पुस्तक समीक्षा
पुस्तक — अर्थशास्त्र नहीं है प्रेम (कहानी संग्रह)
लेखक – राजगोपाल सिंह वर्मा
प्रकाशक- सुभदा बुक्स
प्रकाशन वर्ष: २०२०
मूल्य: २६० /.
(समीक्षक-संदीप तोमर)
“अनगिनत कसक की गाथाओं का पुलिंदा हैं लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा”
लेखक राजगोपाल हमारे समय के विशिष्ट कथाकार हैं। “अर्थशास्त्र नहीं है प्रेम” राजगोपाल सिंह वर्मा जी के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह का नाम है। इस अद्भुत संकलन को पढने के पश्चात् इसकी समीक्षा लिखने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ। अपने समय की शिनाख्त करती इस संकलन की कहानियाँ अद्भुत हैं। राजगोपाल हिन्दी के साहित्यजगत में अपनी तरह के कहानीकार हैं। वर्मा को “बेगम समरु का सच” से काफी ख्याति मिली, उसके बाद कहानी संग्रह का आना उनकी लेखन क्षमता को उजागर करता है। अगर मैं खुद से ही कुछ शब्द उधार लेकर कहूँ तो कहना पड़ेगा कि ये कहानियां बिलकुल ‘हटके’ हैं। राजगोपाल की कहानियां न तो हिन्दी के चालू मुहावरे में कलावादी शिल्पकारी से निर्मित होती हैं और न ही कथ्य की सपाट प्रस्तुति से। सधी हुई संप्रेषणीय भाषा और बेहद कसे हुए महीन शिल्प के सहारे वह विषय के इर्द-गिर्द एक ऐसा ताना-बाना रचते हैं जो पाठक को न केवल अंतिम पन्ने तक बाँधे रखता है बल्कि उनके साथ अपने समय और समाज की यात्रा कराते हुए उस पूरी विडंबना से रुबरु कराता है। कहा जा सकता है कि अपने समय पर लेखका की गहरी पकड है, वे परिस्थितियाँ जिन्होंने राजगोपाल से ये कहानियाँ लिखवाई हैं, कहीं अधिक सशक्त रहीं हैं और साथ ही लेखक की पैनी और महीन नजर उन परिस्तिथियों को कालजयी बना देती हैं।
‘सुभदा बुक्स” प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस कहानी संग्रह “अर्थशास्त्र नहीं है प्रेम” में संकलित छोटी बड़ी कुल ग्यारह कहानियों में लेखक अपने समय के विभिन्न आयामों के साथ उपस्थित हैं। इन कहानियों में से
अधिकांश में प्रेम को अलग अलग कोणों से प्रस्तुत किया गया है, इनमें अपने समय के प्रेम के दर्द को साफ-साफ देखा और महसूस किया जा सकता है जो शायद
लेखक और कहानियों के पात्रों का केन्द्रीय भाव भी है। इन कहानियों की एक विशेषता
ये है कि यहाँ वास्तविक चरित्र कहानी के पात्र बन जाते हैं
और उसे पढते हुए आपको लगेगा ही नहीं कि कहानी से बाहर की कोई चीज़ है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये पात्र आपके आस-पास ही हैं और आप
उनसे रोज रूबरू होते हैं।
संग्रह की पहली कहानी “छुटकी” की केन्द्रीय पात्र ‘छुटकी’
यानि नीलिमा की कथा प्रत्येक समाज और काल की गरीब मेहनतकश लड़की की कहानी है, जिसे घरेलू कामों मे लिप्त बेगार के चलते कितने ही समझौते करने पड़ते है। मालिक के शोषण के चलते एक दिन बीमारी में जान
गँवाती अनगिनत लड़कियों की वेदना को रचनाकार ने लिखने का प्रयास किया है। शरीर के जख्मों के साथ ही मन-मस्तिष्क के जख्म कैसे
जीवन का नासूर बन जाते हैं। इसी भाव से लेखक ने पाठको को रूबरू कराया है।“न जाने क्या
कहलाता है यह रिश्ता” संवेदनाओं से ओत-प्रोत कहानी है, जिनका शिल्प काव्यात्मकता लिए है। संस्मर्णात्मक
शैली में लिखी यह एक रोमांटिक कहानी है।
माधुरी के साथ पनपा ऑनलाइन प्रेम जब अनेक परतें
खोलते हुए आगे बढ़ता है तो नायक माधुरी की समस्याओं से रूबरू होता है, लेखक ने इस कहानी को अपनी कुशलता
से परिणति तक पहुंचाया है। माधुरी का सुकड़ता संसार लेखक को खटकता है, ऐसा महसूस होता है, कि यहाँ लेखक स्वयं नायक के रूप में हमदर्द बन माधुरी जैसी अनगिनत लेखिकाओं का दर्द बयाँ करता है। “वो
खत... अहसासों के” को डायरी शैली में लिखा गया है, हाल-फिलहाल डायरी शैली का चलन कम
हुआ है, अनन्या को खत लिखते हुए लेखक ने फंटेसी का सहारा
लेकर प्रेम की एक अलग निर्मिति बनाई है। “मुजरिम हाजिर
हो” कहानी कोर्टरूम से शुरू होते हुए अब्दुल रहमान की गरीबी, तंग-परस्ती की दास्तान कह जाती
है। जवान होती बेटियों को बरगला उनके साथ होने वाले
अलग-अलग किस्म के शोषण को इस कहानी का आधार बनाया गया है। लेखक
