“हर पेग जिन्दगी का”
पुस्तक-“ एक पेग जिन्दगी”
रचनाकार- पूनम डोगरा
प्रकाशक: समय साक्ष्य
प्रकाशन वर्ष: २०१६
समीक्षक - संदीप तोमर
लघुकथाएं लिखी जा रही हैं और खूब
लिखी जा रही हैं। फेसबुक ने भी तुरंत लघुकथाकारों की एक पूरी पीढ़ी को ही जन्म
दिया है। इन सबके बीच पूनम डोगरा जैसी सशक्त रचनाकार की मौजूदगी बहुत आश्वस्त करती
है. एक बानगी देखिए—कहाँ
था खुदा जब यह कत्लेआम मचा था.कहाँ था ईश्वर जब बम धमाकों में इंसानी चीथड़े उड़ रहे
थे। कहाँ छुपा था रब जब सरदारों को टायरों की तरह फूंक रहे थे।
“एक पेग जिन्दगी” असल में न ही कहानी संग्रह है न
ही ये लघु कथाएं ही हैं.इसे नई विधा के रूप में देखा जा सकता है जो कहानी की
रवानगी से शुरू होकर लघु कथा के कलेवर में प्रस्तुत होती है। कथानक के चयन से लेकर
वाक्य विन्यास की दृष्टि से अगर देखा जाए तो मालूम होता है कि कहीं लघुकथा के
कथानक को कहानी के अंदाज में लिखा गया है तो कहीं कहानी के कथानक को लघु कथा के
रूप में लिखा गया है। लेकिन एक बात महत्वपूर्ण है कि रचनाएँ समाज में हो रहे
परिवर्तन- आधुनिकीकरण, विकास, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव, विदेश में रहते हुए संस्कृति का
क्षय इत्यादि का गहन प्रभाव छोडती है। पूनम हर पात्र पर अलग अलग प्रयोग करते हुए
उनके आन्तरिक द्वंद्व को गहरे से निकाल पन्नो पर उकेर देती हैं.विदेश में रहने का
अनुभव उनकी लेखनी की विशेषता बनकर उभरता है।
“एक पेग जिन्दगी” पुस्तक पूनम की संवेदनाओं का
विस्तार है जो विभिन्न पात्रों के माध्यम से उभरा है। उनके पास संवेदना के विभिन्न
रंग है। ”रिफ्यूज्ये” कथा दोहरी मानसिकता को उजागर करती
है। “इज्जत” भी ऐसी ही मनोदशा को लेकर लिखी
गयी है। पूनम की एक विशेषता और है वो मात्र कथानक को विस्तार देने के लिए नहीं
लिखती हैं। उनके लेखन में कथा के यथार्थ के साथ समाधान भी उपलब्ध है जिसे वे पात्र
के माध्यम से समाज के सामने बड़े ही सहज ढंग से पेश करती है।”एक हादसा” के माध्यम से बलात्कार जैसे हादसे
से उभरकर रिनी का टेनिस खिलाडी बनना समाज को बहुत बड़ा सन्देश दे जाता है।
इसी तरह आगे की कथा ‘आखिरी किश्त’ में शोध की आड़ के शोषण को उकेरा
गया है ।”जिन्दगी
की झप्पी” के
माध्यम से क्षणिक और भावुक फैसलों से आगाह किया गया है। ”तीसरे लोग” जैविक विकार से उबरने की कथा है
जिसके माध्यम से पूनम समाज को थर्ड जेंडर के प्रति सोच बदलने के लिए कहती हैं। ”विकृति” में वे स्त्री अस्मिता के ऊपर
प्रहार करने वालो को सावधान करती है। लेखिका स्त्रीवाद की हिमायती न होकर स्त्री
की अस्मिता की हिमायत करती है जो लेखिका को अन्य स्त्रीवादी रचनाकरों से अलग करता
है। उनके अन्दर की स्त्री चेतना स्वाभाविक है। “लिजलिजे” भी उनके सबल पक्ष को प्रकट करती
है। ”करेंसी” के माध्यम से भी पुरुष की महिला
को वस्तु समझने वालो को सचेत किया गया है। अधिकांश कथाओं में लेखिका द्वारा बेटी
या स्त्री के प्रति समाज के संकुचित दृष्टिकोण पर बेबाकी और तार्किकता के साथ अपनी
बात कहने की काफी हद तक कामयाब कोशिश की गई है।
कुल मिलाकर ज़िन्दगी के
उत्साह-उम्मीद-निराशा-तनाव आदि विविध गाढ़े-फीके रंगों को विविध रूपों में पाठक के
सामने रखा गया है। ये वो रंग हैं जिनसे हर पाठक का कभी न कभी वास्ता पड़ता है। इस
लिहाज से पूनम के लेखन को सफल कहा जा सकता है।
भाषा-शैली की बात करें
तो पूनम की भाषा काफी लचीली है, जिसमे
वे बातचीत के अंदाज में अपनी बातें कहती जाती हैं। उन्हें किसी भी तरह से किसी
विशेष शैली की जरुरत महसूस नहीं होती। कहीं-कहीं मुहावरों का प्रयोग भी किया गया
है. हालांकि अभी यह पूनम की पहली एकल किताब है तो इसमें शब्दों के प्रयोग में बहुत
अधिक सावधानी दिखती नहीं देती है। कहीं कहीं वे असावधानी से भी कुछ प्रयोग करती
हैं। “मेरा
कसूर” में
‘
चार दिन पश्चात पति ने
बैरंग लौटा दी अभागन’ कुछ
इसी तरह का प्रयोग है. बैरंग शब्द को डाक विभाग में कुछ इस अंदाज में पेश किया
जाता है कि चिट्ठी बिना टिकट लगी है..यहाँ लेखिका इस तरह के प्रयोग से बच सकती थी.
