Monday, 12 April 2021

एक अपाहिज की डायरी -आत्मकथा , भाग -६

 

आत्मकथा 


छठा भाग 

मेरी गिनती मौहल्ले के बच्चो में हीरो की तरह होती थी, वहीँ स्कूल में गुरुओं की नजरों का तारा बन रहा था। हालाकि पढाई में मन नहीं लगता, जितना स्कूल में पढ़ा दिया उतना याद हो गया। लिखने में एक नम्बर का आलसी। कापियाँ कभी पूरी नहीं रहती लेकिन कोई टेस्ट हो या एग्जाम नम्बर फुल आते। गणित के सवाल चुटकियों में निकाल देता।

गॉव में पड़ोस में ही एक मिडिल क्लास पास मास्टरजी थे जो अब मिडिल स्कूल के हेड मास्टर हुआ करते थे नाम था-रामानन्द। लोग इन्हें ‘रामे मास्टर’ कहा करते। पिताजी ने उनके पास ट्यूशन पढने के लिए भेजना शुरू कर दिया। सुबह ५ बजे उठकर मुँह धो बिना कुछ खाए ट्यूशन जाना। रामे मास्टरजी गणित और अंग्रेजी पढ़ाते। महेश के साथ-साथ पम्मी भी ट्यूशन आता। पम्मी से दोस्ती हो गयी, महेश से बोलचाल बन्द थी तो पम्मी से नजदीकी बढ़ना स्वाभाविक भी था। मास्टरजी ने बाबा-आदम के ज़माने के नोट्स बनाकर रखें हुए थे। अंग्रेजी ग्रामार के नियम बारीक-बारीक निब के पेन से लिखकर रखे हुए थे। पन्ने तार-तार, अगर गलती से दो पन्ने एक साथ जुड़े हुए हो तो फिर उन्हें फटने से कोई नहीं रोक सकता था। बीजगणित के सवाल मास्टरजी को बिलकुल भी नहीं आते जब जो सवाल पूछो बस नोट्स में लिखे सवाल का उत्तर निकालकर दे देते और हम तीनो ही लड़के उसे अपनी कॉपी पर उतार लेते। यूँ ट्यूशन पढाकर रामानन्द महीने के ३० रूपये प्रति छात्र धन की उघाई करते। ये बात अलग थी कि उनके तीन बेटो में से मात्र एक ही पढ़ पाया था। लोग ये भी कहते कि मास्टरजी स्कूल की स्टेशनी बेचकर भी घर के खर्चे चलाते है और ट्यूशन भी पढ़ाते हैं। जब तक हम सब बाबा-आदम के नोट्स से उतारते तब तक मास्टरजी नहा-धोकर स्कूल के लिए तैयार हो जाते, और चाय-नास्ता उनके सामने आ जाता।

मास्टरजी को भले ही अंग्रेजी न आती हो लेकिन उनके बनाये नोट्स से मेरी ग्रामर पर बड़ी पकड हो रही थी, जो ट्यूशन से कॉपी में नोट करता उसे अपने स्कूल के बच्चो को बता-बता कर शेखी बघारता।

ट्यूशन जाते वक़्त घर से निकलते ही एक मुस्लिम बुढ़िया के दर्शन होते, जिसका नाम किसी को याद भी होगा या नहीं, नहीं मालूम लेकिन सब उसे मकडन के नाम से जानते थे। एक धारणा गॉव भर में प्रचलित थी कि मकडन के अगर दर्शन हो जाएँ तो बनते काम भी बिगड़ जाए। ये बात क्यों और कब प्रचारित हुई ये कोई नहीं जानता लेकिन जो भी उसे देखता मन ही मन बुदबुदाता-‘हो गए मकडन के दर्शन आज जरुर कुछ अनहोनी होगी। ‘ऐसा कह लोग साइड में मुँह करके थूकते। ये बात सब माएँ अपने बच्चों को भी सिखाती कि वो बुढ़िया दिख जाए तो या तो थूक दो या फिर सिर में दाई तरफ खुजला लो। ऐसा करने से अपशगुन नहीं होता, वर्ना तो कुछ न कुछ नुकशान होना पक्का है। ट्यूशन जाते वक़्त सुबह मकडन अपने घर के बाहर बुहार रही होती, एक बारगी मेरी त्योरियाँ भी चढती फिर मैं मन्द-मन्द मुस्कुराता और दादी राम-राम कह आगे बढ़ जाता। बुढ़िया आशीर्वाद में कहती- राम-राम, बेटा जीता रह। खूब पढ़।“

