लेखक
अपने आप को सीमाओं में नहीं बांधता
(संदीप तोमर व अखिलेश द्विवेदी “अकेला”)
डॉ
रामदरश मिश्र जी एक ऐसे लेखक हैं जो कभी विवादों में नहीं रहे। सतत लिखते रहे। लगभग
६० वर्षों से अधिक लेखन करने के बाद भी उनमें एक बच्चे की भांति जिजीविषा है। उन्होंने अपने लेखन के लम्बे कालक्रम में अनेक
बदलाव देखे। भारत के लोकतंत्र के शैशव से प्रौढ़ होते काल के वे साक्षी रहे। इस दौरान साहित्य गाँधीवादी
विचारधारा से लोहियावाद, समाजवाद, मार्क्सवाद से यात्रा करते हुए राष्ट्रवाद तक का
साक्षी रहा है और इस यात्रा का प्रभाव भी साहित्य में प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष
प्रकट होता रहा है।
यह कहना
अतिश्योक्ति न होगी कि डॉ. रामदरश इस लम्बे कालक्रम में विभिन्न सोपानो को अपने
लेखन में समेटते रहे। साहित्य के इस बड़े हस्ताक्षर से हिन्दी लेखक संघ के संस्थापक और साहित्यकार संदीप तोमर
और कथाकार अखिलेश द्विवेदी “अकेला” उनके निवास स्थान पर मिलने गए। साहित्य अकादमी
पुरस्कार की औपचारिक बधाई के पश्चात जो अनौपचारिक बातचीत हुई उसे कलमबद्ध करके पाठको के
सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है ---
अकेला
जी : आपके समवर्ती लेखकों में अधिकांश विवादों में रहे या फिर घेरेबंदी में लिप्त
रहे। आप इस तरह के लोगो के बीच भी तठस्थ रहे। ऐसा कैसे कर पाए आप?
मिश्रजी:
लेखक किसी एक का नहीं होता। लेखक न संघी होता है न ही कांग्रेसी या कोई अन्य, लेखक की स्वयं की दृष्टि होती है। लेखक का काम
होता है गलत का विरोध करना, आप स्वयं को किसी एक विचारधारा में नहीं बांध
सकते। लेखक की नजर में सब रहता है। उसकी दृष्टि में कुछ छिपा नहीं होता, उसका फर्ज होता है कि वो तठस्थ होकर लिखे।
अकेलाजी
: मैं कुछ अच्छे रचनाकारों को जनता हूँ जो अच्छी रचना करने का मांदा रखते हैं
तथापि किसी एक विचारधारा से प्रभावित होकर अपने विचारों की व्यापकता को कुंद कर
रहे हैं।
मिश्रजी:
आप कोई भी हैं आप भले ही लोहियावादी हैं भले ही मार्क्सवादी है या फिर गांधीवादी आपकी
दृष्टि में समाजवेदना होगी। आप समाज के लिए लिख रहे हैं। कथ्य जीवन है, समाज ही कथ्य है, कविता जीवन से
बनती है। ये जितने भी सिद्धांत हैं, उन सिद्धांतों पर कविता नहीं लिखी जाती है, सिद्धांतों से जीवन देखा जा सकता है। यही वजह है
कि रचना किसी भी वाद से प्रभावित होकर लिखी जाये रचना में अंतर नहीं दिखता। इसलिए
रचना में सभी विचारधाराओं में समानता परिलक्षित होती है।
संदीप
तोमर : नए रचनाकार भी इन वादों से प्रभावित हैं, आपकी दृष्टि में आपके युग के रचनाकरों में और नए
लेखकों में आप क्या अंतर पाते हैं.. हालाकि आपको
किसी युग में बांटकर नहीं देखा जा
सकता।
मिश्रजी:
(हँसते हुए) नया लेखक अच्छा लिख
रहा है, विभिन्न विधाओं में लिख रहा है। अभी लोग अतुकांत
लिख रहे हैं। जिसे मैं गद्य छंद कहता हूँ। अभी गद्य छंद का का दौर है। छंद लिखने
वालो की संख्या बहुत कम है। लिखते तो बहुत हैं लेकिन टिक नहीं पाते। बचते कम
ही हैं।
हर समय
में अच्छा-बुरा
लिखा जाता रहा है.. इस बीच कुछ नयी विधाएं भी आई हैं। ऐसी ही एक विधा है हाइकू जो
जपान से आई है। हाइकू लिखने की भी एक भेड चाल सी आई है... कुछ लोगो ने लिखना शुरू
किया बाकि सब भी देखा-देखी लिखने लगे हैं।
संदीप
तोमर: हाइकू जैसी विधाओं का भारतीय साहित्य पर क्या प्रभाव परिलक्षित हो रहा है?
