आत्मकथा का ग्यारहवाँ भाग
सुप्रिया और नीना साथ-साथ पढ़ते थे। दोनों में पक्की दोस्ती थी।
नीना के पापा मेरे कॉलेज में क्लर्क थे। सुप्रिया और नीना ने बी.ए. के तीनों साल
साथ-साथ पढाई की थी। लेकिन आगे कॉलेज में पी.जी. की पढाई की सुविधा न होने के कारण
दोनों ने ही प्राइवेट एम.ए. करने का निर्णय लिया। सुप्रिया ने राजनीतिशास्त्र में
पी.जी. करने का निर्णय लिया, नीना ने हिंदी में। अब कॉलेज की तरह मिलना-जुलना नहीं
होता था।
एक दिन सुप्रिया ने मेरे हाथ चौहान साहब यानि नीना के पापा को मसेज
भिजवाया कि नीना को एक दिन के लिए गॉव भेज दें। चौहान साहब ने एक दिन अपने बेटे के
साथ नीना को गॉव भेज दिया। उनका लड़का ग्यारहवी में पढता था, नाम था विनय। नीना और
सुप्रिया सारी रात बात करते रहे बहुत दिनों बाद दोनों मिले थे, रात के दो-ढाई बजे
तक बातें करते रहे तो पिताजी की नींद खुली, नींद में ही दोनों को डांट पड़ी तो
उन्होंने सोने का अभिनय करना शुरू किया। कब उन्हें नींद आई वो ही जाने।
सुबह या शायद दोपहर को विनय नीना को लेने आया। इसी बीच दो बातें
हुई-एक विनय ग्यारहवी में पढता जरुर था लेकिन उसमे कुछ बुरी आदतें पड़ गई थी। चौहान
साहब उन आदतों से परेशान थे। उन्होंने पिताजी से जिक्र किया- “यार हरि, बेटा बहुत
बिगड़ गाया है, पान-गुटका सब खाने लगा है, बुरे लडको के साथ उठता-बैठता है, और कहीं
किसी लड़की का भी लफड़ा सुनने में आया है। समझ नहीं आता है क्या करूँ?”
“चौहान! मेरा छोटा बेटा यहीं डाकखाने वाली गली में मेरे नए मकान
में रहकर पढाई करता है, तेरे ही कॉलेज में सेकंड इयर में है, उसके पास छोड़ दे, बड़ा
स्ट्रिक्ट बच्चा है, उसे पढ़ायेगा भी और सुधार भी देगा, मैंने अक्सर उसे पढ़ाते समय
देखा है, क्या चांटे लगाता है बच्चो को जब उनसे सवाल हल नहीं होते।“
“फिर ठीक है हरि भाई, अपने बेटे से बात कर लो, बड़ा अहसान होगा अगर
मेरे बेटे को वो सुधार दे।“
“हाँ यार, मैं तो बोल ही दूँगा लेकिन कल कॉलेज में तू खुद भी बात
कर लेना।“
अगले दिन जब मैं कॉलेज पहुँचा तो चौहान साहब सामने ही टकरा गए,
मुझे आवाज लगा बोले-“ सुदीप सुनो बेटा?”
“जी अंकल बोलिए, क्या काम था।“
“चलो उधर लॉन में चलते हैं, वहाँ तसल्ली से बैठकर बात होगी।“
मुझे थोडा अजीब लगा और थोडा डर भी कि कभी अंकल ने इस तरह उससे कॉलेज
में बात नहीं की, आखिर आज ऐसा क्या हुआ? मैं सोचने लगा- मैंने तो कोई ऐसी गलती भी
नहीं कि जिससे कि इन्हें कोई शिकायत का मौका मिले। बेटा आज तो गए काम से, अगर कुछ
ऐसा-वैसा हुआ और पिताजी तक बात गयी तो फिर तो सामत पक्का आएगी। ये सब सोचते हुए
चौहान अंकल के साथ लॉन तक गया।
चौहान साहब बोले-“सुदीप बेटा तुम्हें याद होगा- उस दिन नीना को छोड़ने
मेरा बेटा विनय आया था ।“
“हाँ, हाँ अंकल मुझे याद है, क्या हुआ उसे? सब कुछ ठीक तो हैं न?”
“सब कुछ ठीक होता तो तुमसे बात नहीं कर रहा होता।“
“बताओ अंकल क्या बात है और मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?”
