Saturday, 10 April 2021

दीप्ति गुप्ता से सन्दीप तोमर की साहित्यिक चर्चा

 

दीप्ति गुप्ता से सन्दीप तोमर की साहित्यिक चर्चा

साक्षात्कार

यह साक्षात्कार अभिनव इमरोज पत्रिका मे प्रकाशित है 

( दीप्ति गुप्ता जी वर्तमान में पुणे महाराष्ट्र में रहती हैं। लम्बे समय से लेखन से जुडी रही हैं, हिन्दी व्याकरण पर उनका अध्ययन उन्हें अलग पहचान देता है। सोशल मिडिया पर हिन्दी के भाषिक तत्वों पर अक्सर उनके द्वारा ली गयी क्लास को देखा जा सकता है, कितने ही लेखक उनसे हिन्दी सीख साहित्य साधना कर रहे हैं। जहाँ उन्हें कैफ़ी आजमी जैसे बड़े शायर का सानिध्य प्राप्त हुआ वहीँ प्रकाश झा जैसे जमीनी फिल्म निदेशक और दीप्ति नवल जैसी कलात्मक फिल्मों की बेहतरीन अदाकारा के ऊपर उनकी कलम बखूबी चली है, फिल्मों की समीक्षा सहित अनेक परिचर्चाएं आयोजित कर चुकी हैं। साहित्यकार सन्दीप तोमर ने उसके साथ साहित्य पर खास बातचीत की है, आइये दीप्ति गुप्ता जी की नजर से उनकी साहित्यिक यात्रा का आनन्द लेते हैं )

 सन्दीप तोमर: दीप्ति जी, आज जिस मुकाम तक आ पहुँचें हैं उसे एक दस्तावेजी जिन्दगीकहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। एक जिज्ञासा है- क्या आपकी  पहली रचना ही पहली प्रकाशित रचना है?

दीप्ति गुप्ता : मेरी पहली रचना, मेरी पहली प्रकाशित रचना नहीं है । पहली रचना की उम्र  मात्र 11 साल थी जब वह क़लम से  पन्ने पर दर्ज़ हुई  थी । वह एक अबोध बालमन की कच्ची और मासूम  सी अभिव्यक्ति  थी । उस सुकुमार उम्र में, पहली बात तो यह कि अपने भावो और सम्वेदनाओं को अभिव्यक्त करने में  ही एक संकोच और शर्मीलापन हावी रहता है    दूसरे  अग़र इत्तेफ़ाक से  कभी  कुछ लिखा भी जाए, तो उसका प्रकाशन, उस अबोध रचयिता  के ख़्याल से   परे होता है ।

 आप चाहे तो इसे  निश्छल- निर्मल बाल-मन में होने वाला लेखन का अप्रत्याशित बीजारोपण कह सकते हैं या  मेरी बाल  क़लम का  "घुटने चलना" कह सकते है । इसके कई साल बाद , मेरे  बड़े होने के साथ-साथमेरी वह शिशु क़लम भी मानो  ख़ामोशी से  बड़ी होती गई, अनेक तरह के  संकोच भरे सोच व   किशोरावस्था  के व्यर्थ के  मनोविकारों, अकारण की कुण्ठाओं, से आज़ाद होती गई और  आने वाले समय में क़दम साध कर चलने की ऊर्जा से भरती गई । यह परिवर्तन अपने आप  ही करवट लेता रहा -  एक सहज विकास के रूप में । उस ज़माने में किशोरावस्था  और वो भी ख़ासतौर से  "लड़की" की  किशोर वय अनेक  अनकही पाबन्दियों के दायरे में आगे बढ़ती थी । इसलिए एक अच्छे काम को बिन बताए, अकेले करने में लाज और संकोच  जकड़ लेते थे । उस समय आत्मविश्वास की बहुत कमी होती थी । अपनी क्षमता का पता ही नहीं होता था । इसलिए, समय के साथ, जब इन सबसे उबर कर , मैंने  अपनी क्षमता और  आत्मविश्वास की ज़मीन पर चलना शुरू किया तो, धीरे-धीरे लेखनी भी  मुखर हुई ।

 मैं  अपनी माँ की  इकलौती संतान थी । मैं मुश्किल से एक वर्ष की थी, जब पिता का निधन हो गया था । घर-बाहर सब बच्चों के दो-दो , तीन-तीन  भाई-बहन  देखकर, मैं ख़ुद को अकेला और कंगाल  महसूस करती थी ।

यह उत्तराखण्ड के  आर्मी हेडक्वार्टर "लैन्सडाउन" की बात है, जहाँ  मेरी माँ की राजकीय कॉलिज में उनके जीवन की पहली नियुक्ति  इलाहाबाद शिक्षा विभाग द्वारा हुई थी ।  

टीचर्स हॉस्टल के बाहर फूलों की क़तारबद्ध  ख़ूबसूरत क्यारियाँ होती थीं । सभी क्यारियों में एक साथ कई क़िस्म के फूल खिले होते थे । पर, एक क्यारी ऐसी थी, जिसमें इत्तेफ़ाक से  उस दिन  सिर्फ़ एक ही गुलाब का फूल खिला  हुआ था, तथा और फूलों की पौध  शायद पाले की वज़ह से बढ़ नहीं पाई थी । मेरा नन्हा मन  सहसा ही उस एकाकी गुलाब के प्रति सहानुभूति और सम्वेदना से भर उठा और मुझे  मन ही मन महसूस  हुआ कि उसके भी मेरी तरह भाई-बहन नहीं  है और  वह बेचारा निपट अकेला है । बहुत देर तक उसे  प्यार  से निहारती  हुई, मैं बालसुलभ सोच के तहत उसके  बारे में  कुछ-कुछ  सोचती रही ।

फिर एकाएक दौड़ कर कमरे से कॉपी - पैन  उठा लाई और  गुलाब के फूल  के पास बैठ कर, जैसा मेरे मन में आता गया, वैसा  उस पर लिखती  गई  और देखा तो वह एक छोटी सी कविता बन गई  थी ।  मैंने  उसका  नाम दिया 

 "A Lonely Flower" .  

वह  आकस्मिक  कविता अँग्रेज़ी में  इसलिए लिखी गई, क्योंकि हमारी अँग्रेज़ी  की टीचर मिस उप्रेती, किसी भी विषय पर  हम बच्चों को  पाँच- पाँच, दस -दस पँक्तियाँ  लिखने के लिए  ख़ूब प्रोत्साहित करती थी ।  सो सोचा था कि  लिखने के बाद, उन्हें दिखाऊँगी , लेकिन  उन्हें दिखाने की हिम्मत न कर  सकी क्योंकि वह  मात्र गुलाब  पर कविता होती तो ठीक था पर, वह तो  मुझसे जुड़ी व्यक्तिगत कविता अधिक थी ।  सो मैंने उस कॉपी  को छुपा कर, अपनी  अपनी मेज  की दराज़  में खूब अन्दर दबा कर रख दिया । कुछ महीने बाद  सफ़ाई करते समय वह कॉपी मेरी माँ  के  हाथ लग गई  और उन्होंने वह कविता पढ़ ली ।  मै बराम्दे में खेल रही थी । उन्होंने  मीठे सुर में, मुझे   पुकारा । मैं झटपट अन्दर गईतो उनके हाथ में अपनी वो ही  कॉपी देख कर ठिठक गई । वे मुस्कुराते हुए बोली - 

 " ये तुमने लिखी कब लिखी" 

मैं कुछ बोल ही नहीं पाई, फिर किसी तरह अटक-अटक कर कुछ बोलना भी चाहा, तो  सब  हलक  में चिपक कर ही रह गया ।

माँ  मेरे संकोच को तुरन्त भाँप गई  और मेरी सराहना करते हुए बोली -

 "अरे यह तो बहुत अच्छी कविता लिखी है, दिखाई क्यों नहीं ? "

 आत्मविश्वास रहित उस नादान उम्र  में कैसा लिखना और  लिख कर, वो  भी   माँ  को दिखाना  कि  वे  हँसेगी  कि  ये  क्या  बेकार  सा लिखा है ?

