संदीप तोमर जी से डॉ.भावना का साक्षात्कार
(डॉ भावना शुक्ल जी दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं, वे लम्बे समय तक प्रतिष्ठित पत्रिका में साक्षात्कार का कॉलम देखती रही हैं, उनके आवास पर जाना हुआ तो उन्होंने आनन-फानन में कुछ प्रश्न पूछकर विडिओ रिकॉर्डिंग की, उनके द्वारा लिया गया यह साक्षात्कार अक्टूबर २०१८ के प्राची के अंक में प्रकाशित हुआ. आपके लिए प्रस्तुत है, पढ़कर प्रतिक्रिया अवशय दें। )
भावना शुक्ला : संदीप जी आपसे प्रश्न की शुरुवात इसी से करते है आपने “एक अपाहिज की डायरी “जो आत्मकथा लिखी है वह किस लेखक की है अपाहिज हो गया था या पहले से
ही था जरा दृष्टिपात कीजिये ?
संदीप तोमर : भावना जी, आत्मकथा से अभिप्राय ही स्वयं की कथा से है जो जाहिर तौर पर ये स्वयं की ही गाथा है, अब सवाल ये होता है जो कि अमूमन लोगो ने मुझे किया भी, कि एक जीवट व्यक्ति को खुद की आत्मकथा का शीर्षक “एक अपाहिज की डायरी” क्यों रखना पड़ा? तो मात्र ग्यारह माह की अवस्था रही जब
मुझे पोलियो हुआ, बचपन में जब अपने लिए बेचारा और
अपाहिज शब्द सुनता था जो एक अजीब सी बेचैनी होती थी, जो सोने नहीं देती थी लेकिन वक़्त के साथ साथ कुछ शब्दों से एक
अपनापान सा हो गया, उसी अपनेपन से शायद इस शीर्षक का जन्म
भी हुआ। अब तो जीवनसंगिनी कहलाने वाले रिश्ते के मुंह से भी अपने अपाहिज होने जैसी
गाली सुनता हूँ तो विचलन नहींहोता उल्टा ऊर्जा का संचार महसूस होता है... एक शेर
है- वो लोग जिस्म से नहीं जहन से अपाहिज हैं, उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चला था।
भावना शुक्ल: आप एक शिक्षक है अच्छे लघुकथाकार में आपकी गणना की जाती है लघुकथा
गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ करती है ,इसे आप स्पष्ट कीजिये ?.
संदीप तोमर : जैसे कहा जाता है
कि “सुंदर स्त्रियों से गुफ्तुगू/वार्तालाप
करने का नाम ग़ज़ल है”, उसी तर्ज़ पर मेरी नजर में लघुकथा
प्रेयसी संग बैठ किसी प्रसंग की गुफ्तगू का नाम है. यह गद्य का एक ऐसा अंश है जो
एक सिटिंग में पढ़ा जा सके। यहाँ ज्यादा विस्तार की गुन्जायिश नहीं है, आपको सिमित शब्दों में अपनी बात को कहना है, शब्दों की बाजीगरी यहाँ बहुत काम आती है। लघुकथा के साथ यह
महत्त्वपूर्ण एवं अनिर्वाय है कि जब कोई रचना कथा-विकास के छोटे कलेवर में वांछित
परिणति को सिद्ध करने तक पहुँचने में पूर्ण-रूपेण सक्षम हो तो उसे अनावश्यक
विस्तार देने की कोई गुजाइश/आश्वयकता नहीं होती। यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि
कथा के परिणाम तक पहुँचना लघुकथा का उद्देश्य कदापि नहीं और न ही पाठक को झटका
देकर अपनी बात खत्म करना, लघुकथा है।
भावना शुक्ला: पहचान की दृष्टि से क्या लघुकथा की ज्यादा पहचान है या कहानी की या
दोनों की अपनी अलग –अलग पहचान है आपकी दृष्टि में क्या
सही है ?
