Wednesday, 14 April 2021

एक अपाहिज की डायरी - आत्मकथा भाग -8

 

 
आत्मकथा का आठवाँ भाग 

गतांक से आगे

नवी के बाद गरमी की छुट्टियाँ शुरू हुई। रिश्तेदारी में एक शादी जून में होनी थी, जो लोग निमंत्रण देने आये उनके पास गाड़ी थी, छुट्टियाँ चल रही थी इसलिए मैंने उनके साथ दिल्ली जाने की इच्छा जाहिर की। पुरानी रिश्तेदारी थी, पहले तो माँ राजी नहीं हुई फिर जब मैंने आश्वासन दिया कि मैं अकेला आराम से रह लूँगा तो माँ ने जाने की इजाजत दी। दस मिनट में अपने थैले में अपने कपडे और जरूरी सामान रख मैं तैयार था।

गॉव के कुछ रास्ते संकरे थे इसलिए गाड़ी घर तक नहीं आ पाती थी, पारिवारिक कुए के पास तक पैदल जाना पड़ता था, माँ ने थैला उठाया और कार तक छोड़ने चल दी, जब मैं जा रहा था तो सुप्रिया दीदी ने कहा-“मेरे छोटू, क्या तू अपनी सुप्रिया बहन के बिना इतना दूर इतने इन अकेला रह सकता है?”

मैंने कहा-“दीदी, मन तो आपको बहुत याद करेगा, लेकिन देखो न मैं तो कुछ ही दिन में घूमकर आ जाऊँगा, लेकिन आप तो एक दिन हम सबको रुलाकर ससुराल चली जाओगी।“

“देख छोटू, ससुराक जाने की बात करेगा तो तुझे बहुत मारूँगी।“

“अच्छा मन में तो लड्डू फूटने लगे और ऊपर से दिखा रही हो कि ....।“

“अच्छा अब तू जा, वर्ना.... ।“

“हाँ दीदी, जा रहा हूँ,, और देखूँगा आपकी याद आती भी है या नहीं.. ।“

मैं कार में बैठ गया। थैला डिक्की में रख दिया था। कार में बैठने का ये पहला अनुभव था। अब तक पिताजी या फिर अपने किसी दोस्त की साईकिल पर ही बैठा था या फिर एक बार पड़ोस के एक दुकानदार की विक्की (मोपेड) पर भी बैठा था। 

कार का सफ़र मुझे बड़ा ही सुहाना लगा था। पहली बार कार में बैठना मेरे लिए दिवास्वपन जैसा ही था । वहाँ पहुँचा तो बहुत अच्छे से मन लग गया था। दो दोस्त बन गए थे, दोनों ही हमउम्र थे – विक्रम और गीतिका। विक्रम यूँ तो मेरा दोस्त था लेकिन था एक नम्बर का सनकी। अपनी बात पर अड़ियल, वही गीतिका फिल्मों की दीवानी। विक्रम के यहाँ वीसीआर था जिस पर रोज कोई न कोई फिल्म वो सब देखते रहते। अपनी मौसी के यहाँ भी फिल्म देखता रहता। वहीँ “आरजू” देखी, जिसमें एक सीन मुझे प्रभावित भी करता और विचलित भी, जहाँ साधना सिर्फ इसलिए लकड़ी काटने की आरा मशीन पर अपना पैर रखती है कि वह सरजू (राजेन्द्र कुमार) के लिए शादी की बराबरी करने लगे। अब जब भी कोई नई फिल्म नहीं मिलती वह आरजू को वीसीआर पर देखने लग जाता, ‘बेदर्दी बालमा तुझको मेरा मन याद करता है’ गाना मैं गुनगुनाता रहता।