उसके  बाद कभी कुछ नहीं लिखा , बस  स्कूली  पढ़ाई, स्कूली प्रतियोगिताओंसाँस्कृतिक कार्यक्रमों में भागीदारी करते हुए, समय बीतता गया । लेकिन सम्वेदनशील मन में भावी लेखन  के लिए  कच्चा माल जमा होता रहा । वह  पहले 1970- 71 में एक - दो लघु हिन्दी  संस्मरणों  और  कुछ अँग्रेज़ी की  गम्भीर विचारशील कविताओं में लम्बे - लम्बे  अन्तराल के साथ  डायरी में  सिमटता रहा ।

लेकिन 1985 से मेरी क़लम ने रफ़्तार पकड़ी  और  "पंजाब केसरी", "अमर उजाला", "हिन्दुस्तान",  "सन्मार्ग", आदि 

कई अख़बारों  में   धीरे-धीरे प्रकाशित भी होने  लगी । 

सन्दीप तोमर: जब आपने लिखना शुरू किया, तब के माहौल और अज में क्या फर्क आप देखते हैं?

दीप्ति गुप्ता: जब मैंने लिखना शुरू किया , तब के  माहौल और आज के माहौल में ज़मीन- आसमान का अन्तर है ।

यह  एक शाश्वत  सत्य  है कि "समय" किसी  के लिए  ठहरता नहीं, किसी भी पड़वा पर थमता नहीं ।  उसमें होने वाले सामाजिक- साँस्कृतिक  "बदलाव"  सदा से क़ुदरत की एक सहज - स्वाभाविक प्रक्रिया  रही  है । जो माहौल कल था, वह आज नहीं है और जो आज है, वह  कल  नहीं रहेगा ।  हम सभी  "काल" के परिवर्तन - चक्र  के  साक्षी  हैं ।

 पहले के  माहौल में  सम्वेदनाएँ और भावनाएँ  तैरती थीं । फ़िज़ाओं  में भावनाओं  का कम्पन सा था ।  ठण्डी हवा का झोंका हमें भावुक बना जाता था । 

सुहानी भोर  हमारी  उदात्तता  को जगाती थी, तो  साँझ का झुटपुटा हमारे  किसी बीते पल की याद ताज़ा  कर जाता था । साथ ही पहले के माहौल में एक "लिहाज़" का स्पर्श था । आत्मीयता के चलते एक दूसरे के लिए  प्यार भरी छूट, सम्पूर्ण अधिकार दिए और लिए जाने पर भीशालीनता के दायरों की कद्र की जाती थी । यानी  पहले "उन्मुक्तता"  नहीं  होती  थी । जबकि आज का माहौल, हर क्षेत्र में बहुत उन्मुक्त है । समाज के हर वर्ग में इस खुलेपन को  देखा जा सकता है ।  वह  हर उम्र पर  हावी है ।  आज  बच्चे  अपने माता-पिता से  कुछ भी कहने में नहीं हिचकते ।  आज  की  युवती  हो या युवक, उसके पहनावे, हाव-भाव, सोच, नज़रिया, बातचीत सबमें बेइन्तहा उन्मुक्तता  के दर्शन होते हैं । खुलापन बुरा नहीं, बशर्ते कि वह  बेढब  न हो ।  एक सन्तुलन में हो । जैसे पानी जब  सीमाएँ तोड़ कर बह निकलता है, तो बाढ़ का रूप ले लेता है और तहस - नहस मचा देता है । पर, जब  अपनी सहज सीमाओं  के तालमेल में प्रवाहित होता है, तो कलकल करती सरिता और लहराता दरिया  बन  जीवनदायी  बन जाता है । ज़रूरत से ज़्यादा  उन्मुक्त हवा आँधी बन जाती है, पर , वही जब सिर्फ़  मुक्त रूप से बहती है तो सुखद बयार बन जाती है । तो आज का सामाजिक, साँस्कृतिक वातावरण  - जिसमें धर्म, राजनीति सब आ जाते हैं - आज की पीढ़ी, पारस्परिक रिश्ते, परिवार, बाज़ार, सब  एक उन्मुक्त  आँधी की चपेट में हैं । किसी को किसी की सुनने की, किसी से मिलने तक की फ़ुर्सत नहीं , तो ज़रूरी  बातों की तो  क्या ही कहें !!!  सोना,जागना, नहाना,खाना,पीना सब "दो मिनट"  वाला हो गया है । माता- पिता घर में साथ रहते हो या  अलग, उनसे मिलने का वक़्त भी "दो मिनट" ही तय रहता है । नाश्ता  भी "बस दो मिनट' (मैगी विज्ञापन) वाला होता ही है । रिश्ते अजनबी हो गए  हैं । बच्चे  समय से पहले बड़े हो गए  हैं । युवा समय से पहले बूढ़े गए  हैं (असमय आँखों पे चश्मा, बालों का सफेद होना, झड़ जाना, याददाश्त कमज़ोर होना) । 

तो सारा माहौल ही  आपाधापी, भागदौड़   बन  के रह गया  है, जिसमें 'इंसानियत', 'नेकनीयत',  'भावनात्मक मिल्कियत'सब गुम गए है और ज़िन्दगी  मशीनी बन गई है ।

 मशीनी  माहौल, मशीनी ज़िन्दग़ी में फिर भी कुछ  सकारात्मक सम्भावनाएँ थीं, पर आज 21वीं सदी  का माहौल और उससे कुप्रभावित जीवनमशीनी  का  भी "चरम" रूप -  "डिजिटल" हो गया है ।  भावनाओं- सम्वेदनाओं से  दूर, उसकी  हर चीज़ "डिजिट्स" में बँटी है । डिजिट, लघुतम इकाई होती है । जीवन का विस्तार और फैलाव, यदि डिजिटल टुकड़ों में सिमट कर रह जाए, तो  निश्चित ही उसकी जीवन्तता का क्षय होगा ही । एक बटन दबाने पर  यान्त्रिक  सी जीवन्ततातो दूसरा  बटन दबाने डिलीट....स्वाहा । 

 तो इस डिजिटल माहौल के अपने ख़तरे हैं, कुप्रभाव हैं, जिनसे हम अछूते नहीं है ।

सन्दीप तोमर: साहित्य में आपका साबका किन लोगों से पड़ा? किनसे आप प्रभावित हुए..

