Tuesday, 20 April 2021

जाने क्या बात है इस शख्स में (संस्मरण) - अखिलेश द्विवेदी अकेला

 

तुम्हीं से मोहब्बततुम्हीं से लड़ाई 

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              तीसरा कौन???
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यह संस्मरण लिखते समय दो समस्याएं आयीं। पहली शीषर्क की और दूसरी यह कि कॉमरेड संदीप तोमर से मेरी पहली मुलाकात कब हुई थी। दरअसल हमारे सम्बंध करीब 18 वर्ष पुराने हैं। हमें जोड़ने के दो केंद्र थे। एक हिंदी अकादमी, दिल्ली और दूसरे भ्राता श्री किशोर श्रीवास्तव जी।

वह समय 2002-03 का था जब किशोर जी 'हम-सब साथ,साथ' पत्रिका निकालते थे। उस पत्रिका में नवोदितों के लिए बहुत सामग्री होती थी। किशोर जी नवोदितों को छापते भी थे और प्रोत्साहित भी करते थे।

वहीं दूसरी तरफ हिंदी अकादमी ,दिल्ली के सचिव श्री रामशरण गौड़ जी और उपाध्यक्ष श्री जनार्दन द्विवेदी जी नवोदित लेखकों के लिए बहुत सी प्रतियोगिताएं व कार्यशालाऐं आयोजित किया करते थे। उस समय ही मेरा परिचय नए लेखकों में अग्रणी श्री संदीप तोमर जो कि आलोचना व कहानी विधा में लिखते थे, उनसे हु। शायद मेरे पहले कहानी संग्रह 'टूटता तारा' की समीक्षा के विषय में बात हुई थी जो किशोर जी की पत्रिका में छपनी थी।

तब संदीप जी पश्चिम विहार के सैय्यद गाँव में एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे। मेरे घर के समीप ही स्कूल था। हम स्कूल जाते तो घण्टों उनसे साहित्य पर चर्चा होती। सैय्यद गाँव चौक पर ही ओमप्रकाश जलेबी वाला गर्मागर्म जलेबी बनाता था। गर्मागर्म चर्चा और गर्मागर्म जलेबी।

चर्चा गर्मागर्म इसलिए और हो जाती थी कि उस समय हम दोनों अविवाहित थे। मेरे और संदीप के जीवन में कुछ प्रेम प्रसंग भी चल रहे थे। यहाँ मैं उनकी चर्चा नहीं करना चाहता लेकिन घूम-फिरकर हमारी चर्चा इसी पर आ जाती-"तू मुझे सुना, मैं तुझे सुनाऊँ, अपनी प्रेम कहानी"।

संदीप को बचपन में पोलियो हो गया था। उसकी वजह से उनका एक पैर पोलियोग्रस्त है। उनकी प्रेमिका तो उन्हें चाहती थीं किंतु माता-पिता पोलियोंग्रस्त लड़के को दामाद के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे थे। उस लड़की से मैं मिल चुका था। मेरी भी दिली इच्छा थी उसी से संदीप का विवाह हो। यह प्रेम-कहानी हम सभी साथियों में चर्चा का विषय रहती।

कुछ ऐसी ही कहानी अपनी भी चल रही थी। मैं अकेले दिल्ली में रहता था। कई जगह शादी की बात चली और प्रेम-प्रसंग भी खूब चले किंतु बात शादी तक जाते-जाते अटक जाती।

खैर, हमारी बातों का कोई अंत न होता। हम दोनों ठहरे किस्सा-गो। घण्टों बीत जाते पर जाते समय लगता कि बात अधूरी है। एक दिन योजना बनाई कि रात में संदीप मेरे घर रुकेंगे। मेरा घर लक्ष्मी पार्क में था जो उनके स्कूल से महज दो किलोमीटर दूर था।

शाम को मेरे घर संदीप आये तो हमने उनका स्वागत किया। मैं घर में अकेले ही था ।जलपान के बाद पूछा-

"क्या खाओगे?"

"पंडित तुम बनाओगे या होटल से लाओगे?"संदीप मुझे पंडित ही कहते थे।

"जो कहो?"

"ऐसा करो, घर में बनाओ और वह चीज बनाओ जो जल्दी बन जाये।"

"तहरी बनाऊं?"

"हाँ, यह ठीक रहेगा।"

मैं कपड़े उतारकर तहरी बनाने में जुट गया। संदीप से अकेले न बैठा गया। वह भी किचन के गेट पर कुर्सी डालकर बैठ गए। मुझे मालूम था कि उन्होंने मुझे होटल क्यों नहीं भेजा और जल्दी बनने वाली चीज क्यों बनाने की बात कही। वह समय ज्यादा चाहते थे ताकि हम दोनों आज जी भरकर बतिया सकें।

आलू, गोभी, मटर, प्याज काटकर पहले मैंने लहसुन, अदरक, हरीमिर्च और जीरे का तड़का लगाया तो संदीप बोले-

"यार पंडित, तुम तो ऐसे खाना बना रहे कि होटल में क्या बनेगा?"

"बनने के बाद देशी घी डालकर खाओगे तो स्वाद देखना।"मैंने भूख बढ़ा दी थी।

"तुम्हारी भाभी भी.....।"

फिर क्या था ? हम तय करके आये थे कि मिलकर एक पत्रिका निकलेंगे, उस पर विस्तृत चर्चा होगी किन्तु भाभी पर चर्चा शुरू हो गयी। भाभी के बाद अनुज वधु की चर्चा शुरू हो गयी। देशी घी की तहरी का स्वाद अपनी-अपनी संभावित घरवालियों की चर्चा करते हुए मानों बढ़ गया था। आये थे हरि भजन को, औटन लगे कपास।

