संदीप तोमर से ललित मिश्र की बातचीत- साक्षात्कार
(संदीप
तोमर हिंदी साहित्य के वर्तमान समय के चिरपरिचित नामों में से एक हैं। अपनी बेबाक
व बेलाग बातों से अक्सर सुर्खियों में रहने वाले संदीप तोमर लघुकथा के अच्छे जानकार हैं। नियमों में बंधकर
रहना उन्हें कभी गवारा नहीं रहा। बात अगर वैचारिक लेखन की हो या आलोचना की हो संदीप
तोमर ने स्वयं अपनी राह तलाशी है और अपनी अलग पहचान बनायीं है। थ्री गर्लफ्रेंडस
उनके चर्चित उपन्यासों में से एक है। २००१ से सतत लेखन कर रहे हैं। सोलह वर्षों
में उन्होंने सृजन, और नई जंग जैसी त्रमासिक साहित्यिक पत्रिकाओं में संपादन सहयोग
भी किया हैं।
उन्होंने कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचना, नज़्म, ग़ज़ल के साथ साथ उपन्यास को अपनी विधा बनाया। पेशे से अध्यापक सन्दीप तोमर का पहला कविता संग्रह "सच के आस पास" 2003 में प्रकाशित हुआ। अन्य पुस्तकें "टुकड़ा टुकड़ा परछाई" (2005), शिक्षा और समाज(लेखों का संकलन शोध-प्रबंध) 2010, लघुकथा सँग्रह "कामरेड संजय" (2011) में "महक अभी बाकी है" (सम्पादित कविता संकलन) प्रकाशित हुए, "थ्री गर्ल्सफ्रेंड्स"(2017) उपन्यास ने संदीप तोमर को चर्चित उपन्यासकार के रूप में स्थापित कर दिया। 2018 में आपकी आत्मकथा "एक अपाहिज की डायरी" का विमोचन नेपाल की धरती पर हुआ। जनवरी 2019 में “यंगर्स लव” कहानी संग्रह का विमोचन विश्व पुस्तक मेला दिल्ली में हुआ। 2020 में लघुकथा संग्रह "समय पर दस्तक" प्रकाशित हुआ। “लिव इन रिलेशन” और उपन्यास “ये कैसा प्रायश्चित” भी प्रेस में है। “एस फॉर सिद्धि” उपन्यास डायमंड बुक्स से छपकर आ रहा है। अपनी हाजिरजवाबी और दोस्ताना मिजाज के लिए मशहूर संदीप तोमर साहित्य चर्चा में कभी वरिष्ठ- नवोदित का भेदभाव नहीं करते।)
प्रस्तुत है ललित मिश्र द्वारा लिया उनका
साक्षात्कार।
ललित
मिश्र: संदीप जी ये बताइए कि आपका बचपन कहाँ और किस तरह गुजरा और किन घटनाओं का
बचपन में आपकी जिंदगी पर गहरा प्रभाव पड़ा?
संदीप
तोमर: मैं मुजफ्फरनगर जिले के खतौली कस्बे का रहने वाला हूँ। खतौली से सटा हुआ
मेरा गॉव है गंगधाडी। उसमें हमारा मिटटी का कच्चा घर मेरे जन्म से पूर्व तोड़कर
पक्का घर बना था, वहीं मेरा जन्म हुआ। मेरे पिताजी अध्यापक
थे पास के ही गॉव में। इसलिए बचपन गॉव में
ही बीता। बचपन के नाम पर मेरे जहन में इतना कुछ है कि गिनाता रहूँगा तो हफ्ता कम
पड़ जायेगा, हाँ जिस बात ने मेरे सोचने का ढंग
बदल दिया वह बात याद आती हैं पिताजी के चाचाजी यानि छोटे दादा जी ने कहा- कि इस
बच्चे को सिलाई सीखा दो तो ये अपना गुजारा करने लगेगा, उस वक़्त मैं सातवीं में
पढता हूँगा। पिताजी ने जो भी जवाब दिया, मेरा लोगो के प्रति नजरिया बदल गया और
पिताजी के प्रति सृद्धा बढ़ गयी।
ललित
मिश्र: दादाजी का ऐसी सलाह देने का कुछ विशेष कारण?
संदीप
तोमर: हाँ, कारण ये कि उन्हें लगता था कि शारीरिक अक्षमता के चलते ये ही बेहतर
विकल्प हो सकता है, यानि गुजारा महत्वपूर्ण है शिक्षा-दीक्षा नहीं।
ललित
मिश्र: आपको पोलियों कब हुआ और इससे आप अपने जीवन को कितना प्रभावित हुआ पाते हैं?
