Saturday, 10 April 2021

लघुकथा विकास और हम रचनाकार (आलेख )- संदीप तोमर

 

"लघुकथा विकास और हम रचनाकार" 

संदीप तोमर

एक समय था जब सारिका और कादम्बिनी पत्रिकाओं में लघुकथाएं छपने लगी थी सरिता ने विशेषांक भी निकाला था। उस समय लघुकथाकारों की एक पूरी की पूरी पीढ़ी तैयार हुई। ये वो समय था जब हिंदी साहित्य में लघुकथा लगभग अपने शैशव काल में थी। नाम गिनाने की आवश्यकता नहीं है जी लघुकथा प्रेमी हैं वे उन सख्सियतों को अच्छे से जानते पहचानते हैं। लघुकथा के विकास में उन सबका बड़ा योगदान रहा। उस समय के लेखन की एक विशिष्टता थी- उनमें नैतिकता, संस्कार, नारी-उत्थान, नारी-शोषण इत्यादि विषयों की भरमार होती थी। उस समय समाज की मांग भी यही थी लेकिन कालांतर में उन मनीषियों ने खुद को अपडेट नही किया। नतीजा ये हुआ कि तकनीकी युग में वे बहुत पीछे छूट गए।

वरिष्ठ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर का कहना है कि रचनाकारों को समय की डिमांड के हिसाब से स्वयं को अपडेट करने की जरूरत है।उनका मानना है कि बहुत से रचनाकार सिर्फ इसलिए पीछे छूट गए क्योंकि वे अस्सी के दशक से आगे की सोच विकसित नहीं कर पाए। हालांकि उनमें से कितने ही अभी भी लिख रहे हैं लेकिन उनके लकहँ में नवीनता नहीं है। उसके उलट नई पीढ़ी के रचनाकारों ने उन विषयों की अपनी रचना का हिस्सा बनाया जो सामयिक हैं। यही बात उन्हें अस्सी के दशक के लोगो से अलग करती है।

प्रगतिशील सोच के प्रतीक और नवीनता और विविधता के लिए जाने जाने वाले श्री सुरेंद्र कुमार अरोराजी का भी मानना है कि विधा के विकास के लिए रचनाकार की सामयिक लिखने की आवश्यकता है। अगर हम रचनाकार अपने लेखन में सामयिक विषयों का समावेश नहीं करेंगे तो हम दौड़ में बहुत पीछे छूट जाएंगे। उदाहरण के तौर पर बलवाई जहां पहले आदम जात को अपना टारगेट बनाते थे वहीं अब महिलाओं को उन्होंने ईजी टारगेट करना शुरू किया, तो अब रचनाकार को भी उन सब बातों को साहित्य का हिस्सा बनाना होगा। 

कहना न होगा कि जो स्वयं को अपडेट नहीं करेगा, वो लंबा नहीं चलेगा। ऐसा भी नही है कि उपरोक्त विषयों पर कुछ लिखे जाने की नहीं है। इन विषयों पर लिखने के लिए अब रचनाकार को ट्रीटमेंट के लेवल पर पहले से ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है। कथा- विन्यास पर रचनाकार अगर समय नहीं देगा, नवीनता के लिए मेहनत नही करेगा तो वह पाठक के दिल में न जगह बना पायेगा और न ही उसके मस्तिष्क में कोलाहल ही पैदा कर पायेगा। पुराने विषयों और अच्छे शिल्प के साथ ही आप पाठक को कुछ नया दे पाएंगे।

जहां अब पाठक के पास मनोरंजन के पर्याप्त साधन हैं वहां आप घिसी पिटी रचनाओं और पुराने पड़े शिल्प के आधार पर पाठक को स्वयं से नहीं जोड़ पाएंगे।अब पाठक लेखक से कहीं अधिक जागरूक है। उसकी जागरूकता के साथ रचनाकार की भी जागरूक होना होगा।

