आत्मकथा का नवाँ भाग
गतांक से आगे
घुटने
पर हाथ रखकर चलने से दो बड़ी परेशानियाँ थी- एक तो घुटने के
ऊपर के हिस्से में इतने दाने हो जाते कि उनमें दर्द होता। कभी-कभी खून तक निकल
आता, दूसरा हाथ की रगड़ से पैंट बहुत जल्दी फटती। स्कूल यूनिफार्म की पैंट बार-बार
सिलवाना बहुत अखरता। माँ ने दो पैंट एक साथ सिलवाई थी, लेकिन मुश्किल से छ: महीने
ही हुए होंगे कि दोनों पैंट घुटने पर से फट गयी। माँ ने एक टेलर को बुलवाकर दोनों
पैंट से काट-छाँट करके एक पैंट बनवा दी। जिसमे जोड़ इस तरह दिखाई देते कि साथ के
बच्चे मजाक बनाते। मुझे ये समझ नहीं आता कि ये मजाक कपड़ो का है या मेरी हालत का।
ग्यारहवी क्लास का बच्चा अब मजाक और शर्म दोनों को समझता था।
घर में कोई मेहमान आये तो मैं या तो घर से बाहर चला जाता या फिर
ऊपर छत पर चला जाता। यूँ तो उस वक़्त मेहमान आने पर बच्चों में शरमाने का इतना चलन
था कि या तो खाट के नीचे घुस जाते या फिर दरवाजे के पीछे छिप जाते। मैं इतना शर्मिला
और भोला था कि एक बार भोलेपन में एक ऐसी गलती कर दी जिसे कोई भी करने से पहले कई
बार सोचता। हुआ यूँ कि जब वह छठी क्लास में था तो क्लास टीचर जयंतीप्रसाद थे,
सुकेश भैया ने एक दिन कहा-“सुन सुदीप तेरे क्लास टीचर का नाम तो कटिया है।“ मेरे
बालमन में ये बात कदापि नहीं आई कि भैया चिढाने के लिए कह रहे हैं, अगले दिन स्कूल
में जैसे ही जयंतीप्रसाद का पीरियड आया मैंने उनसे कहा –“गुरूजी, हमारे भैया कह
रहे थे कि तेरे क्लास टीचर का नाम कटिया है।“ उस समय बहुत डांट पड़ी लेकिन समझ नहीं
पाया था कि इसमें मेरी गलती क्या है?
ग्यारहवी की पढाई शुरू हो गयी थी। मिस्टर गुप्ता गणित पढ़ाते थे।
खुद कन्फ्यूज रहते, कितने ही टोपिक इसलिए छुडवा देते थे कि इसमें से ज्यादा
मार्क्स के सवाल नहीं आयेंगे। यही हाल फिजिक्स के प्रवक्ता का था, सुबह आकर लैब
में बैठकर जितना पढ़ते- उतना क्लास में पढ़ा जाते, कोई उनसे अलग कुछ पूछे तो मजाक
में टाल जाते या गाली से बात करते। उन्होंने बच्चो के साथ ऐसा रिश्ता कायम किया
हुआ था कि सब उन्हें एक मजाकिया इन्सान सोच उनकी शिकायत न कर दें, केमिस्ट्री के
प्रवक्ता को प्रिंसिपल बना दिया गया था इसलिए वो क्लास में आते ही नहीं थे। एक नया
लड़का आशुतोष आया जो केमिस्ट्री पढाता, जानकारी होते हुए भी वह अनुभव न होने के
कारण पढ़ा नहीं पाता। कोई भी उन्हें सीरियस नहीं लेता। अंग्रेजी के प्रवक्ता का तो
और भी बुरा हाल था, जब भी पढ़ाते, तो चैप्टर न पढ़ाकर कहते इसका अभिप्राय ये लगा लो,
पोएट्री में सेंट्रल आईडिया लिखा देते और कहते कि याद कर लेना। एक्सप्लेनेशन कैसे