संदीप
तोमर: माँ बताती है कि ग्यारह महीने की आयु रही जब मुझे पोलियो हुआ। प्रभाव तो ये
हुआ कि बहुत से काम सुचारू रूप से नहीं हो पाए, चलती बस में चढ़ने-उतरने से लेकर बचपन
में बस्ता कंधे पर लटका स्कूल तक जाने में बाधाएँ जरुर हुई लेकिन मानसिक रूप से
मुझे कभी कोई बाधा नहीं लगी। बल्कि ये बात पुख्ता होती गयी कि मेधा महत्वपूर्ण है,
काया नहीं।
ललित
मिश्र: आपकी लिखने की शुरुवात कहाँ से हुई, कोई विशेष घटना या यूँ ही लिखने लगे?
संदीप तोमर: मेरी लिखने की शुरुआत कहाँ
से हुई यह सोचने पर मुझे याद आता है कि सातवीं क्लास में ही एक मित्र ने एक कहा-
उसका जानकार पत्रकार है कहानी लिखने पर छपवा देगा तब पेड़ का भूत कहानी लिखी लेकिन
उसे उस मित्र ने अपने नाम से छपवा दिया। उसके बाद जो मेरे पैर में पोलियो हुआ था इसके चलते विशाखापट्नम ऑपरेशन
करने गया तो वहाँ एक लड़की मिली जिसकी प्रेरणा ने मुझे लिखने की ओर प्रेरित किया।
ललित
मिश्र: तब कितनी उम्र रही होगी आपकी, जिस समय की ये घटना आप बता रहे हैं?
संदीप
तोमर: बी.एस.सी करके बी.टी.सी. कर चुका था। एम.एस.सी. गणित में दाखिला लिया ही था
कि पिताजी ने ऑपरेशन का हुक्म सुनाया। इस तरह देखें तो बाईस या तेईस के आसपास रहा
हूँगा। ऑपरेशन भी हो गया लेकिन ठीक नहीं हुआ। वहाँ 15 दिन रहकर अपने गॉव वापस आ
गए। उस लड़की का भी ऑपरेशन हुआ था। उसकी छोटी बहन साथ गयी हुई थी, पिताजी भी थे,
उसकी बहन ही विचारो के आदान-प्रदान में डाकिया बनी। घर वापिस आ गया। एक साल भी
नहीं हुआ था कि रोजगार की तलाश में दिल्ली आ गया वहाँ चलती बस से गिरा तो कुल्ले
की हड्डियाँ टूट गयी। फिर से ऑपरेशन हुआ। लकड़ी का एक ऐसा तख्ता था जिस पर एक साल
लेटा रहा, जब आप कहीं घूम नहीं सकते, आ जा
नहीं सकते, आप बहुत सीमाओं में खुद को बंधा हुआ महसूस करते हैं तब आपकी मन:शक्ति
बहुत तेजी से विचरण करती है। आप उस समय स्वाभाविक रूप से सृजनात्मक हो जाते हैं, तब कल्पना
शक्ति की गति तीव्र हो जाती है। तब कुछ स्केच बनाये, वो कहानी नहीं कहते थे, लेकिन
किसी के पास प्रेषित करने के लिए और समय का उपयोग करने के लिए स्केच बनाये।
विशाखापट्नम की यादें साथ थी, और समय बहुत था मैं उस समय के पार नहीं जा सकता था
तो जैसी सलाह दी गयी थी उसके हिसाब से डायरी लेखन शुरू किया।
ललित
मिश्र: तो क्या स्केच बनाने और डायरी लेखन की प्रेरणा एक ही है?
संदीप
तोमर: नहीं, बी.टी.सी. करने के दौरान दिल्ली कैंट आना-जाना होता रहा वहाँ एक परिवार
से घनिष्टता हुई, तब टूटी-फूटी शायरी किया करता था, तो शायरी की मुरीद उस परिवार
की छोटी सुपुत्री के लिए स्केच बनाये। विशाखापट्नम की आधे घंटे की एक मुलाकात ने
डायरी लेखन के लिए प्रेरित किया। मललब दोनों काम एक प्रेरणा से नहीं हुए।
ललित
मिश्र: ये तो गहन जिज्ञासा और कौतुक का विषय है, इस पर बात होगी उससे पहले अपनी
शिक्षा के बारे में बताए?