न्यायप्रणाली की सुस्त चाल से बीएचआई चिंचित होता है। “सोलह प्रेमपत्र” में लेखक प्रेमी
युगल प्रेम की शुरुआत के तरीके से कहानी को प्रारम्भ कर नायिका के आत्महत्या के
निर्णय को इस बारीकी से उकेरता है मानो वह इस प्रेम का प्रत्यक्ष गवाह हो। घर छोडकर शादी
करने के निर्णय और प्रेम के छल की कलई खुलने पर हुए प्रेम के हस्र को कहानी का
आधार बना लेखक नवपीढ़ी को एक सार्थक संदेश इस कहानी के माध्यम से देता है। यह संकलन की
एक सशक्त कहानी है।
टाइटल कहानी” अर्थशास्त्र नहीं है प्रेम” में
लेखक अपनी यात्रा के दौरान मिले पात्रों के बीच के प्रेम को उनके तरीके से समझने
का प्रयास करता है और उसे इंसटेंट प्रेम की संज्ञा देता है। लेखक ठहराव
वाले प्रेम की कल्पना भी करता है जेओ शायद आधुनिक समाज से निरापद है।
राजगोपाल वर्मा के लेखन की
वाईई विशेषता है कि उनकी कहानियों
के पात्र तथा घटनाएँ एकदम सजीव हैं। ये कहानियां
मन को इस तरह अभिभूत करती हैं कि पढ़ने-पढ़ते कहानी के किरदारों के साथ-साथ ही मन
सफर करने लगता है। “प्रारब्ध” ठाकुर साहब की कहानी है जो चमत्कारिक से
व्यक्तित्व के स्वामी हैं, जो अपने तीनों बच्चों की तारीफ़ के पुल बाँधते हैं, वही संतान पिता की चोट के बाद अपना असली रूप दिखाती है, जिससे ठाकुर साहब आहत होते हैं। इस
कहानी में मानव स्वभाव और रिश्तों की जटिलता को प्रमुखता से लिखने का एक सफल
प्रयास किया गया है। लेखक ने कहानी का अंत एक बड़े सच के साथ किया है-“
सच है... अपने हिस्से का हिसाब हमें स्वयं ही करना पड़ता है।“
“लॉगआऊट”
सोशल मीडिया से पनपे प्रेम की अद्भुद दास्तान है। यह
एक भावप्रधान कहानी बन पड़ी है, इस कहानी के संवाद पाठक को कहानी
से जोड़ते है और पाठक खुद को कहानी में खुद को पाता है। “धूल की परत” भी एक
बेहतरीन कहानी है, मैं इस संग्रह का टाइटल तय करता टीओ इस कहानी को प्रतिनिधि कहानी मान
“धूल की परत” ही टाइटल रखता। इस कहानी का ताना-बाना लेखक को एक स्थापित
कहानीकार साबित करता है। पाठक अगर पेन्सिल के साथ इस कहानी को पढ़ना शुरू करे तो मेरा दावा
है कि वह बार-बार पंक्तियों को रेखांकित करता रहेगा। मसलन-
“हम लोगों का सिंक्रोनाइजेशन ऐसा हुआ कि मित्रता अटूट बनी रही”, “उस दिखावटी दुनिया के मुखौटे उतरने आरंभ हुए... ।“, “आप आ जाते हो तो थोड़ा मन बदल जाता है,वरना ऊब होने लगी है लोगों से॥ ज़िंदगी से और कभी-कभी अपने आप से भी।“, “पूरी ज़िंदगी खुद से लड़ते रहो, एनए जाने कितनी सतहों में मन को छिपाकर रखो,
छोटी-छोटी चीजों में खुशियाँ ढूँढते रहो ... ।“, “अब तो बची हुई ज़िंदगी एक्सपायर डेट की तरह तरह है।“... “दूर
से हाथ तापने और खुद को जलते हुए महसूस करने में जमीन-आसमान का अंतर है।, “....वह केयूसीएच समय तक प्रेम करता है, दया भी दिखा सकता है पर जीवन भर एनए अपना सकता है,
और न अपना बनकर रह सकता है।“, “ओल्ड
हैबिट्स डाइ हार्ड”।“धूल की परत पढ़ते हुए अहसास हुआ कि लेखक मेरा अतीत
कैसे जानता है?
सभी कहानियों के कथानकों की विविधता, लेखक के विस्तृत अनुभव, प्रकांड ज्ञान व अत्यंत सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति
का परिचय देती है। लेखक राजगोपाल वर्मा अपने
खुले नेत्र, संवेदनशील
हृदय और सक्रिय कलम से अपनी रचनाओं में स्मरणीयता के साथ-साथ पठनीयता जैसे गुणों
को जन्म देकर हिंदी-जगत के सुधी पाठकवृंद को बरबस अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हैं।
भाषा और शिल्प की बात की जाए तो हम पाते हैं कि वर्माजी ने कहानी के लिए किसी विशेष शिल्प को नहीं अपनाया। उनकी कथा कहने की शैली इतनी सरल और सहज है कि उनके पात्र बड़े ही सहज-सरल
शब्दों में संवाद करते हैं। लेखक जो भी जैसा भी घटते हुए देखता है, उन घटनाओं से बड़ी
आसानी से कथा में बुनता चलता है। वाक्य विन्यास एकदम सहज है और
संवाद कथा की मांग के हिसाब से ही प्रयुक्त किये गए हैं, कुल मिलाकर कहानियां पठनीय है। आखिर में इस सुन्दर और सार्थक संग्रह के लिए राजगोपाल वर्माजी को अनन्त शुभकामनायें। उनके इस अनूठे संग्रह
का साहित्य जगत में स्वागत है।
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