लिखी जाती है, ग्रामर के क्या नियम हैं, वो बच्चो को नहीं बता पाते। मैंने और
राजेन्द्र ने जब इस बात की शिकायत की तो ग्रामर के लिए बायोलॉजी के टीचर को लगा
दिया गया। वो ग्रामर बड़ी अच्छी पढ़ाते।
इस तरह से देखा जाए तो स्कूल में ग्यारहवी-बारहवी के लिए कोई खास
पढाई का माहौल नहीं था, अधिकांश लडको ने ट्यूशन लगा राखी थी लेकिन मैं ट्यूशन भी
नहीं जा सकता था तो रास्ता निकाला- गणित की सभी किताबों की गाइड खरीद लाया। अब
अपने प्रिय विषय के सवाल भी गाइड की सहायता से हल करता। लेकिन जिस तरह के अध्यापक
चाहियें थे वैसे नहीं मिल पाए, नतीजा ये हुआ कि बहुत से कांसेप्ट कभी क्लियर ही
नहीं हुए। बस पढाई जैसे-तैसे चल रही थी।
पढाई की समस्या के साथ एक बड़ी समस्या का अक्सर सामना करना होता- अक्सर
चलते हुए ठोकर खाकर गिर जाता तो घुटने छिल जाते। पैरो में सूजन आ जाती तब कई दिन
तक स्कूल जाना बन्द हो जाता। पढाई बर्बाद होती सो अलग। विज्ञान विषय के साथ पढना
वैसे भी बहुत कठिन था।
इस बीच एक घटना हुई, नीलू और रितिका के चर्चे पूरे गॉव में सरेआम
होने लगे। बस पिताजी को इस बात की खबर नहीं थी। चर्चा इतने जोरो पर थी कि उसकी
बहुत कम उम्र में उसके घरवालो ने एक दुकान चलाने वाले अधेड़ से शादी कर दी। जिस
लड़की का करियर अभी बनना बाकी था- वह शादी के जोड़े में सिमटी विदा हुई। डॉ.,
इंजीनियर का सपना पाले पढने वाली लड़की विदा हो चुकी थी।
अक्षरा ने कहा भी कि “सुदीप आज रितिका की शादी तुम्हारे भाई की वजह
से हुई कहीं कल ऐसा न हो कि मेरे घरवाले भी ऐसे ही मेरी भी शादी कर दें।“ फिर खुद
ही जबाब भी दे दिया- “वैसे तुम्हारी इमेज मेरे घर में बहुत सीधे बालक की है, मेरे
घर में तीन-तीन बहनें होने के चलते किसी लड़के को आने की इजाजत नहीं है लेकिन तुम
कभी भी आओ, तुम्हारे लिए कोई रोक टोक नहीं है। मम्मी भी तुम्हारी बहुत बडाई करती
है। वैसे भी तुम्हारी तो पूरे गॉव में इमेज ही एक पढ़ाकू इन्सान की बनी हुई है।
आखिर ऐसा क्या करते हो जो लोगो में चर्चा में रहते हो?”
“देखो अक्षरा! मैंने बड़ो से सीखा है कि जो भी मिले उसे नमस्ते करो,
बस लोग सोचते हैं कि अच्छा बच्चा है सबको राम-रहीम करके चलता है, गर्दन नीची रखता
है। रही बात पढने की तो लोगो में पढ़ाकू की इमेज कैसे बनी- मुझे नहीं मालूम लेकिन
घर में तो रोज डांट पड़ती है कि पढता नहीं है।“
“पर तुम्हारी अंग्रेजी तो अच्छी है, मुझे भी अंग्रेजी पढ़ा दो न।“
दोनों में अंग्रेजी पढने की सहमति हुई तो मैंने रोज शाम को अक्षरा
के घर जाना शुरू कर दिया, एक कमरे में दोनों एक डेढ़ घण्टें अंग्रेजी ग्रामर पढ़ते।
अक्षरा की आँखों में देखता, अक्षरा पूछती-“क्या हुआ, ऐसे क्या देख रहे हो?”