मैं सोचता-“लोग कैसी-कैसी बातें करते हैं, इस बुढ़िया के बारे में और ये कितने आशीष देती है, मुस्लिम होकर भी राम का नाम लेती है।“

उस समय भले ही डायन प्रथा के बारे में न जानता हो लेकिन शायद ये प्रथा डायन प्रथा जैसी ही कुछ थी, जहाँ विधवा औरत को अपशगुन के तौर पर देखा जाता है और मुस्लिम समाज में इसका अधिक बोलबाला था। मुझे कभी नहीं लगा कि विधवा बुढ़िया से कभी कोई नुकशान हुआ है।

नीलू को क्रिकेट और काही-पत्ता खेलने का बड़ा शौक था। काही-पत्ता खेलने में बच्चे पेड़ो पर चढ़ते, एक डाल से दूसरी दाल पर जाते। उसमें पेड़ के पत्ते तोड़कर किसी एक में छेद करके ऊपर नीचे कई पत्ते रखे जाते। फिर एक-एक करके बच्चे एक-एक पत्ता खीचते, जिस पर भी छेद वाला पत्ता आता, वह खेल में चोर होता, अब उसे पैर के नीचे से एक डंडा फेंकना होता। और बच्चे सब इधर-उधर भागते, उसे डंडे को पैर के नीचे से फेंककर बाकी बच्चो के पीछे भागना होता। और डंडे को छूने से बचाना होता। नीलू खेलते हुए भूल जाता कि पिताजी घर पर होंगे और मार पड़ेगी। वह कई तरह के टोटके सीख गया था। जैसे कन्ना अँगुली के बराबर तिनका तोड़कर जेब में सीधा खड़ा करके रखना, किसी घर के पिछवाड़े पत्थर पर थूककर दूसरा पत्थर रखना। वह कहता कि देख सुदीप, पत्थर वाले टोटके में एक बात का ध्यान रखना होता है कि कोई देख न ले अगर किसी ने देख लिया तो टोटका काम नहीं करेगा। और अगर कन्ना अँगुली के बराबर वाला तिनका जेब में सीधा खड़ा नहीं रहा और गिर गया तो गए काम से, फिर मार ज्यादा भी पड़ सकती है। और भी कई टोटके थे जो नीलू मुझसे शेयर नहीं करता। मैं पूछता तो उसका जबाब होता- “देख सुदीप- कभी ऐसा हुआ कि मेरे टोटके ने काम नहीं किया और मेरी पिटाई हो जाए तो फिर तेरा टोटका भी फेल हो और तू भी मार खाए।“

अजीब तर्क था एक के पिटने पर दूसरे को भी पिटना चाहिए। नीलू बात को बढ़ा-चढ़ा कर सुनाता। एकदम रोमांच पैदा करके। मुझे लगता काश- मैं पैरो से ठीक होता तो मैं भी काही-पत्ता खेलता। वो लोग अक्सर बल्लू के पेड़ के नीचे खेलते, धीरे-धीरे घुटने पर हाथ रखकर चलने वाला मैं यानि सुदीप सोचता काश मैं भी बल्लू के पेड़ के नीचे तक जा पाता। काही-पत्ता खेलना मेरे लिए दिवास्वपन जैसा हो गया। शुरू-शुरू में गुल्ली-डंडा भी नहीं खेल पाता, फिर उल्टे हाथ से खेलने का अभ्यास किया। कुछ ही दिनों में गुल्ली-डंडे का चैम्पियन हो गया। अब बच्चो के साथ मैच लगाता और जीत जाता, बच्चे मेरे साथ खेलने और मैच लगाने से डरने लगे, जब भी खेलता दो-चार गुल्ली खो देता इतनी जोर से डंडे मारता कि गुल्ली किसी के भी घर में जा गिरती और फिर वापिस नहीं मिलती। कंचे खेलने में भी माहिर। लम्बे हाथ, बड़ी-बड़ी अंगुलियाँ, पिल-चोट हो या गिट-नाप बच्चे उससे जीत न पाते। मेरी अनोखी तकनीक से वो हार जाते। गुल्ली और कंचो का ‘मेजर ध्यानचन्द’ बन गया था मैं।

