Thursday, 8 April 2021

एक अपाहिज की डायरी भाग 4

 एक अपाहिज की डायरी (आत्मकथा)

चौथा भाग 




माँ पर घर-बाहर दोनों की जिम्मेदारियाँ थी, बेटे की चिंता में परेशान रहती, मैं अपने लिए सपने बुनता तो किसलिए? मेरे लिए सपनो का कोई महत्व नहीं था, मैं तो जैसे जिन्दगी को घर, घर के लोग और डाक्टर तक ही सीमित मान बैठा था

सुधा का भाई शाम को घर आया पिताजी ने कहा-“देखो बेटा, अभी घर में माहौल सही नहीं है, मैं बड़े भाई से बात करूँगाअखिल भी अभी भरा बैठा है, सब ठीक हो जायेगा, मुझे भाई पर विश्वास है वो मामले को समझेंगे और फिर कुल की मर्यादा का भी सवाल है, घर की लक्ष्मी को हम ऐसे नहीं जाने देंगे अगर वो सब नहीं माने तो मैं अपने बेटे सुकेश की शादी सुधा संग कर दूँगा, सुधा इस घर की ही बहु रहेगी

“जी मौसा जी आप जैसा उचित समझें, आप बड़े हैं, समाज-दुनिया की समझ आपको हमसे ज्यादा है, आप जो भी निर्णय लेंगे, सही लेंगे

“बेटा आप कुछ दिनों के लिए सुधा को ले जाओ, यहाँ हालत सही होते ही मैं आऊँगा फिर बहु को ले आयेंगे, तब तक अखिल को भी कुछ रोज़गार कराएँगे

“जी मौसा जी

रात को सुधा का भाई वहीँ रुका सुबह खाना वगैरह खाकर सुधा को साथ लेकर चला गयासुधा को गए अभी दो-चार दिन ही हुए थे कि अखिल ने एक नया बवाल खड़ा कर दिया हुआ कुछ यूँ कि वो पीपल के पेड़ के नीचे कुछ लोगो के साथ ताश खेल रहा था, ताश खेलते हुए झगडा हुआ और साहब ने एक लड़के का सिर फाड़ दियालड़का नीची जाति से, मामला जाति पर आया, उसके परिवार वाले थाने चले गये

दोपहर का समयपिताजी अभी ड्यूटी से आये ही थे कि एक लड़का साईकिल से समाचार लेकर आया कि आपके भाई के यहाँ पुलिस आई हैअखिल ने समेय के लड़के का सिर फाड़ दिया, बिना खाना खाए ही पिताजी शहर पहुँचे, मामला बिगड़ता देख उन्होंने स्थिति को सँभालने के लिए लेन-देन की बात की कुल ५०० रूपये में मामला निपटा पुलिस को अलग से पैसे देने पड़े

इस घटना से अखिल को उसके पिता यानि ताऊजी (सुक्खन सिंह) ने दुकान पर न आने की हिदायत दी, अब रोज़गार का संकट? अखिल ने दोस्तों के साथ शराब पी और जुआ खेलने बैठ गया दो-चार दिन ऐसे ही चलता रहा, पिताजी को भतीजे अखिल की चिंता और ऊपर से बहु की चिंताउन्होंने भाई से बात करने का विचार किया, और शाम को वो भाई की दुकान पर पहुँचे

दोनों भाइयों ने सलाह मशविरा किया और आखिर में निर्णय हुआ कि घर के आगे वाले हिस्से में जो दुकानें हैं उनमें से एक दुकान में किराना का सामान डलवा देते हैं, और बहु को भी लाते हैंलेकिन ताऊजी ने पिताजी से दो शर्ते रखी- एक तो वो दुकान में कोई पैसा नहीं देंगे, दूसरा अखिल बहु को लेकर अलग रहेगा उसे ऊपर का एक कमरा रहने के लिए दे दिया जायेगा पिताजी ने भतीजे को समझाया कि इस तरह शराब पीने और जुआ खेलने से कुछ नहीं होगा, खानदान का नाम अलग से बदनाम होगा। अखिल अपने चाचा की बात चुपचाप सुनता रहा। पिताजी ने उसे बहु को लाने और दुकान खोलने की बात समझायीकाफी ना-नुकर के बाद वह इन दोनों बातों के लिए तैयार हुआपिताजी ने बनिए से पाँच हज़ार रूपये ब्याज पर उठाये, और इतने ही खुद डालकर अखिल की दुकान का बंदोबस्त किया सुधा भाभी भी ससुराल आ गयी सुधा भाभी को आते ही अलग कर दिया गया