डिजिटल मीडिया के युग में आपको उन साधनों/ संसाधनों का भी उपयोग करना होगा जो आपके साहित्य में आधुनिकता का बोध पैदा करें। उदाहरण के तौर पर "अफ़साने साहित्य के " यूट्यूब चैनल को देखा जा सकता है। ये साहित्य को डिजिटल करने की एक कवायद है। अब पाठक को श्रोता बनाए जाने की जरूरत है और इसी जरूरत को ध्यान में रखकर साहित्य को ऑडियो और वीडियो में बदला जा रहा है ताकि पाठक अपने व्यस्त समय में चलते-फिरते, कार, बस या ट्रैन, मेट्रो ट्रेन इत्यादि में साहित्य का आनंद बिना पढ़े ले सके।

अभी कुछ दिन पहले श्री गोपाल सिसोदिया जी , एक नेत्रविहीन साहित्यकार ने बताया कि मैं राजस्थान किसी कार्यक्रम में सम्मानित होना था तो बस में कोई महिला "अफ़साने साहित्य के चैनल पर लघुकथा सुन रही थी, मुझे आवाज पहचानने में देर न लगी। मैंने उन भद्र महिला को कहा कि ये तो संदीप तोमर की चिरपरिचित आवाज है। गोपाल जी का ये संस्मरण मुझसे शेयर करना उस बात का प्रतीक है कि डिजिटल युग में इस प्रकार साहित्य प्रचार समय की मांग है। हम अफ़साने साहित्य केयूट्यूब चैनेल के माध्यम से उन लोगो की रचनाओं को सुर देते हैं जो अच्छा लिखते हैं लेकिन वाचन नही कर पाते। 

 

एक कार्यक्रम में लघुकथा के विकास पर चर्चा के दौरान कुछ लोगो का मानना था कि कहानीकार को रचना पाठ करना भी आना चाहिए। मुझे लगता है जो फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखता है वह डायलॉग नहीं बोलता है न ही स्टेज पर जाकर अभिनय ही करता है, यानि लेखक को लेखक ही रहने दिया जाना चाहिए। गीतकार गायक हो जाएगा तो गायक का क्या होगा? यह बात बिलकुल ऐसे ही है जैसे सुई बटन टाँकने का काम करती है और कैंची कपड़ा काटने का। आप कैंची से बटन टाँकने का काम नहीं ले सकते। कार्यक्रम में कुछ लोगो की राय थी कि लघुकथा के वाचन में लोगो को सुधार करना होगा। मेरा सवाल ये है कि क्या ये उचित नहीं कि लेखके को लिखने दिया जाए। फ़िल्म उद्योग में सबका अपना कार्य क्षेत्र बंटा होता है। क्या जरूरी है कि अच्छा लेखक अच्छा वाचक भी हो? कल ये भी कहा जा सकता है कि एक लेखक को अच्छा अभिनय भी आना चाहिए। सबके अपने दायित्व हैं। लेखक ने रचना लिखकर अपना काम कर दिया। अब रेड़ियो वाले उसका वाचन करें, अभिनय वाले उसका मंचन करें। यानी लेखक को उसका लेखकीय दायित्व पूरा करने दीजिए। हाँ, अगर लेखक अच्छा वाचक भी है तो ये एक अच्छी बात है और अगर नहीं है तो ये बुरी बात है ऐसा मैं कतई मानने को तैयार नहीं। 

कहना न होगा कि आने वाला समय लघुकथा का है लेकिन हमें समय के अनुसार स्वयं में बदलाव करने की जरूरत है। हाँ इतना अवश्य है कि हमें साहित्य को स्पेशली लघुकथा को खेमेबाजी से निकालना होगा। अच्छे साहित्य का सैदव स्वागत होना चाहिए। और सिर्फ खेमेबाजी में उलझकर स्तरविहीन रचनाओं को मात्र इसलिए सराहना न मिले कि ये रचना अमुख व्यक्ति की है। हमें रचना के माध्यम से रचनाकार की समझना चाहिए न कि रचनाकार के माध्यम से रचना तक पहुंचा जाए।अभी देखने में ये आता है कि कई बार अति हल्की रचनाएँ भी इसलिए प्रसिद्धि प् जाती हैं कि उन्हें बड़े लेखकों का आशीर्वाद प्राप्त हो जाता है। कई बार सम्पादकीय दायित्व के चलते भी ऐसी स्थिति उत्पन होने का खतरा पैदा हो जाता है। हमें ऐसी स्थिति से स्वयं भी बचने की आवश्यकता है और साहित्य को भी इस तरह की खेमेबाजी से बचाना होगा।