यहीं मन न भरा। आधी रात बीत गयी। संदीप को सीढ़िया चढ़ने में समस्या थी ,फिर भी हम दोनों छत पर जा पहुँचे। गर्मी के दिन थे। दोनों गाँव की पृष्ठभूमि से थे। उन्मुक्त हवा, टिमटिमाते सितारे, पूरा खिला हुआ चांद और उसकी खूब छिटककर बिखरी हुई चाँदनी। वह चंद्रमा में परम ज्योति को देख रहे थे और मैं अपनी भावी पत्नी की कल्पना करके कल्पनाओं में खोया था। खुले हुए आकाश के नीचे बैठे हम दो विरही एक-दूसरे की वेदना को समझते हुए हमने अपने-अपने चांद को उस चांद में देखकर न जाने कितनी कल्पनाएं की होंगी और नई-नई उपमाएं दी होंगी। किंतु हमारी परिस्थितियां और विसंगतियां राहु बनकर खुशियों में ग्रहण लगाने को आतुर थीं। रात तो बीत गयीं पर बातें खत्म न हुईं। आज तक भी बहुत सी बातें अधूरी रह गयीं।

उस समय हम लोगों ने मेरे संपादन में  "प्रारंभ" नामक संयुक्त काव्य संकलन निकालने की योजना बनायी। इससे पहले हम लोग "मुक्ति" नामक काव्य संग्रह श्री मनोज 'कैन' जी के सम्पादन में निकाल चुके थे। नवोदित लेखकों में भाई शिवनाथ 'शीलबोधि', संजीव कुमार, महेश कौशिक, सौरभ भारद्वाज, ललित झा, मनोज कुमार 'मैथिलललित झा, अशोक कुमार 'ज्योति' (वह उस समय प्रभात प्रकाशन में थे) रमेश वर्णवाल, इरफान अहमद 'राही' ,लेखिकाओं में लक्ष्मी चौधरी, कल्पना वाजपेयी, सोनाली शुक्ला, संगीता अधिकारी, रामेश्वरी 'नादान' आदि मिलकर विभिन्न प्रतियोगिताओं व गोष्ठियों में भाग लेते थे। एक "युवाकृति" नामक पत्रिका निकाली गई। जिसका प्रधान संपादक मुझे बनाया गया और कार्यकारी संपादक शिवनाथ 'शीलबोधि' बने। कनॉट प्लेस में मीटिंग हुई। मुझे प्रधान संपादक बनने के लिए संदीप जी ने प्रस्ताव रखा और शीलबोधि ने अनुमोदन किया।

उन दिनों शीलबोधि दलित लेखक संघ में सक्रिय थे। वह प्रसंग जब शीलबोधि पर संस्मरण लिखूंगा तो विस्तार से लिखूँगा। मजे की बात यह की संदीप तोमर जी उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे और मैं समाजवादी/प्रगतिशील विचारधारा का समर्थक था। किंतु हम सबमें विचारधारा का कोई टकराव न था। सिर्फ कभी-कभी मजाक हो जाया करता था। ललित झा संघ के दायित्वान कार्यकर्ता थे। राष्ट्र किंकर के संपादक व राष्ट्रवादी लेखक श्री विनोद बब्बर जी व संघ अधिकारी श्री अमरीष जी के कार्यक्रमों में मुझे ले जाते। मुझसे और ललित से संघ को लेकर बड़ी काट-छांट होती। धीरे से संदीप ललित का पक्ष लेते किंतु हम सब विचारधारा को मित्रता पर हावी न होने देते।

उस समय हम सबमें कोई ऐब न था। बाद में कई न्यूनताएँ आ गयीं थीं। समय बीता और हममें से कई मित्र विवाह के बंधन में बंध गए और कई लोगों की प्रेम कहानियां अधूरी रह गयीं। उनकी चर्चा फिर कभी। आज सिर्फ संदीप की बात करूंगा

संदीप और विवादों का चोली दामन का साथ रहा है। एक भयंकर विवाद मेरे घर पर हुए एक लोकार्पण समारोह में संदीप और किशोर जी के बीच हो गया। रंज की जब गुफ्तगू होने लगी, आप से तुम, और तुम से तू होने लगी। इस झगड़े के पीछे जो मूल वजह थी वह कोई और थी ! और वह वजह थी बलरामपुर, उत्तर प्रदेश से दिल्ली आये युवा कथाकार श्री दिलीप सिंह जो किशोर जी बुलावे पर आये थे। वह "हम सब साथ-साथ" पत्रिका का कार्य देखने के लिए आये थे। तब किशोर जी कराला में रहते थे। वह दिल्ली का आउटर इलाका था। कुछ दिन सब ठीक-ठाक था। लेकिन किशोर जी और दिलीप जी की ज्यादा दिन पट नहीं पायी। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। यह दोनों महानुभावों पर लागू होता है। मैं उस विवाद के केंद्र बिंदु पर नहीं जाना चाहता क्योंकि आज का विषय संदीप हैं। तो संदीप और मैं इस विवाद से ऐसे जुड़े कि किशोर जी के घर आते-जाते हमारी व संदीप की मित्रता दिलीप सिंह से भी हो गयी थी। किशोर जी व दिलीप जी दोनों की बात को सुनकर व विवाद मिटाने के उद्देश्य से मैं दिलीप को अपने घर ले आया।

उसी समय "प्रारंभ" काव्य संकलन छपकर आ गया था। मेरे घर पर ही उसका लोकार्पण था। शायद पन्द्रह अगस्त का दिन था।"काव्य गंगा"के संपादक स्वामी श्यामानंद सरस्वती, डॉ. जय सिंह आर्य 'जय', किशोर श्रीवास्तव जी, नेताजी एम.बी.तिवारी जी, डॉ. एस. जे. तिवारी व शीलबोधि आदि आये थे। लोकार्पण के बाद किशोर जी व संदीप जी में पहले कहासुनी फिर झगड़ा होने लगा। झगड़े की वजह एक कवियित्री थीं जिनसे मेरे विवाह की बात चल रही थी लेकिन उनके माता-पिता ने मुझे यह कहकर रिजेक्ट कर दिया था कि वाजपेयी   द्विवेदी से ऊँचे होते हैं सो निचले आशपति में लड़की नहीं ब्याहेंगे। किंतु बहस का विषय यह नहीं था। शुरू में बात उन कवयित्री महोदया की ही उठी थी किंतु संदीप में दिलीप सिंह की कसर भरी हुई थी। उन्हें लगता था कि बलरामपुर से पहले दिलीप को दिल्ली बुलाकर फिर उससे किनारा करके किशोर जी ने उचित व्यवहार नहीं किया।