दीप्ति गुप्ता:  सन्दीप जी, मेरा सोचना है  कि किसी  भी साहित्यकार से  प्रभावित होने के लिए ज़रूरी नहीं कि  उनसे हम व्यक्तिगत रूप से मिले  ही हों । फिर भी, उनसे मिलने का, सम्वाद करने का अवसर मिले, तो  वह परम सौभाग्य  मानती हूँ । 

अब, जैसे, प्रेमचन्द इस दुनिया से तब चले गए, जब हम पैदा  भी नहीं हुए थे । लेकिन मैंने छात्र  जीवन में और  उसके बादविश्वविद्यालय में शिक्षण के दौरान, प्रेमचन्द,अमृतलाल नागर,अज्ञेय, यशपाल, इलाचन्द्र जोशी, भगवतीचरण वर्मा, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, प्रसाद, निराला, पन्त, महादेवी, आदि अनेक  गद्यकारों  और पद्यकारों को पढ़ा ।सभी  अपने - अपने स्तर पर, अपनी ढेर ख़ूबियों के साथ श्रेष्ठतम लेखक थे । पर जिनसे मैं सर्वाधिक प्रभावित हुई , वे प्रेमचन्द, अमृतलाल नागर, निर्मल वर्माकमलेश्वर, थे ।लेखिकाओं में  मन्नू भंडारी के  'आपका बंटी' और  'महाभोज' ने मुझे सम्मोहित किया । इनके बाद महिला लेखिकाओं में  कुछ देर से मृदुला गर्गममता कालिया, सूर्यबाला, चन्द्रकान्ता  और चित्रा मुदगल  को पढ़ा । इनमें ममता कालिया और सूर्यबाला जी की भाषा, अभिव्यक्ति और कथ्य ने मेरे  मन को बहुत बाँधा । 

सन्दीप तोमर: हिन्दी कहानी, उपन्यास और व्यंग्य में से गद्य की किस विधा को जीवन के अधिक करीब पाते हैं?

दीप्ति गुप्ता :मुझे  हमेशा से कहानी और उपन्यास जीवन के  सर्वाधिक निकट लगे । हांलाकि  उपन्यास एक पूरा जीवन वृत होता है, तो कहानी जीवन का एक हिस्सा मात्रलेकिन  भले ही कहानी  जीवन के  किसी एक खण्ड से जुड़ी हो, उसमें जीवन  की   भरपूर  साँसें और  धड़कने भरी होती हैं, जो  हमारे दिल और हमारी रूह को  अपने  से  ऐसे  बाँध लेती  है, जैसे हमसे उसका पुराना नाता हो ।

इसके अलावा  'संस्मरणऔर 'आत्मकथा'  - ये दोनों विधाएँ तो  पन्नों पे दर्ज़, सीधा दूसरा जीवन ही होती हैं ।

 सन्दीप तोमर: यशपाल, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव या फिर मोहन राकेश के बारे में कुछ कहें- उस समय के पूंजीवादी और प्रगतिशील खेमों की उठापटक पर आपकी क्या राय है?

दीप्ति गुप्ता: प्रगतिशील लेखक बिरादरी हमेशा  पुरानी  चली आ रही जीर्ण-शीर्ण मान्यताओं और रूढ़ परम्पराओं के  ख़िलाफ़  आवाज़ बुलन्द करने वाली क्रान्ति की पोषक रही है । साहित्य में  सबसे पहले  प्रेमचन्द अपने समय में ही, दीन-हीन तबके  के  किसानों और मज़दूरों को अपनी रचनाओं का नायक बना कर, प्रगतिवाद को जन्म दे चुके थे और तदनन्तर उनके बाद अनेक लेखकों ने उनके मार्ग का स्वत: ही अनुसरण किया, तथा राजा-रानी या उच्चकुलोत्पन्न  पात्र को  अपने कथानक का नायक न बना कर, ज़मीन से जुड़े  लोगो पर अपने  लेखन को केन्द्रित किया । सामाजिक कुरीतियों, बाल-विवाह, विधवा की उपेक्षित  स्थिति और त्रासद जीवन, दहेज  प्रथा, आदि को केन्द्रित कर ख़ूब लिखा ।

 प्रेमचन्द ने तो  स्वयं एक युवा विधवा से शादी  कर अपने असल जीवन में  प्रगतिशीलता को अपनाया था । तब से आजतक प्रगतिशीलता  साहित्य में  बरक़रार है ।

प्रगतिशील लेखक वर्ग ग़रीब व उपेक्षितों का हिमायती था, उसके उद्धार  की बात  करता था, तो कहीं मार्क्सवाद भी इसके साथ जुड़ गया और अनेक लेखक विशुद्व  मार्क्सवादी दर्शन और   विचारधारा के कट्टर अनुयायी हो गए ।

जहाँ तक खेमेबाज़ी की  बात है, तो, खेमे तो साहित्य जगत में  मतवैभिन्य के कारण हर युग में देखने को मिलते हैं । प्रगतिशील लेखक  समुदाय, मार्क्सवादी समुदायउदारवादी, कट्टरवादी वर्गवामपंथ, दक्षिण पंथ, इन सबमें, लेखक समाज विभाजित रहा । लेकिन  ये विविध  वर्ग साहित्य की प्रगति और विकास  के कभी आड़े नहीं आए ।

सन्दीप तोमर: आपके प्रिय लेखक कौन से हैं, जिनका प्रभाव आप अपने ऊपर पाते हैं?

दीप्ति गुप्ता: प्रेमचन्द मेरे सब से प्रिय लेखक रहे ।  पात्रो के माध्यम सेमानवीय स्वभाव का सुन्दर चित्रण  और  विश्लेषण  साथ ही, मानवीय मूल्यों  का प्रतिबिम्बन  उनकी कहानियों की विशेषता रही है ।  ये सब उनकी कहानियों में  जिस सहजता से उभर कर आया है, वह दिल को बाँधने  वाला होता है और उनकी  अलग पहचान बनाता है । गाँव के परिवेश में  पले- बढ़े  पात्र हों या तत्कालीन  शहरी परिवेश के मध्यम वर्गीय संघर्ष रत, अपनी  खामियों  और  गुणों से पाठक के दिलोदिमाग़ पर हावी होने वाले पात्र हों, उन्हें हम अपने जीवन में, आसपास ही पाते हैं  और उनके साथ एकाकार  हो जाते है । यह सरलमना प्रेमचन्द की लेखनी का एक बहुत बड़ा सशक्त गुण था कि पाठकों  का  कहानी  पात्रों  के साथ तादात्म्य होना ।

अपनी इन लेखकीय विशेषताओं के  कारण ही , प्रेमचन्द ने  मुझे कह़ी गहरे प्रभावित किया और अनेक  नामी व उत्कृष्ट लेखकों को पढ़ने के बाद भी, कोई भी मेरे मन में प्रेमचन्द की जगह  न ले सका ।  अतैव इसमें कोई दो राय नहीं कि  प्रेमचन्द का मुझ पर सघन व अमिट प्रभाव रहा और वह आज तक बरकरार है ।

 सन्दीप तोमर: बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी के 18 वर्षों को सम्मिलित करें तो आपके अनुसार बड़े कवि, कहानीकार, उपन्यासकार और व्यंग्यकार कौन हैं?