हाल ही में दिल्ली में लघुकथा का बड़ा कार्यक्रम हुआ, लेकिन हैरानी वाली बात थी कि कार्यक्रम में लघुकथा के बड़े सेवक, जो दिल्ली एन सी आर में रहते हैं, उनकी शिरकत नहीं हुई।  कार्यक्रम में अशोक जैन, अनिल शूर आज़ाद, डॉ कमल चौपड़ा, हरनाम शर्मा, अशोक वर्मा, सत्यप्रकाश भारद्वाज, किशोर श्रीवास्तव, अखिलेश द्विवेदी अकेला, ललित मिश्र, नरेंद्र गौड़ जी जैसे नामचीनों को न देखकर अजीब लगा। ये महज इत्तेफ़ाक़ है या उनकी अनदेखी? ऐसे कई सवालों पर हमें सोचना होगा कि हम वास्तव में साहित्य को कहाँ ले जाना चाहते हैं

यूँ तो साहित्यिक कार्यक्रमों में जाने का एक लाभ ये होता है कि वहां आपको नए पुराने साथियों से मिलने की  सुखद अनुभूति होती है। लेकिन कितने ही कार्यक्रमों में जाने के बाद आपको समझ आता है कि कार्यक्रम में साहित्य और हमारे सरोकारों पर ज्यादा चर्चा नहीं होती क्योंकि अभी साहित्य जगत बहुत खेमेबाजियों का शिकार है। लेखन, पाठन, और साहित्य को पढ़ना या यूं कहूँ मंचन सब अलग-अलग बातें हैं। लेकिन एक महत्वपूर्ण बात जो साहित्य में मुझे अखर रही है वह है खेमेबाजी। मठ का निर्माण और जो मेरे मठ का सदस्य उसकी रचना बेहतर। एक ऐसी रचना जिसे पाठक और आलोचक नकार दें उस रचना को अगर किसी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि या जज सिर्फ इसलिए श्रेष्ठ कहें कि अमुक कार्यक्रम के आयोजक ने आपको बुलाया है तो माफ कीजियेगा आप साहित्य का भला नही कर रहे वरण आप विधा का भी नुकशान कर रहे हैं साथ ही उस लेखक के भी हितैषी नहीं जिसे आत्मश्लाघा में जीने के लिए धकेल रहे हैं। अब आपका सर्टिफिकेट मिलने के बाद वह खुद के लेखन में सुधार तो करने से रहा। जज या समीक्षक का उद्देश्य ये हो कि वह रचनाकार को विषयगत व विधागत त्रुटियों की ओर इंगित करे ताकि विधा का विकास हो।  मैं एक नहीं कई कार्यक्रमो में ऐसा देखता हूँ जहां ये मठो का खेल साहित्य का यूँ नुकशान करता है। हमें सचेत होने की आवश्यकता है। 

 

