐसा था कि किसी का कहीं दाखिला न हो तो यहाँ हो
जायेगा। स्कूल बदल जाने से भी दोस्ती पर
फर्क नहीं पड़ा। पड़ोस में एक खुला सा मैदान था जिसे चौक कहा जाता था वो सब बच्चो के
खेलने की गाह था, गुल्ली-डंडा, कंचे, कार्ड्स खेलते, लकीर खींचना भी एक खेल हुआ करता जिन्हें छुपकर खींचते और फिर एक-दूसरे
की लकीरे काटनी होती। जो नहीं कट पाती उन्हे गिनना होता था, जिसकी ज्यादा वो विजेता, ऐसे न जाने कितने खेल रहे जो सब बच्चे मेरे साथ चौक में खेलते।
मेरे बिना जैसे कोई खेल खेला ही न जाता, कंचो और गिल्ली
के ऊपर तो कई बार सबको घर पर भी मार पड़ती। खेल-खेल में झगडा भी खूब होता। हाँ, एक बात थी महेश और मैं एक-दूसरे का पक्ष लेते। कोई हमसे लड़ता तो दोनों
इकट्ठे उससे निपटते। मुझे लगता बचपन मानो पंख लगाकर उड़ रहा है।
यूँ
तो मैं खुद को बहुत बहादुर समझता था लेकिन अकेले में खुद को कमजोर पाता था। मेरी
इस कमजोरी का एक कारण सुकेश भैया भी थे। सुकेश भैया का नेचर सब छोटे भाई-बहनों को
परेशान करने में बीतता, वे कोई न कोई ऐसी तरकीब निकालते- जिससे छोटे भाई-बहन
उनसेडरें और उनका लोहा माने। मेरी एक आदत थी- मैं चीजों को सहेजकर रखता, छोटी-छोटी
चीजें हो या कीमती सामान, सब चीजें सहेजकर रखना पसन्द करता, पिताजी जब फल आदि लाकर
चारो भाई-बहन में बराबर बाँट देते तो मैं उसे भी सहेजकर रखता कि बाद में खाऊँगा,
लेकिन अक्सर ऐसा होता कि भैया उसे चट कर जाते। ऐसा ही सर्दियों में मूँगफली खाते
समय होता मैं अपने हिस्से की मूँगफली रख देता और जब बाद में उसका खाने का मन होता
तो उसे कहीं मूँगफली नहीं मिलती, मैं समझ जाता कि जरुर ये काम सुकेश भैया का ही
किया है। रात को अँधेरे से डर लगता, सुकेश भैया भूत के नाम से डराते, वो अक्सर
बोलते वहाँ उस कमरे में या बाथरूम में जाओगे तो वहाँ भूत है, तुझे पकड़कर ले जायेगा।
एक
घटना घटी, माँ उस रात को पड़ोस में लेडिज संगीत में गयी थी, पिताजी घेर में बुजुर्ग
लोगो की महफ़िल में बैठे थे, हम चारो भाई-बहन बरांडे में बैठे अन्ताक्षरी खेल रहे
थे अचानक बाहर से तीन-चार पत्थर बरांडे में आकर गिरे, चारो भाई-बहन डर गए, हम अन्दर
के कमरे में भागे और अन्दर से कुण्डी बन्द कर ली। उसके बाद लगातर पत्थरों कि बरसात
होती रही। चारो भाई-बहनों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा हुआ था, और मन ही मन में हनुमान
चालीसा की लाइन बुदबुदाते रहे। काफी देर बाद पत्थर आने बन्द हुए लेकिन हमने दरवाजा
नहीं खोला। माँ लेडिज संगीत से वापिस आई तो रोते-रोते सुप्रिया ने माँ को सारी बात
बताई, माँ ने लालटेन जलाकर देखा- बरांडा पत्थरों से भरा पड़ा था, पिताजी भी आ चुके
थे, ये चिंता का विषय था कि किसने किया ये सब, जवाब में कुछ नहीं सिर्फ सिफ़र मिला।
अब मैं और अधिक डरने लगा था। वैसे ही सुकेश भैया पहले ही इतना डराते रहते थे।
पिताजी
मेरे इस तरह डरने से परेशान थे, एक रात उन्होंने किसी काम के लिए बोला। मैं नहीं
गया, पिताजी ने फिर बोला, मैं चुपचाप सहमा-सहमा सा बैठा रहा। पिताजी ने
पूछा-“सुदीप बता बात क्या है?”
“पिताजी
डर लगता है।“
“किससे
डर लगता है कौन है वहाँ?”
“जी.....