संदीप तोमर : मैं लघु कथा को एक ससक्त विधा मानता हूँ. हालाकि लघुकथा को गद्यांश, व्यंग, चुटकुले, संस्मरण इत्यादि का प्रतिरूप समझने वालो की कमी नहीं है ।
अधिकांशत: देखने में मिलता है कि जल्दबाजी में लिखी गई कथाएँ जो अत्यन्त छोटी होती
हैं उन्हें लेखक लघुकथा का नाम दे देता है। लघुकथा की इस समस्या ने इसे एक अजीब
स्थिति में ला खड़ा किया है। अधिकांश व्यक्ति मात्र इसलिए लघुकथाए लिख रहे हैं कि
उन्हें सिर्फ लिखना है लघुकथा को इस मानसिकता के लोगों ने साहित्य में शार्ट-कट
मानना शुरू कर दिया है। जहाँ तक पहचान का सवाल है तो मेरा मानना है कि हर विधा का
अपना महत्व है, अपनी पहचान है।
सामान्यत: किसी भी साहित्यिक आंदोलन का सूत्रपात निश्चित रूप से
योजनाबद्ध न होकर सहज तथा स्वाभाविक होता है। ऐतिहासिक संदर्भ में विशिष्ट
व्यक्तियों तथा विशिष्ट परिस्थितियों के फलस्वरूप ही कोई प्रवृत्ति साहित्य में
परिलक्षित होती है। सशक्त होने पर यही प्रवृत्ति धीरे-धीरे एक धारा का रूप ले लेती
है, तब जाकर उस धारा का नामकरण होता है।
इस प्रकार लेखन की एक नई विधा अस्तित्व में आती है।तो कहानी के साथ ये आन्दोलन
बहुत पहले शुरू हुआ, तुलनात्मक रूप से लघुकथा बहुत बाद में
अस्तित्व में आई।
भावना शुक्ल: हिंदी कहानी का इतिहास डॉ गोपाल राय द्वारा लिखित है जिसमें लघुकथा
को कथा साहित्य के पदों मैं से एक स्वीकारने जैसी उपलब्धि के बाद भी एक विधा के
रूप में लघुकथा को स्थान देने या ना देने के सवाल क्यों उत्पन्न होते हैं ?
संदीप तोमर : देखिये भावना जी, जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि जब कोई साहित्यिक आन्दोलन शुरू होता
है तो स्वीकार्यता का प्रश्न हमेशा खड़ा होता है, ये सही है कि लोगो ने लघुकथा को विधा मानने से इनकार किया लेकिन
अफ़सोस इस बात का है कि जिनकी पहचान आज साहित्य में लघुकथा की वजह से है उन्होंने
ही इस विधा को विधा नहीं माना, स्वयं सतीशराज पुष्करना जी लघुकथा को
उपविधा मानने वालों में प्रमुख लघुकथाकार थे। इस तरह के और भी नाम गिनाये जा सकते
हैं,लेकिन बात ये है कि नव लेखन जब भी
होता तो व्यवधान भी होंगे और विरोध भी होगा, जो विशुद्ध होगा वह टिकेगा ही। वर्तमान दो दशक अभी लघुकथा के लिए
निर्धारित हैं, लघुकथा विधा ने बाकि विधाओ के मुकाबले
खुद को अधिक स्थापित कर लिया है,अतः लघुकथाकारो को दो दशक निश्न्चित
रहने किओ जरुरुत है।
भावना शुक्ला: लघुकथा में अतियथार्थवाद क्या पाठक को निराश तो नहीं कर रहा ? क्योकि कहा भी गया है ये निराशा को जन्म देता है ?
संदीप तोमर : जी, मैं आपकी बात से पुर्णतः सहमत हूँ, लघुकथा ही क्या किसी भी विधा में जाएँ आपको यही स्थिति मिलेगी, कोरा यथार्थ या अतियथार्थ कहीं न कहीं मौलिक लेखन को तो अवरुद्ध
करता ही है साथ ही फैंटेसी और कल्पनाशीलता न होने के चलते सर्जना विलुप्त होती
जाती है। पाठक को जो नयापन चाहिए वह उसे नहीं मिलना तो निराशा का भव उत्पन्न होना
स्वाभाविक है। लघुकथा के साथ ये समस्या देखने को अधिक मिल रही है, लोग लगातार लिख रहें हैं, चिंतन-मनन का स्कोप ख़त्म कर दिया है, सिर्फ इसलिए लिखा जा रहा है क्योंकि लिखना है, छपना है, तो ये जो लिखने और छपने की चाह है ये
विधा का नुक्सान अधिक कर रही है। जब तक पाठक को केंद्र में रखकर लेखन नहीं होगा ये
स्थिति अधिक विकट होगी।
भावना शुक्ला: संदीप जी कुछ बातें आपके लेखन पर, आपकी कहानियों/लघुकथाओ में समाज में व्याप्त बुराइयाँ बहुत महीन
रूप में आकर विस्तार लेती हैं, आपके कथानक अनूठे होते हैं.. कथानक के चुनाव के लिए आप क्या
प्रक्रिया अपनाते हो? अमूमन घटनाएँ सबके
सामने लगभग वही घट रही होती हैं ..लेकिन सबकी दृष्टि वहां तक नहीं जा पाती?
संदीप तोमर : कथानक ढूढ़ने हमें कही बाहर नहीं जाना होता है भावना
जी, ये तो आप भी मानेंगे। सब कुछ हमारे
आस-पास ही हैं। मेरे उपन्यास घटनाएँ आँखों के सामने हो रही हैं, उनका फलक बहुत बड़ा है, लेखक को रोल ये है कि वह वहां से क्या और कितना चुनता है? बस आवश्यकता इस बात की है कि जो आपके आस-पास घट रहा है उसे आप किस
नज़रिये से देखते हैं ? लेखक की संवेदनशीलता का इस प्रक्रिया
में बड़ा रोल होता है।
भावना शुक्ला : आपके उपन्यास या कहानियां पढ़कर लगता है कि ये घटना
यहीं कहीं घट रही है यह गुण एक कथाकार को सफल बनाता है, समाज में व्याप्त बुराइयों को क्या साहित्य के माध्यम से दूर किया
जा सकता या फिर इसे मात्र लेखन की पीड़ा तक ही सीमित समझा जाए?