प्रयास ये होना चाहिए कि लघुकथा पर लगातार छोटी-बड़ी गोष्ठियां, वर्कशॉपस हों, जिनमें लघुकथा की तकनीक, उसके ट्रेंड और विकास पर विमर्श हो, २६ नवम्बर को ऐसा एक प्रयास इन पंक्तियों के लेखक ने कुछ वरिष्ठ, कनिष्ठ रचनाकारों के साथ मिलकर किया। इस अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित 'दृष्टि' के सम्पादक अशोक जैन जी ने लघुकथा की बेहतरी के लिए अनिल शूर आजादऔर संदीप तोमरके प्रयासों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि इस तरह के भागीरथ प्रयास निश्चित रूप से लघुकथा के इतिहास में मील का पत्थर साबित होंगे। कार्यक्रम में लघुकथा संकलन समय पर दस्तकके शीघ्र प्रकाशन की भी घोषणा हुई, बताया गया कि नवलेखन से जुड़े लोग इसका प्रतिनिधित्व करेंगे। वरिष्ठ लघुकथाकार अशोक यादव जी ने गोष्ठियों के संदर्भ में कुछ खट्टे-मीठे अनुभव साझा करते हुए बताया कि वरिष्ठ कथाकारों को नयी पीढ़ी को तैयार करने में महती भूमिका निभाने की आवश्यकता है। उन्होंने इस बात के संकेत दिए थे कि पुराने लेखकों/रचनाकारों का दायित्व बनता है कि वे नवलेखन का मार्गदर्शन करें। सुरेन्द्र कुमार अरोरा जी ने इस चिंता से अवगत कराया था कि वर्तमान समय में पांच सौ से एक हज़ार लघुकथाएँ रोज लिखी जा रही हैं, आवश्यकता इनमें गुणवत्ता की है, यदि लघुकथा का विकास देखना है तो ज्यादा से ज्यादा विचार गोष्ठियां हो ताकि रचनाकार लघुकथा के विधान और शिल्प पर मेहनत कर सके।

ऐसा ही एक आयोजन सितम्बर २०१७ में विकासपुरी में अनिल शूर आजादके आग्रह निमंत्रण पर संपन्न हुआ था इस गरिमामय आयोजन के दूसरे सत्र में में विधा के विविध पहलुओं, यथा- हाल में स्थापित लघुकथा-शोधपीठ, मंचों पर लघुकथा की पठनीयता, लघुकथा-विकास के विविध आयाम, हाल ही में जारी लघुकथा के विशिष्ट साधकों की सूची, पोस्टर-लघुकथा का दौर, लघुकथाओं का मंचन, फ़ेसबुक पर लघुकथा-लेखन आदि विषयों पर विस्तृत चर्चा हुई।

कार्यक्रम में हत्व्पुर्व बात ये थी कि वरिष्ठ लघुकथाकार सुभाष नीरव जी ने लघुकथा में शैली के विकास पर अपने विचार वयक्त करते हुए बताया कि उन्होंने अपनी कथा में कहानी की शैली को लघुकथा की शैली बनाकर लिखना शुरू किया और कामयाब भी हुए। उन्होंने भी इस बात के संकेत दिए कि पुराने लेखकों/रचनाकारों का दायित्व बनता है कि वे नवलेखन को प्रोत्साहन दें जहाँ उनमें कमियां हैं वहां उनका मार्गदर्शन करें। उन्होंने आगे कहा कि यदि लघुकथा का विकास देखना है तो यह नयी पीढ़ी से ही संभव है, अतः ज्यादा से ज्यादा विचार गोष्ठियां हो। लेकिन जब कभी हम वरिष्ठ साथियों के इस तरह के वक्तव्य देखते हैं कि क्या अब वरिष्ठ लोग अपना लेखन छोडकर मास्टरी करने लगें तो सुभाष नीरव जैसे साहित्यकार के वक्तव्य भी धरासाही होते प्रतीत होते हैं। 