वो...भू...त....।“
“अरे,
भूत-वूत कुछ नहीं होता, सब मन का बहम है ये।“
“नहीं
पिताजी मुझे डर लगता है, मैं नहीं जाऊँगा।“
“अच्छा,
चलो मेरे साथ।“-कहकर पिताजी उसे एक एक कमरे बाथरूम सब जगह लेकर गए और पूछा-“अब
बताओ सुदीप, कहीं कोई है?”
“नहीं,
कोई नहीं है पिताजी।”
“फिर,
किस बात से डरते हो?”
“वो
भूत....त ...।“
“अगर वहाँ
या कहीं भी भूत होता तो वो जितना तुम्हें नुकशान पहुँचाता, उतना ही मुझे भी पहुँचाता,
जब कहीं कुछ दिखा ही नहीं तो मतलब है कि वह है ही नहीं, और जो होगा वही तो दिखेगा,
जो है ही नहीं वो दिखेगा भी नहीं।“
“जी
पिताजी! समझ गया भूत नहीं होता ये सब मन का बहम है, मैं अब किसी चीज से नहीं डरूँगा।“
“हाँ बेटा, किसी से मत डरना, न ही भूत से न किसी इन्सान से, गलत
के आगे झुकना नहीं, और सही से भिड़ना नहीं, अगर तुम डरते रहे तो दुनिया तुम्हें
जीने नहीं देगी, और जीने के लिए लड़ना बहुत जरुरी है, कदम-कदम पर मुश्किलें आएँगी,
लेकिन तुम्हें आगे बढ़ने के लिए संघर्ष करना होगा, वर्ना सब बेकार हो जायेगा।“
“समझ
गया पिताजी, अब आपका ये बेटा कभी किसी बात से भय नहीं खायेगा।“
इस
घटना के बाद से मुझमें एक अजीब सा परिवर्तन आया, मैंने डरना एकदम छोड़ दिया, सुकेश
भैया भी हैरान थे कि अब सुदीप डरता क्यों नहीं?
धीरे-धीरे
साल बीत रहा था। स्कूल में राजेन्द्र, घर पर महेश, क्या खूब जम रही थी। किसी को
किसी से कोई शिकवा नहीं। एक बार पता नहीं क्या हुआ किसी बात
पर मेरे और महेश के बीच ‘तू-तू मैं-मैं’ हुई तो महेश ने कहा-"मेरे साथ मत
बोला कर।"
मैंने भी गुस्से में बोला-" मुझे क्या पड़ी जो तुझसे बोलूँ?"
उसने कहा था-" देख तू ही पहले बोलता है। फिर से तू ही
बोलेगा।"
इस बात से दोनों ने एक-दूसरे से बोलना छोड़ दिया। दोस्त अब अजनबी से
बन गए। चौक में कोई एक खेल रहा होता तो
दूसरा वहाँ न रुकता। लेकिन राजेन्द्र
तो जैसे मेरी जान था, मुझे लगता- चलो, एक दोस्त तो है जो मुझे समझता है।
साल बीत रहा था, सालाना परीक्षा नजदीक आ गयी थी। मैंने फिर से पूरी क्लास में सबसे ज्यादा अंक पाए। राजेन्द्र का दूसरा नम्बर था लेकिन दोस्ती में कोई अन्तर नहीं। मानो अंक परीक्षा उनकी दोस्ती में कोई मायने नहीं रखती थी।
उधर मधु
ने भी पाँचवी पास कर ली। और वो अपने डैडी के साथ नैनीताल चली गयी- जहाँ वो जॉब
करते थे। जब
पता चला तो लगा बहुत कुछ पीछे छूट गया है। मधु की यादें, उसकी अनकहीं बातें और एक
भरपूर बचपन सब कुछ ही पीछे छूट गया है।
आज अभी तक पोस्ट किए गए पांचों हिस्से पढ़ गया. .
ReplyDeleteसर, आपका लेखन उम्दा है, आप जैसी बड़ी शख्सियत का का टिप्पणी करना मेरे लिए प्रोत्साहन है. कोशिश रहेगी कि एक लेखक के रूप में आपको मुझसे निराशा न हो।
Deleteभाई जी ! मैं इसे सिर्फ पढ़ नहीं रहा हूँ बल्कि जी रहा हूँ । मेरा छोटा बेटा भी इसी दौर से गुजर रहा है। ईलाज अभी भी चल रहा है। बहुत कुछ ऐसा भी होगा जो लिख नहीं पाएंगे बस महसूस करना होता है। इस को पढ़कर बहुतों को हिम्मत मिलेगी।
ReplyDeleteजी , अवश्य , यही तो लिखना जरुरी भी है , ताकि आने वाली पीढ़ी को हौसला मिले
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