चौहान अंकल ने विनय के बारे में डिटेल में बताकर कहा-“मैं चाहता
हूँ कि तुम उसे अपने पास रखकर पढाओ।“
“लेकिन अंकल उसका स्कूल तो सुबह का है और मेरा दोपहर की शिफ्ट का.,
फिर मैं उसकी क्या मदद कर पाऊँगा?’
“हम उसे शाम को तुम्हारे पास भेज दिया करेंगे, वो खाना खाकर छः बजे
तुम्हारे रूम पर आ जाया करेगा, और सुबह वापिस आकर स्कूल चला जाया करेगा।“
“अगर आप ऐसा कर पाएंगे तो मुझे कोई दिकात नहीं है।“
चौहान साहब बात करके ऑफिस में अपनी सीट की ओर बढ़ गए और मैं अपनी
क्लास करने के लिए। उस दिन के बाद से विनय रोज शाम को आ जाता, मैं अपनी पढाई के
साथ-साथ उसे भी पढाता। हफ्ते भर में ही मुझे लग गया कि विनय को पढाना बड़ी टेढ़ी खीर
है, और उसके पास होने के लक्षण नहीं हैं, मैंने ये बात चौहान साहब से भी शेयर की
लेकिन उनका कहना था कि कोशिश करो, जितना नुकशान है उससे ज्यादा तो कुछ नहीं होगा,
ग्यारहवी में फेल ही होगा न, अगर तुम्हारी कोशिश से पास हो गया तो बड़ा अहसान होगा।
मैं क्या कहता, अनमने मन से स्वीकृति दी, और सुधार के प्रयास और तेज कर दिए।
दूसरी घटना इससे भी दिलचस्प- हालाकि दोनों घटनाओ में तारतम्यता भी
थी। दूसरी घटना कुछ यूँ थी- चौहान साहब फिर से पिताजी से मिले, कहा- “यार हरि,
नीना की शादी के लिए लड़का नहीं मिल रहा, कोई लड़का हो निगाह में तो बता न यार?”
पिताजी कुछ बोलते इससे पहले ही चौहान साहब ने आगे ऐड किया-“एक बात
और है, बात क्या बड़ी समस्या है, नीना के शरीर पर सफेद दाग हैं, पीठ, पैर हाथ और
पेट पर इनका असर है, हालाकि कपड़ो में किसी को पता नहीं चलता लेकिन मैं नहीं चाहता
कि ये बात छुपाकर शादी की जाए।“
“देखना पड़ेगा, यार चौहान देख समाज में कितनी समस्याएँ हैं, मुझे
सोचने पड़ेगा, कहाँ बात की जाए?“
“हाँ, एक बात और देख भाई, मैं पूरी जिन्दगी एक क्लर्क रहा, क्लर्क
से हेड क्लर्क भी नहीं बन सका और पूरी जिन्दगी किराये के मकान में रहा हूँ, दस साल
नौकरी के बचे हैं, शादी में खर्च करने को भी मेरे पास ज्यादा कुछ नहीं है। कुछ फंड
निकलवाकर ही बारात का मुँह झूठा करा पाऊँगा, लेन-देन भी ज्यादा नहीं कर पाऊँगा।“
यकायक पिताजी बोले- “अरे यार चौहान सुन, तू अपनी बेटी की शादी मेरे
छोटे बेटे से क्यों नहीं कर देता?”
“हरि भाई! विचार तो अच्छा है, यार हमारी पुरानी दोस्ती रिश्तेदारी
में बदल जाएगी, इससे अच्छा और क्या होगा?”
“तो फिर बता क्या करना है?”