संदीप
तोमर: मेरी शिक्षा सीधे पाँचवी कक्षा से शुरू हुई। पोलियो के चलते स्कूल जाना सम्भव
ही नहीं हो पाया। उसके बाद तो लम्बी फेहरिस्त है डिग्रियों की। हालाकि एक समय के
बाद इन सब डिग्रियों के ज्यादा मायने नहीं रह जाते। हाँ बचपन की शिक्षा यानी
बारहवीं तक की वो बड़े कष्टों से हुई, कारण स्कूल जाने की आवाजाही। पिताजी का सहयोग
और छोटे दादाजी के शब्दों की चोट न होती तो न पढ़ पाता।
ललित
मिश्र: लगता है कि आपके पिता का विशेष सहयोग रहा आपके पढऩे को लेकर?
संदीप
तोमर: हाँ, पिताजी स्वयं अध्यापक होकर भी मुझे
पढ़ाते भले ही न थे लेकिन उनका रोज साइकिल से स्कूल छोड़ने जाना और लाना ही मेरी
पढाई की वजह रहा।
ललित
मिश्र: आप लोग भाई-बहन कितने हैं?
संदीप
तोमर: हम भाई-बहन कुल चार हैं। जिनमें मैं सबसे छोटा हूँ, एक बहन है स्वयं का
स्कूल चलाती है। बाकी दो धर्म बहने हैं, दोनों भाई बड़े हैं। मझला भाई कॉमिक्स और
चम्पक, नंदन सब पढता था, मुझे भी पढवाता था तो तब चाचा चौधरी, शाबू की सारी सीरीज
मैंने पढ़ डाले। वेदप्रकाश शर्मा के नावेल पढ़ डाले हालाकि बहुत बाद में पता चला कि
इनमे और साहित्य में फर्क है। लिखने में इन सबसे मदद मिली। हाँ जो भी १९९९ से पहले
लिखा वो सब डायरियाँ या जो जला डाली या फिर बार-बार पढने की जगह बदलने से कहीं छूट
गयी।
ललित
मिश्र: फिर आपकी पहली रचना किसे माना जाए?
संदीप तोमर: सन २००० में फिर से कविता लिखना शुरू किया..”पतझड़”
कविता को इस मायने में मैं अपनी पहली रचना मानता हूँ, लेकिन प्रकाशित हुई “ताकतवर
हिजड़े“ जिसे मानव मैत्री मंच ने पुरस्कृत किया था। यह मंच कभी विष्णु प्रभाकर जी ने बनाया था जिसे उस
वक़्त जीतेन कोही चला रहे थे।
फिर मैंने लगातार कविताए लिखी। खैर, फिर मैंने
लगातार साथ आठ कहानियाँ लिखी। दिल्ली विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी बहुत बढ़िया थी,
वहाँ से यशपाल, प्रेमचंद, अज्ञेय, शरदचंद, जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ पढ़ीं।
शरदचन्द्र का श्रीकांत और चरित्रहीन पढ़कर लगता जैसे मेरे ही जीवन को लिखा गया है। “सच
के आया-पास” कविता-संग्रह छप कर आया। इसी दौरान किशोर श्रीवास्तव हम सब साथ साथ
निकाल रहे थे, उनसे संपर्क हुआ, एक टीम बनी तो युवाकृति पत्रिका की रूपरेखा बनी
लेकिन नियम और शर्तो से असहमति के चलते प्रवेशांक से ही स्वयं को अलग कर लिया। “टुकड़ा
टुकड़ा परछाई” कहानी संग्रह छपा। “ये कैसा
प्रायश्चित” प्रेम का उपन्यास था। बाद में फिर “दीपशिखा” और “थ्री गर्लफ्रेंडस”
लिखा। “थ्री गर्लफ्रेंडस” पहले छपा। उससे भी पहले एक रचना हमने भेजी ‘कथा संसार’
में। आपको शायद ध्यान हो सन २००० के आस-पास सुरंजन इस मैग्जीन के लिए संघर्ष कर
रहा था, उसे आर्थिक मदद चाहिये थी, इधर अध्यापन शुरू हो चुका था। आर्थिक मदद के
साथ-साथ सदस्य बनवाये। उन्होंने शिक्षा पर अंक निकाला और उसकी बहुत ही चर्चा हुई। राजेन्द्र
यादव हंस निकाल रहे थे, हमने उन्हें एक कहानी भेजी, रिजेक्ट होकर आ गयी। हँस के एक
अंक में यादव जी ने सम्पादकीय में लिखा-हनुमान लंका में पहले आतंकवादी थे। अक्षर
प्रकाशन के दफ्तर में तोड़-फोड़ हुई। हमने “हंस और आतंकवाद” शीर्षक से लेख लिखा दिया,
सुरंजन ने उसमे जोड़ दिया “हंस और आतंकवाद उर्फ़ राजेन्द्र यादव” और उसे छाप दिया।
यह शायद २००४ के मेला विशेषांक अंक में आया था। जब मैं २००८ में यादव जी से हंस के
दफ्तर में मिला तो इस विषय पर उनसे चर्चा हुई।
ललित
मिश्र: संदीप जी आपने कहा कि सुरंजन ने आपका लेख छापा और फिर उसके बाद आप लेखक बन गए। यहाँ हम आपसे यह
जानना चाहेंगे कि आप कविता, या लेख से कहानी में कैसे आये? और उसके बाद उपन्यास? यह
जो आपका हमारा दौर है इसमें कौन-सी ऐसी प्रमुख घटनाएँ हैं जो लेखन की तरफ आपका
रुझान रखती रहीं और फिर आपने अलग-अलग विधाओं की जरूरत महसूस की?