मेरे लिए बड़ा धर्मसंकट खड़ा हो गया। दोनों मेरे अतिथि थे। सभी लोग परेशान हो उठे। अंततः दोनों लोगों को किसी तरह समझा बुझाकर वापस भेजा। किंतु संदीप जी ने किशोर जी के लघुकथा संग्रह "कटाक्ष" की समीक्षा लिखकर उसकी बखिया उधेड़ दी। इतना ही नहीं, उन पर कई लघुकथाएं भी लिख डालीं। यह शीत युद्ध दिलीप सिंह के दिल्ली जाने के बाद भी बहुत दिनों तक चलता रहा। मेरे लिए संदीप जी और किशोर जी दोनों में किसी एक को चुनना बड़ा मुश्किल था। हालाकि बाद मेन संदीप ने ही पहला करके किशोर जी से संबंध पुनः सामान्य कर लिए थे।

इस बीच एक संदीप जी की और कुछ मेरी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। संदीप ने मेरे उपन्यास 'वफ़ा' की भूमिका भी लिखी। लगभग मेरी सभी पांडुलिपियों को पहले संदीप ही पढ़ते थे। मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि संदीप में आलोचक के जन्मजात गुण हैं।

हम लोग उन दिनों वरिष्ठ लेखक-लेखिकाओं के साक्षात्कार लेते थे। मैं भावपक्ष और संदीप कलापक्ष पर चर्चा करते। कभी-कभी हम ऐसे नितांत व्यक्तिगत और अटपटे प्रश्न पूछ लिया करते थे कि सामने वाला असहज हो जाता था। ऐसा ही मुझे एक प्रसंग याद आता है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय की निदेशक व लेखिका श्रीमती पुष्पलता तनेजा का साक्षात्कार लेने की योजना बनी।

मैंने अपनी बाइक पर संदीप को बिठा लिया। मैंने हेलमेट लगा रखा था किंतु संदीप ने नहीं लगा रखा था। मोतीबाग के पास एक ट्रैफिक के सिपाही ने मेरी बाइक रोक ली और चाबी निकालने लगा। संदीप उस सिपाही से भिड़ गये-

"शर्म नहीं आती तुम्हें, इस शरीफ आदमी ने एक विकलांग को लिफ्ट दे दी तो तुम उसका चालान काटोगे। इस देश में शिक्षकों का कोई सम्मान नहीं। अपने अफ़सर से मेरी बात करवाओ।"

ठाकुर का पारा गर्म हो गया। एक तो राजनीतिक रसूख वाला व्यक्ति, ऊपर से क्षत्रिय  खून। मैं संदीप के तेवर देखता रह गया। सिपाही घबरा गया। मैंने बहुत समझाया बुझाया तो देवता शांत हुए।

कई बार पुस्तक मेले में या गोष्ठियों में मैं संदीप के साथ उनके ही स्कूटर पर चल पड़ता था। उनके स्कूटर में उसे बैलेंस करने के लिए पीछे दो पहिये अतिरिक्त लगे  थे। जैसे छोटे बच्चों की साइकिल में लगे होते हैं। अगर उस स्कूटर में पीछे न होकर बगल में सीट लगी होती तो हम शोले फिल्म के जय और वीरू से कम नहीं थे।

तो हम जा पहुँचे हिंदी निदेशालय के हेड आफिस। श्रीमती पुष्पलता तनेजा से पूछने वाले प्रश्नों को हम पहले से ही लिखकर ले गये थे। लेकिन संदीप ने उनसे अचानक ऐसा प्रश्न पूछ लिया कि श्रीमती तनेजा ही नहीं मैं भी चौंककर संदीप का मुँह ताकने लगे।

प्रश्न यह था कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी अपने ब्रम्हचर्य की परीक्षा हेतु महिलाओं के साथ नग्न सोते थे। एक महिला और लेखिका होने के नाते आप उन महिलाओं की सहज यौन इच्छा के विषय में क्या कहेंगी जो गाँधी जी के साथ नग्न सोती थीं। क्या यह गाँधी जी द्वारा उन महिलाओं की यौन-इच्छा का हनन नहीं था?

श्रीमती पुष्पलता तनेजा पहले तो अटपटाई फिर उन्होंने सहज होते हुए उत्तर दिया कि इसमें इच्छाओं के हनन और दमन-शोषण जैसी कोई बात नजर नहीं आती क्योंकि वह पहले से अपना मन बनाकर अपनी मर्जी से गाँधी जी के साथ लेटती थीं।

यह साक्षात्कार जब किसी पत्रिका में छपने भेजा तो सम्पादक ने ऐसे प्रश्न हटा दिए थे। जिस बात पीआर संदीप को तिलमिलाहट भी हुई थी।

मेरा आंचलिक उपन्यास "आँवें की आग" छपा तो संदीप ने उसकी समीक्षा लिखी थी।

इस बीच हम दोनों के जीवन में बड़ा बदलाव आया। हम दोनों की प्रेमिकाओं ने घरवालों के दबाव में   किसी अन्य से विवाह कर लिया।

परम ज्योति और संदीप की मित्रता मैंने बड़े करीब से देखी थी। मित्रता के उन सात सालों में हुई मुलाकातों में कौन सा ऐसा दिन था जब संदीप ने बातों में परम ही चर्चा न हुई हो। मेरी कल्पना से विवाह की बात समाप्त हो चुकी थी। उस समय बिंदु से शादी की चर्चा चल रही थी लेकिन वह भी किसी तीसरे के कारण टूट गयी। हम दोनों कुछ दिन बहुत उदास और निराश रहे। विरह की कविताएं लिखते रहे। मैंने इस प्रेम कहानी के टूटने पर "बिंदु" उपन्यास लिखा। संदीप को भी बहुत ठेस लगी। उन्हें लगता था कि उनकी विकलांगता के कारण उनकी प्रतिभा और सामर्थ्य को नकार दिया गया। मुझे भी लगता था कि मैं अकेला हूँ। अगर मेरे माता-पिता या भरा-पूरा परिवार होता, आर्थिक सक्षमता होती तो मेरी प्रतिभा और संघर्ष को सम्मान मिलता।