घर में डांट पड़ती कि क्यों स्कूल से आते ही खेलने निकल जाते हो, घर पर पढ़ते नहीं। माँ को तो कह देता- आपको पढने से मतलब या नम्बर लाने से, देखती नहीं हो अव्वल आता हूँ अपनी क्लास में, माँ कहती- हाँ, बना रह अन्धो में काना सरदार।

गरमी के दिनों में जब स्कूल सात बजे से बारह बजे का होता तो घर में सब लोग पिताजी के घर आने के बाद खाना खाते, तब तक सब स्कूल से आ जाते। वो स्कूल से आते हुए मुझे लेकर आते, मेरे कुछ दोस्त थे जो बस्ता लेकर बाहर सडक तक ले आते, फिर बस्ता देकर चले जाते। मैं पिताजी के आने का इन्तजार करता रहता। जब कभी हरिप्रसाद यानि पिताजी को स्कूल के काम से कहीं जाना पड़ जाता या कहीं मीटिंग होती तो भरी गरमी में पेड़ की छाया में खड़ा इंतज़ार करता, कई बार भूख सता रही होती।

कहते हैं कि जीवन में कष्ट तो भोगने ही पड़ते हैं, मैं भी अलग-अलग मोर्चो पर कष्ट ही तो भोग रहा था। कई बार गॉव का कोई व्यक्ति साईकिल से आता दिखाई दे जाता तो साईकिल पर बैठा लेता, तब घर पहुँचता लेकिन मेरे लिए भारी बस्ता पीठ पर लादकर लाना भी अनाज की बोरी जैसा लगता।

पड़ोस के ही गॉव का एक लड़का था- ‘प्रभाष’, जो साईकिल से स्कूल आता था- कई बार वह कहता-चल सुदीप मेरी साईकिल पर बैठ। तुझे तेरे गॉव की सड़क तक छोड़कर मैं अपने गॉंव चला जाऊँगा। मैं उसकी साईकिल पर बैठ जाता लेकिन आगे की ४०० मीटर की दूरी मेरे लिए तय करना मुश्किल होता। एक बड़ी समस्या थी, चप्पल न पहन पाना, सर्दी में तो लखानी के जूते के फीते कसकर काम चल जाता लेकिन गरमी में नंगे पैर स्कूल जाना। तपती सडक, गर्म ईंटें, कैसे चलता, हर जगह छाया ही हो ऐसी किसकी किस्मत हो सकती है, दो साल कष्ट के साथ पैर तपकर लोहे जैसे होने लगे और साथ ही हृदय भी। पिताजी एक दिन साईकिल पर बैठा जूते-चप्पल की दुकान पर ले गए और दुकानदार से बोले-“बड़े मियाँ इस बच्चे के लिए कुछ ऐसा उपाय बताओ जो ये चप्पल इत्यादि पहन कर चल सके, छोटे-बड़े पंजे होने के चलते ये चप्पल पहन नहीं पाता और दायें पैर में इतनी कमजोरी है कि चप्पल पैर में टिकती ही नही।”

बड़े मिया भी सोच में पड़ गए, फिर बोले-“मास्टरजी, आप इसे सैंडल क्यों नहीं दिलवा देते, पीछे की पट्टी वाले सैडल में मैं पट्टी में छेद कर देता हूँ, कस जायेगा तो पैर से निकलेगा नहीं।“

सुझाव पसन्द आया और मुझे सैंडल खरीदवा दिए गए। घर आकर पिताजी ने सैंडल पहनाये लेकिन मैं चल नहीं पाया। पहनकर चलता तो गिर पड़ता, फिर घुटने छिल जाते, कई दिनों तक दर्द होता। महीने से भी ज्यादा लगा- सैंडल पहनकर चलने की आदत पड़ने में।

