Saturday, 17 April 2021

अछूते संदर्भ की छुअन

 

पुस्तक समीक्षा 

पुस्तक का नाम : अछूते संदर्भ 

संपादक : कनु भारतीय
समीक्षक: संदीप तोमर



1984 में सारिका का लघु कथा विशेषांक आया जिसमें कुछ कहानीकारों की टिप्पणियाँ इस प्रकार थी - मैंने पाँच-सात लघुकथाएं लिखी है। मुझे लगा कि यह विधा बहुत कठिन है। मैंनहीं लिख पाऊगा लेकिन चुटकुले जरूर लिख सकता हूँ, जिनको मैं लघुकथा नहीं मानता क्योंकि लघुकथा में लेखक मूल स्वर पकड़ता है। बड़ी कहानी को संक्षिप्त करके लिखना लघुकथा नहीं है।

-राजेन्द्र यादव



मेरे सामने अगर होर्जे, लुई बोरखेस और इटालो कालबोनों की लघुकथाएँ हैं तो इनको दुनिया मानती है। मैं नकारने का साहस कैसे कर सकता हूँ? अभी हाल में एक पुस्तक इटली कि दंत कथाएँ : एक पुनर्वाचनमेन इस काम को रचनात्मक बताया गया है, इसका पूरी दुनिया मे स्वागत हुआ है।

... ईमानदारी से बताऊँ कि मुझे पढने का कम अवकाश मिलता है, लेकिन जितनी भी लघुकथाएँ मेरी नजर से गुजरी है, वे सब चुकुलानुमा लगी। चुट्कुले और गद्य के बीच सिर पटकते हुए दिखाई दीं।

-मनोहर श्याम जोशी



लघुकथाएँ लिख तो रहे हैं, लेकिन इसमें ज़्यादातर वाहियात है। मेरा यह मत भी है कि यदि कोई बात कम शब्दों में कही सकती है तो उसे कम शब्दों में कहा जाए | कोई भी सूचना अपना आकार लेकर आती है, लेकिन आजकाल लघुकथाएं यही सोचकर लिखी जा रही है कि इन्हें लिखता है।"

- मुद्राराक्षस



मैं सोचता हूँ कि हमारी जिन्दगी की सच्चाई इतनी गहरी और संशलिष्ट है कि सब लघुकथा में समाहित नहीं हो सकती, केवल झलक दे सकती है। बहुत से लेखक आलस्य का सबूत दे रहे हैं, इसलिए उन्होने यह सरल रास्ता अख़्तियार किया है, लेकिन आज यथार्थ इतना उलझा हुआ है और गड्ड-मड्ड है कि इस कहानी भी नहीं पकड़ पायी है | लघुकथा की तो बात ही क्या है ?"

-शानी



चारों विद्वानों के उक्त विचारों से एक बात तो साफतौर पर तय है कि चुट्कुलेबाजी या फिर लघु कलेवर में लिखी रचना को लघुकथा कहना न्यायोचित नहीं होगा।

हाल ही में संशक्त लघुकथाकार कनु भारतीय के संपादन में चुनिन्दा लघुकथाओं का संकलन "अछूते संदर्भनाम से प्रकाशित हुआ। इस संकलन की विशेषता है इसका अखिल भारतीय शोध संस्थानकैथल के लघुकथा साहित्य उत्थान' योजना के अंतर्गत प्रकाशित होना। अक्षर धाम समिति लघुकथा व लघुकथाकारों को सहयोग देकर इस विधा को सशक्त करने में अपना योगदान दे रहा है। इसी संदर्भ में संस्था ने अक्षर" का अप्रैल अंक लघुकथा विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया।

"अछूते संदर्भशीर्षक के पीछे संपादक की मंशा क्या रही है यह तो वे ही जाने, शीर्षक के अर्थ को स्पष्ट किया जाता तो अवश्य सार्थकता स्पष्ट होती| सम्पादित संकलन में कुछ लचर लघुकथाओ को स्थान देकर, 'जिनमें कथ्य और शिल्प दोनों की ही कमजोरी साफ नजर आती है?’ लघुकथा विधा के साथ कुछ नाइंसाफी तो अवश्य ही की गयी है, हालांकि कुछ लेखकों से इस विधा में नवीनता लाने का प्रयास भी गया है। (नवीनता, मतलब नर-नए प्रयोग)

कुछ लेखकों ने चुटकुलानुमा लेखन को लघुकथाका नाम दे दिया है और इसे एक संस्कृति के रूप में ग्रहण कर लेखन कर रहे हैं। अंजना अनिल की लघुकथा लेखनी”, तथा कृष्णला यादव द्वारा रचित 'सादगी की सौगात' को इसी कड़ी के रूप में देखा जा सकता है|