खैर, हमने इस निराशा को जीवन पर हावी नहीं होने दिया। हमने तय किया कि हम गरीब घर की कन्याओं से बिना दहेज लिए विवाह करके समाज में उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। संदीप ने भी ऐसा ही किया और मैंने भी ऐसा किया। इन दोनों विवाहों की चर्चा साहित्य जगत के साथ समाज में भी हुई। शायद किसी पत्रिका ने छापा भी था। शादी के बाद कुछ दिनों के लिए हम अपनी-अपनी गृहस्थी में ऐसे रम गये कि साहित्य पीछे छूटने लगा। हमारी मुलाकातें भी कम हो गयीं।उसी दौरान संदीप का कहानी संग्रह ”टुकड़ा-टुकड़ा परछाई” अवश्य प्रकाशित हुआ।

बहुत दिनों बाद संदीप का फोन आया-"अरे पंडित,आज मैंने तुम्हारी एक कविता पढ़ी। कविता का शीर्षक है  -या तुम मेरी कविता हो? क्या कल्पना की है यार ! हम लोग साहित्य से दूर होते जा रहे हैं। तुम जल्दी मुझसे मिलो। हम अगर अभी सचेत न हुए तो वह बहुत सा साहित्य बाहर नहीं आ पायेगा जो हम देश-समाज को दे सकते हैं। हम लोग एक नई योजना बनाते हैं।"

संदीप जल्दी से किसी के साहित्य की प्रसंसा नहीं करते। उनके मन का आलोचक हमेशा दोनों हाथों में तलवार लिये तैयार रहता है। संदीप की इस प्रशंसा से मेरे अंदर नई ऊर्जा का संचार हुआ। मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि विवाह के बाद हमने जो साहित्यिक पारी शुरू की वह संदीप से मिली प्रेरणा के कारण ही शुरू की। हमने दोबारा लिखना तो शुरू कर दिया लेकिन मुलाकात न हुई।

यह शायद वर्ष 2010 के बाद का समय रहा होगा। मेरे परम् मित्रों में ललित झा की भी शादी हो गयी थी। उनका रुझान साहित्य को लेकर लगभग खत्म हो गया था। हाँ, मनोज कुमार मैथिल सक्रिय थे और लगातार कविताएं लिख रहे थे। संदीप ने एक मंच बनाया "लेखकों का अड्डा" और मैथिल ने “साहित्य नभ" मैंने सुझाव दिया कि "साहित्य नभ" के माध्यम से हम लोग युवा लेखकों को ज्यादा से ज्यादा जोड़ें। मैं, संदीप, ललित मिश्र व मैथिल की द्वारिका में मीटिंग हुई। संदीप और मैथिल कुछ वैचारिक मतभेद उभरे। यह मतभेद सोशल मीडिया में के माध्यम से भी यदा-कदा दिखाई देते ।कुछ दिन धक्का मारकर गाड़ी चली किंतु ज्यादा आगे तक न जा सकी। संदीप की आदतों में एक चीज और पकड़ में आयी कि वह सामने वाले को नकार देंगे तो नकार देंगे। फिर वह अपनी पर उतर आते हैं। अपनी पर उतरते ही वह व्यक्तिगत हो जाते हैं।

खैर, उस मीटिंग के बाद मैं संदीप के घर जनकपुरी गया। मुझे यह देखकर आश्चर्य और प्रसन्नता हुई कि उन्होंने अपने कोचिंग कक्ष को बड़ी लाइब्रेरी के रूप बदल दिया था। छात्रों के लिए प्रचुर मात्रा में सामग्री थी। किन्तु मेरी नज़र तो अपने काम की पुस्तकें ढूंढ रही थी। ऐंजल चाय की ट्रे रख गयी थी। संदीप ने चाय पीने का आग्रह भी किया किंतु मैं पुस्तकों की खोजबीन में खोया रहा। नए-पुराने लेखकों की पुस्तकें, विभिन्न राजनीतिक विचारों के संग्रह, पौराणिक व अंग्रेजी साहित्य भी देखने को मिला किंतु मैं चौंका कार्लमार्क्स की सम्पूर्ण वाङ्गमय के सेट को देखकर। संदीप ने वामपंथी साहित्य का रैक अलग से बना रखा था जो अन्य से बड़ा था।

"वामपंथ में ज्यादा रुचि ले रहे हो भ्राता श्री !" मैं वापस चाय की ट्रे को देखते हुए बोला।

मेरी तिरछी निगाहें संदीप के चेहरे पर जम गयीं।

"हाँ, आजकल वाम साहित्य पढ़ रहा हूँ। एक वैज्ञानिक सोच वाला साहित्य आप तभी लिख सकते हैं जब आप आधुनिक सोच रखते हों।" संदीप ने स्पष्ट कहा।

"पहले तो आप राष्ट्रवाद पर जोर देते थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी जुड़े थे?" मैंने पूछा।

"हाँ पंडित, लेकिन मुझे वहाँ निराशा हाथ लगी। लगा कि राष्ट्रवाद खोखला है। हमें सिर्फ जाति-धर्म के विषय में सोचना सिखाया जाता है। साहित्यकार एक पक्षीय नहीं हो सकता।"

"क्या वामपंथ एक पक्षीय नहीं है?" मैंने प्रतिवाद किया।

संदीप अपने घर में कोई बहस नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा- "चाय पियो यार...,पंथ-वन्थ कुछ नहीं। दोस्ती बड़ी चीज है। दारू-वारू पियो तो मंगवाऊं?"

मैं हंस पड़ा।

"पूरे वामपंथी बन रहे हो। अब नास्तिक भी हो जाओगे?"