आरजू फिल्म देखकर मेरे मन में एक बात आने लगी कि जब शादी करूँगा तो ऐसी लड़की से करूँगा जो शरीरिक रूप से सक्षम हो, मेरे मन में कुछ सपने पलने लगे। हालाकि ये उम्र भी अभी शादी के सपने के लिए बहुत छोटी थी लेकिन कुछ ग्रंथियों पर मानव मन का भी बस नहीं होता। जब कभी एक साथी की छवि के बारे में सोचता, गीतिका का चेहरा आँखों के सामने आता। मुझे लगता गीतिका जैसी अच्छी दोस्त ही जीवन संगिनी बने। दिन भर गीतिका के साथ खेलना, पतंग उठाना, अन्ताक्षरी, साथ खाना-पीना, कई बार मौसी इन्तजार करती, लेकिन मैं शाम तक या देर रात तक घर न लौटता। मौसी के घर कोई भी हमउम्र नहीं था। वहीँ गीतिका के घर में विक्रम और गीतिका जैसे दोस्त मिले थे। मेरा मन करता कि ज्यादा से ज्यादा वक्त गीतिका के साथ बिताया जाए। दोनों के विचार भी काफी मिलते थे, हम अमिताभ बच्चन, और अन्य हीरो के बारे में बात करते, फ़िल्मी गानों पर अपनी पसन्द-नापसन्द व्यक्त करते। गॉव से आते वक़्त माँ ने कुछ पैसे दिए थे। मैं उन पैसो को गीतिका को गैस के गुब्बारे देने के लिए खर्च करता। गीतिका और मैं छत पर जाकर गुब्बारे में धागा बाँध ऊँचाई तक उड़ाते, गीतिका के हाथ से जब कभी धागा छूट जाता तो कहता तू परेशान मत हो मैं दूसरा गुब्बारा ले आऊँगा। मैं और गीतिका हाथ में हाथ पकड़ सड़क पर चलते, इस बात से बेखर कि लोग क्या सोचेंगे? बालमन किसी तरह के अप्रत्याशित सवाल की गुंजाईश ही नही छोड़ता था, गीतिका को मैं अपनी सबसे अच्छी दोस्त समझता। मेरा मन निश्छल था, विचार पवित्र थे। मैं समझ नहीं पाता था कि ये रिश्ता क्या है और इसकी प्रगाढ़ता के मायने क्या हैं? विक्रम जब झगडा करता तो गीतिका मेरा साथ देती, विक्रम को बुरा लगता कि मेरी बहन होकर मेरा साथ नहीं देती।

महीने भर की छुट्टियाँ कैसे बीत गयी पता ही नहीं चला। जिस शादी का निमंत्रण था, उस शादी की बारात में मैं भी गया और वहाँ से सीधा अपने गॉव। पिताजी साईकिल से लेने आये थे। गीतिका के साथ बिताये पल और विक्रम की नौक-झोंक बहुत याद आती। लगता मानो गीतिका के रूप में एक अच्छी दोस्त मुझे मिल गयी, गॉव आकर सुप्रिया दीदी और नीलू को छुट्टियों की मस्ती और फिल्मों की बाते बताया करता। गीतिका का जिक्र करना मुझे अच्छा लगता। बातें करते-करते उदास हो जाता। लगता मानो कहीं कुछ छूट गया है, कही कुछ भूल आया हूँ, मुझे पता था कि ये प्रेम तो एकदम नहीं है, लेकिन सिर्फ दोस्ती है ऐसा भी मंजूर नहीं था।

धीरे-धीरे दसवी की पढाई शुरू हो गयी। पहली बार बोर्ड के एग्जाम देने वाला था, घर में टीवी था, कुछ कार्यक्रम देखता। पिताजी को लगा कि बच्चे टीवी के चलते अपनी पढाई पर फोकस नहीं कर रहे, तो उन्होंने टीवी बेच दिया। बड़ा अजीब सा निर्णय था टीवी का बेचना, घर में ये बात सभी भाई-बहनों को अखर रही थी, लेकिन बोलने और विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। गणित भी अब पहले जितना आसान नहीं था, ज्यामिति के सवाल बड़े कठिन लगते, लेकिन समाधान कुछ नहीं था, नीलू स्कूल से आकर ट्यूशन चला जाता फिर किससे पूछ पाता, ट्यूशन के लिए शहर जाना पड़ता। जिसके लिए स्कूल जाना भी एक बड़ी मुसीबत थी- वह ट्यूशन कैसे जा सकता था? जब जिस सवाल पर अटक जाता वहाँ से आगे न बढ़ पाने की सूरत में किताबे फेंक खेलने चला जाता।

अब मेरी पढाई से रूचि हटने लगी। पिताजी ने एक ट्यूटर की व्यवस्था की। कुछ रोज ही पढ़ते हुए कि अक्षरा की सहेली रितिका भी पढने आने लगी, रितिका ग्यारहवी में थी, ट्यूटर साहब मेरी पढाई में कम और रितिका में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे। मुझे लगने लगा कि इनसे पढना सिर्फ पिताजी के धन की बर्बादी है, एक दिन ऐलान कर दिया कि मैं ट्यूशन नहीं पढूँगा।