“मेरी तरफ से तो हाँ है, एक बार घर पर पत्नी और बच्चो से बात कर
लेता हूँ, तू भी घर में सलाह कर ले।“
“अबे चौहान, हम ठाकुर हैं, यहाँ जुबान की कीमत होती है- एक बार
जुबान दे दी तो दे दी, इसमें अब क्या घर वालो से पूछना? हाँ, तू अपनी तसल्ली कर
ले, मैंने अपने लड़के को ये मकान इसको निजी तौर पर खरीदकर दिया है ये हमेशा इसका ही
रहेगा, घर में कोई इसमें शेयर नहीं लेगा।“
“ठीक है बस, एक बार बच्चो से तो पूछना ही पड़ेगा।“
दोनों दोस्त बातचीत करके अपने अपने घर गए। रात को आठ बजे दूध पीने
के समय सब जने इकट्ठे होते तब दिन भर की सब बाते शेयर होती, ये घर का एक अघोषित
नियम सा बन गया था। अधिकांश बच्चे ही अपनी बाते शेयर करते थे, लेकिन आज बारी
पिताजी की थी।
बोले- “आज चौहान क्लर्क से मुलाकात हुई, वो नीना की शादी को लेकर
परेशान था, लड़का पूछ रहा था, मैंने उसे बोल दिया कि तू मेरे बेटे सुदीप से अपनी
बेटी का रिश्ता कर दे।“
“पिताजी, आप जानते हैं नीना मेरी सहेली है?”- सुप्रिया लगभग
विस्मित होकर बोली।
“हाँ तेरी सहेली है तो क्या हुआ, क्या सहेली भाभी नहीं बन सकती?”
“पिताजी, ऐसा कैसे हो सकता है मेरी सहेली है मतलब मेरे साथ की है,
और सुदीप मुझसे चार साल छोटा है, और नीना भी उससे इतनी ही बड़ी होगी, क्या ऐसा होता
है, कि लड़के से बड़ी लड़की से शादी हो जाए?”-सुप्रिया ने तर्क दिया।
“बेटा, पढ़े लिखे होकर क्या उम्र के पचड़े में पड़ना?”-पिताजी मानो
अपना पूरा मन बना चुके थे।
“लेकिन पिताजी, सुदीप हम सबमें सबसे छोटा है, अभी से ...?’-सुप्रिया
ने फिर अपने छोटू का बचाव किया। इस पूरी बातचीत में बाकी सब मौन दर्शक की मुद्रा
में बैठे रहे।
“पिताजी! आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं ?”-सुप्रिया आगे बोली ।
“सुनो बेटा, ये बड़ा गम्भीर मसला है, तुम सब इस बात की गहराई को
समझने की कोशिश करोगे।“
“बोलो, भी पिताजी, क्या प्लान है आपका, क्या सोचा आपने ?-सुप्रिया
लगभग गुस्से में थी।
“सुन बेटी, नीना के शरीर पर सफ़ेद निशान हैं, उसके लिए उन्हें लड़का
मिलना मुश्किल है, मैंने चौहान की बात सुनी तो मुझे उस पर तरस आ गया और...मैं... ।“
“और आपने चौहान अंकल को हाँ कर दी.... लेकिन मैं कहती हूँ ये शादी
नहीं हो सकती?”-सुप्रिया ने ऐलान कर दिया।
“बेटी, तुम अब भी मेरी बात को नहीं समझ रही.. हमारा सुदीप भी
तो......।“
“पिताजी, अगर हमारे सुदीप को प्रॉब्लम है तो हम उसकी शादी ऐसे ही
कहीं भी कर दें।“-
सुप्रिया ने बात पूरी भी नहीं की थी कि मैं ऊपर के कमरे में चला
गया, नीचे भी बातो का सिलसिला ख़त्म हो चुका था। सुप्रिया कितनी ही बातें मेरे बिना
बोले समझ जाती थी, उसे आभास हो गया कि आज फिर मेरे छोटू भाई को ठेस पहुँची है, आज
फिर वो सारी रात नहीं सोयेगा, आज फिर वो सबके सो जाने तक अपने आँसू रोककर रखेगा,
आज फिर वो सबके सो जाने पर फूट फूट कर रोयेगा, या फिर कमरे के बाहर चारपाई डालकर
सारी रात तारों को देखेंगा, और एक टूटता तारा खोजेगा, जो उसे सम्भवतः नहीं मिलेगा
