लघुकथा पर कुछ विचार
- संदीप तोमर
एक बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि विषय की नवीनता और
प्रयोधर्मी होना किसी भी विधा के संवर्धन के लिए आवश्यक तत्व है। जो प्रयोगधर्मी
नहीं होते, वे किसी भी विधा का अधिक भला नहीं कर
पाते। यूँ लघुकथाओ में अभी जो लेखन हो रहा है, वह अधिकांशत: बहुत सतही हो रहा है। यानी विधागत अनुप्रयोग न के
बराबर। कुछ प्रयास अवश्य हुए हैं लेकिन वे सब इसके संवर्धन के लिए नाकाफी ही हैं।
सोशल मीडिया ने जहाँ लोगों को प्लेटफॉर्म देकर उन्हें संपादकों से निजात दिलाई है
वहीं दूसरी तरफ आत्मश्लाघा का शिकार भी भरपूर बनाया है। अधिकांश नवलेखक सोशल
मीडिया और अधकचरे लेखकों के मोह में फंस कर अपने लेखन को कुंद कर लेते हैं। हर
विधा का अपना व्याकरण है, जिस भाषा मे लेखक लिखता है उसका भी
अपना व्याकरण होता है, प्रत्येक लेखक को विधा के व्याकरण का
ज्ञान भी अवश्यमभावी है, जो इसे सीखने का प्रयास नहीं करते, वे स्वयं और विधा दोनों का ही अहित करते हैं। विचार कीजिये, जो स्वयं व्याकरण नहीं सीखते वे किसी को क्या सिखा पाएंगे। हमें
इस बिंदु पर विचार करने की आवश्यकता है।
लघुकथा विधा की एक मुख्य समस्या है इसमें आलोचक, समीक्षकीय क्षमता रखने वाले व्यक्तियों का अभाव, सोशल मीडिया पर तो उसका लगभग अकाल ही है।वाह वाही की चाहत, और आलोचना से बचाव भी सोशल मीडिया के लेखकों को सीखने से वंचित
करता है। एक बात समंझना महत्वपूर्ण है कि लघुकथा लिखने का उद्देश्य मनोरंजन या
वाह-वाह करवाना कतई नहीं। आवश्यकता है कुछ उद्वेलित करने वाली समाजिक सरोकारों पर
आक्रामक लघुकथाएँ लिखने की। चन्द लेखक हैं, जो ये काम बड़ी बखूबी से कर रहे है, जो समसामयिक घटनाक्रमों पर पैनी नजर रखते हैं और अपने काल का
प्रतिनिधित्व भी करते हैं। वही कुछ स्थापित लेखक लकीर के फकीर बने हैं। जो लकीर के
फकीर हैं वो न तो अपने लेखन में विषयो में विविधता ला पाए हैं ना ही प्रस्तुतीकरण
में नयापन ही ला पाए, जो लेखन वे नब्बे के दशक में कर रहे थे
अमूमन वही अभी भी बदस्तूर जारी है। कुछ लेखक जो इस विधा को कुछ सार्थक रचनाएँ दे
सकते थे उन्होंने प्रकाशन के दायित्व को अपना धर्म बनाना अधिक उचित समझा। और इस
विधा में धन के तत्व खोजना उनकी मंशा में शामिल हो गया। उनका बार बार ये अलापना कि
लघुकथाओ का पाठक वर्ग सिमट रहा है, इस बात की ओर संकेत करता है कि आप सम्पादकीय दायित्व का निर्वाह
किस शिद्दत से कर रहे हैं? यानी आपके अंदर वो सम्पादकीय दृष्टि ही
कुंद है जो पाठक को कुछ उत्तम व नवीन दे सकती थी। अब तो स्वयं की किसी एक रचना पर आलेख लिखवाकर पुस्तकें निकालने
का भी चलन यहाँ शुरू हुआ है मतलब यहाँ बहुत कुछ खुद का प्रोमशन बिना हल्दी फटकरी
लगे करना ही वरिष्ठ जन का दायित्व मानिए। दरअसल
इस प्रवृत्ति से साहित्य का हित सधता हुआ प्रतीत नहीं होता।
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