उधर सुधा भाभी अल्प आयु के कारण घर के काम ठीक से नहीं कर पाती थी उनसे गलतियाँ हो जाती तो अखिल के गुस्से का शिकार होना पड़ताअखिल हिंसा पर भी उतर आता, सुधा भययुक्त रहतीउसे डर लगा रहता कि फिर कुछ गलती हुई तो उसे फिर से मार पड़ेगी

इन सब बातों का जिक्र माँ और पिताजी करते तो ये सब बातें मुझे भी पता लगती, मुझे आत्म-ग्लानि सी होती, लगता ये कौन सा इन्साफ है जो खाना ठीक से न बनाने पर मारा जाये?

इधर माँ का उग्र स्वाभाव भी मुझे अखरने लगा, लेकिन क्या करे? माँ पढा-लिखा कर आज ही बड़ा अफसर बनाने पर तुली होतीकाला पन्ना मेरे जी का जंजाल बन गयामाँ गणित पढ़ाती, बारहखड़ी सिखाती जो मुझे समझ न आता। हालाकि मैंने ये सब सीख लिया था लेकिन गिनती से पहाड़ो तक के सफ़र में कितनी ही यातना से गुजरना पड़ाजब तक सबक न याद होता, मन में माँ की काली माता वाली इमेज बनी होती, जो शेर पर सवार हो मुझे ही घूरती दिखती, अब कायदे से किताब का सफ़र शुरू हुआ, पहली कविता—उठो लाल अब आँखें खोलो..पानी लायी हूँ मुँह धो लोमैं सोचता-- कविता वाली माँ तो बहुत प्यारी है फिर ये माँ जो डाक्टर के यहाँ भी उसे रोने पर डांटती है और ज्यादा रोने पर चांटा भी लगाती है, कविता वाली माँ की तरह प्यार क्यों नहीं करती?

मेरा मन पढाई में न लगता, लगता कि कुछ ऐसा हो कि माँ पढाना ही भूल जाये, लेकिन ऐसा कभी नहीं होतामाँ पशुओ का काम करके आती तो फिर वही अ + ब =अब, शुरू हो जाता, खाना बनने से लेकर कपडे घुलने तक ये सिलसिला चलता, पड़ोस की चाची और  बसंती दादी भी कई बार कहती- “मालती, क्यों बेचारे को इतना पढ़ाने पर तुली रहती हो?”

माँ कहती—“पढ़ेगा नहीं तो क्या करेगा? ये तो खेती भी नहीं कर सकता बड़े भाइयों ने रोटी न दी तो कैसे जियेगा? मैं क्या सारी उम्र इसके लिए बैठी रहूँगी?”

माँ के बार-बार पढ़ाने से अब अक्षर जोड़कर पढना आने लगा, छोटे-मोटे जोड़ भी आने लगे, कभी पहाड़े पर सुई अटकने लगी, जैसे-तैसे पहाड़े याद करता

मुझे लगता– सुधा भाभी और मेरी समस्या एक जैसी है वो भी दुखी है और मैं भी, फिर  लगता- नहीं भाभी का दुःख बड़ा है, उन्हें तो काम भी करना होता है और डांट भी खानी होती हैमुझे तो पढने पर ही डांट पड़ती है कई बार इसी असमंजस में रहता कि दुःख क्यों दिया है भगवान ने?

माँ अक्सर व्रत रखती, घर का काम निबटा वो पूजा करती माँ को पूजा करते देखता तो मन श्रृद्धा से भर जाता धीरे-धीरे सब भगवन के नाम याद होने लगे, माँ से पूछता- माँ व्रत से क्या होता है?” माँ का जबाब होता- “व्रत रखने से भगवान तुझे जल्दी से ठीक कर देंगे, चल तू भी पूजा में बैठ” मैं पूजा में बैठ जाता लेकिन एक सवाल मेरे अन्दर से बार-बार उठता- अगर भगवान ने व्रत रहने से ठीक करना है तो फिर उसने ऐसा कष्ट दिया ही क्यों? फिर मन में आता- अगर माँ के साथ व्रत रखूँगा तो वो जल्दी ठीक हो जाउँगा माँ से व्रत रखने की जिद्द करतामाँ कहती कि तू अभी छोटा है, माँ अपने व्रत रखने पर लोकी की खीर बनाती तो मुझे भी खाने को देती। मन बहुत खुश होता, लोकी की खीर मुझे बहुत पसन्द आती