और आज फिर वो अपने छोटू भाई की कोई मदद नहीं कर पायेगी। उसे रात में नीचे अपने
कमरे जो पढना होता है ।
मैं ऊपर आया तो सुकेश और नीलू भी ऊपर आकर पढने की तैयारी करने लगे,
बिजली गुल थी, सुकेश ने लैंप की चिमनी को साफ़ किया। जब भी वह लैंप की चिमनी साफ करता
है तो बीच में कालिख की एक पट्टी छोड़ देता है, वह कहता है कि मैं ये डिजाईन बनाता
हूँ जबकि नीलू और मैं जानते हैं कि भैया का हाथ मोटा है और बड़ा भी जो पूरी चिमनी
को साफ़ नहीं कर पाता।
नीलू और सुकेश पढने लगे और मुझसे बोले तू भी पढ़ ले। मैंने कहा-“नहीं
आप दोनों पढ़ लो- मुझे सोना है नींद आ रही है, और हाँ, इस लैंप की रोशनी मुझे तंग
कर रही है, इस पर ऊपर अखबार काटकर लगाओ ताकि आपकी किताब तक ही रोशनी सीमित हो मेरी
नींद ख़राब मत करो।“
“नींद ख़राब होगी तो सपने में नीना कैसे आयगी. पिताजी शादी की बात
पक्की जो कर आये, अब पढाई गयी तेल लेने, अब तो सुदीप बाबू नीना के सपने देखेंगे
रात भर।“-नीलू ने व्यंग्य किया।
बिना जबाब दिए करवट बदल मैं चारपाई पर लेट गया, सुकेश और नीलू ने
पढाई शुरू करने के लिए किताबें खोल ली थी। १ बजे लैंप बन्द करके दोनों सो गए।
आसमान एकदम साफ़ था। अनगिनत तारें टिमटिमा रहे थे, मेरी आँखों में नींद
का नामो-निशान नहीं था, नम्बर वाली घडी में समय देखा- ढाई बज चुके थे। आँखों में
नींद नहीं थी. अगर कुछ था तो बस आँसू।
एक शाम मैं अपने रूम पर पहुँचा तो देखा कि कुछ बियर की खाली बोतले
पड़ी हैं और चिकेन की महक कमरे में बाकी है. कमरा थोडा क्या कुछ अधिक ही
अस्त-व्यस्त था, मुझे समझने में देर नहीं लगी कि विनय कुछ टपोरी टाइप लडको को लेकर
रूम पर आया होगा और उन्होंने ही ये हाल बनाया है। रूम की हालत को ठीक की। गंदगी उस
वक़्त भी एकदम नहीं सुहाती थी, अकेले रहते हुए भी क्या मजाल कि कोई सामान इधर से
उधर फैला हो, किताबें भी इस तरीके से रखी होती कि अँधेरे में भी कोई किताब निकालकर
ले आये। फिर ये गंदगी कैसे सुहाती? रात को विनय उस दिन देर से आया, उसकी आँखें बता
रही थी कि उसे नशा है। मैंने पूछा-“विनय कहाँ से आ रहे हो?”
“जी भैया, घर से आ रहा हूँ।“
“तुम्हारी हालत से तो लगता नहीं कि तुम घर से आ रहे हो, सुनो विनय,
देखो तुम अभी मात्र ग्यारहवी के छात्र हो और चौहान अंकल के बेटे हो, इसलिए समझाना
मेरा फर्ज है, अभी तुम क्या मैं भी इतना बड़ा नहीं हुआ कि अपने जीवन के निर्णय खुद
लेने लगूँ और आज जो ये कमरे का हाल था, इसे देखकर तो लगा कि आज कुछ ज्यादा ही
मस्ती हुई है, देखो पार्टी विगैरह कोई बुरी बात नहीं, हम लोग भी समोसा, कोल्ड
ड्रिंक पार्टी करते हैं लेकिन ये उम्र अभी हार्ड ड्रिंक पार्टी की नहीं, आगे तुम अपना
अच्छा-बुरा खुद समझ सकते हो।“
विनय कुछ नहीं बोला, बस सुनता रहा। उस रात दोनों ही नहीं पढ़ पाए।
अगले दिन सुबह विनय चला गया, मैंने चाय बनायीं और दिनचर्या में जुट गया।
नीलू ने एम.एस.सी फिजिक्स में दाखिला ले लिया था, सुकेश भैया अभी