संदीप चुप ही रहे। उस दिन मैंने संदीप से यह नहीं बताया कि मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ रहा हूँ। मैंने भारतीय राष्ट्रवाद की कुछ पुस्तकें व उपन्यास संदीप की लाइब्रेरी से निकाले।

"पंडित मैं जानता हूँ कि तुम्हें पुस्तकें पढ़ने का बड़ा चाव है। लेकिन तुम्हारी आर्थिक स्थिति तुम्हें नई पुस्तकें खरीदने की इजाजत नहीं देती। मैं तुम्हें एक ऑफर देता हूँ कि तुम्हें जो भी पुस्तक पढ़नी हो उसे खरीद लिया करो। पढ़कर मेरी लाइब्रेरी में जमा कर दिया करो और पुस्तक का मूल्य मुझसे ले लिया करो। इससे मेरी लाइब्रेरी में अच्छी पुस्तक भी आ जायेगी और तुम पढ़ भी लोगे। सच कहता हूँ तुममें बहुत संभावनाएं हैं। तुम्हारे लेखन की गति देखकर मैं भी भयभीत रहता हूँ। इसी तरह लिखते रहे तो अपने समकक्षों को बहुत पीछे छोड़ दोगे।" इतना कहकर वह विचित्र सा मुँह बनाकर शरारत से मुस्करा देते हैं।

हम दोनों जोरदार ठहाका लगाकर हंसते हैं।

"मुझे भी तुम्हारे तर्कपूर्ण ज्ञान से बड़ी ईर्ष्या होने लगती है। तर्क वही दे सकता है जो ज्यादा पढ़ता हो !" मैंने कहा।

संदीप ने मुस्कराकर बात टाली।

हम दोनों ने एक काव्य संकलन संपादित करने की योजना बनाई।

उस दिन हमने "तिकड़ी" बनाने पर चर्चा की। आपको तिकड़ी सुनकर आश्चर्य हुआ होगा। उसका रहस्य यह है कि किसी जमाने में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश की तिकड़ी हुआ करती थी। संदीप स्वयं को राजेन्द्र यादव के रूप में देख रहे थे। मुझे कभी कमलेश्वर तो कभी मोहन राकेश बना देते। मोहन राकेश बनने पर मैं भड़क उठता। भाई मुझे पहले नहीं जाना। मैं कथाकार हूँ, कमलेश्वर ही बना दो। अब मोहन राकेश कभी मनोज मैथिल, कभी ललित मिश्र तो कभी दिलीप सिंह बनते। कोई स्थायी तीसरा न बन सका। अभी तीसरे की खोज जारी है।

काव्य संकलन छपा। नाम रखा गया "महक अभी बाकी है"। उसमें मेहनत ज्यादा संदीप ने ही की थी। वह संपादक बने और मैं सहसंपादक बना। पुस्तक का लोकार्पण मुंडका में राजीव तनेजा जी के यहाँ हुआ। उन्होंने अपनी दुकान के फस्ट फ्लोर पर एक गोष्ठी हॉल बनवा रखा था। उसमें कुर्सियां और माइक डेस्क बनवा रखा था। साहित्य के प्रति उनका समर्पण देखकर हम सब बहुत प्रसन्न हुए। उस कार्यक्रम में कई नए कवियों व कवयित्रियों से हमारा परिचय हुआ।

इसके बाद मैथिल और आमोद राय जी की संस्था के माध्यम से नांगलोई चौक वाले कार्यालय में गोष्ठियां हुईं। वह समय हमारे साहित्य-उत्थान के लिए स्वर्णिम था। हमारी गोष्ठियों की चर्चा बड़ी दूर-दूर तक हुई।

उस बीच संदीप का रुझान लघुकथाओं की ओर हुआ। छूट-पुट लघुकथाएं तो मैं भी लिखता था, छपी भी थीं लेकिन संदीप ने लघुकथा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया। उन्होंने लघुकथाओं का इतिहास और आलोचना के क्षेत्र में काम किया और अपने घर में कई गोष्ठियां भी करवायीं जिनमें मैं भी शामिल हुआ था। वहीं मेरी भेंट अनिल शूर, सुरेंदर अरोड़ा जी, हरनाम शर्मा जी, अशोक यादव आदि से हुई। योजना बनी कि एक लघुकथाओं का संकलन निकाला जाये। मेरी रुचि कम थी किंतु संदीप ने पीछे पड़कर मुझसे करीब तीस-चालीस लघुकथाएं लिखवा लीं। महेंद्रगढ़ ,हरियाणा के अशोक यादव जी संपादन करेंगे ऐसा सुनने में आया। संदीप और मैं अशोक जी के स्कूल महेंद्रगढ़ एक साहित्यिक समारोह जो हरियाणा अकादमी के सौजन्य से हुआ था, में शामिल होने के लिए दिल्ली से गये थे। उसमें मेरे बड़े सुपुत्र अभय ने एक बड़ी ही क्रांतिकारी कविता पढ़ी जिसकी खबर अख़बार में भी छपी। संदीप और अशोक जी मुझे छेड़ते हुए कहते कि राष्ट्रवादियों के घर भगतसिंह पैदा हो गया। वह भगतसिंह को घोर वामपंथी कहते हैं। मैं झेंपते हुए कहता कि भगतसिंह का सम्मान पूरा देश और हर विचारधारा के लोग करते हैं, इसमें आश्चर्य कैसा ?

हमारी ट्यूनिंग ठीक थी। कभी-कभी हंसी-मजाक में राष्ट्रवाद और वामपंथ आ जाते। विचारधारा कभी मित्रता में बाधक न बनी। किंतु एक बार ऐसा समय आया जब सोशल मीडिया के कारण हम दोनों में बहुत खटास आ गयी। यह बात 2014-15 की होगी।

हुआ यह कि संदीप अपने फेसबुक पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी पर कोई न कोई राजनीतिक कॉमेंट करते। उन दिनों मोदी जी के फैंस उन पर जान छिड़कते थे उनमें एक मैं भी था। मुझे बड़ा बुरा लगता लेकिन मैं उन पर कोई सख्त कॉमेंट न करता। बाकी बहुत से कॉमेंट लड़ने-झगड़ने वाले आते। संदीप उनसे जूझते रहते। कभी-कभी अकेले भी पड़ जाते। मुझे बड़ा बुरा लगता। मैंने उन्हें समझाता-"क्यों नाहक राजनीति में पड़ते हो? अगर लिखना भी है तो कविता, लेख या लघुकथा के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करो। या फिर खुलकर राजनीति में आ जाओ।"