ये बात किसी के लिए मामूली हो सकती है लेकिन मेरे लिए किसी पहाड़ चढ़ने से कम नहीं थी। ये एक बड़ी उपलब्धि जैसा था, गर्म सडक पर पैर जलने से निजात मिल गयी थी। मन ही मन पिताजी को धन्यवाद दिया। मैं बाहर चाहे कितना भी बोलता- घर में कम बोलता। पिताजी के सामने तो चारो ही बहन-भाइयों की ही ज्यादा बोलने की हिम्मत न होती थी।

पिताजी जब स्कूल से आते तो खाना खाकर सो जाते। उस समय चुपके से दरवाजा खोल बाहर निकल जाता- तब एक-एक कर दोस्त आते और फिर चौक में खेल जमता।

दोस्त, खेल और स्कूल अब ये ही जीने के साधन थे। कुशाग्र बुद्धि सुदीप यानि मैं जीवन के सपने बुनता रहता, सोचता रहता कि क्यों मेरे साथ ये सब हुआ? मैं ही पोलियों का शिकार क्यों हुआ? मैंने एक आदत का विकास कर लिया, मैं दूसरो को दिखाता कि मैं किसी चीज की परवाह नहीं करता लेकिन एकांत में खुद को बड़ा ही कमजोर पाता। इस कशमकश में मेधा का सम्पूर्ण विकास नहीं हो पा रहा था। वैसे भी सातवी क्लास में पढने वाले बच्चे से अभी किस मेधा की उम्मीद की जा सकती थी।

उस समय चम्पक, नंदन और डायमंड कोमिक्स का बच्चो में काफी क्रेज था। बच्चे आपस में एक-दूसरे से ले-लेकर इन पत्रिकाओं को पढ़ते थे। मैं भी इससे अछूता कैसे रहता, मुझे भी इन सबको पढने का चस्का लग गया। नीलू भी कोमिक्स पढता था, नीलू नवी क्लास में था, राजीव गाँधी प्रधानमंत्री थे, उन्होंने नई शिक्षा नीति लागू की थी उसमें नवी क्लास के लिए ‘सपुस्तक परीक्षा प्रणाली’ का प्रावधान था। नीलू पढाई में लापरवाह हो गया उसे लगा कि किताब खोलकर एग्जाम देने हैं तो फिर क्या ज्यादा पढना। वह कोर्स की किताब के बीच कोमिक्स रखकर पढता, घर में माँ सोचती पढ़ रहा है। मैंने नीलू से कहा-“नीलू भैया! मुझे भी कोमिक्स पढ़वा दो।“

नीलू ने मना कर दिया तो मैंने कहा-“ठीक है, भैया मत दो, माँ को खेत से आने दो फिर सब बताता हूँ।“

धमकी काम कर गयी तो नीलू को कहना पड़ा कि पहले वह पढ़ ले, फिर उसे भी पढवा देगा।

कोमिक्स और नंदन चम्पक पढ़ते-पढ़ते काल्पनिक कहानी दिमाग में बनाने लगा, कॉपी के पीछे जोड़-तोड़ करके शायरी करने की कोशिश करता, क्लास के दोस्तों को दिखाता तो दोस्त कहते इधर-उधर से उतारकर ज्यादा शेखी मत बघार। उन्ही दिनों एक अशोक नाम का लड़का सातवी क्लास में दाखिल हुआ। तुतलाकर बोलता था, सब उसकी मजाक बनाते तो मैं सोचता क्यों लोग किसी में कोई दोष होने पर उसकी नक़ल उतरने लगते हैं। मेरा मन आहत भी होता लेकिन किसी से कुछ कह नहीं पाता। अशोक बेहद गरीब परिवार का लड़का था, छुट्टी के बाद एक डॉ. की दुकान पर कम्पोड़र का काम करता था, वहाँ दैनिक जागरण के कोई पत्रकार आते थे। अशोक ने कहा-“सुदीप! तू कहानी लिख फिर मैं दोनों के नाम से छपवाता हूँ।“

मुझे लगा कि चलो अखबार में नाम आएगा लिखा जाए कुछ। मैंने ‘पेड़ का भूत’ कहानी लिखी। लगभग एक हफ्ते बाद अशोक स्कूल बैग में अखबार रखकर लाया, उसमे पेड़ का भूत कहानी छपी थी। लेकिन उस पर अशोक का नाम था। मुझे दुःख भी हुआ और ख़ुशी भी। दुःख इसलिए कि अशोक ने मेरे साथ धोखा किया, ख़ुशी इसलिए कि मेरी लिखी कहानी अखबार में छपी थी। अशोक सब दोस्तों को अखबार दिखा रहा था- देख मेरा नाम अखबार में छपा है। मेरा मन किया कि उसे दो जमा दू और सबको कहूँ कि ये कहानी मेरी है।