माँ की धर्म-परायणता का प्रभाव मुझ पर पड़ रहा था। नवरात्री, चन्द्र पूर्णमासी, वैभव लक्ष्मी, बृहस्पति देव, इत्यादि व्रत के नाम और महत्व को समझने लगा था। अक्षर ज्ञान के बाद की पढाई घर पर ही जारी थी। किताब के हिज्जे करके पढने से धारा प्रवाह में किताब पढने लगा। गणित के सवालों का हल जैसे तीन अंको का जोड़-घटा, गुणा-भाग, दशमलव का ज्ञान, प्रतिशत निकलना, लघुतम की सहायता से भिन्न जोड़ना-घटाना आदि सीखने में मैंने ज्यादा समय नहीं लगाया।

हिंदी पढना आने के बाद माँ की धर्म की किताबों को कहानी की तरह पढना शुरू कर दिया। कार्तिक मास में सुबह तारो की छाव में माँ नहाती जिसे कार्तिक स्नान कहती तो सत्यभामा और कृष्ण के संवाद की पुस्तक पढ़ती, उस पुस्तक ने मुझे बहुत प्रभावित किया। यूँ तो एक-एक कर मैं अधिकांश पुस्तकें पढ़ गया। जबकि अभी तक कोई औपरचारिक शिक्षा भी शुरू नहीं हुई थी। ये तो पता नहीं था कि इन पुस्तकों में लिखी बातों के गूढ़ अर्थ क्या हैं? फिर भी ये कथाएँ मुझे आकर्षित जरुर करती थी। धर्म के प्रति आस्था बढ़ने लगी, मन व्रत रखने का होता, लोकी की खीर भी आकर्षित करती। अक्सर माँ से व्रत की जिद्द करता और कई बार मार भी खाता।

डॉ. सुबोध मेरा इलाज कर रहे थे। काफी परिवर्तन दिखाई देने लगा था। एक दिन डॉ. सुबोध ने प्लास्टर काटा और कहा-“सुदीप जाओ सड़क तक घूम आओ।”

मैं अवाक डॉ. सुबोध को देखता रहा। कर्कश आवाज पुनः कानों में पड़ी-“सुदीप चलो सडक तक घूमकर आओ।“

मैं पास में पड़े स्टूल को पकड़ खड़ा था, बमुश्किल पहला कदम आगे बढाया, अगला कदम आगे रखने की हिम्मत मुझमें नहीं थी, पसीने की बूँदें कानों के पीछे से चू रही थी। सारी हिम्मत बटोर अगला कदम बढाया, पैर मानो लड़खड़ा रहे थे। लेकिन डर था कि डॉ साहब फिर बिजली के झटके से इलाज करेंगे। जिस दिन भी बिजली के झटके दिए जाते उस दिन मैं रोता-चिल्लाता और डॉ. को मन ही मन गालियाँ देता कि ये डॉ. है या राक्षस? आगे कदम बढ़ाना मज़बूरी थी। बमुश्किल चार-छः कदम अपने बूते रखे और लड़खड़ा गया। पैर मुड़े तो दर्द से बिलबिला गया। १५ दिन प्लास्टर में सीधे रहने के चलते जोड़ लगभग जाम थे। मैं दर्द से बिलबिलाता रहा, माँ का हृदय चीत्कार उठा, वह उठाने को आगे बढ़ी, डॉ ने रोक दिया-“नहीं बहन जी, आप नहीं उठाये, आज आप उठा देंगी, फिर कहीं ऐसे गिरेगा जहाँ कोई नहीं होगा तब कौन उठाएगा?”

माँ आगे बढ़ते-बढ़ते रुक गयी। डॉ की आवाज फिर कानों में पड़ी-“सुदीप उठो और मेरे पास आओ।“

मैं जैसे-तैसे उठने का उपक्रम करता रहा, चीख और आँसू दोनों बदस्तूर जारी थे। लेकिन उठना मेरी जरुरत भी थी और मज़बूरी भी। १५ मिनट से भी अधिक समय तक मैं जूझता हुआ जैसे-तैसे उठा। लगभग लड़खड़ाते हुए मैं दोबारा डॉ के पास तक आया, पसीने से तरबतर।

जैसे ही डॉ के करीब आया, डॉ. ने कहा- “शाबास सुदीप! लेकिन ध्यान रहे अगली बार से गिरना नहीं है।“