वह हंसकर कहते-"तुम नहीं समझोगे पंडित।"

सोशल मीडिया पर संदीप से उलझना पड़ जाये तो मैं अजीब स्थिति में पड़ जाता। हारकर एक दिन उन्हें अनफ्रेंड कर दिया और बातचीत बंद कर दी। लेकिन बंदा नाराज नहीं हुआ। एक दिन वाट्सअप पर मैसेज आया। फिर बातचीत शुरू हुई। उन्होंने "पाठशाला" नामक एक वाट्सअप ग्रुप बनाया। उसमें लघुकथाओं और साहित्य की कुछ विधाओं पर चर्चा होती थी। पर राजनीति से हम बाज न आते। एक सकारात्मक बात यह हुई कि संदीप, मैथिल और ललित के साथ मैं भी एक-दूसरे को कटाक्ष करते हुए या यूं कहूँ लक्ष्य करते हुए लघुकथाएं और कविताएं लिखते जो बड़ी चर्चित होतीं। उनमें कई बड़ी अच्छी रचनाएं निकलकर सामने आयीं।

उसी बीच संदीप से फिर राजनीति पर बहस हुई और मैं फिर उनके वाट्सअप ग्रुप से लेफ्ट हो गया।

संदीप से कभी घनिष्ठता तो कभी नाराजगी चलती रही। शायद वर्ष 2006-07 में हम वयोवृद्ध साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र जी का इंटरव्यू हम दोनों ले चुके थे। करीब 2016 में हम दोनों फिर मिश्र जी का साक्षात्कार लेने गये। वह “विश्वगाथा” पत्रिका में छपा भी। उस बीच हमारी बोलचाल बंद थी। लेकिन संदीप का फोन आया- "पंडित, हमने जो ड्रॉ. रामदरश मिश्र जी का इंटरव्यू लिया था वह छप गया है।"

"जल्दी वाट्सअप पर भेजो।" मैं बड़ा उत्साहित हुआ।

संदीप का सम्पर्क कई पत्र-पत्रिकाओं में है। वह छपते भी रहते हैं। मुझे भी कहते रहते हैं कि पंडित यहाँ रचना भेजो-वहाँ भेजो। मैं इस मामले में बहुत सुस्त हूँ। किंतु संदीप मुझे सुस्त देखकर लगातार कोंचते रहते।

एक बार होली के अवसर पर निहाल विहार कार्यालय में एक काव्यगोष्ठी हुई। बहुत दूर-दूर से कवि आये थे। शानदार गोष्ठी हुई। हमने फूल की पंखुड़ियों से होली खेली। जाते-जाते ठाकुर अड़ गया। बोला-"पंडित, हम ऐसे न जायेंगे। होली के अवसर पर बुलाया है तो ठाकुर बिना खाये-पिये जायेगा नहीं।"

"घर चलो। भोजन करके जाना।" मैं पिंकी को फोन करने लगा।

"क्यों अनुजवधु को परेशान करते हो? किसी होटल में चलो। पैसों की कमी हो तो मैं फाइनेंस कर दूँगा।" वह आँख दबाकर बोले।

"नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है। आज आप लोग मेहमान हैं। किंतु...?"

"किंतु-परंतु क्या ....?" संदीप मेरी दुविधा समझ गये।

"तुम खाओगे क्या...?"

"ठाकुर हूँ। समझ जाओ क्या खाऊंगा? शेर घास नहीं खाता।"

मैथिल और ललित मिश्र भी थे। उन्हें लेकर निलोठी मोड़ के पास यादव ढाबा पर ले गया। वहाँ शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन मिलते थे।

वेटर को बुलाकर कहा- "जिसे जो पसंद हो वह भोजन लगाओ।"

"ऐसे नहीं खाऊंगा। पीने के बाद खाऊंगा। आज मना नहीं कर सकते। आज हम मेहमान हैं। अतिथि देवो भव। यह मैं नहीं राष्ट्रवादी लोग ही कहते हैं!" तना कहकर उन्होंने ललित और मैथिल की तरफ देखकर आँख मारी।

मैं अजीब धर्मसंकट में पड़ गया। मैथिल और ललित भी मुस्कराने लगे। उनकी भी मौन सहमति थी। मुझे पता था कि संदीप का मकसद खाना-पीना कम मुझे खींचना ज्यादा था।

मैंने वेटर को बुलाया और पीने की व्यवस्था करने को कहा। उसने सारी व्यवस्था बना दी।

संदीप खुलेआम प्लास्टिक के ट्रांसपीरियंट गिलास में पीने लगे। मैंने घबराकर कहा-"क्या करते हो यार? लोग देख रहे हैं। कोई जानने वाला आ गया तो मेरी बड़ी फ़जीहत होगी।" मैंने प्लास्टिक के गिलासों को स्टील के गिलासों के अंदर डाल दिया ताकि वह दिखायी न दें।

"यही तो राष्ट्रवादियों को ढ़कोसला है। हम वामपंथी जो काम करते हैं खुलेआम करते हैं। हा-हा-हा-हा...।"

मैथिल ने मेरे कान में कहा- "यह प्रैक्टिकल दिखा रहे हैं।"

उस दिन हम चारों में खूब बातें हुईं। जी-भरकर खाना-पीना हुआ। जिसे जो मन भाया, उसने वह खाया-पिया। संदीप ने बिल भरने का भरकस प्रयास किया लेकिन उस दिन मैंने उनकी एक न चलने दी। हम सब चिंतित थे कि संदीप घर कैसे पहुंचेंगे। लेकिन वह हम सबको आश्वस्त करके तिपहिया लेकर चलते बने।

जैसी कि हम सबको आशंका थी कि इस घटना का उल्लेख भी संदीप किसी न किसी रचना में करेंगे। संदीप भला हमारी आशंका को खाली कैसे जाने देते। उन्होंने इस पर लघुकथा भी लिखी और कटाक्ष भी किया।

