लघुकथा : एक दृष्टिकोण
आलेख
संदीप तोमर
(नोट : यह आलेख बहुत पहले लगभग 13 वर्ष पहले लिखा था जिसे सदाकांक्षा पत्रिका ने छापा था, बाद में एक दो पत्रिकाओं ने और छापा, मेरी लघुकथा पर पहली पुस्तक "समय पर दस्तक" में भी मैंने इसे शामिल किया। कुछ लघुकथा प्रेमियों के मन मेन उठने वाले प्र्श्नो के उत्तर इस लेख मेन उन्हें मिल सकते हैं साथ ही नवोदित इस विधा मेन लिखने के लिए विधा की समझ इस लेख के माध्यम से बना पाएंगे।)
सामान्यत: किसी भी साहित्यिक आंदोलन का
सूत्रपात निश्चित रूप से योजनाबद्ध न होकर सहज तथा स्वाभाविक होता है। ऐतिहासिक
संदर्भ में विशिष्ट व्यक्तियों तथा विशिष्ट परिस्थितियों के फलस्वरूप ही कोई
प्रवृत्ति साहित्य में परिलक्षित होती है। सशक्त होने पर यही प्रवृत्ति धीरे-धीरे
एक धारा का रूप ले लेती है,
तब जाकर उस धारा का नामकरण होता है। इस
प्रकार लेखन की एक नई विधा अस्तित्व में आती है। अत: नव लेखन किसी समूची नवीन
प्रवृत्ति अथवा दृष्टिकोण व्यक्त करने वाला साहित्य है। नव लेखन किसी लेखन अथवा युग
का परिचायक न होकर नवीन परिप्रेक्ष्य का द्योतक है। यहाँ यह समस्या भी आ सकती है
कि ‘नवीन’ किसे कहा जाए?
यह प्रश्न भी उठ सकता है कि क्या ‘आधुनिक होना’ नवीनीकरण है?
आधुनिकता का सम्बन्ध वर्तमान सन्दर्भ
में भविष्योन्मुखी दृष्टिकोण का होना है। साहित्य में नव लेखन का प्रयोग आधुनिकता
के सम्बन्ध में होना, प्रथम शर्त है। विन्यास के क्रम में
परिवर्तन अपरिहार्य भी होता है और वांछनीय भी, इसीलिए
परम्पराओं को बदलने की आवश्यकता महसूस की जाती है और अपेक्षित सुधारों के साथ
विकास क्रम में आवश्यकताओं को मददे-नजर रखते हुए नए प्रतिमान स्थापित किए जाते
हैं। परम्परागत प्रवृत्तियों की सार्थकता के कमज़ोर पडऩे पर नवीनता की आवश्यकता
होती है। जब समाज के प्रतिमान बदल रहे होते हैं, इतिहास विकास क्रम में होता है तो नव लेखन एक नवीन, आधुनिक, स्वस्थ एवं व्यापक भूमिका में उभरकर समाजगत साहित्य का अत्याधुनिक
रूप हमारे समाने प्रस्तुत करता है।
नव लेखन की धारा में ही नवीन कहानी का
युग प्रारम्भ हुआ और लघुकथा इसका एक अंग बनकर सामने आई। हिंदी साहित्य में लघुकथा
के प्रयोग में समाज संस्कृति और राजनीति आदि घटकों की स्थितियों की पड़ताल
दृष्टिगोचर होती है। यूँ तो नव लेखन का प्रारम्भ 1943 के आस-पास हुआ लेकिन नई कहानी के प्रयोग इसके काफी बाद साठ के दशक
में अधिक देखने को मिले। अनेक लोक कथाएँ (संस्कृत साहित्य में), दृष्टांत इत्यादि तो वैदिक कालीन
साहित्य में भी देखने को मिलते हैं और इन्हें लघुकथा की श्रेणी में रखा जाता है,
लघुकथा माना भी जाता है। लेकिन लघुकथा एक विधा के रूप में साठ के दशक में नई कहानी
के प्रयोग से ही अस्तित्त्व में आई।
कथा-साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचन्द
का व्यक्तित्व अविकसित होते हुए भी इतना पॉपुलर हुआ कि कोई भी उनके बनाए मार्ग के
अलग चलने का साहस, काफी समय तक नहीं कर पाया। हमारा
रूढि़वादी दृष्टिकोण हमें उनसे आगे जाने की इजाजत नहीं देता था। ‘भारतीय परम्परा’ पद-चिह्ïनों के अनुकरण की अधिक रही है इसलिए अधिक समय तक नए प्रयोगों की
गुंजाइश भारतीय साहित्य में नहीं रही। यही कारण रहा कि साहित्य में आधुनिकता का
प्रवेश देर से हुआ और नवीन प्रयोग प्रारम्भ होने में भी समय लगा।
नवीन कहानी के देर से शुरु हुए प्रयोग
से एक सकारात्मक प्रारम्भ तो हुआ ही। लघुकथा के माध्यम से समाज, संस्कृति और राजनीति पर तीखे प्रहार
होने प्रारम्भ हुए। इसमें लम्बी कहानी के तरीकों से अलग हटकर प्रयोग किए गए और सफल
की हुए। इस प्रकार हिन्दी साहित्य में नई कहानी आधुनिकता का एक रचनात्मक दृष्टिकोण