उक्त कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री अशोक वर्मा जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में लघुकथा के मंचन पर विशेष जोर दिये जाने की बात कही। उन्होंने लघुकथा कथ्य से भी महत्वपूर्ण सम्प्रेषण को बताया। बहराल आवश्यकता इस बात की है कि लघुकथा विधा का भविष्य नयी पीढ़ी के हाथ में है लेकिन उनसे ये अपेक्षा है कि वे लगातार लेखन करें, प्रायोगिक हों, लकीर के फ़कीर न बनकर बेहतर की ओर उन्मुख हों, इस बात पर अधिक बल दिए जाने की आवश्यकता है कि ऐसे मठाधीशों से सावधान रहे जो साहित्य साधना के नाम पर व्यापार कर रहे हैं। समझा ये भी होगा कि अच्छे लघुकथा संकलन या संग्रह खरीदते हुए मात्र विज्ञापन पर विश्वास न करें। इसके साथ ही छपने की चाह को कुछ समय के लिए भूल कर साहित्य साधना करें, धन लेकर संकलन निकलने वाले संपादकों/ प्रकाशकों से सावधान रहें। हाल ही में एक ऑफर  इन पंक्तियों के लेखक के आस आया कि आप दो हजार रूपये दीजिये हम आपको अपनी पुस्तक में दो  पन्ने देंगे, प्रस्तावित संकलन का विमोचन एक भव्य आयोजन में किया जायेगा, जिसमें कुल सौ लेखक होंगे। अंदाजा लगाइए कि सौ लोगो से दो हज़ार रूपये वसूलकर कुल दो लाख धन इकठ्ठा हुआ, अब दो सौ से ढाई सौ पन्नो की पुस्तक की ५०० प्रतियों को आसानी से पच्चीस हजार रूपये में छापा जा सकता है, भव्य कार्यक्रम में आप पिछत्तर हज़ार रुपया खर्च कर भी शुद्ध लाभ एक लाख रुपया कमा सकते हैं। तो हमें ऐसे नक्कारखानों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है। ऐसे कुकुरमुत्ते तभी उगते हैं जब हम छपास की चाह में समझौता करते हैं। तो हमें विशेष रूप से सचेत होने की जरुरत है। संकलन में छपने से बेहतर है आप पत्र-पत्रिकाओं में लिखें, जहाँ से आपको नाम, प्रसिद्धि और सफलता तीनों का एक साथ मिलना तय है। एक बात समझ लीजिये- पत्रिकाओं की पहुँच संकलनों से कहीं अधिक और कहीं दूर तक है।

 


4 comments:

  1. आपकी अंतिम पंक्तियों से सहमत। अब साझा संकलन का हिस्सा नहीं बनती। हाँ एक पुस्तक लिखने का मन अवश्य है उसके लिए मार्गदर्शक की तलाश में हूँ।पर पैसे देकर पब्लिश तो नहीं करायेंगे।बाकी रब की मर्जी

    ReplyDelete
  2. हम किसलिए हैं, हमारे रहते भी परेशान

    ReplyDelete
  3. हम जैसे पुरानी पीढ़ी के पाठकों कों लघुकथा के विभिन्न आयामों से परिचित कराता हुआ एक सार्थक लेख।
    डिजिटल युग होने के बावजूद भी साहित्य विशेषकर कहानी का रसास्वादन तो पढ़ कर ही किया जा सकता है।पढ़ने में पाठक की अपनी कल्पना भी एक अलग सृष्टि का निर्माण करती है।जबकि ऑडियो में उस कल्पना में व्यवधान आता है।
    फिर भी कहानीकार इस लोभ का संवरण नही कर पाते हैं।
    ऐसी स्थिति मे मेरा सुझाव है कि वाचक का लहजा सपाट और स्वर गंभीर व स्पष्ट होना चाहिए।बहुत से वाचक संवादों में नाटकीयता लाने का प्रयास करते हैं, जो कभी,कभी हास्यास्पद हो जाता है।
    इस दृष्टि से मुझे संदीप तोमर जी की वाचनशैली व स्वर किस्सागोई के अनुकूल लगते हैं।
    इति।

    ReplyDelete
  4. सर, आपकी बात से पूर्ण सहमति है, अति नाटकीयता से श्रणव के साथ ग्राह्यता में व्यवधान उत्पन्न होता है,

    ReplyDelete

बलम संग कलकत्ता न जाइयों, चाहे जान चली जाये

  पुस्तक समीक्षा  “बलम संग कलकत्ता न जाइयों , चाहे जान चली जाये”- संदीप तोमर पुस्तक का नाम: बलम कलकत्ता लेखक: गीताश्री प्रकाशन वर्ष: ...