दीप्ति गुप्ता: आधुनिक फलक  पर, अठ्ठारह वर्षों  से पहले भी  और इस अवधी के दौरान भी  विविध विधाओं के रचनाकारों और  क़लमवीरों की कमी नहीं रही, पर, मुझे   कवियों में  केदारनाथ सिंह, व्यंग्यकारों में श्रीलाल शुक्ल और  उपन्यासकार व  कहानीकार  के  रूप म़े कमलेश्वर जी के  अलावा  कोई और उनके स्तर का दूर-दूर तक नज़र नहीं आया । उनको पढ़ना मुझे सबसे  अधिक  प्रिय  रहा । 

संदीप तोमर: सदी के सबसे बड़े आलोचक किसे मानते हैं? एक समय आया जब लेखक खुद ही आलोचक की भूमिका में भी आया, आपकी क्या राय है?

दीप्ति गुप्ता: सदी के सबसे  बड़े आलोचक, मेरी  नज़र में, हमारे बेबाक़ पाठक  होते हैं। उनकी  बेबाक़ अभिव्यक्ति ही हमारे लिखे की पूर्वाग्रह रहितसच्ची और खरी आलोचना होती  है।

बाकीतथाकथित   स्थापित एवं  ज्ञानी आलोचकों को  तो  मैंने  बेहद पूर्वाग्रहग्रस्त पाया, जो  कभी भी ईमानदारी  एवं पारदर्शिता से, अपना समीक्षक फ़र्ज़ नहीं निबाह पाए ।  उनमें "नीर-क्षीर विवेक" का अभाव  मुझे सदैव खटकता रहा । हो सकता है कि आप मेरी  इस दृष्टि  से  सहमत न हो, पर, मेरा    यह    अभिमत अडिग    अपरिवर्तनीय  है ।

सन्दीप तोमर :फ़िल्मी हस्तियों को सम्मिलित करते हुए आपने पत्रिकाओं/अख़बारों में परिचर्चाएँ आयोजित की। दीप्ति नवल, प्रकाश झा सरीके बड़े नामों से आपका साबका हुआ, आप उन विभूतियों की सादगी और उनके जमीनी व्यक्तित्व पर कुछ कहना चाहेंगे?

दीप्ति गुप्ता: सन्दीप जी, जिस प्रकार  साहित्य और साहित्यकार समाज का हिस्सा हैं, उसी तरह  फ़िल्में  और  फ़िल्मी  हस्तियाँ  भी हमारे समाज का हिस्सा हैं । हम साहित्यिक विधाओं में  समाज और जीवन के विभिन्न पहलुओं को  चित्रित करते हैं तो  फ़िल्म निर्माता - निदेशक  उसे, दृश्य माध्यम फ़िल्मों  द्वारा प्रस्तुत करते हैं । अभिनेता उसे अपने भाव-प्रवण अभिनय द्वारा अभिव्यक्त करते हैं । बहरहाल हम सभी "रचयिता" हैं  और जो रचयिता होगा, वह  निश्चित ही  सम्वेदनशील और विचारशील भी होगा ही, तथा सम्वेदनशील और विचारशील इंसान को मैंने हमेशा सादगी और सरलता से भरपूर पाया ।

हमारी साहित्यिक पत्रिकाएँ, अक्सर विशेष अवसरों पर, सिने विशेषांक निकालती रहती हैं । 2013 मेंहिन्दी सिनेमा के 100 (3, मई, 1913)  साल पूरे हो के उपलक्ष्य में, 'लमही' के सम्पादक  'विजय राय' जी  2012 से सिने विशेषांक  निकालने की तैयारी में जुटे थे  । तब उन्होंने  मुझसे पूछा कि  मैं फ़िल्म नगरी मुम्बई  के इतने पास रह रही हूँ, तो मैं इस विशेषांक  में क्या योगदान कर सकती हूँ । तब मैंने उस  पत्रिका के लिए,श्याम बेनेगलप्रकाश झा, दीप्ति नवल,बी.आर.इशारा, चन्द्रप्रकाश द्विवेदी, आर.के. नायर आदि फ़िल्मी  हस्तियों के सहयोग से  'फ़िल्म  और समाज' को केन्द्रित करते हुए एक विस्तृत  परिचर्चा की थी,जो  इन ऊँची हस्तियों के सादा मिजाज़ और सरल स्वभाव के कारण, दिएगए  सहयोग की वज़ह से  बहुत अच्छी बन पड़ी थी ।

 ये लोग  तड़क -भड़क  की फ़िल्मी दुनिया से जुड़े होने के कारण  बेबात ही  बदमिजाज़ी और गुरूर आदि के लिए  बदनाम होते हैं । वरना वे भी हमारी तरह सीधे-सादे इंसान होते हैं, जो  सुख-सुकून में रहते हुए, अपनी रचनात्मकता में लगे रहना चाहते हैं । श्याम बेनेगल, प्रकाश झा, आर.के. नायर (संस्थापक, फ़िल्म आर्काइव)  और  दीप्ति नवल  को मैंने बेइन्तहा  सरल स्वभाव और सादगीपूर्ण पाया । किसी तरह का तेवर, नखरा, और दम्भ नहीं । 45 - 50 मिनिट तक, फ़ोन पर लम्बी बातचीत ।   फ़ोन पर मेरे पैसे कैसे कम लगे, बेनेगल साहब का इस बात का ध्यान रखनाप्रकाश झा का  ख़ुद फ़ोन करके, इन्टरव्यू देना, मेरे निवेदन  करने पर.कि मैं उनको  दोबारा अपनी ओर से कॉल करती हूँ  और मैं उनकी कॉल पर  लम्बा सम्वाद नहीं करना चाहती तो, प्रकाश झा का बड़ी सादगी से कहना कि "अरे, दीप्ति जी, क्या फ़र्क पड़ता है ? आप मेरी ही कॉल पर बातचीत  कीजिए ।"

फिर बीच-बीच में हास-परिहास  द्वारा, मुझे सहज बनाना....उनके बड़प्पन को दर्शाता  था ।

 सन्दीप तोमर: मानकीकरण से इतर आप हिन्दी के शुद्ध स्वरूप की हिमायती रहीं हैं। सोशल मिडिया पर शुद्ध हिन्दी लेखन पर आपका तेवर साफ दिखाई देता है, जबकि अनेक संपादक/ प्रकाशक हिन्दी के मानकीकरण को अधिक अपना रहे हैं, इस आप उनकी नासमझी के रूप में देखते हैं या फिर ये तकनीकी खामी है?