संदीप
तोमर: मैं आपको पहले भी कह चुका हूँ कि मुझे सीमाओं में बंधना पसंद नहीं और जो बाधाएँ
मुझे दिखाई देती हैं मैं उनमे खुद को आनंदित महसूस करता हूँ। जहाँ तक उपन्यास की
बात है तो मेरा एक दोस्त है जो मेरा सहपाठी रहा, गॉव में जब थे तो रोज शाम को मेरे
पास आता था, नौकरी के बाद करमपुरा प्रवास के समय वह बड़ा तकलीफ में
था। दोस्त की नौकरी छूट गयी थी, ये वो समय था जब मेरे लेखन का शैशवकाल
था और मेरा दोस्त नौकरी के लिए संघर्ष कर रहा था। मैंने उसे सुझाव दिया कि खाली
समय में कुछ पढ़ा-लिखा करो। उस समय उसने कुछ टूटी-फूटी भाषा में कवितायेँ लिखी। एक
दिन वो मेरे पास एक कॉपी लेकर आया और एक कहानी का प्लाट बताने लगा, मुझे लगा कि
कहानी दिलचस्प बनेगी, हालाकि जब उसने मुझे वो कॉपी दी तो कहानी मात्र एक प्रेम कहानी
थी लेकिन जब मैंने उस पर काम करना शुरू किया तो मुझे लगा कि ये कहानी एक उपन्यास
का प्लाट है। इस रूप में अगर देखा जाए तो ये उपन्यास मेरा होकर भी मेरा नहीं है।
इसका बीजारोपण प्रमेन्द्र का किया हुआ है। और कथा में उसका योगदान अतुलनीय है। इसे
“ये कैसा प्रायश्चित” शीर्षक दिया गया।
लघुकथा
नियमित रूप से छप रही थी तो इसे तो मैं अपनी प्रिय विधा के रूप में मानता आया हूँ,
हालाकि ये एक कठिन विधा है, स्वयं प्रेमचंद और राजेन्द्र यादव ने कहा कि ये सबसे
मुश्किल विधा है।
ललित
मिश्र: एक सवाल जो काफी समय से मेरे जहन में चल रहा है जिसे मैं पूछना चाहूँगा। वह
कौन सी ऐसी प्रमुख सामाजिक, राजनीतिक
घटनाएँ हैं, जो आपको एक लेखक के तौर पर उद्वेलित
करती रही?
संदीप
तोमर: जी ललित जी कुछ तो था जो लिखने का दबाव डाल रहा था शायद ये एक प्रेम था जो मेरे जीवन का हिस्सा था।
मैं खुद को साबित करने के लिए लिखना चाहता था, शायद इसलिए लिख रहा था।
ललित
मिश्र: यानी आपको कोई प्रेमालाप लिखने को प्रेरित करता रहा?
संदीप तोमर: जी इस सत्य को नकारा भी तो नहीं जा
सकता। और हाँ ये प्रेम भी विभाजित था, अलग अलग हिस्सों में, अलग अलग खंडो में,
यहीं से “थ्री गर्लफ्रेंडस” का कथानक निकलता है।
ललित
मिश्र: यानि ये उपन्यास आत्मकथा है?