रितिका भी अक्षरा की तरह ही खुबसूरत थी, उसे पता था कि अक्षरा सुदीप को मन ही मन चाहती है, लेकिन मैंने महसूस किया कि रितिका बातें करने में ज्यादा दिलचस्पी लेती है, अब मेरा जब टीवी देखने का मन होता या कोई सवाल हल नहीं हो पाता तो रितिका के पास चला जाता। कुछ लोगो को इस तरह की मदद में प्रेम अंकुर दिखाई दे रहे थे। इसी बीच पता चला कि नीलू आजकल रितिका के घर काफी आता जाता है, मैंने वहाँ जाना लगभग बन्द कर दिया। एक बार फिर पढाई में हेल्प का सिलसिला बन्द हो चुका था। नीलू सिर्फ इसलिए मदद नहीं करता कि उसका बारहवी का बोर्ड था।

कुल मिलाकर पढाई लगभग चौपट हो रही थी, जीवविज्ञान में तो मैं कोरी स्लेट था, सुकेश भैया जब कभी कुछ पूछ लेते तो मार पड़ना तय था। वैसे भी सुकेश भैया को बहुत सारी बातों पर गुस्सा आता था। पता ही नहीं चलता कि कब किस बात पर गुस्सा आ जाये?

दसवी की परीक्षा की तैयारी के लिए अक्षरा भी कभी-कभी अंग्रेजी या अन्य किसी विषय में कुछ पूछने आ जाती। अभी दोपहर के वक़्त मैं और अक्षरा अंग्रेजी पढ़ रहे थे। गली से आइस्कीम बेचने की आवाज आई, मैंने पूछा- “अक्षरा आइसक्रीम खाएगी?”

“हाँ, सुदीप मन तो है, तू खिलायेगा तो खा लूँगी।“

मैंने देखा जेब में मात्र एक आइसक्रीम के जितने ही पैसे थे। आइसक्रीम वाले बाबू भाई (सब बच्चे उसे इसी नाम से जानते थे) से एक आइसक्रीम ऊपर फेंकने को कहा, बाबू ने आइसक्रीम फेंकी और मैंने उसे कैच करके पैसे उसे ऊपर से ही दे दिए।

अक्षरा से कहा-“लो अक्षरा, पहले आइसक्रीम खा लो।“

“अरे सुदीप, मैं अकेले आइसक्रीम खाऊँ और मेरा दोस्त मुझे सिर्फ देखता रहे?”

“हाँ, कभी-कभी खाते हुए देखने में भी आनन्द है।“

“आशिक मिया देखना-दिखाना बन्द करो, चलो पहले तुम भी आइसक्रीम खाओ, फिर पढाई करेंगे।“

“देखो यार, तुम्हारा मन था, तुम खा लो फिर एक आइसक्रीम दोनों खा भी कैसे सकते हैं......?”-मैंने कहा था।

बात पूरी भी नहीं की थी कि अक्षरा ने आइसक्रीम को मुँह में लेकर चूसा और वापिस निकालर मेरे होंठों की ओर बढ़ा दिया, मैंने बिना कुछ बोले होठ खोल दिए और आइसक्रीम खाने लगा। अब दोनों बारी-बारी से एक ही आइसक्रीम को खाने लगे। अभी आइसक्रीम पूरी ख़त्म भी नहीं हुई थी कि सुकेश भैया ऊपर के कमरे में आये, दोनों को आइसक्रीम खाते देख उन्होंने गाल पर एक थप्पड़ रसीद कर दिया, और अक्षरा को वहाँ से चले जाने के लिए बोला। अक्षरा अपनी कॉपी किताब समेटकर चली गयी।

मैंने हिम्मत जुटाकर पूछा-“भैया आपने मुझे उस लड़की के सामने क्यों मारा?”