दीप्ति गुप्ता:  सन्दीप जी, सीधी  सी और मुख़्तसर  सी  बात है कि जिन लोगों ने  क़लम थामी है, तो  उन्हें उस क़लम से निकलने वाली  भाषा  के, रूप-गुण  यानी उसके समूचे  'व्यक्तित्व' का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने सही, स्वच्छ, निखरे हुए  रूपाकार में है या नहीं ? जिसे  हमारे पुरोधा साहित्यकारों  ने  वर्षो की मेहनत-मशक्कत के बाद, उसके आरम्भिक, अविकसित अपभ्रंश रूप  से  निकाल कर, साहित्य - लेखन के क़ाबिल  बनायाउसके   आन्तरिक और बाह्य कलेवर को सँवाराजिससे  कि उसमें  पिरोये भाव, विचार और सम्वेदनाएँ बिना किसी रुकाव और अटकाव के, बहते नीर की तरह ,पाठक- मन में निर्बाध उतरती चली जाएँ । 

जब भाषा  प्रवाह पूर्ण होती है,तो उसमें  अटकाव का सवाल ही नहीं और जब अटकाव  नहीं, तो समझ लीजिए कि उसमें क्लिष्टता   भी  नहीं ।

 अब ऐसी  ''सरल-सहज साफ़-सुथरी''  हिन्दी भी  लेखन-जगत के लोगों से - चाहे वे लेखक हों या सम्पादक या  प्रकाशक - सही-सही न लिखी जाए तो, यह बात  खेदजनक  है  कि नहीं जब लिखने  वाले   का शब्दज्ञान ही  सही नहीं होगा, तो वह अपने भावों और विचारों को पाठकों तक, उनके सही अर्थ के साथ कैसे सम्प्रेषित कर पाएगा तब तो वह   ''चिंता  को चिता, मन भर गया  को, मन मर गया"  लिख कर, भाषा की हत्या   और अर्थ का अनर्थ  ही करता  रहेगा ।

इसलिए मैं  हमारे विचारों की अभिव्यक्ति  के साधन "भाषा" के अंग-भंग  और अर्थ-भंग  होने पर दुखी  होती  हूँ ।

कम से कम साहित्य जगत के लोगों को तो  सरकारी लिपिकों के लिए  बनीमानकीकृत भाषा रूप  को न अपना कर, उसके शुद्ध    सही रूप को  अपनाना चाहिए ।  हिन्दी के आँख-नाक काट कर, उसे कुरूप और बेमानी नहीं बनाना  चाहिए ।  अब  'हिन्दीशब्द को ही लोग , इस शब्द की 'नाक' काट कर, उसे  बिन्दु बनाकर, शिरोरेखा  पर चिपका देते हैं । आधे 'न्को  लिखने में आखिर  क्या परेशानी  है ? क्यों परेशानी है अब तो, तकनीक भी इतनी विकसित और सुविधाजनक बना दी गई  है कि उसमें लगभग सभी शब्दों  को अर्द्ध रूप  बने-बनाए तैयार मिलते हैं ।  एक  कहावत  है :

Where  is  Will, there  is  way".

 अर्थात :  "जहाँ चाह वहाँ राह"

पर  सुविधाभोगी  इंसान को जितनी भी  सुविधाएँ  दोउसका मन  ही नहीं भरता  और वह धीरे-धीरे  उनका  दुरुपयोग करने लगता है । उसकी इस प्रवृत्ति का ही परिणाम है कि  आज  हिन्दी कटी-फटी  होकर "संक्षिप्तता" के दायरों में सिमटती हुई, तुड़ी, मुड़ी और  सिकुड़ी  हुई  होती जा  रही है । 

सुविधाभोगी  लोग  "श"  और "ष"  के सही प्रयोग की अवहेलना करहर जगह, बस एक ही  "श" को  लिख कर, खानापूरी करते नज़र  आते हैं । यही  लापरवाही और मनमानीवे  "न -ण",   "र -ऋ", "क-ख",  "ब-व" , "भ-म' , "श-स" के  प्रयोग  में  करते  हैं । निस्सन्देह,   सही  हिन्दी  के  हिमायती  लोग तोभाषा  के  साथ, ऐसी  ज़्यादती  होते देख, बहुत असहज महसूस करते हैं  और  ग़लत शब्द लिखने  से  अर्थ बदलने पर तो जैसे  उनके होश ही फ़ाक्ता  हो जाते है । 

 आप जब  "बीवी"  को  "बीबी"  बनते  देखेगे,  "भावी" (Future) को "भाबी",  "भोर"  को  "मोर", "शीला  को  सीला, "काशी" को  "खाँसी" बनते  देखेगें  तो  झुंझलाहट  होनी  लाज़मी है ।

पर, ग़लत  लिखने वालों कोन तो  ग़लत शब्द से और न ही  ग़लत अर्थ से, जैसे कोई फ़र्क़  ही नहीं पड़ता । 

 कोई  भी  भाषा समय के साथ बेहतर  होनी चाहिए  या  कमतर भाषा सुबह से लेकर शाम तक, हमारी हज़ार ज़रूरतें पूरी  करती है, हमारी बात को, इस छोर  से उस छोर तक पहुँचाती  है, तो क्या हम इतना भी नहीं कर सकते कि  हम  इसे  बेनूर  और बेमानी  न होने दें ? इसे  समृद्ध  और समपन्न  बनाए रख करपूरा प्यार  और सम्मान दे ? 

सन्दीप तोमर: साहित्य, सिनेमा और राजनीति में मधुर रिश्ते रहते हुए भी आपने किसी को साहित्य में नाम पाने की सीढियाँ नहीं बनाया जबकि देखने में आता है कि कम लिखकर भी अनेक रचनाकार रातों-रात प्रसिद्धि पा गए, आप कुछ कहना चाहेंगी?

दीप्ति गुप्ता: "कलयुगी  चूहा दौड़ की दिशाहीन  होड़"   हा,हा,हा,हा,हा......

आज  के  गलाकाट माहौल के मुताबिक, आपने  बहुत ज़रूरी सवाल किया है ।

सन्दीप जी, शीर्ष  पर पहुँचने  के लिएसेलिब्रिटी  लोगों  के "एक्सीलेटर" और उसके प्रयोग के ख़तरों को न्यौत कर, ऊपर जाने के बनिस्पत मैं परिचित पायदानों वाली  अपनी  क़लम की सीढ़ी से आत्मसम्मान, आत्मविश्वास, एवं  गरिमा  के साथ रफ़्ता- रफ़्ता  ऊपर  जाना  पसन्द करती हूँ ।

 बुज़ुर्गो  की सीख और अनुभव को गाँठ बाँध कर रखना, हमेशा मुफ़ीद होता है : 

"देर आए, दुरुस्त आए" - "दौड़ के गिरे और पछताए"।

 दूसरे  के कंधे पर चढ़ कर, ऊँचाई हासिल करने को बेचैन लोग, निश्चित ही औंधे  मुँह गिरते हैं ।

रातों-रात  साख़  पाने वाले, रातों-रात  राख  भी होते देखे गए हैं । सो ऐसी  "अस्थायी"  खोखली  शोहरत का क्या  करना, जो आपको  बुलन्दी पर क़ायम  न रख सके । 

सन्दीप तोमर: इधर अभी साहित्य का स्वरुप एकदम बदल गया है। गज़ल के नाम पर हिन्दी गज़ल, हाइकू, लघुकथा बनाम लघु कथा ( शोर्ट स्टोरी) और निराला जी के छन्दमुक्त कविता के आन्दोलन के बाद की आधुनिक कविता, फिर गंगा प्रसाद विमल जी का अकहानी आन्दोलन? क्या कहेंगे आप?