मेरठ कैंपस से एम.फिल. कर रहे थे। सब अलग-अलग जगह रहते।
घर पर सुप्रिया दीदी रहती। मैं बी.एस.सी कर रहा था। सुकेश भैया
मेरठ ही रहकर पढाई कर रहे थे, नीलू का कॉलेज मामा के घर से नजदीक था तो वह वहाँ
रहता। अब सबका मिलना-जुलना भी कम ही होता।
मैं सुधा भाभी के यहाँ अक्सर चला जाता। उनके बच्चे भी अब बड़े होने
लगे थे। बच्चे खुश होते कि चाचू आ गए। बड़ी भतीजी पढने में बड़ी होशियार थी, मेरे
जाते ही किताबें लेकर आ जाती, चाचू मुझे पढ़ा दो, गणित के सवाल पूछती रहती, हालाकि
सब बच्चो की ट्यूशन लगी थी लेकिन उसे लगता कि जितने अच्छे तरीके से मेरे चाचू
समझाते हैं- उतने अच्छे तरीके से आचार्य जी नहीं पढ़ाते। गणित के जो भी सवाल वो
लाती मैं उसे समझा देता। सुधा भाभी कहती-“बेटा तुम्हारे चाचू पढ़ते हुए थक जाते हैं
तो तुम बच्चो के पास चले आते हैं और तुम इन्हें यहाँ भी तंग करते रहते हो इस तरह
तो ये आना ही छोड़ देंगे।“
तब मैं कहता –“नहीं भाभी, ऐसी बात नहीं है, मुझे बच्चो का पढाई में
इंटरेस्ट देखकर अच्छा लगता है। और बड़ी बिटिया तो बहुत पढेगी, आप देखना ये परिवार
का नाम रोशन करेगी।“
मैं कभी बच्चो के पढाई के नाम पर कुछ पूछने से परेशान नहीं होता
था, जब कभी गॉव से खाना नहीं आता तो सुधा भाभी के यहाँ चला जाता। बच्चे भी बिना
खाना खाए नहीं आने देते। सुधा भाभी में मुझे
भाभी माँ की छवि ही दिखती। वह आज भी उतनी ही भोली-भाली थी जितनी अपने जीवन के
दुर्दिन में थी। लेकिन अब गृहस्थी के पहिये पटरी पर दौड़ने लगे थे। मुझे इस बात से
ख़ुशी भी होती कि जिस भाभी माँ का मैं इतना सम्मान करता हूँ, अब भैया उन्हें तवज्जो
देने लगे हैं।
एक रोज पिताजी की तबियत ख़राब थी, गॉव से खाना नहीं आया था, शायद
माँ को कोई ऐसा व्यक्ति भी नहीं मिला जो शहर तक खाना पहुँचा सके। घर पर कोई भी
नहीं था। मेरा मन उदास था, वह सुधा भाभी के घर भी नहीं गया। लाइट्स बन्द कर अँधेरे
में लेटा हुआ था, मेन गेट इस तरह बन्द होता था कि कोई पहचान वाला आये तो खुद हाथ
डालकर गेट खोल ले। मैं लेटा हुआ विचारों में खोया हुआ था कि मेन गेट की आहट हुई,
यह विनय था। विनय ने अन्दर आकर लाइट्स जला दी, देखा मैं उदास लेटा हुआ हूँ। विनय
ने कहा-“भैया आज, यूँ उदास अँधेरे में?”
“अरे विनय, बस ऐसे ही मन नहीं लग रहा था तो लाइट्स ऑफ करके लेट गया।“
“खाना खाया आपने?”
“मन नहीं है।“
“अरे भैया मैं अभी लाया घर से खाना।”
मैंने बहुत मना किया, विनय नहीं माना। तकरीबन पौने घण्टें बाद विनय
वापिस आया। टिफिन खोलकर टेबल पर खाना लग चुका था। खाने में वैरायटी थी, टमाटर की
चटनी सब्जी, दाल, दही का रायता, छोटी-छोटी पतली रोटियाँ। सुदीप ने पूछा-“ किसने
बनाया खाना आंटी ने?”
“नहीं, मम्मी शाम का खाना नहीं बनाती, सारा खाना दीदी ने बनाया,
वैसे तो सब खाना खा चुके थे ये तो बस जल्दी जल्दी में बनाया।“
नीना ने खाना बना कर दिया, और इतना सब? और वो भी इतना जल्दी।– सोचकर
मन में कुछ अजीब ही विचार उठे। विनय ने पूछा- “खाना पसन्द नहीं आया सर?”