खट्टे मीठे अनुभवों में जिन्दगी गुजर रही थी। अब राजेन्द्र के अलावा, पम्मी, राजीव, कल्ले, भी दोस्त बन गए थे। राजीव चेहरे से आकर्षक और बातूनी था, लम्बी लम्बी फेंका करता जबकि स्कूल में उसके परिवार के निजी किससे इतने फैले हुए थे कि लड़के मजाक बनाते। कई लड़के राजीव की चुम्मी लेते रहते तो वो चिढ़ता था। बच्चे जानबूझ कर उसे छेड़ते। मुझे प्रेयर में न जाने की परमिशन मिली हुई थी। हाजिरी बिना प्रेयर में जाए ही लग जाती।

कल्ले और राजीव दोनों पढने में मेरे और राजेन्द्र जैसे नहीं थे, सब लड़के मुझे और राजेन्द्र को दोस्त बनाना चाहते क्योंकि हम दोनों ही सबसे होशियार थे। कल्ले यूँ तो अच्छा लड़का था लेकिन लड़कियों के किस्से ऐसे सुनाता जैसे वह किसी फिल्म का हीरो और लड़कियाँ उसका इन्तजार करती हैं, राजीव की आदते भी कुछ-कुछ ऐसी ही थी। कल्ले से किसी बात पर झगडा हुआ, मैंने गुस्से में उसे एक थप्पड़ मार दिया। दोनों में बोलचाल बन्द हो गयी।

अर्धवार्षिक परीक्षा शुरू हो चुकी थी। मेरी सीट चौथी पंक्ति में थी और कल्ले की तीसरी में, दोनों लगभग एक-दूसरे के सामने बैठे पेपर कर रहे थे, बीजगणित का पेपर था। मैंने ४० मिनट में पूरा पेपर हल कर लिया। जयंतीप्रसाद की ड्यूटी। मैंने देखा कल्ले की आँखों से आँसू बह रहे थे। इशारे से पूछा क्या हुआ? उसने बताया कि उसे पेपर में कुछ नहीं आता। मैंने इधर-उधर देखा सब अपने पेपर को करने में व्यस्त थे, जैसे ही जयंतीप्रसाद जी राउंड के लिए पीछे गए, कल्ले को अपनी एग्जाम सीट के कुछ पन्ने निकाल कर पकड़ा दिए, कल्ले ने बड़ी होशियारी से सवाल उतरने शुरू कर दिए, एक-एक कर एग्जाम सीट का आदान-प्रदान चलता रहा। जब कल्ले को तसल्ली हुई कि वह पास हो जायेगा तो ही मैंने सीट बाँधी और जमा की। एग्जाम ख़त्म हुआ तो कल्ले गले लगकर रोने लगा, बोला-“दोस्त हमारी बोलचाल भी बन्द थी, तूने फिर भी मुझे चीटिंग करायी, यार तुझे क्या नाम दूँ?”

“देख बे कल्ले हम यारो के यार हैं और दुश्मनों के दुश्मन, अगर तू फ़ैल हो गया तो फिर अगली क्लास में दुश्मनी कैसे चलेगी, इसलिए तेरा पास होना जरुरी है, मैंने तुझ पर कोई अहसान नहीं किया। और ये मत सोचना कि आज के बाद मैं तुझसे बोलने लगूंगा।“

किसी को कुछ समझ नहीं आया कि मैं क्या कह रहा था और क्या चाहता था। यूँ ही होते-होते वार्षिक परीक्षा भी ख़त्म हो गयी। सातवी में राजेन्द्र की प्रथम श्रेणी मिली और मैं दूसरे स्थान पर था। दोनों ने एक-दूसरे को बधाई दी। दोनों को ही नहीं लगा कि इस बार के रिजल्ट और पिछले साल के रिजल्ट में कोई फर्क है।