लेकर प्रविष्ट होने के साथ-साथ प्रतिष्ठित भी हुई। समकालीन साहित्य के प्रति पाठक
वर्ग की रूचि बढ़ी, अब पाठक अधिक सक्रिय हो गया है। उसकी
इस सक्रियता के पीछे मुख्य कारण है साहित्य में नवीन प्रयोगों का होना। आज का
साहित्य पाठक के जीवन को दिशा-निर्देश भी देता है और संघर्ष के लिए प्रेरित भी
करता है।
सातवें दशक के अंतिम वर्षों में लघुकथा
के पुनरुत्थान के कुछ प्रयास किए गए। लघु पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत से इस ओर
सकारात्मक परिणाम सामने आए। लेकिन साथ ही अनेक लेखकों ने व्यंग, दृष्टांत इत्यादि को लघु का प्राण मान
लिया और पाठक को झटका देने की नीति को लघुकथा के प्रयोग के रूप में देखना शुरु कर
दिया। ऐसा नहीं है कि लघुकथा में सिर्फ यही एक विचारधारा बनी हो, इससे अलग लघुकथा एक सामाजिक हथियार के
रूप में भी महती भूमिका निभाती प्रतीत हुई।
आपात स्थिति (1975) से लेकर अब तक लघुकथा ने एक लम्बा व
तीव्र सफर तय किया। आठवें और नवें दशकों में अनेक लघुकथा संकलन प्रकाशित हुए लेकिन
लघुकथा के साथ समस्याएँ हमेशा ही बनी रही। लघुकथा को गद्यांश, व्यंग, चुटकुले, संस्मरण इत्यादि का प्रतिरूप समझने
वालो की कमी नहीं हुई। अधिकांशत: देखने में मिलता है कि जल्दबाजी में लिखी गई
कथाएँ जो अत्यन्त छोटी होती हैं उन्हें लेखक लघुकथा का नाम दे देता है। लघुकथा की
इस समस्या ने इसे एक अजीब स्थिति में ला खड़ा किया है। अधिकांश व्यक्ति मात्र
इसलिए लघुकथाए लिख रहे हैं कि उन्हें सिर्फ लिखना है लघुकथा को इस मानसिकता के
लोगों ने साहित्य में शार्ट-कट मानना शुरू कर दिया है।
लघुकथा के साथ यह तो महत्त्वपूर्ण एवं
अनिर्वाय है कि जब कोई रचना कथा-विकास के छोटे कलेवर में वांछित परिणति को सिद्ध
करने तक पहुँचने में पूर्ण-रूपेण सक्षम हो तो उसे अनावश्यक विस्तार देने की कोई
गुजाइश/आश्वयकता नहीं होती। यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि कथा के परिणाम तक
पहुँचना लघुकथा का उद्ïदेश्य कदापि नहीं और न ही पाठक को झटका
देकर अपनी बात खत्म करना,
लघुकथा है।
लघुकथा लेखन में महत्त्वपूर्ण है सही
भाषा का चयन। भाषा अपने आप में एक चरित्र है, एक
अनुशासन है, यह मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं
है। भाषा का चयन इस प्रकार किया जाए कि पाठक के मन में कुलबुलाहट हो, वह सोचने के लिए विवश हो जाए और साथ ही
लेखक के साथ स्वभावत: सहानुभूति पैदा हो जाए। लघुकथा में कथानक भी महत्त्वपूर्ण
स्थान रखता है। कथानक ऐसा हो जो पाठक की रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा हो। एक ही
घटना के कथानक लघुकथा के लिए आदर्श माने जाते हैं। कथोपकथन भी ऐसे होने चाहिए कि
पृष्ठभूमि को उभार कर रख दें और कथा में जिस वातावरण को लेखक उत्पन्न करना चाहता
है वह जीवन्त बन पड़े। पाठक को लगे कि सब कुछ उसके इर्द-गिर्द घूम रहा है। इसके
लिए यह भी आवश्यक है कि भाषा के प्रयोग में लेखक का दृष्टिकोण उदार हो। लघुकथा में
दीर्घ वाक्य विन्यास गठन के हिसाब से सर्वोत्तम होता है। दीर्घ वाक्य के एक या
अधिक पैरा की बात (कभी-कभी दो तीन पृष्ठों की बात भी) आसानी से कम शब्दों में ही
मस्तिष्क में बैठ जाती है। इसके साथ ही लघुकथा का अन्त भी महत्त्वपूर्ण है। लेखक
का उद्देश्य लघुकथा में निदान होना चाहिए, ट्रीटमैंट
नहीं। रचना में ट्रीटमैंट बहुत ही स्वाभाविक रूप लिए हुए होना चाहिए। लघुकथा का
कलेवर भी बामुश्किल पांच या सात पैरा का होना चाहिए अथवा उससे भी कुछ कम। शीर्षक
का चयन इस प्रकार किया जाना चाहिए जो स्वयं को सिद्ध करता हो। ध्यान रहे व्यंग, चुटकुले या संस्मरण लघुकथा के रूप हो
सकते हैं लघुकथा मात्र इतना सा ही प्रयोग नहीं।
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