पुस्तक - समीक्षा
पुस्तक - आवें की आग
लेखक -
अखिलेश द्विवेदी अकेला
प्रकाशक - मित्तल बुक एजेंसी
पृष्ठ - १७६
मूल्य - १९० रूपये
समीक्षक-
संदीप तोमर
विगत कई वर्षों से नहीं वरन दशकों से हिन्दी-साहित्य
में दलित-साहित्य एक आन्दोलन के रूप में सामने आया है लेकिन यह अवश्य ही
महत्वपूर्ण है कि इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं और कथाओं के माध्यम से कुछ दलित लेखकों
में गांधी जैसे लोगों पर कीचड़ उछालना शुरू किया है।
साहित्य के नाम पर संकुचित दृष्टिकोण के साथ एक रचनात्मकता का परिचय देते हुए बेवजह सुर्खियों में रहने
का प्रयास किया है। कुछ समय
पहले प्रेमचन्द की कृति 'रंगभूमि' की प्रतियों को जलाये जाने जैसी शर्मनाक घटनाएँ भी सामने
आई। ऐसे में सवर्ण लेखकों के सामने निश्चित ही दलित लेखन एक गम्भीर
कार्य है, अपनी ही रचना का अपमान सहना पड़ सकता
है। ऐसे में अखिलेश सरीखे लेखक जब अपनी कथाओं में दलित जाति सूचक शब्दों का प्रयोग
कथा की माँग और समाज की स्थिति का वर्णन करने के लिए करेंगे तो उनके सामने
स्थापित होने से पहले रचना के अस्तित्व का बनना अहम् प्रश्न होगा। ऐसे विकट दौर
में अखिलेश ने "आवें की आग" में जो साहस दिखाया है वह अवश्य ही हिम्मत वाला और
सराहनीय कहलाने योग्य है।
आवें की आग में औपन्यासिक कला प्रभावशाली ढंग से व्यक्त हुई है। उत्सुकता, कौतुहल, रोचकता का सम्मिश्रण न होते हुए भी दिलचस्प किस्सागोई के प्रवाह में उपन्यास को ढालने का प्रयास किया
गया है। उपन्यास की विशिष्टता इस बात में है कि लेखक ने आंचलिकता को इस प्रकार
प्रस्तुत किया है कि कथा किसी ऐतिहासिक कालक्रम की मोहताज नहीं रहती अपितु हर एक
काल, हरएक समाज की कथा बन जाती है।
और यही बात इसे आँचलिक जीवन से जुड़ी समस्त घटनाओं के साथ औपन्यासिक कथा में बिंबित करती प्रतीत होती है।
उपन्यास में वे आसानी से ढूँढ़े जा सकते हैं, जो कभी विनोबा भावे ने भूमि सम्बन्धी, खेती सम्बन्धी कार्यों के लिए इस्तेमाल किए थे। ग्राम्य-जीवन, खेती, नहर के पानी, कुम्हार के आवाँ लगाने और उस पर राजनीति, अर्थात ग्राम्य-जीवन की पूरी तस्वीर उपन्यास की कथा के
साथ-साथ मूर्त रूप में सामने उपस्थित हुई जान पड़ती है और उपन्यास का शीर्षक अपनी
सार्थकता सिद्ध कर पाता है।
देखा जाये तो सचमुच इस युवा
कथाकार की किस्सागोई इसे प्रेमचन्द, फणीश्वर रेणु और रामदरश मिश्र जैसे सलाका पुरुषों की आंचलिक शैली
के समकक्ष लाकर खड़ा कर देती है। निश्चित ही अखिलेश की मंशा पहले उपन्यास से ही
स्थापित होने की नहीं रही होगी लेकिन उपन्यास के अंश पढ़कर यह अहसास
स्वाभाविक ही हो जाता है कि आवें की आग सेवक कुम्हार के
हृदय की आग न होकर कथाकार के स्वयं के हृदय में सुलग रही आग है।
सम्पूर्ण ग्राम्य उनके जीवन में रचा -बसा है। निश्चय ही आज के दौर में इस तरह के
उपन्यास लिखा जाना प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाने के साथ ही संस्कृति को नए रूप में
स्थापित करने का एक लघु आन्दोलन की है। हालांकि यह काम जोखिम भरा जरूर है लेकिन
असम्भव कदापि नहीं।
उपन्यास में कई सशक्त पात्र हैं जो
ग्राम्य यथार्थ की प्रामाणिकता के गवाह हैं। इन पात्रों के माध्यम से लेखक ने
गाँवों में व्याप्त संबन्धों, व्यवहारों, क्रियाकलापों एवं क्षुद्रताओं की पूरी पड़ताल की
है । लेखक ने उपन्यास में स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श को प्रभावशाली ढंग से