संदीप
तोमर: नहीं, ये सब निजी जीवन का हिस्सा होकर भी आत्मकथा नहीं है, ये आत्मकथ्यात्मक
उपन्यास ही कहना ठीक होगा। हाँ जिन खंडो की बात मैंने की, उसमे तीन नायिकाएँ हैं,
तीनो के साथ पूरा न्याय करने का लेखकीय प्रयास किया है। मुझे ये कहने में बिलकुल
परहेज नहीं है कि अपना जो लिखना था, लगता
है कि भीतर से बहुत कुछ था जो मैं लिखना चाहता था और जिसे मैंने लिखने का भरपूर
प्रयास किया।
ललित
मिश्र: सुना है आप आत्मकथा भी लिख रहे हैं? अगर ऐसा है तो क्या ये अभी बहुत जल्दी
में लिया निर्णय नहीं है?
संदीप
तोमर: हाँ कुछ समय पहले कुछ लिखना चाहा था वो इसलिए कि मैं इस चालीस पार की अवस्था
में ही वो सब देना चाहता था जिसे लोग अंतिम समय के लिए छोड़ देते हैं,
चूँकि मैंने सदा अपने को दूसरो से बहुत अलग पाया है, मैंने सरकारी नौकरी से
इस्तीफा देकर दोबारा पढना शुरू किया। ये मेरा स्वतंत्र निर्णय था, मैं एक लेखक हूँ
स्वतंत्र होकर रहने में विश्वास करता हूँ, इस मायने में मैं स्वयं को राजेन्द्र
यादव के स्थान पर पाता हूँ उनकी तरह मैं किसी तरह का कोई दबाव नहीं मानता हूँ। लेकिन
आत्मकथा का निर्णय लेते हुए मैं परेशान था। मैं सोचता कि लिखूँगा तो कितने ही
रिश्तों में दरार आएगी। सोशल मिडिया पर बाइट्स देना भी कई बार घातक होता है। सोशल
मीडिया के चलते निर्णय बदल “जहाँ मैं हूँ” उपन्यास का खाका तैयार किया और कुछ अंश
हटाने पड़े। वह सब छपा भी एक अपाहिज की डायरी के नाम से लेकिन फिर “मेरे सरोकार( एक
अंतर्यात्रा) लिखी जो प्रकाशक के पास है।
ललित
मिश्र: लेकिन आपकी पहचान तो लघुकथा में बन रही थी और आपकी नए-पुराने लघुकथाकारों
के बीच चर्चा भी बहुत है?
संदीप
तोमर: मुझे एनकरेजमेंट मेरी “थ्री गर्लफ्रेंडस” की एक महत्वपूर्ण नायिका से मिला
जिसका साथ संभवतः 7 वर्ष का रहा उससे जो प्रोत्साहन मुझे मिला उससे मुझे लगा कि मुझे
कहानी, उपन्यास, लघुकथा तीनो गद्य की विधाओ में लिखना चाहिये। “थ्री गर्लफ्रेंड ने
मुझे स्थापित किया बतौर लेखक भी और दिल्ली में प्रवास के लिए भी।
ललित
मिश्र: इन सब बातों के दौरान ये पता नहीं चला कि एक लेखक बनाने में किसका सबसे अहम
रोल रहा? वह कौन सी शख्सियत थी जो आपको एक लेखक के तौर पर देखना चाहती थी?
संदीप
तोमर: इस चर्चा में मैंने उस शख्सियत का कई दफा जिक्र किया। नाम इत्यादि लेकर किसी
गृहस्थ जीवन को पब्लिकली लाना उचित नहीं।
ललित
मिश्र: एक बार आपके साथ बातचीत में अखिलेश द्विवेदी जी ने आपसे विचारधारा को लेकर
प्रश्न किया था, जिसे शिखर विजय अखबार में मैंने पढ़ा था, सवाल दोहरा रहा हूँ- आप पहले ‘राष्ट्रीय
स्वयं सेवक संघ’ से जुड़े थे। फिर ‘भाजपा’ के समर्थक बनें। अब आपका झुकाव ‘वाम विचारधारा’
की ओर है, साथ ही ‘आम आदमी पार्टी’
के प्रतिनिधियों से नजदीकी भी है। शिक्षक संघ के चुनावों में आप कांग्रेसी नेताओं
से सहयोग माँगते है। यह खिचड़ी कभी-कभी आपके सार्वजनिक व्यक्तित्व को अबूझ बना देती
है। आपकी स्पष्ट विचारधारा क्या है? किस राजनीतिक दल
का समर्थन करते हैं?