उस दिन डॉ, ने दोनों पैर आपस में पट्टियों से बांधे और अगले हफ्ते आने को बोला। माँ की आँखों में जहाँ चमक थी वही मेरे मन में एक अजीब सा खौफ़ था। मुझे डॉ. किसी राक्षस से कम नहीं लग रहा था। माँ लेकर घर आ गयी। हफ्ते भर तक मैं उदास मायूस सा रहा। मेरे मन में अगली विजिट का भय था फिर डॉ या तो बिजली लगाएगा या फिर से १५ दिन का प्लास्टर। भय और खौफ़ के साए में हफ्ता बीता, फिर सोमवार आया तो माँ फिर लेकर डॉ के पास गयी। पट्टियाँ खोल डॉ. सुबोध ने पैरो को मोड़ना शुरू किया, ज्यादा मोड़ने से दर्द होता, मैं चिल्लाया। डॉ. ने धमकाया-“सुदीप मुझे मेरा काम करने दो वर्ना देख रहे हो ये बिजली की मशीन?”

सहमा हुआ मैं और सहम गया था। डॉ. जितना पैरो के जोड़ का घर्षण कम करने के लिए उन्हें मोड़ता उतनी ही तेजी से मेरी चीख निकलती। डॉ. ने बिजली की मशीन उठा पैरो पर फिराना शुरू किया। मैं बिलबिला उठा। कितना सहन करता? डॉ. के ऊपर चिल्लाना शुरू किया-“ओ ढोंगी छोड़ मुझे, कुत्ते मुझे मारेगा क्या? तू डॉ. नहीं राक्षस है तू ढोंगी है, मुझे नहीं इलाज कराना तुझसे। तू मुझे मारना चाहता है।“

इतना बोलना था कि मुँह पर चांटे पड़े। मैंने डॉ. के हाथ पर दांत गडा दिए। और माँ को आवाज लगा बोला-“माँ मुझे यहाँ से ले चल, मुझे इस ढोंगी से अपना इलाज नहीं कराना।“

डॉ अपना काम करता रहा, माँ ने मेरी एक न सुनी, तो माँ भी दुश्मन लगी। डॉ. ने अपना काम पूरा किया तो माँ मुझे लेकर घर वापिस आने के लिए बस में बैठी। माँ ने पराठे और अचार का नतना (कपडा) निकाल एक परांठा दिया मैंने खाने से इनकार कर दिया, बस पूरे रास्ते सुबकता रहा, आँसू बहाता रहा। अब एक चिंता और सताने लगी- ‘घर जाकर जब माँ सारी बात पिताजी को बताएगी तो घर पर उसका क्या हाल होगा?’

घर पहुँचते-पहुँचते शाम के ४ बज गए थे। घर पर सब मेरा और माँ दोनों का इन्तजार किया करते, हर सोमवार का यही क्रम था। घर पहुँचते ही पिताजी ने माँ से पूछा- “क्या बताया डॉ ने? कुछ उम्मीद है, क्या इस बार भी चलवाकर देखा?”-उन्हें जानने की उत्सुकता थी।

सुप्रिया, सुकेश और नीलू भी बैठे माँ के जबाब का इन्तजार कर रहे थे। माँ ने सुप्रिया को कहा-“बेटी, जा भाई को अन्दर ले जाकर कुछ खिला, सुबह से भूखा है, आज तो इसने एक पराठा भी नहीं खाया। और केले खाने की जिद्द भी नहीं की।“

सुप्रिया अपने छोटू को लेकर अन्दर के कमरे में ले गयी। कमरे में बरांडे में बैठे बाकी लोगो की आवाज साफ़ सुनी जा सकती थी। सुप्रिया का ध्यान भी माँ का जवाब सुनने में ज्यादा था।

माँ ने कहा-“सुनो जी, आज जो सुदीप ने किया- मुझे नहीं लगता अब डॉ. सुबोध इसका इलाज करेगा।”-कहकर माँ ने सारा किस्सा पिताजी को कह सुनाया। वे भी आश्चर्य में पड़ गए। सुप्रिया ने सुना तो परेशान हो उठी। वह अपने छोटू से बोली-“छोटू ये तूने क्या किया? क्या तुझे ठीक नहीं होना मेरे भाई? क्या तू सबकी तरह चलना फिरना नहीं चाहता?”

“दीदी, देखो न वो डॉ. मुझे कितना दर्द करता है, वो डॉ. नहीं राक्षस है। उसने मुझे आज मार ही दिया होता, अगर मैंने उसे काटा न होता। दीदी अब मैं बड़ा हो गया हूँ जो मुझे मारेगा मैं उसे मार डालूँगा।“-कहकर मैं बिलखने लगा था।

उधर माँ–पिताजी दोनों परेशान। इस समस्या का क्या हल हो, उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था।

पिताजी ने पूछा-“अब अगली बार कब बुलाया है डॉ. सुबोध ने?”