“देख रहा हूँ इस गॉव की सबसे सुन्दर लड़की के साथ मैं बैठा हूँ और
गॉव के कितने ही आशिक इस लड़की के दीदार को तरसते हैं।“
“चलो, अब तुम आशिकी छोडो और मुझे मोडाल्स सिखा दो।“
फिर से उसे ग्रामर समझाने लगता।
ग्यारहवी के एग्जाम हो गए। अब बारहवी की पढाई शुरू हो गयी।
गॉव भर से कई लड़के बारहवी में थे। इस बार फिर कल्याण सिंह की सरकार
उत्तर प्रदेश में थी। बारहवी का रिजल्ट अट्ठाईस प्रतिशत रहा। पम्मी, महेश, मैं और
अक्षरा पास हो गये थे। १२वी पास होने तक भी महेश से बातचीत शुरू नहीं हुई। १२ वी
पास की तो कॉलेज में दाखिला लेना था, खतौली में उस समय एकमात्र कॉलेज था- कुंद कुंद जैन डिग्री कॉलेज। अब फिर से वहाँ दोनों एक साथ हो गए। लेकिन दोनों का अहम टकराता और कोई एक-दूसरे से बात न करता। दोनों ही
अलग-अलग समूह में बैठते। एक ही गॉव, एक ही मोहल्ला लेकिन बातचीत एकदम बन्द। कई बार मन करता कि मेरा बचपन का दोस्त है उससे बात करूँ लेकिन उसके कहे शब्द याद
आते-"देख तू ही पहले बोलता है। फिर से तू ही बोलेगा।" बस फिर मन को समझा
लेता- सबसे बात हो जरुरी तो नहीं। राजेन्द्र ने डी.ए.वी कॉलेज, मुज़फ्फरनगर में दाखिला लिया था।
कॉलेज की दूरी घर से ज्यादा होने के चलते और परिवार में कुछ
प्रोपर्टी डिस्प्यूट के चलते पिताजी ने शहर में एक मकान खरीद लिया था। अब शहर के मकान
में अकेला रहने लगा। सुबह-शाम खाना और दूध गॉव से आ जाता। कभी पिताजी, कभी नीलू तो
कभी किसी अन्य दोस्त के हाथ माँ भिजवा देती। इस बीच विपिन से अच्छी दोस्ती हो गयी
थी। पम्मी भी रूम पर आता रहता। यूँ तो विपिन नवी क्लास में साथ आया था लेकिन
बी.एस.सी. करते हुए ज्यादा नजदीकी हुई। विपिन के पास हीरोपुक मोपेड थी, कभी वह साईकिल लाता तो कभी मोपेड। विपिन और मैं दोनों एक साथ
कॉलेज जाते। पिताजी से रिक्शा के पैसे मिलते लेकिन मैं उन पैसो की बचत करता।
पम्मी, विपिन और मैं तीनो कभी-कभी समोसे की पार्टी करते। कॉलेज की सेकिण्ड सिफ्ट
लगती थी, साढ़े बारह से साढ़े चार बजे तक कॉलेज में क्लास अटेंड करते फिर रूम पर आकर
मस्ती करते।
अक्षरा से अब मिलना-जुलना कम ही होता था, एक नई दुनिया विस्तार ले
रही थी, कॉलेज में नए दोस्त बन रहे थे। गॉव की जिन्दगी से शहर के लुत्फ़ की ओर
जिन्दगी ने कदम रख दिया था। पढने के साथ-साथ पढ़ाने की लत लगी तो नवी के ट्यूशन पकड
लिए। दो ट्यूशन की एक महीने की फीस १२० रूपये मिली, जिसमे से एक दीवार घडी खरीदी
ये मेरी जिन्दगी की पहली कमाई थी, जिसे पूरी जिन्दगी सहेज कर रखने का सोचा, मैं
खुश था कि आज मुझे बहुत बड़ा खजाना मिल गया। गणित पढ़ाने में मुझे आनन्द आता,
अंग्रेजी ग्रामर तो मानो अँगुली पर हो। अक्षरा की छोटी बहन श्वेता और उसकी एक
सहेली रिंकी ने गणित और अंग्रेजी ग्रामर के लिए आना शुरू कर दिया था।
सुबह के समय कॉलेज में लड़कियों की क्लास चलती थी। अक्षरा ने बी.ए.
