Saturday, 10 April 2021

“आखिरी सम्मान” लेखक - अखिलेश द्विवेदी , समीक्षक - संदीप तोमर

 

“आखिरी सम्मान” के सम्मान में कुछ शब्द


संदीप तोमर

 

आज जब हिंदी में साहित्य का अर्थ निरपवाद रूप से सॉर्टकट तरीके से सिर्फ सुर्खियाँ पाना रह गया हो, कहानी, कविता, लघुकथा और बहुत हुआ तो उपन्यास रचना में जब क्वालिटी के नाम पर सिर्फ खुद के पैसे से छपने की इच्छा मात्र हो तब अखिलेश सरीखे लोगो का संघर्ष समझ में आता है। प्रकाशकों का रवैया देख स्वयं मैदान में उतरते हैं और नवोदित लोगो को छपने का बीड़ा उठाते हैं। साथ ही उठाते हैं लेखनी, अखिलेश अब तक कुल जमा ६ कहानी संकलन, ५ उपन्यास, १ काव्य संग्रह, के साथएक संस्मरण और आत्मकथा का एक पार्ट लिख चुके हैं, संभवतः आत्मकथा की भी सीरिज देखने को मिलेगी। उनकी लिखने की गति देख अक्सर मैं भयभीत हो जाता हूँ। और अक्सर उन्हें छेड़ता भी हूँ कि इस गति को थोडा धीमा करों भाई, आप ही छपते रहे तो बाकी आपके समकालीन बहुत पीछे छूट जायेंगे। अखिलेश द्विवेदी उर्फ़ पंडित जी की यूँ तो लगभग सारी पुस्तकें पढने वाला शायद मैं पहला व्यक्ति हूँ, आप सोच सकते हैं मेरी स्थिति क्या होगी? उनकी धर्मपत्नी के उन्हें न पढ़ पाने की वजह हो सकती है, लेकिन मेरी ऐसी कोई वजह नहीं है।

उनकी एक साथ लगभग पांच किताबों का प्रकाशन हुआ, ये किताबें इतना संतोष जरूर देती है कि हिंदी साहित्य के इस बासी से हो रहे माहौल में भी कुछ नया व ताज़ा करने की कोशिश पूरी तरह से मरी नहीं है। मैं चर्चा करूँगा उनके कहानी संग्रह “आखिरी सम्मान” पर हालाकि मेरा मानना है कि दुनिया में अंतिम कुछ भी नहीं है, तो ये किताब न तो पूरी तरह से कोई कहानी है, न ही संस्मरण मात्र इस सग्रह में कुल ८ रचनाएँ या कह सकते हैं कहानियां हैं जो औपन्यासिक शैली में लिखी गयी हैं, जिन्हें पढ़कर संस्मरणात्मक लघु उपन्यासिका पढने का आनंद प्राप्त होता है। इसकी रचावट-बनावट कुछ यूं है कि इसमे संस्मरण भी है और कहानी भी है और व्यंग्य भी है। यूं कह सकते हैं कि अखिलेश ने निजी अनुभवों को समाज की प्रयोगशाला में मांझ-रगड़ कर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।

कोई भी रचनाकार रचना अपनी दृष्टि से करता है और पाठक उसे अपनी दृष्टि से समझता है, दोनों की दृष्टि एक भी हो सकती है और अलग भी, लेकिन अखिलेश इस समस्या को ही समाप्त कर देते है, यानी कि आखिरी सम्मान को किस कारण से और किस भाव व मनोस्थिति में लिखा गया है, ये पूरी तरह से इसे पढ़कर स्पष्ट हो जाता है। पुस्तक का जो गद्य है, उसे संस्मरण और डायरी जैसी श्रेणियों में रखा जा सकता है। बाकी तो किस्सागोई के मास्टर तो हैं ही अखिलेश जी।

जीवन की आपा-धापी से कुछ समय मिलने पर लेखक को लेखन की अन्तःप्रेरणा उत्पन्न होती है, और वो इंसानियत से लबरेज हो रिश्तो के ताने-बाने को एक सूत्र में पिरो अपनी कहानियों  की रचना करते हैं। उनके पात्र भी ऐसे हैं जो आपके सबके आसपास, कभी सडक पर चलते हुए, कभी बस में कभी रेड लाइट पर मिल जायेंगे। अखिलेश उनके नाम के साथ भी कोई छेड़छाड़ नहीं करते, आकाश, अश्वनी, अलीहसन कल्लू रिक्शेवाला, परवीन, मन्नू, अशर्फी ऐसे ही कुछ पात्र हैं।  

