"हिंदी
कहानियों के बहाने से"
संदीप तोमर
अगर
हम हिंदी की दस श्रेष्ठ कहानियों के नाम सोचने लगें तो जेहन पर ज्यादा जोर डालना
होगा।क्रम निर्धारित करना और भी मुश्किल काम है।
मेरे
विचार में कुछ नाम कौंधते हैं-
1.
उसने
कहा था - चंद्र धर शर्मा गुलेरी
2.
टोबा टेक सिंह- मंटो
3.
कफन -प्रेमचंद
4.
काली सलवार- मंटो
5.
तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम – फणीश्वर नाथ रेणु
6.
चीफ़ की दावत – भीष्म
साहनी
7.
बहिर्गमन- ज्ञानरंजन
8.
पूस की रात- प्रेमचंद
9.
शरण दाता –अज्ञेय
10. टूटते
खिलोने -राजेन्द्र यादव
इसके
अतिरिक्त अनेक कहानियां हैं जो कालजयी भी हैं और श्रेष्ठ भी जिनमें दिल्ली में एक
मौत (कमलेश्वर),सरदारजी (ख्वाजा अहमद अब्बास) अनुवादित-शम्भू यादव,
'लाजवंती’ (राजिंदर सिंह बेदी), या खुदा (कुदरतुल्ला शहाब) अनुवादित-शम्भू यादव, दोपहर का भोज और
“बू” (अमरकांत), गुंडा(जयशंकर प्रसाद), खोल दो (मंटो), ठेस(फणीश्वर नाथ रेणु) हार
की जीत (सुदर्शन), पाजेब(जैनेन्द्र), हींगवाला (सुभद्रा कुमारी चौहान),परदा
(यशपाल),वापसी (उषा प्रियंवदा),काबुलीवाला(टैगोर),परिंदे(निर्मल वर्मा),
सुख(काशीनाथ सिंह), पाठशाला(विनोद कुमार शुक्ल), बच्चे
गवाह नहीं हो सकते (पंकज बिष्ट) इत्यादि कहानियों को देखा
जा सकता है।
ओमप्रकाश
बाल्मीकि, मधुसुदन आनंद, मनु भंडारी, मैत्रयी पुष्पा, मृदुला सिन्हा, कृष्णा
सोबती, भैरव प्रसाद गुप्त, रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण, महीप सिंह, श्रीकांत वर्मा,
इत्यादि वो तमाम नाम हैं जिन्होंने कथानक, कथावस्तु, भाषा शैली, जीवनानुभव इत्यादि
के आधार पर उत्कृष्ट लेखन किया है। हिंदी कहानी जगत इनके योगदान को न ही झुठला
सकता न ही भुला सकता।
हिन्दी कहानी का विकास जितनी तीव्र गति से हुआ उतनी गति किसी
अन्य साहित्यिक विधा के विकास में नहीं देखी जाती। कहानी युगानुरूप अनेक मोड़ लेती
हुई अपेक्षित मंज़िलों को पार करती हुई आज इस बिंदु पर दिखाई पड़ रही है जो अनेक
दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
अगर हम कालक्रम पर नज़र डालें तो किशोरीलाल गोस्वामी लिखित “इंदुमती
(१९०० ई.) को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है हालाकि यह कहानी बंग्ला से हिंदी
में अनुदित है।आचार्य शुक्ल लिखित 'ग्यारह वर्ष का समय' (1903 ई॰) दूसरी कहानी माना जाता है। माधवप्रसाद सप्रे की 'टोकरी भर मिट्टी' (1907
ई॰) को हिन्दी
की पहली कहानी सिद्ध करने के प्रयास भी खूब हुए। किशोरीलाल गोस्वामी की लिखी कहानी 'प्रणयनी' परिणय हिन्दी
की पहली मौलिक कहानी कहा गया है। यह कहानी सन 1897 ई॰ में लिखी गई थी।
सं
१९०० से १९१५ तक के काल को हिंदी कहानी का प्रारंभिक दौर कहा जा सकता है, मन