लेकिन इसे कथा के दोष के रूप में नहीं लिया जा सकता। सामान्य शब्दों के साथ कहीं
कहीं भारी-भरकम शब्दों जिनका पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में भी उपलब्ध है, का इस्तेमाल भी लेखिका कहीं कहीं
कर गई हैं जिनसे अर्थ पर तो नहीं लेकिन, वाक्य के प्रवाह और सौन्दर्य पर प्रभाव पड़ता है।
बहरहाल, कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि
पूनम के इस पेग की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये अपने आकार में ही एकदम अलग और
अनूठे हैं और हमें यह मानना होगा कि ये पेग अपने आप में हिंदी साहित्य को विधागत
स्तर पर और समृद्ध करने का ही काम करते है। पेग के अन्दर सबके लिए कुछ न कुछ मौजूद
हैअर्थात हर तरह के मिजाज के पाठक के लिए इसमें कोई न कोई जाम है।
लेखिका जीवन की घटनाओं को इस
सलीक़े से बयां करती हैं कि उसमें से भूत तथा भविष्य का हस्तक्षेप समाप्त हो जाता
है।कहानी कहने की यह बारीक़ी और शालीनता ही लेखिका की कहानियों में बार-बार दिखाई
देती है जो उनका सबल पक्ष है। एक पेग जिन्दगी में लेखिका ने पुस्तक रूपी बोतल से
अलग अलग नब्बे पेग बनाये हैं। ये कहानियों की एक ऐसी पुस्तक है जिसमें सभी
कहानियाँ लेखक के जीवन या उनके वैचारिक फ़लक पर घटित घटनाएँ होकर भी एक घटना किसी
भी दूसरी घटना से न तो प्रभावित है न सम्बध्द ही!
इन कथाओं को पढ़कर स्पष्ट होता है
कि लेखिका ने कथाओं को इस अंदाज़ में बयान किया है कि पढ़ते हुए कई बार पाठक हर पल
को जी लेता है। लेखिका कई जगह शब्दचित्र गढ़ने में भी पूरी तरह सफल हुई हैं. पूनम
अपने लेखन से यह भी सिध्द करती हैं कि अच्छा लेखन बहुत लम्बा हो, यह आवश्यक नहीं है।
शब्दों से चित्र कैसे बनाया जाता
है इसका श्रेष्ठ उदाहरण है “समझौते” इस कहानी में विवाह विच्छेद को
बच्चो के स्नेह से दूर करने को माध्यम बनाया गया है। “लछमी का शाप” कहानी न होकर एक शालीन व्यंग्य है
गर्भपात करने की मानसिकता पर।चुपड़ी रोटी में सुखी रोटी बनाम चुपड़ी रोटी को माध्यम
बना कर कथा का ताना-बाना बुना गया है।शीर्षक रचना "एक पेग जिन्दगी" भी
एक बेहतरीन और संकलन की लंबी कहानी है।
लेखिका ने पुस्तक रूप देते हुए इन
कथाओं को चाहे जो भी कुछ समझा हों पर विधा के रूप में उन्हें कहानी नहीं कहा जा
सकता। हाँ इतना अवश्य है कि पुस्तक की कथाएं कहानी से कुछ अधिक ही सशक्त हैं।
आत्मकथ्य शैली को विभिन्न कथाओं में प्रयोग करके लेखिका ने एक नया प्रयोग किया है, जो उनकी रचनाधर्मिता का गवाह भी
है।
कुल मिलाकर पूरी पुस्तक पठनीय होने
के साथ-साथ विचारणीय भी है।
प्रकाशकीय स्तर पर कुछ वर्तनी
संबंधी अशुध्दियाँ हैं, जिनसे
कहीं भी अवरोध तो उत्पन्न नहीं होता लेकिन उन्हें नज़रंदाज़ भी नहीं किया जा सकता।
साज-सज्जा की दृष्टि से पुस्तक आकर्षक है और आवरण-पृष्ठ उतना ही विशेष है जितनी
पूनम डोगरा की रचनाएँ. रचनाओं की गहन अंतरात्मा की तरह आवरण पृष्ठ पर भी एक गंभीर
कलाकृति के रूप में एक पेग को विस्तार दिया गया है जो पुस्तक के पूरे कथ्य को न
सही लेकिन कुछ प्रतिनिधि रचनाओं को अपने में समेटने का प्रयास अवश्य करती है।
शुभकामनाओं के साथ।
बहुत बढ़िया समीक्षा.
ReplyDeleteबधाई...
आभार मित्र
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