आखिरी सम्मान इस संग्रह की पहली और प्रतिनिधि कहानी है, जिसमें अखिलेश ने अलीहसन की गरीबी के चलते उसकी मुसीबतों को उजागर करने का प्रयास किया है, पैसे के अभाव में छोटी बच्ची की मौत के बाद उसे पार्क में दफनाने को मजबूर होना पड़ता है, कब्रिस्तान भी तो पैसे से ही दफनाने की इजाजत देते हैं, यहाँ लेखक अनायास ही पुलिस की प्रताड़ना का वर्णन करता है। अखिलेश की अधिकांश रचनाओं में पुलिस, जमीन माफिया इत्यादि का जिक्र होता है, इसका एक बड़ा कारण उनका अनधिकृत कालोनी में प्रवास और समाजसेवा भी है, अनधिकृत उनका एक उपन्यास भी है, जिसमें इसी तरह की समस्यों को उन्होंने उठाया है। “छोटा हाथी” रचना में भी ट्रेक्टर से किसी लड़के की मौत के बाद उन्होंने पुलिसिया रवैये को दर्शाया है। उनकी कथाओं में मौत के दृश्य भी अक्सर देखने को मिलते हैं, उनकी पुस्तक चिरंजीवी में भी आप इस बात को नोट करेंगे। “भोकाल” एक ठीकठाक कहानी है। मुखबिर, 2542 और संतुष्टि कहानियां भी औपन्यासिक शैली में लिखी गयी हैं। २५४२ को पढ़कर लगता है कि यहाँ लेखक का स्वयं कथा में प्रवेश होता है और लेखक अंत तक कथा में बना रहता है। हरएक रचना की विस्तृत व्याख्या करूँगा तो समय कम पड़ जायेगा।.......इसलिए थोड़े में निपटाने का प्रयास करता हूँ......

 अखिलेश की कहानियों की एक विशेषता है इनकी पठनीयता...कथा-विन्यास ऐसा कि पाठक की जिज्ञासा कम नहीं होती.. भाषा-शैली की बात करूँ तो अखिलेश की भाषा काफी अनूठी है, जिसमें  वे बातचीत के अंदाज में अपनी बातें कहते जाते हैं। अखिलेश ने यहाँ शब्दों के प्रयोग में बहुत अधिक सावधानी नहीं बरती है और उन्हें बहुत अधिक सावधान होने की आवश्यकता भी नहीं है। वे बहुत अधिक भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग नहीं करते हैं जिन भारी भरकम शब्दों का पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में उपलब्ध है, उन्ही का इस्तमाल वो करते हैं। हाँ मुहावरों का प्रयोग उनके लेखन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है जो आजकल बहुत कम देखने को मिलता है। लेखन के कला-पक्ष से वे पुर्णतः परिचित हैं, इसमे अधिक मेहनत की आवश्यकता उन्हें नहीं है। उन्होंने अपनी कहानियों को ठीकठाक अंदाज में बयाँ किया है।

बहरहाल, कुल मिलाकर ये कह सकते हैं कि “आखिरी सम्मान” की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये अपनी बनावट (डिजाईन) में विविधता लिए है एकदम अलग और अनूठी पुस्तक है इसके लेखक की ही तरह। और हमें यह मानना होगा कि आखिरी सम्मान ने अपने आप में हिंदी साहित्य को विधागत स्तर पर और समृद्ध करने का ही काम किया है। कहानी विधा को पसंद करने वालो को पुस्तक निराश नहीं करेगी ऐसा मुझे लगता है। और चूंकि, अखिलेश  शहरी और ग्रामीण परिवेश दोनों की समझ रखते हैं, इसलिए उनके अनुभवों से भरा ये संग्रह कहीं न कहीं शहर में आये ग्रामीण लोगो के अनुभवों का प्रतिनिधित्व करने की भी विशेष क्षमता रखता हैं।

संभव है कि अखिलेश की इन पुस्तकों, रचनाओं से कहानी-उपन्यास-व्यंग्य में डूबे हिंदी साहित्य के समकालीन सूरमाओं को भी कुछ नया रचने की प्रेरणा मिले और वे समझें कि अभी बहुत कुछ है, जिसे रचकर हिंदी साहित्य को न केवल कथ्य के, बल्कि कला और शिल्प के स्तर पर भी और समृद्ध किया जा सकता है। आखिर में, इन सुन्दर व सार्थक रचनाओ के लिए अखिलेश को ढेरों बधाइयां.!

 

 

संदीप तोमर

4 comments:

  1. बहुत सुंदर समीक्षा। इनकी तीन किताबें तो मैंने भी पढ़ी हैं।

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    1. पंद्रह पढ़ने वाले पर क्या बीती होगी नितीश ?

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  2. बहुत सुंदर समीक्षा......हइस समीक्षा के बाद तो इन्हें पढ़ना ही है।

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