की चंचलता (माधवप्रसाद मिश्र) 1907 ई॰ गुलबहार (किशोरीलाल
गोस्वामी) 1902 ई॰, पंडित और पंडितानी (गिरिजादत्त वाजपेयी) 1903 ई॰, ग्यारह वर्ष का समय (रामचंद्र शुक्ल) 1903 ई॰, दुलाईवाली (बगमहिला) 1907 ई॰, विद्या बहार (विद्यानाथ
शर्मा) 1909 ई॰, राखीबंद भाई (वृन्दावनलाल वर्मा) 1909 ई॰, ग्राम (जयशंकर 'प्रसाद') 1911 ई॰, सुखमय जीवन (चंद्रधर शर्मा
गुलेरी) 1911 ई॰, रसिया बालम (जयशंकर प्रसाद) 1912 ई॰, परदेसी (विश्वम्भरनाथ
जिज्जा) 1912 ई॰, कानों में कंगना (राजाराधिकारमणप्रसाद सिंह)1913 ई॰, रक्षाबंधन (विश्वम्भरनाथ
शर्मा 'कौशिक') 1913 ई॰, उसने कहा था (चंद्रधर शर्मा गुलेरी) 1915 ई॰, आदि का
प्रकाशन इसी कालक्रम के मध्य हुआ है। इस
कालक्रम में हिंदी कहानी केविकास को देखा समझा जा सकता है। १९५० तक आते आते कहानी
अपने विस्तृत दौर से गुजरते हुए परिपक्वता की ओर बढती है।इस दौरान कहानी आदर्श और
यथार्थ के गोते भी लगाती है और रोमांटिसिज्म का भी भरपूर आनंद लेती है, प्रेमचंद
जहां आदर्श और यथार्थ को लेकर चलते हैं वही प्रसाद रोमांटिसिज्म का भरपूर आनंद
कहानी में उड़ेलते हैं। उसी समय में उग्र और जैनेन्द्र आते हैं।उग्र न तो प्रसाद की
तरह रोमांटिक हैं न ही प्रेमचंद की तरह खाटी आदर्शवादी, उनकी कहानियों में यथार्थ
के दर्शन होते हैं। जैनेन्द्र की
कहानियों में एक विशिष्ट प्रकार के जीवन-दर्शन की खोज दिखाई देती है। उन्हें लोग शरदचंद्र के प्रतिरूप
में भी देखते हैं, वे गाँधीवादी अहिंसा और फ्रायड के अवचेतन के बीच हिचकोले मारते
दिखाई देते हैं यही वजह है उनकी कहानियों की संरचना व्यक्ति बुंडू से शुरू होती है।
उसी काल में यशपाल भी आते हैं जो मूलतः प्रेमचंद की परम्परा के कहानीकार हैं।प्रेमचंद
और यशपाल में मौलिक अंतर मात्र इतना है कि प्रेमचंद सुधारवाद को अपनाते हैं और
यशपाल मार्क्सवाद और फ्रायड को, यशपाल विचारों के लेखक है उनका चिन्तन से बहुत
अधिक वास्ता नहीं है। वही अज्ञेय भी हैं जिन्हें प्रयोगधर्मी रचनाकार के रूप में
जाना गया है, जबकि वे अभिजात्य वर्ग के प्रति भी पूर्ण सचेत होकर रचनाकर्म करते
हैं।अज्ञेय की प्रारंभिक रचनाएँ रोमानी विद्रोह से परिपूर्ण हैं लेकिन धीरे धीरे
वे रोमांस से दूर होते जाते हैं। अश्क भी प्रेमचंद परम्परा का निर्वाह करते हैं।वे
अपनी कहानियों में मध्यवर्ग का चयन करते हैं। अश्क के अतिरिक्त वृंदावनलाल वर्मा, भगवतीचरण
वर्मा, इलाचन्द्र जोशी, अमृतलाल नागर आदि उपन्यासकारों ने भी
कहानियों के क्षेत्र में काम किया है। लेकिन इन्हें कहानी के लिए नहीं जाना जाता,
ये मूलतः उपन्यासकार के रूप में जाने जाते रहे हैं।
सन 50 ई॰ के बाद से हिन्दी कहानियों के नए दौर का
सूत्रपात होता है । 50 के बाद के समय को काहानी के लिहाज से यदि कोई नाम दिया जा