हुआ यह कि उन्होंने मुझे फिर अपने "पाठशाला" वाले वाट्सअप ग्रुप में जोड़ दिया। हममें यह सहमति बनी कि अब इस ग्रुप में सिर्फ साहित्य की बातें होंगी। राजनीतिक चर्चा के लिए एक अलग ग्रुप बना लिया जाये। हम दोनों अपनी-अपनी विचारधारा के लोगों को जोड़ लें। उन्होंने अशोक यादव जी और कई वाम विचारकों को जोड़ा। मैंने भी भाजपा नेत्री बहन हेमलता वरुण, विहिप अधिकारी श्री ओंकार जी और मित्र मधुसूदन शर्मा जी को जोड़ा।ब हस शुरू हुई जो बहुत नई-नई चीजों को सामने ला रही थी। वाम पक्ष से संदीप के अलावा कोई और ज्यादा देर ठहर न सका। संदीप जब अकेले पड़ने लगे तो व्यक्तिगत आक्षेपों पर आ गये। शाम गहराने लगी थी। ठाकुर अब खूंखार होने लगा था। ग्रुप में एक महिला बहन हेमलता भी थीं। शायद झोंक में संदीप यह भूल गये थे। मैंने परेशान होकर ग्रुप ही डिलीट कर दिया। सार्वजनिक रूप से हार-जीत व अपने अहं को पोषित करने के चक्कर में कहीं सम्बंध न हार जायें। इसलिए मैंने कुछ दिनों के लिए फिर संदीप से दूरी बना ली।

दिल्ली के वरिष्ठ साहित्यकार और संपादक श्री सुरजीत सिंह जोबन जी हर वर्ष साहित्यकारों के साथ किसी न किसी प्रसिद्ध सिक्ख धर्म के धार्मिक स्थल का टूर करते हैं और वहीं पर साहित्यिक कार्यक्रम भी करवाते हैं। 2017 की बात होगी। जोबन जी ने बताया कि हम लोग हिमाचल के पाऊंटा साहिब जा रहे हैं। वहीं पर गुरु गोविंद सिंह ने कई पुस्तकों की रचनाएं की थीं और कवि दरबार लगाते थे। मेरी संदीप, यास्मीन मूमल(मेरठ) और नीतीश तिवारी(गुरुग्राम) से बात हुई। हम सब साथ जा रहे हैं, यह हम लोगों के लिए नया अनुभव था।

वहाँ गुरुद्वारे की धर्मशाला में रहना और गुरुद्वारे में ही भोजन करना था। महिलाओं के रुकने का कमरा अलग था पुरुषों का अलग था। लेकिन नाश्ता व भोजन सबका साथ ही होता था। एक दिन तो ठीक था। दूसरे दिन संदीप का ठाकुर जाग उठा। कसमसाकर बोले- "यार पंडित, सब कुछ तो ठीक है लेकिन यहाँ भिखारियों की तरह दोनों हाथ फैलाकर रोटी मांगनी पड़ती है। भोजन भी तेज-मिर्च मसाले वाला नहीं मिलता। चलो बाहर खाते हैं।"

"यार, हम समूह में आये हैं। अलग कहीं गये तो ठीक नहीं लगेगा। बाबा के दरबार में याचक बनकर ही हाथ फैलाकर मांगा जाता है।" मैंने समझाना चाहा।

लेकिन वह ठहरा अक्खड़ आदमी। वामपंथी नास्तिक होते हैं। उन्हें किसी का अस्तित्व स्वीकार नहीं होता। संदीप का समर्थन यास्मीन ने भी किया। हमने गुरुद्वारे की बस में न जाने का निर्णय लिया। मजाक-मजाक में संदीप का पर्स मैंने छीन लिया और कहा कि आज हम सब जमकर खर्च करेंगे। पैसों की चिंता मत करना अपना ही माल है।

"ठाकुर का दिल बहुत बड़ा है पंडित। रुपये खत्म हो जाएं तो एटीएम कार्ड भी पर्स में है, पिन भी बता देता हूँ।"

उस दिन हम तीनों ने बाहर ही नाश्ता किया और होटल में खाना भी खाया। यह बात जोबन जी को अच्छी नहीं लगी लेकिन उन्होंने हमें कुछ नहीं कहा।

दूसरे दिन कवि सम्मेलन और सम्मान समारोह था। अंत में गुरुद्वारे के गर्भगृह में सरोपा देकर गुरुद्वारे की ओर से सबका सम्मान होना था। मैंने कहा-"कॉमरेड, गुरुद्वारे में सरोपा ग्रहण तो करोगे न?"

वह इतमीनान से बोले-"जानता हूँ, गुरु गोविंद सिंह सिक्ख धर्म के दसवें गुरु हैं। लोग उन्हें उसी रूप में मानते हैं, पूजते हैं। लेकिन मैं तो उन्हें इससे बढ़कर एक लेखक के रूप में सम्मान देता हूँ। उनकी कर्म स्थली में उनके नाम पर सरोपा न लेना एक गुरु, एक लेखक का अपमान होगा, और फिर मैं तो खुद एक सरकारी शिक्षक हूँ, मेरा तो कर्म ही शिक्षा देना है, फिर कवि और लेखक तो हूँ ही, एक बात और मेरी नास्तिकता इस सम्मान से अछूती नहीं है।" उस दिन संदीप का एक नया रूप मेरे सामने था, मेरा हृदय गदगद हो गया।  

हम सब गुरुद्वारे में रखे दशमेश गुरु के अस्त्र-शस्त्र और उनकी कलम देखकर बहुत उत्साहित हुए। मैं बड़ी देर तक खड़ा अपलक उनकी कलम को ही देखता रहा।