प्रस्तुत किया है। सेवक और मँगरे इसकी एक मजबूत कड़ी के रूप में आते हैं। नारी की
पीड़ा और नयी चेतना से ओतप्रोत नेताइन के माध्यम से स्त्री की नई ऊर्जा और मूल्यवान संघर्ष को रेखांकित किया गया है।
लेखक मात्र कथा ही नहीं कहता, कथा के माध्यम से से वह पिछडे दलित और स्त्री पात्रों के चरित्र का
चित्रण भी करता है और उनके जीवन की गतिशीलता भी प्रकट करता है| नेताइन के संवाद, भले ही मातादीन के साथ दलिया बेचने का प्रसंग हो या अधिकारी के सामने सच बोलने का साहस हो, उपन्यास में नैतिक मूल्यों की ओर लौट आने के उपदेश के रूप में दिखाई पड़ते
हैं। मातादीन, टुटटे, कपाली और सुखराम अलग-अलग पात्र जरूर है लेकिन उनकी आपराधिक प्रवृत्ति उन्हें एक संयुक्त पात्र
बनाती है।
अखिलेश धर्म व राजनीति पर तीक्ष्ण प्रहार करते हैं। वे राजनीतिक दाँव-पेंचों का खुलासा करते हैं।
अपने स्वार्थ के लिए सुदामा
का मंगरे के चुनाव प्रचार में पानी की तरह
पैसा बहाना और अन्त में जनेऊ के नाम पर पाला बदलना धर्म और राजनीति
दोनों पर करारा प्रहार है। साथ ही सुदामा के आवरणहीन, आडम्बरयुक्त धर्म की ठेकेदारी पर मंगरे और नेताइन द्वारा
उंगली उठाना और उसे धिक्कारना आज के धर्म के पण्ड़ो
के गाल पर करारा तमाचा ही है।
अखिलेश मात्र 'मनु संस्कृति पर आग उगलना नहीं जानते वे दलित मंगरे के सत्ताधारी
सवर्णों से बार-बार प्रताडित होने के बाद भी सत्ता मिलने पर बदले की भावना न रखने
को माध्यम बनाकर समाज को चेता देना चाहते है। यह समाज परिवर्तन का एक बड़ा संकेत
है।
एक अच्छी किस्सागोई के साथ अखिलेश के
दुर्बल पक्ष भी आसानी से चिन्हित होते हैं। अभी उन्हें भाषा के स्तर पर और अन्दर
(गहराई ) तक जाना होगा | पुलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों का भेद न कर पाना लेखक की एक बड़ी कमजोरी है।
नमक की चटनी जैसे शब्द का प्रयोग
भाषा की कृत्रिमता को प्रकट करते हैं। कुछ
शब्दों के प्रयोग अर्थ को एकदम भिन्न कर देते हैं। लेखक ने ‘गैर जाति मुलाहिजा कर देगी?’ लिखा है। मुलाहिजा को देखभाल के लिए प्रयोग
किया जाता हैं भाषा का स्तर उपन्यास में बार-बार कमजोर नजर आता है । यही
उपन्यास का दुर्बल पक्ष है। तथापि लेखक यथार्थ को पहचानने की क्षमता
रखता है। दलिया बांटना सरकारी मंशा प्रकट करता है तो बूढ़ी का गाँव न चूडने का फैसला मिट्टी से जुड़ाव की कहानी कहता है जहाँ इज्जत से बढ़कर अपनी माटी हो जाती है। मंगरे
का सनकीपन ही उसका सिद्धान्त है, गरीबी में भी उसमें स्वाभिमान है। नेताइन तो सम्पूर्ण चरित्र है। उसमें संस्कार भी है | दरिद्रता के प्रति संवेदना की
है। वह चालाक है पर धूर्त नहीं, वह निडर है।
कुम्हार को प्रजापति कहने के प्रसंग
से एम.एन. श्रीनिवास के ‘आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन’ के निष्कर्षो को प्रमाणित किया है। उपन्यास के कितने ही प्रसंग यह
साबित करते हैं कि अखिलेश सीधी सपाट भाषा में अपनी बात कह जाते हैं। भाषा में कोई
लाग-लपेट नहीं। लेकिन इतना अवश्य है कि शब्द-विन्यास और वाक्य-विन्यास पर अभी उन्हें
सोचना शेष है। भाषा का व्याकरण उनके लेखन को और प्रभावी बनायेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। उपन्यास को उसको विशेषताओं के संदर्भ में
देखा जाना चाहिए। पाठक इसे पढ़कर तर्क और चिंतन के आधार पर संवाद के लिए
तैयार अवश्य रहेंगे।
सन्दीप तोमर
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