“जी, तीन हफ्ते बाद, और बोला है लगातर नीम के गर्म पानी से सिकाई करते रहना, ताकि घुटनों और पंजो के जोड़ खुलें, वरना मुसीबत बढ़ सकती है।“

“ठीक है अगली बार मैं जाता हूँ।“-पिताजी ने कहा।

इस बीच पास-पड़ोस के कुछ खुसर-फुसर होती सुनी गयी। एक दिन किसी बात पर एक पडोसी से तू-तू मैं-मैं हुई तो पड़ोसन ने कहा-“बेटे के इलाज के नाम पर गुलछर्रे उड़ाती है, शर्म नहीं आती।“

माँ को गुस्सा आया- हाथ में चिमटा था, लगाये कसकर दो-तीन। पड़ोसन के गाल में चिमटा लगा तो खून का फव्वारा फूटा। झगडा काफी बढ़ा, पूरा मौहल्ला इकठ्ठा हो मजमा देख रहा था। इस घमासान में किसी की हिम्मत नहीं कि कोई उन्हें छुटाए। चुटिया पकड लडाई का अलाम। घण्टों ये उपक्रम चला होगा। पिताजी स्कूल से लौटे तो बेहद दुःख हुआ। झगडा तो जैसे-तैसे सुलट गया लेकिन उन्हें एक चिंता और सता रही थीजिसे वो कई बार चाहकर भी पत्नी से न कह पाए, हालाकि माँ को कई बार आभास हुआ कि कुछ है जो पिताजी को खटक रहा है, कुछ है जिसकी वजह से वो घर में सहज नहीं हैं। माँ ने उनसे पूछा तो उन्होंने बात को टाल दिया।

२१ दिन बीते तो मुझे ले पिताजी डॉ. के यहाँ जाने के लिए तैयार हो चल पड़े। ड. से मिलकर उन्होंने मेरी गलती के लिए शर्मिंदगी जाहिर की और डॉ. से इलाज बन्द न करने की मिन्नतें की। डॉ. सुबोध ने कहा- “मास्टरजी, आप जितने सीधे व्यक्ति मैंने बहुत कम देखें हैं, बच्चे की नादानी से मैं इलाज छोड़ दूँगा, आप ये कभी मत सोचना। आज का काम मैं पूरा कर देता हूँ और हाँ अगली विजिट पर सुदीप नहीं मैं खुद सुदीप के पास आऊँगा। तब इसे विश्वास होगा कि डॉ. सुबोध उसके लिए राक्षस नहीं उसका शुभचिंतक है।“

उस दिन का इलाज पूरा हुआ तो १५ दिन बाद डॉ. सुबोध ने खुद उसके गॉव आने का प्रस्ताव रखा। पिताजी ने गॉव का पता आदि लिखा डॉ से रुखसत ली।

१५ दिन बीते तो डॉ. सुबोध शाम को गॉंव आये। अपने बैग से दवाई की शीशियाँ निकाल मालिस करके पट्टियाँ बांध दी।

पड़ोसियों को भी पता चला कि सुदीप के इलाज करने वाला डॉ आया है, कुछ उत्सुकता में घर आकर डॉ. से मिले। खार खाए बैठी बदला लेने को उतारू पड़ोसन ने गॉव भर में ऊल-जलूल अफवाह फैलानी शुरू की। वह कोई मौका नहीं चूकना चाहती थी बदला लेने का। कुछ लोग समाज में होते ही इस ताक में हैं जब उन्हें कहानी-किस्से बनाने का बहाना चाहिए। डॉ. साहब जा चुके थे, लेकिन शायद इन सब बातों से मेरा भविष्य लिखा जा रहा था।

पिताजी एक साथ दो घटनाओं से बेहद दुखी थे, मेरा डॉ. के साथ अभद्र व्यवहार और इधर पड़ोसन की फैलाई बातें। उन्होंने मुझसे पूछा-“बोलो मेरे बच्चे क्या तुम्हें डॉ. सुबोध से इलाज कराना है या नहीं?

मैंने इन्कार में सिर हिला दिया। दु:खी हृदय पिता ने बच्चे के पक्ष में अपना मत देकर इलाज बन्द कर दिया।

क्रमशः

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