मार्च 2018 मेन किशोर जी ने नेपाल की किसी संस्था के साथ नेपाल में ही कार्यक्रम करने का मन बनाया। मुझे जिम्मेदारी दी तो मैंने डॉ. जय सिंह आर्य व संदीप से बात की। दोनों चलने के लिए तैयार हो गये। इरफान के जिम्मे टिकट बुकिंग का कार्य था। लेकिन मुझे दिल्ली में उसी दिन कोई आवश्यक कार्य पड़ गया। मैं नहीं जा सका। संदीप मुझे बहुत दिनों तक कोसते रहे कि तुमने बहुत बुरा किया। अचानक धोखा दे दिया पंडित। तुम्हारे साथ रहने से मुझे विशेष प्रकार की संतुष्टि रहती है। मुझे ज्यादा झेल पाना सबके वश की बात नहीं।

कुछ दिनों बाद किन्ही सूत्रों से मुझे ज्ञात हुआ कि संदीप की छोटी बेटी का ऑपरेशन होना है वह अस्पताल में भर्ती है। मैं अस्पताल तो न जा सका। उन्हें मैसेज भेजा- "ईश्वर बेटी को शीघ्र स्वस्थ करे।"

उत्तर आया- "कौन ईश्वर, कैसा ईश्वर? कोई ईश्वर मेरी बेटी को कैसे ठीक कर सकता है जिसका अस्तित्व ही नहीं है?"

इस नाजुक घड़ी में कौन उनसे बहस करे। उस दिन उन्हें पहली बार कामरेड कहा-

 "चलो, डॉक्टर को भी तो भगवान कहते हैं। डॉक्टरों के हाथों से चमत्कार हो और बेटी ठीक होकर शीघ्र घर आये। मैं ऐसी कामना करता हूँ।"

कुछ दिनों बाद उनका सन्देश आया कि बेटी ठीक होकर घर आ गयी है।

एक दिन समय निकालकर मैं हालचाल लेने उनके घर जा पहुंचा। वहाँ मेरा परिचय संदीप के ग्राउंड फ्लोर पर रह रहे एक उपन्यासकार मुकेश कुमार रॉय से हु। उन्होंने "पिघलते बर्फ की कहानी" नामक उपन्यास लिखा था। एक और सज्जन से मिलवाते हुए संदीप ने कहा- "इनसे मिलो, यह हैं हमारे होने वाले समधी साहब।"

मैं असमंजस में पड़ गया ।मैंने सोचा संदीप के भाई साहब या किसी और सम्बन्धी के समधी होंगे। संदीप ने हंसकर कहा-"भाई मेरे बेटी है और इनके बेटा। यह मेरे इतने घनिष्ठ दोस्त हैं कि हमने तय किया है कि आगे चलकर हम दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल देंगे।"

मुझे सही अवसर मिला। मैंने भी चोट की।"ऐसे वायदे तो परम्परावादी लोग करते हैं। वामपंथी कबसे ....??"

"नहीं-नहीं, अगर हमारे बच्चे बड़े होकर एक-दूसरे को पसंद करेंगे तो हम शादी करेंगे।" संदीप ने हड़बड़ाकर में गलती सुधारी।

लेकिन वापस लौटते हुए मैं सोच रहा था कि संदीप कितना भी आधुनिक व वामी बन जायें। गाँव और जाति-धर्म के संस्कार इतनी आसानी से नहीं जाते।

संदीप और मेरी दोस्ती के एक सिरा बलरामपुर से भी जुड़ता है। संदीप व मुझसे कभी अनबन हो जाती है या बोलचाल बंद हो जाती है तो दिलीप का फोन आयेगा। कम से कम आधे-पौने घन्टे बतियाएंगे। पुरानी यादें,गाँव-समाज और साहित्य के साथ संदीप की भी चर्चा अवश्य होती है। हम दोनों इस बात पर सहमत होते हैं कि संदीप से कोई वैचारिक असहमति हो सकती है लेकिन संदीप की साहित्यिक समझ पर कोई शक नहीं किया जा सकता। यदा-कदा संदीप ने हम दोनों की सहायता की है। जब हम साहित्य से विमुख हो रहे थे तो संदीप ही हैं जो हमें फिर हमें वापस उसी धारा में लेकर आये। हमें आपस में सम्बंध बनाकर रखने चाहिए।

अभी पिछले दिनों उनकी शिवसेना और महाराष्ट्र की राजनीतिक समझ के विषय पर दिलीप से भी बहस हो गयी। दिलीप बड़े आहत हुए। मैं संदीप के घर अचानक जा पहुंचा। बातों ही बातों में दिलीप की बात छेड़ी। घर-परिवार की बातें हुईं। संदीप मुझे कुछ खिन्न दिखे। न जाने क्या बात थी ?कुछ तो था जो वह मुझसे छिपा रहे थे।

मैंने कहा- "अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग लिखना चाहता हूँ।"

उन्होंने मुझे कमलेश्वर और राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा दी।

"लिखने से पहले इन्हें जरूर पढ़ना।"

संदीप मुझे बार-बार आगाह करते रहे- “लेखन में विविधता लाओ। कुछ बड़ा लिखो। कब तक तुम नवोदित बने रहोग ? अब हम बड़े हो गये हैं। मुझे देखो, तुमसे कम लिखकर भी नाम अधिक चर्चा में रहता है।“

चलते-चलते मैं मुड़कर पूछता हूँ- "हम साल में छः महीने तो बच्चों की तरह लड़ते-झगड़ते रहते हैं ।क्या हम सचमुच बड़े हो गये हैं ?"

संदीप ने मुस्कुराकर कहा- "पंडित, यह बचपना बुढ़ापे तक बना रहना चाहिए।"

जोरदार ठहाका लगाकर मैं वापस चल पड़ा था। गली के आखिरी छोर पर मुड़ने से पहले मैंने एक बार फिर पीछे मुड़कर देखा संदीप अब भी मुझे आशा भरी निगाहों से अपलक जाते देख रहे थे। उनके इसी अपनेपन और अधिकार भावना की डोर से बंधा मैं बार-बार लौटकर उनकी तरफ खींचा चला जाता हूँ।

-अखिलेश द्विवेदी 'अकेला'

 

6 comments:

  1. Life is life...... Everything is important...

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  3. फ्रूफ में कमियां रह गईं।

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    1. जो आपने भेजा उसमें कहीं ज्यादा भी,, आप भी एडिट कर लेना

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