व्यंग्य के बिना लघुकथा नहीं लिखी जा सकती - इस धारणा के प्रति अविश्वास प्रकट करते हुए कुछ लेखकों ने लघुकथा के शिल्प को अपनाया है और उसमे सफल भी हुए हैं। केसरा राम' की रचना 'जाल', 'दर्शन मितवा' की साझीदार’; दामोदर मोदी 'दास' की वह रो उठी' दीपक थानधराटे की 'नई सुबह' 'फूल जो मुरझा गएइसके प्रबल उदाहरण हैं। रिंकू गोयल हर्षि की रचना दोहरा मापदंड' को संकलन में स्थान देना न्यायोचित नहीं लगता । लघुकथा लिखते समय लेखकों को निर्णायक वाक्यों से बचना चाहिए | आशा खत्री 'लता' की सबसे बड़ा जुर्म' में अंतिम वाक्य ' शायद आज भी औरत होना ही उसका सबसे बड़ा जुर्म है, यदि हटा भी दिया जाए तो लघुकथा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, इस विधा में ऐसे लघुकथाकारों की आवश्यकता है जो इसके प्रति समर्पण की भावना रखते हैं। इस संकलन का सबसे सबल पक्ष है लघुकथाकारों में निहित घटना अनुभव या विचार का तत्कालीन समाज व्यवस्था या युग - बोध के यथार्थ से ओत-प्रोत होना। निस्संदेह लेखकों ने अपने परिवेश में घट रही अनैतिकता , मूल्यहीनता का यथार्थ वर्णन ही नहीं किया वरन उनके प्रति आक्रोश भी प्रकट किया है। निशा व्यास के शब्दों में-लघुकथा जीवन की लड़ाई लड़ने का तीखा औजार है- व्यवस्था अंध-विश्वास / अन्याय के खिलाफ।" इस लिहाज से देखें तो घटनाओं का यथार्थ वर्णन रचना को कालजयी नहीं बना सकता । लघुकथाओं में घटनाओं के साथ उन मूल्यों को भी स्थान देना होगा जो कालजयी बना सकें | लेखकों को इस ओर ध्यान देना होगा कि रचनाएँ मानव उत्थान में सहयोग दे सकें । जैसा कि सतीश राज पुस्करणा ने भी कहा है- लघुकथा यथार्थवादी रचना के रूप में पाठको के समक्ष आदेश नहीं, कोई न कोई मानवोत्थानिक संदेश लिए आती है।"

केसरा राम ने जलमें सच्चाई को सफाई के साथ लिखा है- पाकिस्तानी घुसपैठिये सारे कारगित क्षेत्र पर कब्जा करके बैठ गए और भारत सरकार की इंटैलीजैंस एजेंसियों को पता नहीं चला जबकि ऐसा क्या कारण है कि किसी छोटे गाँव में भी कोई ढोंगी ढोंग करता है तो लोगों को दूर-दूर तक इसकी कानों-कान खबर कैसे हो जाती है?” लेकिन नरेन्द्र कुमार गौड़ की रचना मंत्री का बेटाकिस उद्देश्य को लेकर है | इसका अंदाजा पाठक सहज ही लगा पाएँगा।

अधिकांश लघुकथाओं को पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है, कि लेखकों ने यह बात अपने जहन में बैठा ली है कि समसामयिक परिस्थितियों से संबंधित विषयों पर ही साहित्य की रचना होती है।

आँचलिकता पर लिखने का साहस किसी भी रचनाकार ने नहीं दिखाया है, आँचालिकता से देश के विभिन्न भागों की सामाजिक, सांस्कृतिक व भाषा सम्बन्धी परिस्थितियों का परिचय मिलता है। साथ ही विषयों में नवीनता का भी समावेश होता है। संकलन में आंचलिक रचनाओं को स्थान न दिया जाना सम्पादक की अकुशलता कहा जा सकता है या फिर विवशता। इसको दो अर्थों में देखा जा सकता है- प्रथम, संपादक की लघुकथा और इसकी पूर्व की स्थिति और नवीन प्रयोगों पर पैनी दृष्टि नहीं; द्वितीय, विविधाओं से भरपूर रचनाओं की प्राप्ति का अभाव। दहेज और साम्प्रदायिकता जैसे विषयों पर कटाक्ष/ व्यंग्य के माध्यम से की रचनाओं द्वारा घटनाओं/परिस्थितियों का चित्रण तो भरपूर किया गया है लेकिन समस्याओं का हल कैसे किया जा सकता है। इस पर लिखने का साहस किसी रचनाकार में नहीं दिखाया। आक्रोश से भरी लघुकथाएँ जोश तो भर सकती हैं लेकिन समाधान बताने कौन फरिश्ता प्रकट होगा, इसमें संदेह ही है । समाधान के लिए लघुकथाकार को एक विचारक का रोल भी अदा करना होगा।

रचनाकारों को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है कि किसी घटना, अनुभव या विचार को वैसा का वैसा लिख देना लघुकथा नहीं है, लघुकथा को ऐसा रूप प्रदान किया जाने चाहिए कि वह पाठकों पर सीधा-सीधा प्रभाव डाल सके | रचना को प्रभावशाली बनाने के लिए चुस्त कथोपकथन, तीव्र प्रेषणीयता, रोचकता, संवेदनशीलता, व्यंगात्मक और मारक अन्त सभी का समावेश करना अपेक्षित है। यदि संकलन में रचनाओं की विविधता के साथ रचनात्मकता की विविधता को भी ध्यान में रखा जाता तो संकलन अधिक प्रभावी होता।


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