वह कभी मुझे भैया बोलता, कभी सर बोलता।
मैंने कहा- “खाना बड़ा ही लजीज बना है, जब सुबह घर जाओ तो मेरी तरफ
से नीना को धन्यवाद बोलना।“
मुझे आश्चर्य भी हुआ कि कैसे सुप्रिया दीदी की फ्रेंड को ऐसे नाम
लेकर बोला। शायद ये पिताजी की चौहान अंकल से बातचीत की वजह से हुआ। हालाकि विनय को
ये महसूस नहीं हुआ। मैंने बड़े मन से खाना खाया।
अगले दिन मन में नीना से मिलने की जिज्ञासा हुई, वो लोग शिवपुरी
में रहते थे। शिवपुरी रिक्शा या साईकिल से मात्र आठ-दस मिनट का रास्ता था। शाम के
वक़्त मैंने विनय से कहा- “चलो विनय तुम्हारे घर चलते हैं, तुम्हारी दीदी को कल के
खाने का थैंक्स भी बोल देंगे और घर भी देख लेंगे।“
“अरे सर, अभी चलो, बस साईकिल तैयार है।“- विनय ने कहा। दोनों
साईकिल से शिवपुरी पहुँचे, लेकिन मैंने महसूस किया कि नीना को ज्यादा उत्साह नहीं
हुआ उसके आने पर बड़ा ही फॉर्मल सा व्यवहार।
चाय के लिए पूछा तो मैंने मना कर दिया और विनय से बोला कि अगली गली में मेरा दोस्त
रहता है, मैं उससे मिलकर आता हूँ। दोस्त से मिलना तो मात्र एक बहाना था, नीना के
व्यवहार ने मुझे विचलित कर किया था। कल इतना सब बनाकर भिजवाया और आज इतना रुखा
व्यवहार। मेरे स्वाभिमान को ठेस तो लगी थी। मैं राजेन्द्र के घर पहुँचा। राजेन्द्र
ने चाय बनवाई और खाने को बोला। मैंने कहा-“यार मेरा खाना गॉव से आया हुआ रूम पर
रखा है, वो बेकार जायेगा।“
“क्यों बेकार जायेगा दोस्त, कल सन्डे है छुट्टी भी है, खाना खाकर
तेरे साथ तेरे रूम पर चलते हैं, रात भर बातें करेंगे। सुबह तेरा खाना नाश्ते में
चाय के साथ खायेंगे। “
“हाँ दोस्त ये भी सही है, जब से स्कूल छोड़कर कॉलेज में आये हैं
जैसे बातचीत का सिलसिला रुक सा गया है आज कोटा पूरा होगा।“
कुछ देर ही हुई होगी कि विनय आया और बोला कि रूम पर चले। मैंने मना
कर दिया कि आज तुम अपने घर पर ही रुको, बहुत दिनों के बाद दोस्त मिला है तो आज साथ
ही रहेंगे। विनय चला गया।
खाना बनकर तैयार हो चुका था। बड़ी स्वादिष्ट सब्जी थी। मैं खाता गया
लेकिन ये पता नहीं चला कि कौन सी सब्जी है? जब मुझसे रुका नहीं गया तो पूछ ही
लिया-“यार राजेन्द्र, ये सब्जी जो हम इतने चटकारे से खा रहे हैं, ये सब्जी है कौन
सी?”
“अरे यार ये अरवी के पत्ते हैं जिनके बेसन के साथ पकोड़े तलकर बनाया
जाता है।“
मुझे अरवी पसन्द नहीं थी लेकिन अरवी के पत्ते भी खाए जाते हैं- ये
उसे पहली बार पता चला। खाना खाकर दोनो दोस्त कमरे पर आ गए। रात भर बाते करते रहे।
अचानक मैंने पूछा- और सुना दोस्त, तेरी फज्जो के क्या हाल हैं?”
“फज्जो?”
“हाँ फज्जो।“
“आज तुझे फज्जो का नाम कहाँ से याद आ गया?”