इसे आप किस रूप में देखते हैं। कम शब्दों की विधा है, बिना मेहनत के कोई लिखता है तो बुराई क्या है?
मिश्रजी:
हाइकू कठिन विधा है। कम शब्दों में अपनी बात कहना मुश्किल काम है लोग लिख भी रहे
हैं। इस शैली में ज्यादा कुछ कहने को नहीं है। बहुत सशक्त विधा मैं इसे नहीं मानता।
चंद शब्दों (नौ या दस) में कोई क्या सन्देश दे सकता है। अनेक विधाएं हैं जिनमे
लोगो ने सन्देश दिया है अपनी बात कही है। दोहा गजल के साथ कविता में भी अनेक
विधाएं हैं, गीत, नवगीत, छंदमय, छंदमुक्त लोगो ने सबमें अपनी बात कही है, कह भी रहे हैं। ऐसे में मुझे इस विधा का भविष्य ज्यादा उज्जवल
नहीं लगता।
संदीप
तोमर: आपने अभी गीत, नवगीत, इत्यादि का जिक्र किया। मैंने आपके कुछ गीत पढ़ें हैं
लेकिन वो आपके शुरुवाती लेखन के समय के हैं। आपका गीत लेखन से अन्य विधाओं की ओर
पलायन या फिर लगाव का कोई विशेष कारण?
मिश्रजी:
मेरे लेखन में कविता की शैलियाँ बदलती रही। गीत पहले लिखे लेकिन बाद में कविता के
अन्य रूप मैंने अधिक लिखे। इसका तात्पर्य ये नहीं कि गीत लिखना बंद कर दिया... गीत
अभी भी लिखें हैं लेकिन गीत में सारी बातें नहीं कही जा सकती। गीत अभी गया नहीं
है। अभी भी चल रहा है। बहुत हैं जो गीत
लिख रहे हैं, अच्छे गीत लिखे जा रहे हैं।
कविता
विधा अभी गद्य छंद वाली विधा बन गयी है। सभी विधाओं में लोग अपनी बात कह रहे हैं।
अकेला
जी: क्या लेखक वामपंथी, मार्क्सवादी या भाजपाई हो सकता है? इस बात के क्या मायने
हैं? अगर कुछ लोग ऐसा करते हैं तो क्या वो सही हैं?
मिश्रजी:
किसी वाद से प्रभावित होकर दल बनाना मैं उचित नहीं मानता। किसी के साथ उठाना-बैठना
अलग बात है। आचरण में किसी वाद से प्रभावित होना अलग बात है।
किसी भी
विचारधारा से बिम्ब लिए जा सकते हैं लेकिन लेखक अपने आपको सीमाओं में नहीं बांधता।
त्रिलोचन
ने भी भारतीय जनता पार्टी से बिम्ब लिए तो क्या वो भाजपाई हो गए? अगर संदीप
तोमर लेफ्ट से बिम्ब लेते हैं तो उन्हें वामपंथी कहना न्याय नहीं होगा।
किसी को
सम्मान मिलता है तो विवाद होता है। मुझे
सम्मान मिला तो विवाद
नहीं हुआ। मुझे मिले सम्मान को सराहा गया..।
संदीप
तोमर: आपके लेखन में समाजवादी दृष्टिकोण दिखाई देता है ऐसे में
आपको किस विचारधारा के लेखक के रूप में माना जाये?
मिश्रजी
: अगर आपके पास लेखन दृष्टि
है तो आप गांधीवादी भी हैं लोहियावादी भी हैं, मार्क्सवादी भी हैं।
मेरा
मार्क्सवाद गांधीवाद और लोहियावाद का विरोध नहीं करता। लोहिया के पास एक विजन था, लोहिया ईमानदार
विचारक थे। लोहिया की ईमानदारी पर किसी को संदेह नहीं है।
आप किसी
भी वाद के हों आपके विचार अन्य विचारधाराओं का विरोध न करें, आपका काम है रचनाकर्म, आप इसे ईमानदारी से निभाएं।
अकेलाजी
: जातिगत भेदभाव पर आपके विचार?