में दाखिला लिया था। लड़के छुट्टी के समय गेट पर खड़े हो जाते और लड़कियों के साथ
धक्का-मुक्की की कोशिश करते। हालाकि प्रिंसिपल पाण्डेय बड़े सख्त मिजाज थे, वे
छुट्टी के समय गेट पर खड़े हो जाते। लड़कियों के निकलने तक एक भी स्टूडेंट को अन्दर
नहीं आने देते थे। एक दिन मैं अपने दोस्तों के साथ गेट से थोडा हटकर खड़ा था
लड़कियों की छुट्टी हो चुकी थी, अक्षरा कॉलेज के गेट से निकली तो बोली-“जनाब आप
क्या करोगे पढ़कर, हम तो पढ़ आये। आप पढ़े या हम एक ही बात है।“
अक्षरा तो चली गयी लेकिन मुझे दोस्त पूरे दिन छेड़ते रहे, भाई कौन
थी, क्या ब्यूटी है, भाई बढ़िया सामान पटाया है। दोस्तों की बातों को तो हँसी में
टालता रहा लेकिन उस दिन कमरे पर न जाकर सीधे गॉंव गया। अक्षरा रास्ते में ही मिल
गयी थी, मैंने अक्षरा से कहा-“अक्षरा! आज तुमने जो कॉलेज के गेट पर बोला वो सब
तुम्हे नहीं बोलना चाहिये था, पता है मेरी आज कितनी मजाक बनी?’
“अरे इसमें मजाक की क्या बात हुई, मैंने तो खुद मजाक में बोला था।”
“तुमने तो मजाक में बोला था, लेकिन जो लडको ने तुम्हें सामान कहा
उसका क्या?”
“ऐसे दोस्त बनाते ही क्यों हो जो इस तरह की जुबान रखते हैं?”
“अक्षरा तुम समझ नही रही हो, ये दुनिया है-किसी को मौका ही क्यों
देते हो कि लोग अँगुली उठायें?”
“अच्छा चलो छोडो, गलती हुई नाराज क्यों होते हो? आगे से ऐसा न हो
ऐसी कोशिश करुँगी।“
मैं गुस्से में घर चला आया।
इस बीच अक्षरा की दोस्ती एक पंकज नाम के फौजी लड़के से होने लगी थी
जो अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ आता था, ये बात मुझे मालूम थी, फिर भी अपने रिश्ते
सामान्य रखने का प्रयास किया। हालाकि अब फौजी और अक्षरा के प्रेम-प्रसंग सरेआम
लोगो की जुबान पर थे। ये बात अखरती जरुर थी। लेकिन इस बात से कुछ तसल्ली मिलती कि मेरा
झुकाव भी तो रुकसार की तरफ हो रहा है।
रुकसार मेरे पडोसी की बेगम थी, जिससे झुकाव का कारण उसके पति
द्वारा उसके साथ मार-पिटाई करना था। रुकसार मुझे आते-जाते कुछ भी बोल दिया करती थी।
जल्दी ही मालूम हो गया था कि इन सब बातों से सिर्फ पढाई ही ख़राब होगी बाकी हासिल
कुछ नहीं होना है। लेकिन रुकसार पर मानो इश्क का जूनून था। रुकसार से दूरी बनाने
में साल लग गया।
सेकिण्ड इयर की पढाई शुरू हो चुकी थी। मैं गॉव में था, अक्षरा को पता
चला तो मिलने आई, बातें करते-करते उसने कहा-“सुदीप तुम्हारी केमिस्ट्री लैब में
सायनाइड होगा, क्या तुम मुझे लाकर दे सकते हो?”
“अक्षरा तुम पागल तो नहीं हो गयी हो? पहली बात तो कॉलेज में
सायनाइड होता नहीं और अगर होता भी तो मैं तुम्हे क्यों लाकर देता?”
“बस, अब जीने की चाहत
नहीं रही।“
“ऐसा भी क्या हुआ, किसी ने हमारा भी दिल तोडा, हमने तो मरने की
नहीं सोची?”