छुट्टियाँ हुई तो दोस्तों के बिना मन नहीं लगता लेकिन अपना चौक जिंदाबाद था। सारी छुट्टियाँ गली के दोस्तों के साथ¸ जो-जो छुट्टियों में मामा या बुआ के घर नहीं गए, वो सब चौकड़ी में शामिल होते। कीर-कांटा, आइस-पाईस खेलते। लड़कियों और औरतो के बारे में काल्पनिक अश्लील किस्से गढ़ते और चटकारे ले लेकर सुनाते। कभी चारपाई खड़ी कर घर बनाकर खेलते। अक्षरा भी हमउम्र थी, हमउम्र क्या एक क्लास आगे थी। अक्षरा मण्डली में कभी-कभी शामिल हो जाती। गॉव की सबसे खुबसूरत लड़की और शायद मॉडर्न भी। उस उम्र का हर लड़का उसका दीवाना था। हालाकि ये उम्र दीवानगी से बहुत छोटी थी लेकिन ये मण्डली का प्रभाव था या कुछ और हाँ बस मनघडंत किस्से जरुर होते रहते। पता नहीं क्या बात हुई कि अक्षरा का झुकाव मेरी ओर कुछ ज्यादा ही था।

समय बीता अक्षरा और उसकी सहेली रितिका ने विज्ञान संकाय में नौवी में दाखिला लिया। हालाकि रितिका पढने में होशियार थी लेकिन अक्षरा इतनी होशियार नहीं थी। नतीजा ये हुआ कि एग्जाम में रितिका अच्छे अंको से पास हुई लेकिन अक्षरा फेल हो गयी। मैं भी अब नौवी कक्षा में आ गया था। मैंने अक्षरा को कहा- “अक्षरा तुम फेल हो गयी मुझे बुरा लगा।“

“देख दीप, मैं फेल हुई मुझे दुःख नहीं हुआ पूछ क्यों, क्योंकि तेरे साथ जो आ गयी, अब तू मुझे पढ़ायेगा तो पास हो जाऊँगी न।“

“अच्छा तू मेरी एक बात मान, तू विज्ञान को छोड़कर आर्ट्स ले ले।“

“ठीक है दीप, तू कहता है तो मैं आर्ट्स ले लेती हूँ, दो ही सब्जेक्ट तो अलग हैं बाकी तो तू पढ़ा ही देगा न।“

“पता नहीं पढ़ा पाउँगा या नहीं? सुना है नौवी की पढाई बहुत हार्ड है।”

“अरे होगी हार्ड, तेरे लिए कुछ भी नहीं।“

“क्यों मेरे दिमाग में क्या रोबोट है?”

“अरे दीप पूरे गॉव में तो चर्चा है कि दीप से होशियार कोई नहीं।“

“अच्छा छोड़ ये बता, तू मुझसे इतनी क्यों घुलती-मिलती है जबकि मैं तो सुन्दर भी नहीं, तू तो गॉव की सबसे सुन्दर लड़की है।“

“दीप मैं सुन्दर हूँ लेकिन तू मन का सुन्दर है, फिर तू सबसे होशियार है, तुझे कौन अपना दोस्त बनाना नहीं चाहेगा।“

“देखा अक्षरा, गॉव के सब लड़के तेरे पीछे पड़े रहते हैं और तू मेरे पीछे, वो मुझे छेड़ते भी हैं कि तुझमें ऐसा क्या है जो हममें नहीं, तेरे तो ठाठ हैं।“

“दीप, तू किसी की परवाह क्यों करता है? मरने दे कुत्ते हैं वो, कुत्ते की तरह जीभ से राल टपकाते फिरते हैं, मेरी मर्जी मैं जिससे दोस्ती करूँ?”

अक्षरा को समझाना मेरे बस की बात नहीं थी, जिसने विज्ञान संकाय में एक साल सिर्फ इसलिए खराब कर दिया था कि अगले साल सुदीप भी विज्ञान लेगा।

 क्रमशः 

5 comments:

  1. अगली कड़ी का इंतज़ार है
    जी लग रहा है।

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    1. इंतज़ार का अपना मज़ा है, हरि बाबू

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    2. शता ले,शता ले !

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  2. आत्मकथा की यह कड़ी भी अच्छी लगी.

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