दीप्ति गुप्ता: आपका यह प्रश्न एक लम्बी बहस का  बेहद ज़रूरी  मुद्दा  है ।  इस पर  संगोष्ठियाँ आयोजित होनी चाहिए  और नवीन बेतुकी  विधाओं   को बाहर का रास्ता दिखाया  जाना चाहिए ।

सन्दीप जी, सच कहूँ  तो  "हिन्दी  ग़ज़ल, लघु कथा, अकविता और अकहानी" ये सब  "नाजायज़  औलादों" की तरह हैं, जो  बेहिस (सम्वेदनहीन) और बेसुरे  लोगों  द्वारा  अस्ल और  जायज़ ग़ज़ल, लघु कथा, कविता एवं कहानी  पर  बड़े क्रूर ढंग से  हावी कराई जा रही हैं  

कुछ मुठ्ठी भर लोग सही विधा को सही तरह से  सीखने  की  अपनी नाक़ाबलियत और नाकामी  के चलते, पुरानी ख़ूबसूरत विधाओं की नकल परनित नई  बदसूरत और बदनीयत विधाएँ   गढ़ लेते है और उन पर  कलम चला कर, अपने  सीखतड़पन को  अदबी जामा पहनाया करते हैं ।

 सन्दीप तोमर: कैफ़ी आजमी जैसे बड़े शायर का सानिध्य आपको मिला, उनकी नज्म दूसरा वनवासतथा अन्य बेहतरीन रचनाओं के आप साक्षी रहें हैं, आपके लेखन पर कैफ़ी साहब जैसी हस्ती का कोई प्रभाव?

दीप्ति गुप्ता:  सन्दीप जी, क़ैफ़ी साहब एक बेहद उम्दा हस्ती थे । उनकी भावुकता, सम्वेदनशीलतापारदर्शिता उनके व्यक्तित्व में उतर आई थीं । उनको देखने मात्र से ही, कोई भी जान सकता था कि वह इंसान कितना  हस्सास, ईर्ष्या, द्वेष  व हर तरह के भेद-भाव  से दूर  देवदूत सरीखा है ।  बहते हुए शान्त दरिया जैसा । 

पर, यह जो आपने पूछा कि उनका मेरे लेखन पर कोई प्रभाव उसका जवाब है - "नहीं" ।

 

क्योंकि  वे एक ग़ज़ल गो थे । इसके अलावा फ़िल्मों के लिए, उन्होंने  ख़ूबसूरत नज़्में लिखी....फ़िल्म की कहानी और दृश्य की माँग के अनुरूप । गद्य में उन्होंने कुछ नहीं लिखा । सो  एक क़लमकार के रूप में  उनका  मेरे  लेखन  पर प्रभाव का सवाल ही नहीं ।

सन्दीप तोमर: अपनी किसी रचना के बारे में बताएं जिसे आप अपने जीवन के काफी करीब पाती हैंआपकी अपेक्षा से अधिक प्रसिद्धि पायी रचना से भी अवगत कराएँ।

दीप्ति गुप्ता:  मेरा सोचना  है कि  क़ायदे  में  यह  सवाल  अभी पेंडिंग रखना  चाहिए । कारण सीधा सा कि  मेरे अन्तस  में बसी, अभी और कृतियाँ  मेरी क़लम से निकल कर, प्रकाश  में  आ जाएँ, हो सकता  है कि  वे  मेरी आज की रचनाओं से बेहतर हों । 

वैसे अगर आज की ही रचनाओं  की बात करें तो,  2016 में  प्रकाशित  मेरा तीसरा  कहानी-संग्रह "हाशिए पर उगते  सूरज"  मेरे दिल के सबके क़रीब  है । इसकी हर कहानी असल चरित्रों का  जीवन्त दस्तावेज़ है । समाज के हाशिए पर जीने वाले  ग़रीबी के मारे  लोग दीन-हीन और  तंगहाल होने पर भी, सँस्कारों और  मूल्यों  के  धनी  होते  हैं । अतैव   मेरे अनुसार, वे  दमदमाते सूरज की  मानिन्द होते  हैं । 

दमकने के लिए दौलत, ऐश्वर्य, बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ,सामाजिक  स्टेटस नहीं, बल्कि  उम्दा गुणों से भरपूर , बेहतरीन इंसान होना जरूरी होता है ।

इस कहानी संग्रह की हर कहानी का पात्र  गूदड़ में लाल की तरह है......चमचमाता हीरा सा है । क्षितिज पर  प्रतिदिन उगते  हुए सुनहरे सूरज की तरह है । इसलिए ही इसका शीर्षक कथ्य के तालमेल में रखा है ।

इस संग्रह ने  ख़मोशी से, आशा के विपरीत जो सम्मान पाया है, उसने मुझे अवश्य चकित किया ।

इसे "महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी, मुम्बई" का  "प्रेमचन्द कथा सम्मान" भोपाल का " तुलसी  साहित्य अकादमी सम्मान", कोलकाता का "रवीन्द्रनाथ ठाकुर सम्मान" मिला । साथ ही, इसका "अमेरिकन लाइब्रेरी, नई दिल्ली" के  पैनल द्वारा, उस  बरसों पुराने पुस्तकालय के लिए चयनित होना, एक सुखद आश्चर्य की तरह सामने आया । इसका शायद  मुझे पता भी न चलता । लेकिन एक दिन जब मेरे पास अचानक फ़ोन आया और मुझसे मेरे पिता का नाम पूछा गया, क्योंकि  उन्हें कैटेलॉग में मेरे नाम के आगे पहचान रूप में पिता का नाम लिखना था, जिससे  भविष्य में अन्य दीप्तियों में मेरा नाम मिल न जाए और मुझे आसानी से  ढूँढा  जा सके ।  उनके पूछने पर जब मैंने जानना चाहा कि पिता का नाम किसलिए, तब मुझे कहानी-संग्रह के चयनित होने की बात पता चली, तो ज़ाहिर गदगद तो महसूस होना ही था ।

 सन्दीप तोमर: लेखन के मूल में जो चीजें जोडनी होती हैं, माना जाता है कि लेखक उन्हें लिखना भी नहीं चाहता। कई बार या यूँ कहूँ कि अधिकांश रचना वह नहीं होती जो उसका असल होता है। रचनाकार को अपने तमाम बेशकीमती अनुभवों से चुनाव करके उन पर लिखना होता है। आपकी नजर में वो बेशकीमती अनुभव क्या होते हैं?