“तुम्हारा इशारा मेरी ओर है न, सुदीप तुम समझते क्यों नहीं, हम एक
ही गॉव के हैं, हम इस रिश्ते को आगे नहीं ले जा सकते थे।“
“एक गॉव के कहाँ हैं तुम्हारे पिताजी तो यहाँ आकर बसे हैं, फिर
हमारे गॉव तो अलग हुए न।“
“अरे बुद्धू, धेवती हूँ मैं इस गॉव की।“
“वो फौजी, जिसके इश्क में तुम पागल हुई जाती हो वो भी धेवता ही है।“
“सुदीप! देखो हमें इस मसले पर बहस नहीं करनी, बस इतना बता दो क्या
तुम जहर लाने में मेरी मदद कर सकते हो?’
“नहीं दोस्त, अच्छे दोस्त जीने की प्रेरणा देते हैं मरने का सामान
नहीं, मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।“
अक्षरा अपने घर चली गयी थी। मेरी बेचैनी बढ़ गयी। क्यों अक्षरा मरना
चाहती है? क्या प्रेम इतना कमजोर होता है कि हम छोटी-छोटी बातों में मरने के उपकरण
करने लगे?
कॉलेज में एन.एस.एस. के फॉर्म निकले थे. समाज सेवा की ललक ने मुझे
फॉर्म लाने के लिए उत्साहित किया, मैंने अक्षरा से भी पूछा-“अक्षरा, एन.एस.एस के
फॉर्म निकले हैं तुम भी भर दो, नौकरी में भी तीन परसेंट की छूट मिलती है।“
“ठीक है सुदीप तुम फॉर्म लाकर खुद ही जमा करा देना, चौहान क्लर्क
तो तुम्हारी जान-पहचान का है।“
“ठीक है मैं फॉर्म भरकर जमा करा दूँगा, लेकिन उसमे एक फोटो भी
लगेगा।“
अक्षरा ने तुरन्त अपने वोइलेट से एक फोटो निकालकर दे दिया। मैंने
फोटो लेकर जेब में रख ली और कमरे पर आकर मेज पर रख दी। कॉलेज से एन.एस.एस के फॉर्म
लिए तो पता चला कि एक नहीं दो फोटो चाहिए। सोचा अब एक फोटो के लिए फिर से अक्षरा
को बोलने से बेहतर है प्रताप फोटो स्टूडियो जाकर फोटो बनवा ली जाए। प्रताप को जाकर
फोटो के लिए बोला। प्रताप ने चार फोटो बनाने की शर्त पर हामी भरी। इत्तेफाक था कि
अक्षरा को फोटो की जरुरत थी। वह दुकान पर फोटो बनवाने गयी तो प्रताप ने उसे बताया
कि आपकी फोटो तो पहले से ही बनने आई हुई है-भाईसाहब १२ बजे लेने आयेंगे। विपिन और
मैं कोलेज के लिए चले, मेरे हाथ में एन.एस.एस के दोनों फॉर्म थे। हम दूकान पर
पहुँचे तो अक्षरा वहाँ पहले से बैठी थी। अक्षरा मुझ पर बरस पड़ी, अगर तुम्हें फोटो
की जरुरत थी तो मुझे बोलते, इतनी घिनोनी हरकत क्यों की, तुमसे मैं उम्मीद भी नहीं कर सकती थी, तुम निहायत ही जलील किस्म
के इन्सान हो। मैंने कुछ न बोल फॉर्म के टुकड़े-टुकड़े करके अक्षरा के मुँह पर फेंके
और बोला-“सुन मगरूर लड़की, तूने दोस्ती के बदले मुझे खरीद नहीं लिया। तेरे जैसी
सैकड़ो फिरती हैं, सुदीप मन का राजा है ये गुरुर किसी ओर को दिखाना।“
बात आगे बढती इससे पहले विपिन ने साईकिल के पैडल मारे और आगे बढ़
गया। अगले दिन ये बात पूरे गॉव में आग की तरह फ़ैल गयी कि सुदीप अक्षरा के फोटो
बनवाते हुए पकड़ा गया। अगले दिन से अक्षरा की बहन का ट्यूशन पढने आना बन्द हो गया
था। अक्षरा के पिताजी के स्टेटमेंट आये कि सुदीप सामने आ जाये तो उसके ऊपर
ट्रेक्टर चढ़ा दूँगा। सुदीप ने कोई रियेक्ट नहीं किया। वह बस एक मौके के इंतज़ार में
था। उसे बदला लेना था।
कल्ले की बुआ की शादी का निमंत्रण आया। सारे दोस्त इकठ्ठा थे, सबने
दो-दो पैग मारे हुए थे। मैंने भी दो पैग
मार लिए थे। अक्षरा के पिताजी भी शादी में आये थे। टेंट के साथ खाली जगह में हम
दोस्त लोग कुर्सी पर बैठे थे, मेरे दोस्तों ने धीरे-धीरे एक-एक करके कुर्सी के
अगल-बगल में अपनी अपनी कुर्सी डाली। अक्षरा के पिताजी को मैं अक्सर बाबूजी कहा
करता था।
“हाँ तो बाबूजी, आप हमारे ऊपर ट्रेक्टर चढ़ाएंगे?”