संदीप
तोमर: ये अजीब विडंबना है व्यक्तिगत तौर पर मैं किसी भी तरह के लेखक संघ का हिस्सा
नहीं बना, भले ही वो प्रगतिशील लेखक संघ हो या दलित लेखक संघ या फिर भाजपा या अन्य
किसी राजनितिक दल से समर्थित लेखक संघ, अखिलेश द्विवेदी आरएसएस की सदस्यता लेकर
लेखकीय दायित्व पूरा करना चाहते हैं, उनसे इसी कारण वैचारिक टक्कर, बहसें
होती रहती है। मैं समझ नहीं पाता हूँ कि यहाँ व्यक्ति प्रमुख है या समाज? मुझे समझ
नहीं आता कि ऐसा कौन-सा व्यक्ति है जो समाज से अलग है और कौन-सा समाज बिना व्यक्ति
के जीवित रहा है। जब कोई व्यक्ति सामाजिक समस्याओं से जूझता है, भूख गरीबी उस पर
हावी होने लगती है तो बुद्धिजीवीता उसके पक्ष में कलम चलाती है, आप इसे
मार्क्सवादी चिंतन का नाम दे सकते हैं। मेरी लघुकथाओ में इस चिन्तन को लोग पाते है
और मुझे जनवादी कहते हैं तो इसमें मेरा क्या दोष और क्या दोष मार्क्सवादी चिंतन
का?
ललित मिश्र: एक बड़ा सवाल ये भी कि
मार्क्सवादी चिंतन के बावजूद आपने किसी प्रकार की कोई पार्टी-सदस्यता क्यों नहीं ली? जब
वैचारिक समर्थन है तो शारीरिक और आर्थिक से क्या परहेज?
संदीप
तोमर: इसलिए क्योंकि मैं एक सरकारी कर्मचारी हूँ जिसके चलते मैं किसी भी राजनैतिक
चीज से बंध नहीं सकता। वैसे भी मुझे बंधन ज्यादा समय तक रास नहीं आते और मैं बंधन
में छटपटाने लगता हूँ । मैं स्वछंद विचारो का व्यक्ति
हूँ।
ललित
मिश्र: विवाह भी एक बंधन है और फिर परिवार?
संदीप
तोमर: निजी तौर पर तो मैं शादी का बंधन भी स्वीकार नहीं करता लेकिन फर्ज से दूर
भागना भी कायरता है, अगर स्वयं की स्वतंत्रता का उलंघन न हो तो विवाह में रहा जा
सकता है, बस मुझे बाधाओं से परहेज है।
ललित
मिश्र: संदीप जी अब अपने प्रेम-प्रसंग पर भी प्रकाश डाल ही दीजिये।
संदीप
तोमर: “जहाँ मैं हूँ” यानि एक अपाहिज की डायरी में बचपन के प्रेम-प्रसंगों का
जिक्र है। जिस चीज ने मुझे चकित किया वह यह कि उससे पाँचवी कक्षा के बाद जब परिचय
हुआ तो उसने एम.ए. हिंदी कर लिया था और वह शादी की खरीदारी कर रही थी, कुछ एक
प्रेम-प्रसंग समय के साथ ख़त्म हुए, गॉव के प्रेम-प्रसंग ऐसे ही होते हैं, विवाहित
मुस्लिम महिला का आकर्षण भी क्षणिक क्रिया मात्र थी। दिल्ली कैंट में जिससे परिचय
हुआ वह उस समय मात्र नवीं कक्षा की छात्रा थी और मैंने बी.एस.सी कर लिया था। वह सम्बन्ध
घनिष्ठ होता चला गया। इसके बाद बाकायदा हमारे सम्बन्ध बने। उन्होंने नया मकान
खरीदा था तो जब भी अकेले होती उसका समाचार मिल जाता, तो प्रेमालाप चलता रहा। बी.एड
के समय की प्रेमिका ने पहले विवाह का प्रस्ताव रखा फिर प्रेम किया, वह लम्बा नहीं
चला। “थ्री गर्लफ्रेंड्स” की तीसरी नायिका ने दिल्ली के सारे खंडहरों और जोड़े के
साथ बैठने वाले पार्कों,
अँधेरे वाले रेस्तरों सब में हमें घुमाया। उसके बाद वह एक स्कूल में अध्यापिका हो
गयी। हिन्दी में एम.फिल थी लेकिन बेहद सनकी महिला थीं। उससे हमारा सम्बन्ध कई
वर्षों तक बना रहा।
ललित
मिश्र : वो थीं कौन, नाम , परिचय इत्यादि ?
संदीप
तोमर: क्या इतना काफी नहीं है कि वो महिला थीं। नाम परिचय सब महिला के बदनामी के
सबब बनते हैं, अब सब कुछ बीती बातें हैं।
ललित
मिश्र: वैवाहिक और पारिवारिक जीवन से कुछ सवाल हो जाए?