मिश्रजी
: विवादित मुद्दों पर बोलना मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं स्वयं को विवादों से दूर रखता
हूँ।
मेरी एक
कविता है जिसमे एक इंसान का दर्द है, शायद आपको अपने
प्रश्न का जबाब मिल जाये—
ये
किसका घर है
हिन्दू
का
ये
किसका घर है
मुस्लमान
का
ये
किसका घर है
इसाई का
सुबह से
ही भटक रहा हूँ
मैं
खोजता
वो एक
इन्सान का घर
कहाँ
गया?......
जातियां
ख़त्म हो जाएँ तो कितना अच्छा हो? अभी भी ऐसा है कि उच्च वर्ग के लोग नीचे से उठे लोगो को बर्दास्त
नहीं कर पा रहे हैं। उनके साथ मार-पीट
होती है तो हृदय आहात होता है।
संदीप
तोमर: इसकी परिणति धर्मांतरण के रूप में देखी जा सकती है।
मिश्रजी:
आपने ठीक कहा, जब
कुछ जातियों को हिन्दू होने का लाभ नहीं मिला तो वो धर्मान्तरित हो गए। इस प्रकार
की परिघटनाओं से बचने के लिए उन्हें विश्वास दिलाना होगा कि वो समाज का एक हिस्सा
हैं। उनकी अपनी उपयोगिता है... अपनी पहचान है।
अकेलाजी:
अभी गॉव पर कम लिखा जा रहा है. अपने कभी गॉव पर बहुत कुछ लिखा था। “जल टूटता हुआ”, “अपने लोग” जैसी कालजयी रचनाएँ
अपने की हैं। अब ऐसा क्या है कि लोग गॉव
पर नहीं लिखा रहे?
मिश्रजी:
ऐसा नहीं है, अभी भी गॉव पर लिखा जा रहा है.. विवेकी राय गॉव
पर लिख रहे हैं। आपके उपन्यास “आवें की आग” की भूमिका मैंने लिखी है वो भी गॉव पर
लिखी रचना है तो गॉव पर अभी भी लिखा जा रहा है। अंतर सिर्फ इतना है कि पहले सब कुछ सहेजा जा रहा था
अभी ऐसा नहीं हो पा रहा
है।
संदीप
तोमर : आपकी एक रचना पढ़ी थी –
अभी भी
आँखों को खींचते हैं
फूल,
पत्ते, मौसम , ऋतुएं
और मैं
संवाद करता करता
महकने
लगता हूँ..
एक
आखिरी सवाल – कहाँ से मिली प्रेरणा कि आप ये रचना लिख गए? लगता है इस उम्र में भी
वो “मैं” जिन्दा है?
मिश्रजी:
मन कहता है, मन कहता है कि मैं आज भी छोटा बच्चा हूँ। मन में
अभी सृजनात्मकता है। मन में बचपन है, प्रकृति
के सौन्दर्य से मैं अभी भी ताजगी महसूस करता हूँ, गॉव को
जीने के लिए मैं तत्पर रहता हूँ। अब गॉव जाना नहीं हो पाता, तो यहीं मकान के एक हिस्से में बगीचा बना लिया
है। उसमें प्रकृति से जुडाव महसूस कर लेता हूँ, लेकिन गॉव को नहीं
भूला जा सकता, गॉव जो मन में बसा है जो प्रकृति से लगाव है वही
प्रेरणा देता है कि मैं अभी भी जिन्दा हूँ।
शरीर
शिथिल है, तन कहता है चुप बैठे रहिये, शरीर स्वस्थ है लेकिन अब थकान हो जाती है।
आप लोग
नवलेखन कर रहे हैं, लिखिए, अच्छा लिखिए, विवादों से बचिए, मेरी
शुभकामनायें आपके साथ हैं. अच्छा अब विदा चाहूँगा, मेरे विश्राम का समय हो गया।
(साहित्य अकादमी पुरस्कार की शुभकामना के साथ संदीप तोमर और अखिलेश द्विवेदी “अकेला” ने विदा ली, और यादगार के तौर पर एक छायाचित्र)
बहुत अच्छा साक्षात्कार.....
ReplyDeleteआभार सत्यम जी, साक्षात्कार में दिलचस्पी दिखाने और समय देने के लिए
Delete