“नहीं बेटा, ऐसा मैंने कब कहा?”
“नहीं आप चढाओ, हमारे ऊपर ट्रेक्टर, साला हमें तो आपने चून का बना
समझा है, अबे साले लोग समझते हैं लंगड़ा है क्या करेगा, ये देख रहे हो? ये जो अगल-बगल
में बैठे हैं न, ये साले बोटी-बोटी अलग करने में देर नहीं करेंगें। साले हमारे ऊपर
ट्रेक्टर चढ़ाएंगे..ब..ह...न.... के..... ।“
अक्षरा के पिताजी को कहते कुछ न बना, शादी से उठकर चले गये। पम्मी
ने कहा-“ सुदीप तुझे ऐसे नहीं बोलना चहिये था?”
“अबे तू क्या उसका दामाद लगता है जो तरफदारी कर रहा है?”-मैंने कहा।
“नहीं है तो बनवा देते हैं।“-ये डायलोग विपिन ने कहा था।
“यार, वो हमारे मेहमान थे, सुदीप तुमने किया तो गलत ही।“-कल्ले के कहा।
“अबे साले, बड़ा आया मेहमान वाला, हम क्या दुश्मन हैं?“
बात बढे इससे पहले विपिन मुझे लेकर अपने घर चला गया, पम्मी भी साथ
हो लिया। मुझे संतोष था कि आज अपना हिसाब अक्षरा के पिताजी से पूरा कर लिया था।
रात के बारह बजे से भी ज्यादा का वक़्त था। तीनो दोस्त ऊपर के कमरे
में पहुँचे। नींद किसे आनी थी। विपिन ने पम्मी से पूछा-“यार पम्मी, तू दोस्ती के खिलाफ उस साले का साथ क्यों दे रहा था।“
“सुन विपिन, ये साला क्या बताएगा, हम बताते हैं, जनाब फर्स्ट इयर से अक्षरा से
इश्क करते हैं वो भी एक तरफ़ा, और हम इस बात को पहले दिन से जानते हैं, केमिस्ट्री
हो या फिजिक्स लायब्रेरी की हर किताब पर अक्षरा का नाम लिखा मिलेगा। अब भाईजान
रिश्तेदारी निभा रहे थे।“
जोर का ठहाका लगाकर तीनो हँसने लगे। मैंने आगे कहा-“ हमारे दोस्त
ने तो एक पूरा साल कुछ यूँ गंवाया कि फेल ही हो गए।“
“अबे सुदीप! इसमें मेरी क्या गलती, तूने ही कहा था कि “साजन” फिल्म
की सूटिंग है, देखो कहानी एकदम वैसे ही है, तू ही साजन का संजय दत्त बनने पर तुला
था।“
“अबे
साले, हम यारों के यार हैं ये ही तो दिक्कत है, जब तू उसे चमेली बोल खुद सलमान खान
बन गया तो हमें तो दोस्त के लिए साली प्रेमिका को कुर्बान करना ही था। तुम साले हो
तो टुच्चे वाले आशिक, न हमारी छोड़ी न अपनी बना पाए और आज साला उसके तरफदार बने हो।“
रात भर नशे में तीनो एक-दूसरे की यूँ ही बखिया उधेड़ते रहे।
क्रमशः
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