संदीप
तोमर: तो हमने उस नायिका से कहा कि विवाह के बारे में क्या ख्याल है, तो बता दूँ
कि अपनी शादी से पहले हमने उन्हें कई बार प्रस्तावित किया था, उन्होंने
कहा कि मैं एक विकलांग व्यक्ति से शादी नहीं करुँगी। पहले भी दो बार दो नायिकाओ से
ये ही जबाब सुन चुका था इसलिए हैरानी नहीं थी, हैरानी ये थी कि ये सम्बन्ध कुछ
पुराना था कुछ लम्बा था, पुरे 7 साल लम्बा। २१ जनवरी २००५ को अंतिम कोशिश की थी,
ऐलान हुआ की आज से सारे सम्बन्ध खत्म। ३० जनवरी को हमारी बहुत ही साधारण तरीके से
शादी हो गई। वह हमारी शादी के बाद खुद को अकेला महसूस करने लगी। उसके जीवन में
एकाएक अकेलापन घर कर गया। उसे लगता कि वो हमें किसी से शेयर करते नहीं देख सकती,
उसे समझाया कि हकीकत में जीना सीखे। वो मिलने की जिद्द करती पूर्व की तरह सम्बन्ध रखने की जिद्द करती।
जनवरी २००७ में उसका विवाह हुआ तो स्थिति सामान्य हुई, बाद में पता चला कि वह
पारिवारिक जीवन में दुखी है। इसमें कुछ भी तो नहीं किया जा सकता था।
ललित
मिश्र: और इन सबके अतिरिक्त कोई महिला आपके जीवन में आईं?
संदीप
तोमर: देखिये ललित जी, जीवन है तो लोग आपके जीवन में प्रवेश भी करेंगे, इसे अतिरिक्त
नहीं कहा जा सकता, एक वाकया याद आता है। एक सहकर्मी
अक्सर बात-बात में झगडती थी, उसे पता चला कि मैं साहित्यिक व्यक्ति हूँ उसके बाद
उसने ऐसा व्यवहार किया कि जैसे पहले हमारे बीच कोई झगड़ा ही नहीं हुआ। वह महिला मेरे
साहित्य में दिलचस्पी लेने लगी थी, मेरे आवास पर भी वह आई थीं। वह सम्बन्ध जारी
रखना चाहती थी लेकिन मुझे लगा कि नहीं इससे जीवन और लेखन दोनों प्रभावित होगा, हम
सहमति से अलग तो हो गए लेकिन मानसिक सम्बन्ध छूटा नहीं। लेकिन आखिर में यह हुआ कि
हम लोग दोस्त भले ही अच्छे रह सकते हों लेकिन प्रेमी-प्रेमिका की तरह रहना मुश्किल
है।
ललित
मिश्र: यानि लोग आपके बारे में ठीक ही आकलन करते हैं कि हर नई प्रेम रचना के लिए
आप असल में नायिका की तलाश करते हैं, एक लेखक के तौर पर लोग आपको याद नहीं करते
बल्कि बतौर आपकी जन्म राशि मिथुन के सर्वगुणों से आपको याद करते हैं?
संदीप
तोमर: देखिए अब वही दिक्कत है। मैं जन्म-राशि या नाम-राशि पर तो यकीन करता नहीं
लेकिन हाँ मैं जब लिखता हूँ तो पूरी तरह से असंतुष्ट रहता हूँ मुझे लगता है कि
कहानी को कल्पना से नहीं यथार्थ से लिया जाए यथार्थ अर्थात भोगा हुआ इस बात पर एक किस्सा याद आया,
मेरे मोबाइल पर एक कॉल आया उस समय मैं एक कहानी की तलाश में था ऐसा कुछ कहानी का
प्लाट था जिसमे नायिका असल में नहीं है बस वो कल्पना में आकर संवाद करती है और
नायक को उसके सच होने का अहसास होता है, तो उस कॉल करने वाली लड़की से अक्सर बात
होती और मैंने उन संवाद के सहारे कहानी को अंजाम तक पहुँचाया। बाद में उसे हकीकत
बताई तो उसने मुझे गालियाँ दी और अपना मोबाइल नम्बर बदल लिया।
ललित
मिश्र: आप एक राजपूत परिवार से आते हैं, देश में जाति, धर्म, दलित विमर्श,
नारी-विमर्श सब पर बहुत हो-हल्ला होता है, आप पर भी स्वर्ण मानसिकता के आरोप लगते
रहे होंगे? क्या कहेंगे आप?