“अब नाम है तो याद तो आएगा ही न, अब बता भी।“
“अरे बताना क्या? सब बीते ज़माने की बातें हैं।“
“बीते ज़माने की बात तो तू ऐसे कह रहा है जैसे हम बुड्ढे हो गये हो।“
“अरे यार, मेरा मतलब था तब तो आठवी-दसवी में पढ़ते थे, अब तो उसकी
शादी भी हो चुकी, इनमें शादी जल्दी ही कर देते हैं।“
“ओह, मेरे यार का दिल तोड़ कर चली गयी।“
“मेरी छोड़ तू अपनी सुना? उस अक्षरा का क्या हुआ? और वो जो मेरी
पिछली गली में जिससे मिलने आया था उसका क्या चक्कर है?”-राजेन्द्र ने कहा।
अब मैं हँसते-हँसते सीरियस हो गया बोला- “बताता हूँ यार, तुझे नहीं
बताऊँगा तो किसे बताऊँगा?”-कहकर मैंने संक्षेप में सारी बात अपने जिगरी यार को
बताई।
सुनकर राजेन्द्र को भी झटका लगा। नीना के मन की बात जानने का मेरे
पास कोई साधन नहीं था। फूल के निशान होना कोई दोष नहीं ये मुझे लगता था, कहीं नीना
अपने शरीर के निशान की वजह से तो ऐसा नहीं कर रही थी। ये बात मैं विनय से भी तो
नहीं पूछ सकता था।
अभी इन बातों से उभरा भी नहीं था कि विनय ने एक डायरी मेरी मेज पर
रख छोड़ी और उस पर एक कागज का टुकड़ा मेरे नाम लिखकर रख दिया ताकि मेरी निगाह उस पर
पड़े और मैं उसे पढूँ। पहले कागज का टुकड़ा पढ़ा, लिखा था- “डिअर सर, आपने मुझे कई
बार समझाया कि मैं इतना क्यों बिगड़ रहा हूँ, क्यों मैं पढाई नहीं करता, आप मुझे
गणित, भौतिकी दोनों विषय पढ़ाते हैं फिर भी मैं नहीं पढता, मैं आपके लिए एक डायरी
छोड़कर जा रहा हूँ। आप इसका हर पेज पढेंगे तो सब समझ जाओगे। कुछ गलत लिखा हो तो
मुझे माफ़ कर देना, आप मुझे पढ़ाते हैं तो गुरु ही हुए इसलिए सामने बैठकर नहीं कह
सकता था। मैंने डायरी उठाई और पन्ना-दर-पन्ना पढता गया। डायरी पढने के बाद ये समझ
आया कि किसी लड़की से प्यार के बाद उसने विनय को धोखा दिया और उसके ही किसी दोस्त
से इश्क फरमाने लगी, जिसके चलते कई बार झगडा और मार पिटाई भी हुई। मैं भी इस मसले
पर अब विनय से सीधे बात नहीं करना चाहता था मैंने उसी डायरी के आगे के पन्नो पर
जबाब लिख दिया, जिसमे बताया कि प्यार करना कोई गुनाह नहीं, प्यार तो कभी भी किसी
से भी किसी भी उम्र में हो सकता है, अपने से छोटे या फिर बड़े से भी हो सकता है,
जिसमे मैंने प्लेटोनिक लव का भी जिक्र किया लेकिन आगाह भी किया कि अभी तुम्हारी उम्र
इन सबके लिए नहीं है, तुम्हें अपनी पढाई पर ध्यान देना चाहिए कुछ बनना चाहिए। उसके
बाद जो चाहो हासिल कर लेना, अगर तुम्हें वही लड़की चाहिए जिससे तुम्हें प्यार है और
तुम उसके भाई से इस चक्कर में पिट भी चुके हो तो भी हम तुम्हारे कुछ बनने के बाद
उससे तुम्हारी शादी करवाने का दम रखते हैं। मैंने डायरी लिखकर उसी तरह रख दी जैसे
उठाई थी।
डायरी का पता नहीं क्या रिएक्शन हुआ कि एक दिन विनय आया और अपनी सब
किताबें समेटने लगा, मैंने पूछा क्या-“हुआ कहाँ जा रहे हो सब कुछ भरकर?”
विनय बोला- “दीदी ने कहा है कि तुम उस आवारा लड़के के पास एक पल भी
नहीं रहोगे।“
“किस आवारा लड़के के पास? मतलब क्या है तुम्हारा?”
“सर, डायरी में जो जवाब आपने लिखा था शायद दीदी ने वो सब पढ़ लिया
है और अब दीदी को ये लगता है कि आप अच्छे लड्के नही हो, अगर मैं आपके पास रहा तो
और बिगड़ जाऊँगा।“
“और तुम्हें क्या लगता है?’
“मेरे लगने से क्या होता है? मुझे मेरे घर में समझता ही कौन है? दीदी
ने पापा को भी भड़का दिया है। मुझे तो डर है कि पापा आपको कॉलेज में ही न कुछ बोल
दें?”
“कौन क्या बोलेगा वो सब छोडो, मैं खुद देख लूँगा, लेकिन नीना ने
मुझे कितना गलत समझा, इसका मुझे अफ़सोस रहेगा। “
विनय जा चुका था। मैं उस रात भी नहीं सो पाया था।
क्रमशः
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