दीप्ति गुप्ता:  सन्दीप जी, लेखन में  साहित्यकार का  ख़ुद का  दृष्टिकोणउसकी  सोच और  सम्वेदनाउसके अपने  मूल्य, सँस्कार आदिउसकी रचना के पात्रों, उनके विचारों  व व्यक्तित्व  में  प्रतिबिम्बित  होते हैं । लेकिन हर बार, उसके पात्र , सिर्फ़ उसकी  ही सोच और नज़रिए को प्रतिबिम्बित करें, यह  भी ज़रूरी नहीं ।  क्योंकि लेखक अपने पात्रों से , अपने आसपास के लोगों, उनके विचारों, उनके गुणों-अवगुणों, उनके व्यक्तित्व  के स्याह  और सफ़ेद  पक्षों को भी प्रस्तुत करता है । कई  बार एक पात्र, असल ज़िन्दग़ी  के अनेक पात्रों  के चरित्र का सम्मिश्रण  होता है । तो यह  कथानक की माँग के मुताबिक सृजित होता है ।

मेरा सोचना  है कि  लेखक के अपने  सभी अनुभव बेशक़ीमती, इस अर्थ में होते हैं कि वे उसे कोई न कोई सीख देते हैं, परिपक्व बनाते हैं, उसकी सोच और व्यक्तित्व का विस्तार कर, उसमें  नए  आयाम जोड़ते हैं, जिनका  वह  अपनी विविध कृतियों  के सृजन में  रचनात्मक  एवं  रोचक सदुपयोग करता है ।

उसके अनुभव सदा  अच्छे और सुखद नहीं होते, वे बुरे और दुखद भी होते हैं, धोखे, दर्द और पीड़ा से भरे हुए भी होते हैं ।  पर, वह उनमें  डूबने के बजाय, उनसे उबर कर, उन्हें  जीवन के मार्गदर्शक कड़ुवे  सबक के रूप  में सम्हाल कर रखता है  तथा अपने पात्रों के माध्यम से उन खट्टे - मीठे अनुभवों को  वह  समाज  तक पहुँचाता है समाज  को  सचेत करता है और  सही दिशा देता है ।


सन्दीप तोमर: भाषा की बात हुई तो क्यों न कहानी और कविता की भाषा के सन्दर्भ में बात कर ली जाए, इधर जो  रचनाएँ आ रही हैं, उनमें से अधिकांश में भाषागत अनुशासन का अभाव दिखाई देता है।

दीप्ति गुप्ता: सन्दीप जी, मैंने पहले भी, भाषा से जुड़े आपके एक सवाल के सन्दर्भ में कहा  और वो ही यहाँ भी दोहराना चाहूँगी कि  चाहे आप कविता और कहानी के सन्दर्भ में   या उनसे  परे , भाषा  मेंअनुशासन के अभाव के बारे में हैरान होकर सवाल करें, इन सब सवालों का एक ही जवाब है कि इस बेतरतीब युग में "अनुशासन"  हर  क्षेत्र में, हर क्षितिज पर  ग़ायब है । जीवन शैली, रिश्ते-नातों, शिक्षा-दीक्षा, कहीं भी पहले जैसा  अनुशासन या  तनिक सी भी 'व्यवस्थादिखाई नहीं पड़ती । तो ज़ाहिर है कि  भाषा भी उससे अछूती कैसे रहेगी ? पहले  कहानी, उपन्यास, कविता आदि सभी विधाएँसाहित्य के मनीषियों द्वारा  निर्धारित तत्वों के अनुशासन में   ढली होती थीं । उनमें  से एक तत्व "भाषा-शैली" भी होता था ।

इक्कीसवीं सदी ने  सभी पर अपना असर डाला, अनुशासन को निगला और सब  पर बेतरतीबी  के निशान  छोड़े ।

बेतरतीबी  का आलम यह है कि  अब तो मौसम भी अनुशासन को तज कर, मनमौजी के तरह आते-जाते हैं । सर्दी में   बारिशतो बसन्त पर पतझड़ हावी रहता है ।बरसात का मौसम  सूखा निकल जाता है । इसी तरह  पहनावे बेतरतीब, उनके डिज़ाइन बेतरतीब, कटी-फटी जींस पहनना, ऊपर के आधुनिक परिधान में  एक बाँह छोटी तो एक बड़ी, एक कंधे से  खिसकी हुई, तो दूसरी तिरछी होकर कंधे के ऊपर चढ़ी हुई । सब उलट-पलट । उसी  तरह  भाषा  भी उलट-पलट । बिखरी हुई, सही मात्रा, स्वर और व्यंजनों से परे, एक यायावरी रूप में ढली हुई, बेअसर, बेरस, बेनूर भाषा, आज के युग की देन  है, आज के युग की प्रतीक है ।

 सन्दीप तोमर: जब आप कहते हैं कि पत्रिकाओं के सम्पादक भाषिक रूप से संपन्न नहीं हैं तब आपकी उनके प्रति नाराजगी के कुछ सकारात्मक परिणाम परिलक्षित होते हैं?

दीप्ति गुप्ता :  देखिएदूसरों को  लेकर, मैं अपनी सीमाएँ  ख़ूब जानती हूँ । पर, साथ ही अपनी  भाषा के हित में बेबाकी से बोलने से भी नहीं कतराती । 

 वैसे, सामान्यतया, सम्पादक भाषा व साहित्य के अच्छे ज्ञाता होते हैं।  लेकिन कुछ  इक्का-दुक्का  अपवाद भी ऐसे  सम्पादको  के रूप में सामने आते हैं, जिनका भाषा ज्ञान इतना शर्मनाक होता है  कि देख कर हैरानी होती है ।   मैं ताज्जुब करती हूँ कि एक वाक्य में 4 -5 ग़लतियाँ करने वालेऐसे लोग सम्पादक बन कैसे जाते हैं

पहले तो मुझे उन्हे टोकते हुए संकोच होता है कि उनके स्वाभिमान को ठेस न लगे । लेकिन जब वे लगातार  अपने शून्य  भाषा  ज्ञान  के  चलते, हिन्दी के सम्मान पर प्रहार किए जाते हैं, उसका रूप बिगाड़े जाते हैं, तो उनकी भाषा सम्बन्धी अशुद्धियों पर  सख़्ती से  आपत्ति जताने को मैं अपना फ़र्ज़ समझती हूँ ।  और  वस्तुत:, मेरी विनम्रता सै कही गई बात को न सुनने पर, फिर मैं कड़ाई का रुख़ अपनाती हूँ ,जिसके पीछे  भाषा और सम्पादक, दोनों  में निखार लाना मेरा ध्येय होता है । ऐसे में, समझदार सम्पादक तो समझ जाते हैं पर, ठीट  सम्पादक, भाषा के साथ खिलवाड़ किए  चले जाते हैं । उनको मुझे  मजबूरन तेवर दिखाने पड़ते हैं और फटकारना पड़ता है ।  सीखने की कोई उम्र नहीं होती , बशर्ते कि  व्यक्ति में सीखने का जज़्बा  होना चाहिए ।जिनमें  न जज़्बा होता है,   अपनी कमियों को समझने और दूर करने की  सम्वेदनशीलता होती है, ऐसों को पत्रिका के मालिक ही अक्सर बाहर का  रास्ता दिखा देते हैं । पत्रिका और भाषा के हित में ये सकारात्मक परिणाम ही हुआ ।

 सन्दीप तोमर: चलते चलते कुछ एक और सवाल- नारीवादी लेखन के संदर्भ पर, “लिखने की आज़ादीऔर आजाद ख्याल लेखनपर आपकी प्रतिक्रिया?