संदीप
तोमर: मुझे लगता है जैसे मेरा नाम संदीप है वैसे ही तोमर है, ये मेरे नाम का
हिस्सा मात्र है इससे अधिक कुछ भी नहीं, संदीप बाल्मीकि, संदीप कर्दम या संदीप
मिश्र भी होता तो भी मैं मैं ही होता, मुझे जातीय दम्भ से चिढ है। मेरे सब कागजी
रिकॉर्ड में संदीप तोमर है, उससे छेड़छाड़ तो मैं नहीं कर सकता हाँ, अगर मेरे
साहित्य या निजी जीवन में उसका असर दिखाई देता है तो मेरा सामाजिक होना बेफिजूल है।
मैं किसी जातिवादी संगठन की बैठक में नहीं जाता। बहुत बार मेरे पास बुलावे आते रहते
हैं। मैं हमेशा उन सबसे दूर ही रहता हूँ।
ललित
मिश्र: आपके मित्र लम्बे समय तक आपके मित्र नहीं रहते, कही ऐसा तो नहीं कि आपको
मित्र नहीं शागिर्द पसंद है?
संदीप
तोमर: एकदम गलत इल्जाम है ये, पहले दिल्ली में कला और साहित्य के लोगो के लिए काफी
हाउस होते थे अब वहाँ भी प्रेमी जोड़ो ने कब्ज़ा किया हुआ है, इस तरह के कॉफी हाउसों
में अब सार्वजनिक मीटिंग तो होती नहीं है, वहाँ
रचनात्मक चीजों पर बातचीत होती थी तब आत्मीयता भी पनपती थी अब जो दिल्ली की लाइफ
स्टाइल ऐसी है कि इसमें लोगो के पास समय तो है नहीं, हमने गोष्ठियों का दौर शुरू
किया, अखिलेश सरीखे मित्र राजनीति में सक्रिय हैं, बाकी जिन्हें विधा पर मेहनत के लिए कहों वो
समझते हैं कि अब सीखने को क्या है सब तो सीख चुके तो इस तरह दूरियाँ बढ़ जाती हैं।
मिलने-जुलने की न किसी को फुर्सत है न कोई जगह नहीं ही है। तो स्वाभाविक तौर अब
मिलना-जुलना बन्द है फिर सोशल मिडिया का वर्चुअल वर्ल्ड भी पहले जैसी आत्मीयता में
बड़ी बाधा है, हालाकि इसने समाज को एकसूत्र में भी पिरोया है लेकिन वो रिश्ते भी
क्षणिक ही हैं।
ललित
मिश्र : एक साहित्यिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन में क्या खोया क्या पाया ? यानि
जिंदगी से आपने हासिल क्या किया?
संदीप
तोमर: हासिल क्या हुआ ये तो मैंने कभी सोचा भी नहीं, हाँ मेरी कविता की पंक्तियाँ
याद आती है-
मौसम
की तरह अपने रंग
बदलती
रही जिन्दगी ....
इसका
अंतिम बन्द है-
कभी
बरसात बनी
बादलो
की कालिमा लिए
टप-टप
आँसू बहाती
सिसकती
रही जिन्दगी।
अपने
एक इंटरव्यू में राजेन्द्र यादव ने कहा था वही शब्द दोहरा रहा हूँ- ये गलियाँ थीं
जिनसे होकर मैं गुजर गया। आशा है आपको आपके सवालों के जबाब मिल गए होंगे। कुछ नए लोग आयेंगे नई
आलोचना के साथ।
रोचक ढंग से ली गई साक्षात्कार के साथ, बेबाक राय हर विषय पर। बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteस्वछंद हो लिखते रहे।
बधाई एवम् शुभकामनाएँ।
जी पम्मी जी, आभार आपका।
Deleteबेहतरीन साक्षात्कार
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
डॉ भावना जी शीघ्र ही आपका लिया साक्षात्कार भी ब्लॉग पर होगा
Deleteअच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteजी आभार, आपका नाम न लिखे होने के कारण सम्बोधित करने में परेशानी हो रही है, तथापि आप मेरे लिए स्तुत्य हो.
Deleteबहुत ही बढ़िया साक्षात्कार। आपने संघर्ष से जीतकर मंजिल प्राप्त की है। यह आपके लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है।
ReplyDeleteआभार ओमप्रकाश जी
Deleteबहुत बढ़िया साक्षात्कार, सन्देश भी की व्यक्ति मानसिक रूप से सशक्त होना चाहिए।
ReplyDeleteशुभकामनाएं
आभार कुसुम जी
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