संदीप तोमर : ये प्रश्न बहुत अच्छा उठाया आपने। आमतौर पर लेखक की
रचनाओ पर ऐसे प्रश्न उठ खड़े होते हैं चाहे वह उपन्यास हो, कहानी हो या फिर लघुकथा। मेरे उपन्यास “थ्री गर्लफ्रेंड्स” पर तो ये आरोप तक लगा कि ये उपन्यास न होकर आत्मकथा है? सवाल ये नहीं है कि कथानक में रचनाकार या कोई पात्र उपस्थित है
सवाल ये है कि हम आप जिस वर्ग से समवद्ध है वहाँ हमारा नैतिक दायित्व क्या है? मात्र समस्या की बात करके लेखक का दायित्व पूरा नहीं हो जाता, लेखक द्वरा समाधान की भी बात की जाए। यदि लेखक ही समाधान नहीं
सुझाएगा तो लेखन का औचित्य ही क्या हुआ? हाँ, साथ ही आलोचकों को इस बात पर ध्यान
देना होगा कि अंततोगत्वा हम है तो रचनाकार ही, हम जो भी पीड़ा महसूस करते है और वह कलम से ही निकलती है। समस्या की
और ध्यान दिलाना भी हमारा ही दायित्व की है
लेकिन ध्यान रहे ये एकमात्र दायित्व नहीं हो सकता।
भावना शुक्ला : अधिकांश लेखकों पर ये आरोप लगाया जाता है कि वे खुद
के लेखन को अधिक विवादित बना देते हैं, राजेन्द्र यादव जैसे नामचीन लेखक भी इस आरोप का शिकार रहे, ऐसे में आपका लेखन विवधता से भरा है, इसके पीछे कोई विशेष कारण?
संदीप तोमर : सीमा सिंह ने मुझे एक साक्षात्कार में कहा था वाही दोहरा रहा हूँ- “साहित्य जगत में एक स्लोगन चलता है रातों रात प्रसिद्धि पानी है तो
विवादास्पद विषयों पर लिखें आधा काम रचना, बचा हुआ काम आलोचक कर देंगे।“ मुझे महिलाओं की पीड़ा ने हमेशा अपनी ओर खींचा है। नारी वेदना
बेडरुम से बाहर भी उतनी ही पीड़ा दायक है, जितनी बेडरूम के अन्दर, इसी के साथ प्रेम और उसके नाम पर होने वाले उपक्रम भी मेरी रचनाओ
का हिस्सा बनते हैं क्योंकि समाज में बहुत बारीकी से इन सब का सूक्ष्म विश्लेषण
मैंने किया है। मेरे लिए प्रसिद्धि लेखन से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, लेखन मेरे लिए पूजा जैसा पवित्र कर्म है जो आत्माभिव्यक्ति और
अंतर्वेदना के प्रस्फुटन के लिए नितांत आवश्यक है।यही वजह है कि मैं विविधता
तलाशता हूँ, प्रयोगधर्मी होना किसी भी लेखक के लिए
बहुत जरुरी है, इस एक गुण से आप अपने दायित्व का
निर्वाह पूर्ण रुपें कर सकते हैं।
भावना शुक्ला : प्राची पत्रिका के पाठको को कोई सन्देश?
संदीप तोमर: जी बिल्कुल हार्दिक
अभिनन्दन, ह्रदय से आभार प्राची के पाठको का भी
और आपका भी भावना जी।आपके महत्वपूर्ण प्रश्न और मेरे जवाब से यदि पाठकों को कुछ
सन्देश मिलता है तो निश्चित ही मैं स्वयं को सौभाग्यशाली समझूंगा और तब इस वार्ता
की सार्थकता होगी। प्राची पत्रिका की संपादन टीम को बहुत बहुत शुभकामनायें।
लघुकथा के विषय में विस्तृत जानकारी देती हुई एक सार्थक वार्ता।
ReplyDeleteएक आम धारणा या पूर्वाग्रह (जो कि आपके वक्तव्यों मे भी देखने को मिला है) है कि लघुकथा में आत्मकथ्य को वर्जित माना गया है।मेरा मानना है कि लघुकथा की आत्मा, भाव विशेष अथवा संदेश को पाठक तक सही रूप में प्रेषित करने हेतु यदि आत्मकथ्य अनिवार्य बन जाता है तो उससे परहेज़ नही होना चाहिए।
इति।
वर्जित नहीं है बस लेखकीय प्रवेश न हो
Deleteशानदार अभिव्यक्ति
ReplyDeleteइसमे प्रश्नकर्ता का बड़ा योगदान है
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