दीप्ति गुप्ता : "लिखने की आज़ादी"  और "आज़ाद ख़्याल लेखन", दो  विपरीत  स्तम्भ  हैं ।

बीते ज़माने में  क़लमकारों को, वो भी विशेषरूप से महिला क़लमकारों को  सही और जायज़ बात लिखने की  आज़ादी नहीं होती थी । उस काल में नारी की दयनीय दशा, उसका दबा-ढका अस्तित्व,उससे  हर बात को सह जाने  की अपेक्षा - के बारे में यदि कोई  खुल कर लिखना चाहे तो उसे बहुत सोचना पड़ता था, हिम्मत जुटानी पड़ती थी । लिख ने पर आलोचना भरपूर होती थी जैसे कि उसने कोई  अपराध किया हो । या नारी को बिगड़ने  की दिशा दिखा दी हो । तो  सही मुद्दों को लेकर  विचारशील, सही  सुझाव देना, जीर्ण-शर्ण मान्यताओं को  समाप्त कर, सकरात्मक  परिवर्तनों को प्रतिपादित करनाये सब  

"लिखने की आज़ादी"  के केन्द्र में होता है ।

इसके विपरीत  "आज़ाद ख़्याल लेखन"  में  अच्छे की कम और बुरे की सम्भावनाएँ अधिक होती है।  क्योंकि कुछ लोग "आज़ादी" का  मतलब "अराजक" और "उदण्ड"   होना लगा लेते हैं । आज़ाद ख़्याल  लेखन अच्छा भी हो सकता है । जैसे पुराने रूढ़ीग्रस्त ज़माने में विधवाओं के पुनर्विविवाह के पक्ष में  आवाज़ उठाना । लेकिन कोई नारी के परपुरुषगामी  और पुरुष के  परनारीगामी  होने को सहज  गतिविधि बताएऔर इस  बात की अपने लेखन  के माध्यम से  तरह-तरह से पैरवी करने लगे - तो इस तरह का लेखन समाज की सभ्यता और सँस्कृति पर चोट करता  है  और  नकारात्मक लेखन की कोटी में  आएगा ।

वैसे इन दोनो तरह के लेखन की उदात्तता  और अनुदात्तता क़लमकार की  समझदारी पर भी बहुत निर्भर  करती  है ।

 सन्दीप तोमर:  आपको सबसे अधिक सुख या दुःख की अनुभूति कब होती है?

दीप्ति गुप्ता: सबसे अधिक सुख की अनुभूति अपने सृजन यानी  अपने बच्चों और  लेखन के साथ होने पर और दुखानुभूति इनसे  दूर होने पर होती है 

किसी रचना (उपन्यास,कहानी, कविता ,सँस्मरण आदि) का सृजन  बच्चे के जन्म की तरह ही  उल्लसित  करने वाला होता है ।

यदि लेखन से मुझे कभी -कभार बीमार होने पर या किन्ही सामाजिक व पारिवारिक गतिविधियों  की वज़ह से  विरत होना पड़ जाता है, तो मैं उदास और विचलित सा महसूस करने लगती हूँ  ।और लम्बा खि़चने पर बहुत दुख व खालीपन से भर जाती  हूँ ।

मतलब कि बच्चों और लेखन में मेरे प्राण बसते हैं ।

संदीप तोमर : यदि आप लेखन से नहीं जुडती तो क्या विकल्प होता?

दीप्ति गुप्ता: मैं ग़र लेखन से न जुड़ती, तो  तूलिका और  रंगों से  जुड़ गई होती । कला  के बीज मेरे अन्दर जन्मजात  हैं । मैं हस्तकला, शिल्पकला  में भी विविध प्रयोग करती रहती हूँ । मेरे घर में  मेरी बनाई हुई, बड़ी-बड़ी पेंटिग्स लगी हुई है ।  एक-आध   बार, यूँ ही, शौकियाअपने बने तैलीय  और वाटर कलर चित्रों की प्रदर्शनी  भी कर चुकी हूँ ।

 मेरे द्वारा बनाया हुआ, कुछ हस्तकला का समान भी कमरो में सजा हुआ है ।

सन्दीप तोमर : और क्या लिखने की इच्छा है, जो अभी तक नहीं लिखा गया?

दीप्ति गुप्ता : मेरा मानना है कि  अभी तक मैंने शून्य बराबर लिखा है । बहुत कुछ लिखना बाकी है । मुख्यरूप से मैं कथाकार हूँ । यूँ  कविताएँ  भी लिखी हैं और लिखती  रहती हूँ । पर, मूलत: मैं कहानीकार ही हूँ । उसमें मेरा मन अधिक  रमता  है ।

 संदीप तोमर : नवलेखन के लिए आपकी राय?

दीप्ति गुप्ता: वैसे तो मैं किसी को राय देना पसन्द नही करती । हाँ सुझाव, ज़रूर शुभचिन्तक की तरह देती हूँ, वो भी दूसरे के पूछने पर ।

नवलेखन  के लिए मेरा एक ही सुझाव व सन्देश है कि  वह  सच्चा, खरा और  ध्येय युक्त हो । समाज और  मानव-जीवन का हित करनेवाला हो, रचनात्मक सन्देश देने वाला हो । विध्वंसकारी  और  लक्ष्यरहित लेखन  जल्द ही अपना अस्तित्व खो देता है । वह पाठको द्वारा भुला दिया जाता है। 

सन्दीप तोमर: एक सवाल मजाकिया लहजे में-सन्दीप तोमर के लिए दो शब्द?"

दीप्ति गुप्ता : सन्दीप जी, कम समय में जितना भी आपको समझ पाई हेँ, वह ये कि आप एक बहुत सवेदनशील, कर्मठ  और जुझारू  इंसान हैं । आप की तमाम पोस्ट पढ़कर  मैंने पाया कि आप  मानवीय, सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक सभी मुद्दों  पर सम्वेदनशीलता से मंथन और चिन्तन करते हैं और समस्याओ  के  निदान भी  देने की अनूठी सामर्थ्य रखते हैं ।  मैंने  ऐसे  व्यक्ति  सहज ही साहित्य की ओर  मुड़ते देखें हैं और  जिस दिन में जाना  कि आप साहित्य जगत का  सक्रिय हिस्सा हैतो यह देख कर, मुझे  अपने अनुमान पर फ़क्र  हुआ था ।  

आप जैसे  सच्चे - अच्छे लोगो की साहित्य को बहुत ज़रूरत है । आप साहित्य से कभी भी उदासीन मत होइएगा । आप में  वे  अपेक्षित  चिंगारियाँ हैं जो साहित्यकार  की क़लम को जीवित रखने के लिए जरूरी होती हैं । कहने की ज़रूरत नहीं  सुबोध, प्राञ्जल भाषा तो आपके पास है ही । 

आपके लिए  दिल से शुभकामनाएँ और दुआएँ है कि आप अपनी  खरी शख़्सियत और खरी  क़लम  के बल पर,   समाज की एक सक्रिय इकाई बने और भरपूर  प्रतिष्ठा   प्राप्त करते हुएअभीष्ट सपनों को साकार  करें ।

 

 

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