सकता है तो वह है आधुनिकता बोध की कहानियाँ। नई कहानी के नाम से कहानियों का ये एक अलग दौर चला।
हिन्दी
कहानी ने बहुत बदलाव देखे। कहानीकार ने समाज के बदलते स्वरूप के साथ उस बदलाव को
आत्मसात करते हुए लेखन में भी बदलाव किया। और ये बदलाव की प्रक्रिया सतत चलती रही।
समाज की चुनौतियां कहानी का हिस्सा बनती रही। गरीबी, मानसिक गुलामी, अशिक्षा, नारी
संघर्ष ,दलित संघर्ष, नारी शिक्षा बहुत कुछ कहानियों का
हिस्सा बनता रहा। इस बदलाव के साथ रोजगार, जाति संघर्ष स्त्री का स्वछंद बनना आधुनिकता, मध्यम वर्ग सब कहानी में सम्मलित
होते रहे।
पुराने
लेखकों से नव लेखक तक की शैली, कथानक
चयन,
और कथा विन्यास
प्रस्तुतिकरण सबमे बदलाव होता रहा।
कहानी
कई बार खेमेबाजी की शिकार भी हुई। इस कृत्य में पत्र- पत्रिकाओं ने महती भूमिका
निभाई। कहानी पर पत्र-पत्रिका के संपादक बदलने का प्रभाव भी इंगित होता रहा। एक
दौर आया जब पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गयी। पत्रिका निकलती कुछ समय बाद बन्द हो जाती , जिससे कहानी की गुणवत्ता भी
प्रभावित हुई। पत्रिका के संपादक की कहानी विधा के विस्तार में बड़ी भूमिका रही।
दिनमान और हंस पत्रिका के संपादन को उहारण के रूप में देखा जा सकता है। हंस को
राजेन्द्र यादव नारीवाद से नारी-खुलापन की ओर ले गए जहां महिला लिखते हुए अधिक
मुखर होकर बैडरूम तक के सफ़र तय करने के किस्से को पोर्न गाथा के रूप लिखने को
स्वतंत्रता के रूप में पेश करती है ।दूसरी तरफ महाश्वेता देवी के आदिवासी आंदोलन
और रमणिका गुप्ता का दलित चिंतन भी कहानी के लिहाज से महत्वपूर्ण है।
कहानी
स्वयं एक संघर्ष पूर्ण विधा है।जिसने बड़ा लंबा कालक्रम तय किया। इस बीच नए युवा
कहानीकारों ने नए सिरे से बदलते परिवेश के जीवन अनुभवों और बदलते यथार्थ को अपनी
कहानियों का कथानक बनाना शुरू किया। अभी ये तय करना मुश्किल है कि ये कोई बड़ा पैराडाइम
शिफ़्ट है लेकिन इसे किसी नए कथा-प्रस्थान की आहट के रूप में देखा जा सकता है।अभी
कहानी को बड़े कथा- प्रस्थान की प्रक्रिया से गुजरना होगा।कितने ही पड़ाव आएंगे।हर
दौर में कहानी कभी शिशु होगी तो कभी किशोर फिर प्रौढ़ और पुनः शैशव अवस्था की ओर
रुख करेगी।
हिन्दी कहानी के सफ़र की सुंदर व्याख्या।
ReplyDeleteआभार
Deleteकितना सुंदर वर्णन। कुछ कहानियां छूट गई हैं हमसे। आज उनको ढूंढ कर पढ़ती हूं।
ReplyDeleteकम शब्दों में कहानी पर सारगर्भित कालानुक्रमिक विकास को दिखाने का सफल प्रयास किया है आपने.
ReplyDeleteबधाई...
कम शब्दों में कहानी पर सारगर्भित कालानुक्रमिक विकास को दिखाने का सफल प्रयास किया है आपने.
ReplyDeleteबधाई...
जी सुरेश जी कोशिश रही कि केएम शब्दो मे ज्यादा जानकारी दी जाए,
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