“अच्छा, तो साहबजादे लड़की के सामने थप्पड़ खाने से शर्म और बेइज्जती महसूस कर रहे हैं, इस तरह आइसक्रीम खाते हुए नहीं पता चला था कि किस तरह की पढाई की तैयारी हो रही है, और हाँ! खबरदार जो आज के बाद ये लड़की तेरी पास आई तो? तू इसके बारे में कुछ जानता भी है या नहीं, इसका पूरा खानदान ही ऐसा है कि ये भोले-भाले लडको को ख़राब करते हैं।“

चुपचाप सुकेश भैया की बात सुनता रहा। लेकिन मेरा और अक्षरा का मिलना जुलना बन्द नहीं हुआ था। अक्षरा कभी किसी किताब या फिर किसी अंग्रेजी की एक्सरसाइज की बहाने आ ही जाती।

सुकेश भैया कभी-कभी बायोलॉजी पढ़ाते, एक दिन बायोलॉजी की किताब में नर और मादा जनन अंगो के चित्र देखें। मन में जाने क्या विचार आया, भैया के ट्यूशन के राइज-पेपर और कार्बन पेपर लेकर उन चित्रों को ट्रेस किया और फिर दूसरे कागज पर बना कर ये सोचा कि स्कूल में अपने दोस्तों को दिखाकर सेखी बघारुंगा कि देखो मुझे बायोलॉजी का सबसे कठिन डायग्राम भी बनाना आता है। शाम को भैया ने पूछा-“बायो में कौन सा चित्र बनाया?”

मैं मौन खड़ा रहा। भैया ने सवाल दोहराया, मैंने झूठ बोलना चाहा-“नहीं भैया, मैंने तो कोई चित्र नहीं बनाया? मुझे तो ड्राइंग ही नहीं आती, डायग्राम मैं कैसे बनाऊँगा?”

“आखिरी बात कहता हूँ- सच, सच बता दे।“

मैने कोई जबाब नहीं दिया। भैया ने ताबड़तोड़ दो-तीन थप्पड़ लगाकर कार्बन पेपर की बेक साइड दिखाई, दरअसल ये कार्बन बिना इस्तेमाल किया था, जिस पर बनाये गए चित्र की आकृति ज्यों की त्यों छपी हुई थी। मार पड़ना तय था। सुकेश भैया ने पिताजी से ये शिकायत करने की धमकी दी और इस धमकी की आड़ में अपने कितने ही निजी काम उससे कराये। अपनी फाइल्स का लिखने का काम इस धमकी की आड़ में कितनी ही बार भैया कराते।

कितनी ही ग्रंथियाँ ऐसी सक्रिय हुई कि दसवी में मात्र पचपन प्रतिशत अंको से पास हुआ, रिजल्ट तब अखबार में आया करता था, और अखबार वाले पाँच रूपये या दस रूपये लेकर रिजल्ट दिखाते थे। रिजल्ट रात में आया था। जून का महीना, मैं रिजल्ट से बेफिक्र सुबह तक सोता रहा, सूरज सिर पर चढ़ आया तो आँख खुली। मेरे अलावा सबको पता था कि द्वितीय श्रेणी से पास हुआ हूँ। पिताजी से नजरे नहीं मिला पा रहा था। अक्षरा भी पास हो गयी थी। पिताजी कुछ दिन बाद मार्क्ससीट लेने गए तो प्रधानाचार्य जी ने कहा-“देखिये मास्टरजी, हमारे स्कूल के टॉपर का जब ये हाल है तो बाकी का क्या होगा?

उस साल उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे, नक़ल अध्याधेश लगाया गया था, 350 छात्रों में से उसके स्कूल से मात्र 14 लड़के पास हुए थे। लेकिन सच बात ये थी कि पिताजी की अपेक्षा से ये काफी बुरा परिणाम था। इस परिणाम की वजह तक मेरे अलावा कोई नही जान सकता था।

क्रमशः 


9 comments:

  1. पता ही नही चलता और कम्बख़्त इन्टरवल हो जाता है।
    जी लग रहा है।

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    1. जल्दी मिलेंगे नए एपिसोड के साथ

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  2. Kya pahale bhag se 7 tak ke link mil sakte hai adarneey

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  3. दायी तरफ देखिये अब तक के सारे एपिसोड मिलेंगे

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  4. आत्मकथा में ईमानदारी जरूरी है.
    आप सफल हैं.
    बधाई

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  5. बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति।

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  6. आत्मकथा में जिस ईमानदारी और सहज अभिव्यक्ति की पाठक को तलाश रहती है। आपके ब्लॉग को पढ़कर लगा आपके लेखन में वह ईमानदारी और सहज अभिव्यक्ति है।

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